बहुत दिनों से परेशान था कि आखिर अपना नया उपन्यास किस विषय पर लिखूँ
और उसको कौन सा फड़फड़ाता हुआ शीर्षक दूँ.
उपन्यास लिखने वाले दो तरह के होते हैं, एक तो वो जो
विषय का चुनाव कर के पूरा उपन्यास लिख मारते हैं और फिर उसे शीर्षक देते हैं और
दूसरे वो जो पहले शीर्षक चुन लेते हैं और फिर उस शीर्षक के इर्द गिर्द कहानी और
विषय बुनते हुए उपन्यास लिख लेते हैं.
लुगदी साहित्य, वो उपन्यास जो आप बस एवं रेल्वे स्टेशन
पर धड्ड़ले से बिकता दिखते है, से जुड़े उपन्यासकार अक्सर ऐसा फड़कता
हुआ शीर्षक पहले चुनते हैं जो बस और रेल में बैठे यात्री को दूर से ही आकर्षित कर
ले और वो बिना उस उपन्यास को पलटाये उसे खरीद कर अपनी यात्रा का समय उसे पढ़ते हुए
इत्मेनान से काट ले.
इन उपन्यासों की उम्र भी बस उस यात्रा तक ही सीमित रहती है, कोई
उन्हें अपनी लायब्रेरी का हिस्सा नहीं बनाता. न तो उनका नया संस्करण आता है और न
ही वो दोबारा बाजार में बिकने आती हैं. मेरठ में बैठा प्रकाशक नित ऐसा नया उपन्यास
बाजार में उतारता हैं. इनके शीर्षक की बानगी देखिये – विधवा का सुहाग, मुजरिम
हसीना, किराये की कोख, साधु और शैतान, पटरी पर रोमांस,
रैनसम
में जाली नोट.. आदि..उद्देश्य होता है मात्र रोमांच और कौतुक पैदा करना..
दूसरी ओर ऐसे उपन्यासकार हैं जिन्हें जितनी बार भी पढ़ो, हर
बार एक नया मायने, एक नई सीख...पूरा विषय पूर्णतः गंभीर...समझने योग्य.पीढी दर पीढी पढ़े
जा रहे हैं. शीर्षक उतना महत्वपूर्ण नहीं जितनी की विषयवस्तु. ये आपकी लायब्रेरी
का हिस्सा बनते हैं. आजीवन आपके साथ चलते हैं. प्रेमचन्द कब पुराने हुए भला और हर
लायब्रेरी का हिस्सा बने रहे हैं और बने रहेंगे..शीर्षक देखो तो एकदम नीरस...गबन,
गोदान,
निर्मला...भला
ये शीर्षक किसे आकर्षित करते...मगर किसी भी नये उपन्यास से ऊपर आज भी अपनी महत्ता
बनाये हैं..
हम जैसे लोधड़ और नौसीखिया उपन्यासकार, अगर उपन्यासकार
कहे जा सकें तो, इन दोनों श्रेणियों के बीच हमेशा टहलते रहते हैं कि कहीं से भी किसी
भी तरह दाल गल जाये और एक उपन्यास निकल जाये.
हालांकि ऐसा नहीं है कि पहले उपन्यास लिखा नहीं..एक लिखा है मगर हाय
रे किस्मत, वो बिना नया उपन्यास आये ही पुराना हो चला है. अब उसका कोई जिक्र भी
नहीं करता. ५ साल भी तो गुजर गये उसको आये और आकर भुलाये. कौन पाँच साल पुरानी बात
याद रखता है भला. वरना तो पिछले चुनाव में किये वादे नेताओं को कभी अगला चुनाव
जीतने न देते.
इसी विषय और/ या शीर्षक की तलाश में जब हम भटक रहे थे कि तभी किसी बंदे
ने कहा- अमां, नये जमाने का नया रोग की आजकल
बाजर मे बड़ी चर्चा है, घर घर लोग परेशान है – कौन
है जो उससे अछूता है. हाहाकार मचा हुआ है. उस पर ही कुछ लिख डालो. नये लेखकों की
चुटकी लेने वालों की कमी कभी नहीं होती, भले ही पाठकों का आभाव बना रहे.
सुझावदाता ने तो शायद चुटकी ली होगी मगर हम न जाने किस गुमान में उसे
अपना प्रशंसक माने गंभीरता से इस विषय पर पिछले तीन चार दिन से विचार में डूबे हुये
संजिदा से दिखने लगे हैं और तरह तरह के पिछले कई महीनों से चल रहे विचार जैसे कि
नये नोट, पुराने नोट, काला धन, चुनाव, तिजोरी,
तहखाना,
व्यापारिक
मित्रता, काला धन, कुटिलता, टैक्स चोरी, भ्रष्टाचार..आदि को खारिज करते हुए.. आज
इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि चलो, एक फड़कता हुआ शीर्षक तो मिल ही गया..अब
कहानी बुनेंगे..
और नए जमाने के सबसे जटील नए रोग
पर विचार कर जो शीर्षक दिमाग में आया है वो है..
’सफेद दाढ़ी वाला फकीर’
-अब इसके आसपास कहानी बुनना है..आप बतायें अगर शीर्षक उस बंदे के
सुझाव से मेल न खा रहा न तो!!
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार मई 30, 2021 के
अंक में:
http://epaper.subahsavere.news/c/60802130
ब्लॉग पर पढ़ें:
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4 टिप्पणियां:
आपके साइड किक्स बहुत बढ़िया होते हैं...!
मसलन यह
"कौन पाँच साल पुरानी बात याद रखता है भला. वरना तो पिछले चुनाव में किये वादे नेताओं को कभी अगला चुनाव जीतने न देते."
बढ़िया प्रस्तुति..!
जय मां हाटेशवरी.......
आपने लिखा....
हमने पढ़ा......
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें.....
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना.......
दिनांक 01/06/2021 को.....
पांच लिंकों का आनंद पर.....
लिंक की जा रही है......
आप भी इस चर्चा में......
सादर आमंतरित है.....
धन्यवाद।
वाह एक चुटीला व्यंग समीर जी 🙏🙏😀
हमको तो एक ही शीर्षक भा रहा ‘दढ़ियल शिकारी’। अब आप किसी और संदर्भ में न लें। फ़क़ीर थोड़ा गड़बड़ लग रहा है। 😊😊😊
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