कल रात ठीक से सो नहीं पाए और
सुबह चल दिये हमेशा की तरह ट्रेन से ऑफिस के
लिए.
थोड़ी देर किताब पढ़ते रहे और न जाने कब नींद का झोंका आया और हम सो
गये. पूर्व से पश्चिम तक १०० किमी में फैले इस रेल्वे ट्रैक पर मेरे ऑफिस टोरंटो
डाउन टाउन के लिए पूर्व से पश्चिम की ओर ५० किमी ट्रेन से जाना होता है. दूसरी तरफ
फिर ५० किमी पश्चिम की तरफ ओकविल और हेमिल्टन शहर है. मगर मेरी ट्रेन डाऊन टाऊन
पहुँच कर समाप्त हो जाती है. आगे नहीं जाती सवारी लेकर.
एकाएक नींद खुली, तो देखा ट्रेन
में कोई नहीं है. मैं ट्रेन की पहली मंजिल से उतर कर जल्दी से नीचे आता हूँ, वहाँ भी कोई नहीं. खिड़की के कांच से बाहर झांक कर देखता हूँ. कहीं
जंगल जैसा इलाका है जिसमें ट्रेन खड़ी है. मैं दूसरी तरफ की खिड़की से झांक कर देखता
हूँ. एक नहर बह रही है और कुछ नहीं. दरवाजे बंद हैं और मै एक अकेला पूरी ट्रेन
में. घड़ी पर नजर डालता हूँ तो ८ बज रहे हैं जबकि मेरा स्टेशन तो ७.१५ पर आ गया
होगा. बाप रे!! कितनी देर सो गया और किसी ने उतरते वक्त जगाया भी नहीं. मैं थोड़ा
सा घबरा जाता हूँ. क्या पता, अब कब वापस
जायेगी और पहले तो यही नहीं पता कि हूँ कहाँ?
मन में विचार आया कि अगर शाम को वापस लौटी तब? तब तक मैं बंद पड़ा रहूँगा यहाँ. फिर अगला विचार कि भूख लगी तब? याद आया कि लंच तो साथ है ही. ब्रेकफास्ट भी नहीं किया था कि ऑफिस चल
कर खा लेंगे. हाँ, एक केला और
ज्यूस भी है. मैं कुर्सी पर फिर बैठ जाता हूँ. भारतीय हूँ,
कैसी भी स्थितियों से फट समझौता कर लेता हूँ. मैं बैग में से केला
निकाल कर खाने लगा.
इस दौरान विचार करता रहा कि क्या करना चाहिये. एक बार विचार आया कि
आपातकाल वाली खिड़की फोड़ कर बाहर निकल जाऊँ मगर फिर सोचा कि जाऊँगा कहाँ? ट्रेक के दोनों बाजू तो तार की ऊँची रेल लगी है. इस शरीर के साथ तो
कम से कम उस पर चढ़कर पार नहीं जाया जा सकता है. हाँ शायद चार छः दिन बंद रह जायें तो
शरीर उस काबिल ढ़ल जाये मगर तब ताकत नहीं रहेगी कि चढ़ पायें, अतः यह विचार खारिज कर केला खाने लगा.
सेल फोन भी साथ है मगर फोन किसे करुँ और क्या बताऊँ कि कहाँ हूँ? सोचा, अगर लम्बा फंस
गये तो घर फोन कर बता देंगे. अभी तो बीबी सोई होगी, खाम
खां परेशान होगी. उसके हिसाब से तो शाम ५ बजे तक कोई बात नहीं है, ऑफिस में होंगे. कोई मीटिंग चल रही होगी, इसलिए
दिन में फोन नहीं किए होंगे.
खाते खाते केला भी खत्म. मगर हम अब भी बंद. कुछ समझ नहीं आया तो बाजू
के कोच में भी टहल आया. हर तरफ भूत नाच रहे थे याने कोई नहीं. रेल्वे वालों पर
गुस्सा भी आया कि यार्ड में खड़ा करने से पहले चैक क्यूँ नहीं करते. अगर कोई बेहोश
हो जाये तो?? पड़ा रहे इनकी बला से.
बस, ऐसा विचार आते ही गुस्सा आने लगा. गुस्सा शांत करने के लिए ज्यूस निकाल कर पीने लगा. विचार तो चालू हैं कि क्या करुँ? बेवकूफी ऐसी कि तीन पेट भरने के सामानों में से केला खा चुके, ज्यूस पीने लग गये और खाना रखा है मगर सोचो यदि एक दो दिन बंद रहना पड़ जाये कि ट्रेन आऊट ऑफ सर्विस हो गई है तब?? मुसीबत के समय के लिए कुछ तो बचा कर रखना चाहिये. मगर क्या करें इतनी दूर की सोच कहाँ? यह विचार आते ही, आधा पिया ज्यूस वापस बंद कर बैग में रख लिया.
बाथरुम में जाकर पानी चला कर भी देख लिया कि आ रहा है. वक्त मुसीबत
पीने के भी काम आ जायेगा, यह सोच संतोष
प्राप्त किया.
