यॉर्क यू के की यात्रा के दौरान ऐतिहासिक नगरी एडनबर्ग, स्कॉटलैंड जाने का मन हो आया. जब बेटे से इच्छा जाहिर की तो सबसे
पहले यह बताया गया कि इस शहर को लिखते एडनबर्ग हैं मगर कहते एडनबरा
है. मान गये और सीख लिया एडनबरा बोलना, ठीक
वैसे ही जैसे बचपन से स्कूल में मास्साब सिखाते रहे कि कनाडा की राजधानी ओटावा और
कनाडा पहुँच कर पता चला कि उसे ऑटवा बुलाते
हैं. अच्छा है कि हमारा नाम लिखते भी समीर लाल हैं और बुलाते भी समीर लाल है, नहीं तो एक समझाईश का काम और सर पर आ टपकता. बताया गया कि एडनबरा यॉर्क
से ४ घंटे दूर है.
दंग हूँ इस नये फैशन पर जिसमें दूरियाँ घंटों में नापी जाने लगी हैं.
कोई आश्चर्य की न होगा अगर अपने इसी जीवन में कभी सुन जाऊँ कि जबलपुर से भोपाल १ लीटर
दूर है (उतनी देर में एक बोतल व्हिस्की लीटर भर की तो निपट ही सकती है) या भोपाल
से इन्दौर की दूरी ८ माणिकचन्द पाउच है. पूरा अमेरीका, कनाडा
आज घंटो में दूरियाँ बताते नहीं थक रहा. टोरंटो से मान्ट्रियाल ५.३० घंटे की
ड्राईव, टोरंटो से आटवा ४ घंटे की ड्राईव, वेन्कूअर ५ घंटे की फ्लाईट. हद है भई, सोचो
जरा, ट्रेफिक मिल जाये, गाड़ी खराब हो जाये- तब?
जरा हमारे जबलपुर में कह कर तो देखो कि जबलपुर से कटनी १ घंटे की
ड्राईव है..तो लोग हंसते हंसते पागल हो जायेंगे..और बतायेंगे आपको पागल.अरे एक
घंटे तो ड्राईवर को चाय पान पी कर चलने की तैयारी के लिए लग जाये आखिर बाहर गाँव
जाना है, कोई मजाक तो नहीं है. फिर पेट्रोल
डलाना...गाड़ी पे कपड़ा मारना..सारा काम निपटाते, गढ्ढे
कुदाते, साईकिल और गाय बचाते, रिक्शे से टकराते जबलपुर शहर भी अगर दो घंटे में पार कर लें तो
उपलब्धि ही जानिये. जबलपुर से भोपाल मात्र ३१२ किमी और आज तक मैं कभी भी ड्राईव
करके ९ घंटे से कम में नहीं पहुँच पाया और वो भी इतना थका हुआ कि अगले ८ घंटे जब
तक सो न लूँ, किसी से एक लाईन बात कर सकने की हालत
में नहीं आ सकता.
समयकाल, जगह, गाड़ी की रफ्तार, भीड़, सड़कों की हालत, ट्रेफिक..इन सब
को परे रखते हुए इतने विश्वास के साथ ये लोग २ घंटे/४ घंटे बोलते हैं कि दाँतो तले
ऊँगली दबा लेने को जी चाहता है. ये निराले, इनके
काम निराले, इनके व्यक्तव्य निराले. ये सरकार की तरह हैं, बोल दिया बस्स!!
उस पर अगर हमारे जैसे भारतीय रथ यात्रा पर निकले हों तो क्या कहने. हर थोड़ी दूर पर कभी नदी के किनारे, कभी स्कॉटलैण्ड आपका स्वागत करता है, के बोर्ड से सट कर, फिर उसकी तरफ ऊँगली से इशारा करते हुए, फिर पत्नी के साथ वही दोनों पोज़, फिर पत्नी का अकेले में उसमें से एक पोज़, कभी पीले सरसों के खेत के सामने कि यहीं डीडीएलजे की शूटिंग की होगी तो कभी किन्हीं गोरों को कहीं फोटो खिंचवाता देखकर कि जरुर कोई इम्पोर्टेन्ट जगह होगी, चूक न जाये, तो खुद भी खड़े हो कर फोटो खिंचवाते ऐसे चलेंगे जैसे एक एक फोटो भारत जाकर मित्रों को चमकाने के लिए खिंचवा रहे हों. माना कि भारतीय होने के कारण रेस्त्रां जाकर खाने का समय बचा लोगे और घर से लाई पूड़ी और आलू की सब्जी पूंगी बना बना कर कार चलाते हुए ही खा लोगे मगर कितना? गारंटी से ४ घंटे की बताई यात्रा को ७ घंटे की यात्रा तो मान ही लो.
