देर रात गये सोने की कोशिश मे हूँ. जब नींद नहीं आती तो ख्याल आते
हैं. अकेले में ख्याल डराते है और इंसान अध्यात्म की तरफ भागता है भयवश. यह
इन्सानी प्रवृति है, मैं अजूबा नहीं.
आधुनिक हूँ तो आधुनिक तरीके अपनाता हूँ अध्यात्म के. बड़े महात्मा जी
का आध्यात्मिक प्रवचन सीडी प्लेयर में लगा कर उससे मुक्ति के मार्ग के बदले नींद
का मार्ग खोजने में लग जाता हूँ. नीरस बातें नींद में ढकेल देती हैं. नीरसता
टंकलाईज़र (नींद की गोली) का काम करती है.
कुछ देर मन लगा कर सुनता हूँ. महात्मा जी के कहे अनुसार, जीवन
रुपी नैय्या से इच्छायें, चाह, लालच और वासना
की गठरी उठा उठा कर फैंकता जाता हूँ पाप की बहती दरिया में. खुद को हल्का किये
बगैर उपर नहीं उठा जा सकता, महत्मा जी मात्र १०० रुपये लेकर सीडी
में समाये कह रहे हैं. मैं सुन रहा हूँ. कहते हैं चाहविहिन हो जाओ तो मुक्ति का
मार्ग पा जाओगे और यह जीवन सफल हो जायेगा.
सोचता हूँ कि क्या मुक्ति का मार्ग पाना भी एक चाह नहीं? क्या
चाहविहिन होने की चेष्टा भी एक चाह नहीं? क्या आमजन से उपर उठ अध्यात्मिक हो
जाना भी एक चाह नहीं? जब एक चाह की गठरी को पाप की नदिया में फैंका सिर्फ इसीलिये कि दूसरी
चाह की गठरी लाद लें, तो क्या यह व्यर्थ प्रयत्न और प्रयोजन नहीं?
मानव स्वभाव से बाध्य हूँ. चाहत की जो गठरियाँ अर्जित कर ली है,
उसे
फेंकने में दर्द सा कुछ उठता है किन्तु नई चाहत की नई गठरी तपाक से आकर जुट जाती
है. प्रवचन सुन सुन कर ऐसी ही कितनी चाहतों की गठरियों का आना तो अनवरत जारी है
लेकिन फैंकना, बहुत मद्धम गति से हो पाता है. अगर ऐसा ही चलता रहा और नई गठरियाँ
इसी गति से जुड़ती रहीं तो वो दिन दूर नहीं, जब यह नाँव
डगमगा जायेगी और सारा बोझ लिए इसी पाप की दरिया में डूब जायेगी. अब तो एक चाहत और
जुड़ गई कि किसी तरह नैय्या डूबने से बची रहे.
स्वामी जी बोल रहे हैं सीडी प्लेयर में से और मैं अपने मन की बात
सुनने में व्यस्त हूँ. मन भारी पड़ रहा है उन सिद्ध महात्मा जी की वाणी पर. खुद को
कब नीचा दिखा सकते हैं खुद की नजरों में? वरना तो सो गये होते.
इस बीच स्वामी जी और भी न जाने क्या क्या बोल गये, मैं
सुन नहीं पाया और एलार्म से नींद खुली तो सीडी प्लेयर से घूं घूं की आवाज आती थी.
जाने कब स्वामी जी ने बोलना बंद कर दिया. रात बीत चुकी है और प्लेयर अब भी चालू
है.
प्लेयर ऑफ कर फिर तैयार होता हूँ एक नया दिन शुरु करने को. नींद पूरी
हो गई है तो फिर दिनचर्या में जुटने की तैयारी करता हूँ.
क्या पाप, क्या पुण्य, कैसा मुक्ति मार्ग? सब
अब रात में सोचेंगे जब दिन भर की थकन के बाद भी मन कचोटेगा और नींद आने से मना
करेगी. यही दैनिक चक्र है.
अब दफ्तर के लिए कार लेकर निकला हूँ
तो रेडियो लगा लिया है. अब नए वाले साधु मन की बात कर रहे हैँ. मैं रेडियो बंद कर
देता हूँ – बताया था न कि नीरस बातों से नींद आ जाती है. गाड़ी चलाते समय सो जाना
कितना खतरनाक साबित हो सकता है.
लेकिन ये बात रेडियो से मन
की बात बोलने वाले बाबाजी बहुत भली भांति जानते हैँ और उनके लिए सोया हुआ देश का
आमजन ही मुफीद है. नींद में चलना और वोट देना हर आमजन जानता है. दुर्घटना के शिकार
कितने आमजन हुए, वो भला कौन गिनता है।
कुछ मुश्किलों को सुलझाने की खातिर
खुद को ही उलझाता चला जाता हूँ मैं
आईने में एक अजनबी नजर आता हूँ मैं...
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के
रविवार मार्च 07, 2021 के अंक में:
http://epaper.subahsavere.news/c/58909357
ब्लॉग पर पढ़ें:
#Jugalbandi
#जुगलबंदी
#व्यंग्य_की_जुगलबंदी
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4 टिप्पणियां:
Excellent connect between CD of Bade Wale Swamiji, Syndrome of wishes, trail of relevant questions, Man Ki Baat ending up with casting of votes.
Satire presented in a humorous manner.
Going Great !!!!
सार्थक व्यंग्य । यूँ तो सभी अफीम चाट कर बैठे हैं । किस किस को दोष देंगे । कोई और नहीं आएगा जगाने खुद ही जागना है ।
बहुत खूब।
https://theshouters.net/best-indian-blogs-hindi/
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