एकाएक ख्याल आया कि एमरजेन्सी बेल बजा कर देखता हूँ. शायद कहीं मेन
से कनेक्ट हो. कोई सुन ले. बस, पीली पट्टी दबा
दी. कोई जबाब नहीं. दो मिनट चुप खड़े रहे जबाब के इन्तजार में. फिर खिसियाहट में
दबाई और वाह!! एकाएक एनाउन्समेन्ट हुआ कि डब्बा नं. २६२६ में कोई है, चैक किया जाये. जान में जान आई. ५ मिनट में ही अटेन्डेन्ट आ गया.
कहने लगा आप यहाँ कैसे? मैने कहा कि भई
सो गया था, अब मैं कहाँ हूँ? उसने बताया कि अभी आप पश्चिम में टोरंटो से ४५ किमी दूर ओकविल के
बाहर हैं.
मैने उससे कहा कि आपको मुझे जगाना चाहिये था,
अब मुझे वापस पहुँचाईये टोरंटो. मैं नहीं जानता कि कैसे पहुँचाओगे
मगर यह तुम्हारी जिम्मेदारी है. वो मुस्कराता रहा. शायद मेरे मन में इतनी देर का
भय गुस्सा बन कर निकल रहा है, वह समझ गया था.
मैं चिल्लाता गया, वो मुस्कराते
हुए सुनता रहा. फिर कहा कि आप बैठ जाईये और हम दस मिनट बाद यहाँ से रवाना होंगे और
दो स्टेशनों के स्टॉप के बाद टोरंटो डायरेक्ट जायेंगे. आपको वापस टिकिट खरीदने की
भी जरुरत नहीं है, मैं टीसी से कह
दूँगा. मेरी जान में जान आई और वो चला गया. दस मिनट बाद ट्रेन रवाना हुई और एक
स्टेशन ’क्लार्कसन’ पर आकर रुकी. लोग चढ़ते हुए मुझे पहले से बैठा देख अजूबे की तरह
से देख रहे थे कि ये पहले से यहाँ कैसे?
इतने में वो अटेन्डेन्ट भी आ गया. उसके हाथ मे दो कप कॉफी थी. एक
उसके लिए और एक मेरे लिए तथा वो रेल्वे की तरफ से मुझसे मुझे हुई परेशानी के लिए
माफी मांग रहा था. मैं तो मानो शरम से गड़ गया. फिर टोरंटो भी आ गया और मैं उसे
धन्यवाद दे अपने ऑफिस आ गया.
सोचता हूँ कि इसी तरह सोते सोते मेरे देशवासी भी कहाँ से कहाँ तक चले
आये हैं और अब कोई रास्ता ही नहीं सूझता है कि करें क्या?
तो सब विधाता के हाथ छोड़ बैठे केला खा रहे हैं बिना कल की चिन्ता
किये. जिस दिशा की हवा चल जायेगी, जहाँ लहर बहा कर
ले जायेगी, चले जायेंगे. अभी तो केला खाओ!!
लगता है मित्रों, अब समय आ गया है
कि हम जागें और पीला अलार्म बजायें. उनको सुनना ही होगा हमारी तकलीफें और देना ही
होगा हमें कुछ निदान हमारी समस्याओं का. हमें ही हवाओं को और लहरों कों अपनी मंजिल
की दिशा में मोड़ना होगा. अपने अधिकार की मांग करनी होगी. ठीक है आज तक हम सोते रहे, गल्ती हमारी है मगर उन्होंने भी तो हमें जगाया नहीं. बल्कि हमारी
नींद की आड़ में अपना उल्लू सीधा करते रहे. कैसे नहीं सुनेंगे हमारी क्योंकि हम अब
जाग गये हैं.
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार दिसम्बर 5, 2021 के अंक में:
http://epaper.subahsavere.news/c/64759064
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7 टिप्पणियां:
Excellent imagination of a difficult situation, and beautifully articulated. As great as ever....
aapne kya khoob kaha good achha sansmaran train me ab mat soiyega
aapke blog par follower ka obtion nahi hai kya
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (09-02-2022) को चर्चा मंच "यह है स्वर्णिम देश हमारा" (चर्चा अंक-4336) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह! बहुत ख़ूब! उठ जाग मुसाफ़िर भोर भयी अब रैन कहाँ जो सोवत है, वाक़ई अब जागने का वक्त आ गया
अब समय आ गया है कि हम जागें और पीला अलार्म बजायें. उनको सुनना ही होगा हमारी तकलीफें और देना ही होगा हमें कुछ निदान हमारी समस्याओं का. हमें ही हवाओं को और लहरों कों अपनी मंजिल की दिशा में मोड़ना होगा. अपने अधिकार की मांग करनी होगी.
बिल्कुल सही कहा आपने की अब हमें ही हमारे अधिकारों कब लिए लड़ना होगा।
अरे वाह , आनंद दायक अनुभव हमारे लिए !
मजा आ गया ! आगे भी बताते रहना ऎसी बातें ...!
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