पत्नी स्त्रियों की
बीमारी से ग्रसित आज शल्य चिकित्सा के तहत अस्पताल में भरती कर ली गई. सुबह ६.३०
बजे से बुला लिया था चिकित्सक महोदय ने. कागजी कार्यवाही एवं अन्य आवश्यक
खानापूर्ति करते ८ बज गये और शल्य चिकित्सा प्रारंभ हुई. पूरे दो घंटे चली.
हम बाहर बैठे रहे और वहीं
अस्पताल की लायब्रेरी से उठाकर फिलिस्तीन की क्रान्ति पर लिखी एक किताब का अध्ययन
करते रहे. घर से ही थर्मोकप में ले जायी गई चाय के गरमागरम चुस्कियों के साथ.
बरसों चली इस क्रांति का सार दो घंटों में निपटाकर संतुष्टी को प्राप्त हुए-क्या
फरक पड़ता है जब बरतन दूसरे घर के फूटे. बल्कि मजा ही आता है और च च च!! जैसा अफसोस
भी पूरे सुर ताल में रहता है. लगता है कि आपसे ज्यादा कोई दुखी नहीं..भले ही वो इस
क्रान्ति में अपना सर्वस्व लुटा बैठा हो.
डॉक्टर ऑपरेशन करके बाहर आ
चुका है. मुझसे बात कर ली है. पत्नी की हालत सामान्य है. एनेस्थिसिया का असर है,
अतः होश नहीं है और शायद अगले ४ घंटे लगें जब
होश आ पाये. हद है, जिसे होश नहीं है,
उसकी हालत सामान्य?? भारत की जनता याद आई, मन मान गया. डॉक्टर में अंध विश्वास जागा मात्र इसलिए कि
अविश्वास से कोई फायदा नहीं. वो डॉक्टर ही रहेगा और मैं बीमार या बीमार का परीजन..मसीहा
कितने वेष धरता है आज जाना. पुनः मेरा भारतीय होना काम आया. मैं निश्चिंत हो गया.
स्थिती से तुरंत समझौता कर लिया. हमारा मसीहा भी तो ऐसे ही बरताव वाला है.
अगले ३ से ४ घंटे फिर
इन्तजार करना था, जब वो कुछ होश
में आये और उसे कमरे में स्थानान्तरित किया जाये. मैं अपने लिए एक कॉफी खरीद लेता
हूँ-एकदम ब्लैक कॉफी. मूँह मे कड़वहाट भर दे मगर अंतरआत्मा को जगा कर रख दे. सब ऐसे
ही जागे हैं मेरे देश में..कितने ही हैं जो मूँह में कड़वाहट भरे पूर्ण जागृत
अवस्था का नाटक रचे घूम रहे हैं. मैं भी उनमें से एक हो गया तो क्या?? कौन नोटिस करेगा-और कर भी लेगा तो मेरा क्या हो
जाने वाला है, जब लगभग एक सौ बीस
करोड़ का कुछ नहीं हुआ.
खैर, अब चार घंटे काटने के लिए मैने फिर अस्पताल की
लायब्रेरी में किताब तलाशी. मेरे पास समय इतना कि लगभग दुगना. शल्य चिकित्सा,
मुख्य भाग, में दो घंटे लगे..और रिकवरी में ४ घंटे लगने थे.आप समझ रहे
होंगे क्यूँकि सामान्यतः यही होता है हमेशा!!! रिकवरी प्रोसेस हमेशा अपना समय लेती
है, पूर्ववत स्थिती में आने
को..पूर्ववत स्थिती की अहमियत का अहसास दिलाने.
क्या सही, क्या गलत!!! किस किस को रोईये..रो ही लेंगे तो
खुद ही अपने आंसू पोछिये... छोडिये सब..बस, पत्नी की तबीयत देखिये, वो ही अपनी है..उसी से फरक पड़ता है, बाकि तो बस टाईम पास...चाहे प्रलय आ जाये..किसे बचाने
भागियेगा... सोचो कुछई..भागोगे बीबी को बचाने ही न!!
खैर, वो कमरे में आ गई है. वेस्ट विंग का कमरा नं.
४००९. आलीशान कमरा..समृद्ध देश का समृद्ध अस्पताल...और मरीजों के लिए पेश किया
खाना..मानो कोई अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन अटेंड कर रहे हों. मरीज के साथ वालों के
लिए हाई फाई स्नैक, ज्यूस..और न जाने
का क्या क्या विथ डिजर्ट.
उपरी मंजिल पर कमरा.