वैसे भी जल्दी किस बात की है...कल के काम के लिए आज निकल पड़ना तो
बचपन से करते आये हैं, भले ही ट्रेन से
जाना हो. क्या पता कल लेट हो जाये तब..और यूँ भी आज यहाँ खाली ही तो हैं, निकल पड़ो. भारतीय रेल का रिकार्ड तो ज्ञात है ही.
आश्चर्य में मत पड़ना यदि कभी कोई आपको मेरा वज़न लीटर में बताये या
कहे कि फलानी जगह तक पहुँचने में ४ दर्जन पेट्रोल लगेगा. भारत में दो नम्बरी बाजार
में तो रुपयों के मानक को बदलते आप देख ही चुके हैं- १००० रुपये याने १ गाँधी, १ लाख रुपये याने एक पेटी और १ करोड़ याने १ खोखा. खाली लिफाफा याने
एक साहेब 😊
हाँ, इसके चलते मन
मान गया मगर यात्रा में एक और बात कौंधी कि हम भारतीय जब देश के बाहर हो तो एक बात
के लिए यह खासियत और दिखा जाते हैं कि जब किसी दूसरे देश के शहर में जायेंगे, तो खाने के लिए सबसे पहले भारतीय रेस्त्रां तलाशने लगते हैं. भले ही
भारत में इटालियन पिज़्ज़ा, बर्गर, चाईनीज़, ग्रीक खाने के
पीछे भागें और मित्रों के बीच अपना स्टेन्डर्ड जमाये जायें मगर देश के बाहर निकलते
ही भारतीय रेस्त्रां की तलाश शुरु. सो हमने भी एडनबरा में खोज लिया ’ताजमहल
रेस्त्रां’. आर्डर में पीली दाल तड़का और नानवेज में कड़ाही चिकन का ऑर्डर कर दिया
वरना काहे के भारतीय... भारतीय खाना खाकर लौट आये गेस्ट हाऊस.
सुबह ११ बजे चैक आऊट करके वापस यॉर्क के लिए जिस दिन निकलना था तो
चूँकि ब्रेकफास्ट कमरे के किराये में शामिल था, इसलिये
पहले दिन की ही तरह इतना सारा खा लिया कि लंच की जरुरत ही न पड़े और चले आये यॉर्क
तक मुस्कराते बिना भूख लगे. भारतीय होना काम ही आता है आड़े वक्त पर वरना रास्ते
में कहाँ खोजते भारतीय रेस्त्रां और मिल भी जाता तो बेवजह खरचा तो था ही.
घर से बहुत दूर जब
भी निकल जाता हूँ मैं...
पता नहीं क्यूँ इतना
सारा बदल जाता हूँ मैं..
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार फरवरी 13, 2022 के अंक में:
http://epaper.subahsavere.news/c/66201911
9 टिप्पणियां:
समीर जी , सचाई को उकेरता बहुत सुन्दर व्यंग्य ,पढ़कर मज़ा आ गया |
-आशा बर्मन
बहुत बढ़िया!
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १८ फरवरी २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
व्वाहहहहहह..
लीटर,मीटर और हीटर
अनूठी परिभाषाएं
सादर...
वाह, क्या बात है!खूब मज़ेदार लिखतेहैं आप .
मास्साब जो पढ़ते थे वो हमने भी वैसा ही पढ़ा था । बाकी यदि एक लीटर की दूरी तक तो ठीक लेकिन इससे ज्यादा दूरी हुई तो मंज़िल नहीं कहीं और ही पहुँच जाएँगे। भारतीयों की आदत पर अच्छा तंज़ है । वैसे अब सड़कों की हालत इतनी खराब तो नहीं रही हाँ पान बीड़ी का इंतज़ाम कर ही ड्राइवर गाड़ी आगे बढ़ाता है ।
लाजवाब व्यंग्य ।
पढ़ाते *
भारतीय यात्रा विधानो की छोटी छोटी बात का सुंदर विश्लेषण । सटीक व्यंगात्मक आलेख ।
वाह!!!
दूरी लीटर में!! क्यों न हो जब लीटर भर पीते पीते पहुँच जाय...
बहुत खछब मजेदार।
एक टिप्पणी भेजें