अस्पताल जो एक बहुत विशाल प्रांगण में बना हुआ है..उत्तर में दो मील तक सिर्फ घास
का करीने से कटा मैदान..दक्षिण में भी दो न सही डेढ़ मील का तो कम से कम...कमरे से
खिडकी से दिखता दक्षिणी छोर...बीच मैदान में एक हैलीपैड..हैलीकाफ्टर से लाये गये
मरीजों के लिये-लोहे की जाली से घिरा अहातानुमा... कुछ दूर पर इलेक्ट्रीक रुम और
एक अन्य कोने में लगा प्रोपेन टैंक..अस्पताल की गैस सप्लाई के लिए... मैदान के
दोनों ओर सड़क.
देखता हूँ सामने वाली सड़क
से एक कन्या को मैदान में आते. सोचने लगता हूँ इतनी लम्बी दूरी और पैदल..दूसरी तरफ
भी याने उत्तर में दो मील और, तब अगली सड़क पर
पहूँचेगी. मैं सोच ही रहा हूँ और वो चलते चलते हैलीपैड का मुआयना करती, हेलिकाफ्टर को निहारती (सोचता हूँ मैं अकेला
नहीं हूँ जो हेलिकाफ्टर और हवाई जहाज देखकर आनन्दित हो उठता है), इलेक्ट्रीक हाउस को पार कर, प्रोपेन सिलेंडर से किनारा कर गुम हो गई उत्तर
मे..जल्द ही सड़क पा लेगी जो उसकी रफ्तार दिखी. मैं बस सोच ही रहा हूँ तभी उल्टी
दिशा में जाता आदमी भी दिख गया..और जल्द ही दक्षिणी सड़क पर पहूँच भी गया. शायद
पहला कदम जरुरी रहा होगा और फिर सब फासला तय हो गया.
मैं आल्स्यवश बैठा
अस्पताल में, बस सोच रहा हूँ कि कैसे
चल लेते हैं यह इतना.
एक स्वास्थ्य के प्रति
जागरुक श्रेणी के लोग और एक हम आलसी..बस, सोच की दुनिया में जीते.
शायद यही कारण होगा कि वो
दक्षिणी छोर से घुसी और उत्तरी छोर से निकल गई..आस्पताल को पार करती हुई-अस्पताल
में रुकने की कोई जरुरत नहीं और हम अस्पताल में बैठे हैं बीमार या बीमार के साथ.
जल्दी कुछ इस तरीके का टहलना न शुरु किया तो यहीं लेटे नजर आयेंगे.
कितना अंतर है किसी कथा
को लिख देने में और उसे जीने में. टहलना एक आलसी के लिए मनभावन बात नहीं है अतः
सरल साहित्य के तहत राही मासूम रज़ा की किताब ’टोपी शुक्ला’ पढ़ने लगता हूँ. कुछ
आनन्द का अनुभव होता है टोपी की बातें सुन "तुम मुसलमान हो क्या इफ्फन?-
हाँ- और तुम्हारे अब्बू, क्या वो भी मुसलमान हैं?? :))..
बालमन, नादान गहरी बातें और हम सोच की उथली सतह पर ही
टहल रहे हैं.
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक
सुबह सवेरे के रविवार अप्रेल 16, 2023 के अंक में:
https://epaper.subahsavere.news/clip/3104
#Jugalbandi
#जुगलबंदी
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#हिन्दी_ब्लॉगिंग
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5 टिप्पणियां:
बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर आया हूं । भूले भटके । सोशल मीडिया के मंच फेसबुक इत्यादि ने ब्लॉग को भी हम लोगों से छीन लिया है ।
बहुत सुंदर लेखनी, हमेशा की तरह।
सही कहा आपने सर हम सोच की उथली सतह पल ही टहल रहे..विचारणीय लेख।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २१ अप्रैल २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
हद है, जिसे होश नहीं है, उसकी हालत सामान्य??
बीमार , बीमारी, हॉस्पिटल कहीं भी आपका चिंतन चलता ही रहता है फिर आप तो सोच की उथली सतह पर नहीं हो सकते ।
चिंतनपरक लेख ।
फेसबुक पर इस लेख को पढ़ चुकी थी ।यहाँ पुनः पढा । उतना ही आनंद आया ।
अब जनसंख्या 140 करोड़ पर कर चुकी । कड़वाहट मुँह में भरे क्या जागृत अवस्था में जनसंख्या के विकास पर ही बल देते हैं ?
महज़ एक उत्सुकता है ।
विचारणीय लेख
श्रीमती लाल अब पूर्णतः स्वस्थ होंगी ।
....विचारणीय लेख।
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