तिवारी जी सुबह से पान की दुकान पर
बैठे बार बार थूक रहे थे। पूछने पर पता चला कि बहुत गुस्से में हैं और गुस्सा थूक
रहे हैं। वह इस मामले में एकदम आत्म निर्भर हैं। खुद ही मसला खोजते हैं, खुद ही
गुस्सा हो जाते हैं और फिर खुद ही गुस्सा थूक कर शांत भी हो जाते हैं। उनका मानना
है कि पान खाकर यूं भी थूकना तो है ही, फिर क्यूँ न साथ गुस्सा भी थूक दिया जाए।
गुस्से का कारण पूछने पर वो चुप्पी
साध गए। ऐसा नहीं कि तिवारी जी को चुप रहना पसंद हो। वह तो बहुत बोलते हैं और कई
बार तो क्या अक्सर ही इतना बोलते हैं कि बोलते बोलते पता ही नहीं चलता कि तिवारी
जी बोल रहे हैं या मुंगेरीलाल के हसीन सपने का एपिसोड चल रहा है। बोलने की
प्रेक्टिस ऐसी कि श्रोता सामने न भी हो तो भी रेडियो पर ही बोल डालते हैं उसी
त्वरा के साथ।
रेडियो पर बोलने वालों को मैंने सदा
ही अचरज भरी निगाहों से देखा है। गाना सुनवाना या समाचार पढ़ना तो फिर भी एक बार को
समझ में आ जाता है मगर टीवी के रहते रेडियो से बात कहना? यह समझ के परे है। आज जब
घर घर टीवी है और हर टीवी दिखाने वाला अपने घर का है तो भी रेडियो पर अपनी बात
कहना कभी कभी संशय की स्थिति पैदा करता है? घंसु का सोचना है कि कई बार तिवारी जी
दुख जताते हुए आँख से मुस्करा रहे होते हैं तो रेडियो ही सुरक्षा कवच बनता है।
बोलने के इतने शौकीन होने के बावजूद
भी, तिवारी जी हर उस मौके पर चुप्पी साध लेते जब उन्हें वाकई बोलना चाहिए। पान की
दुकान पर जब जब भी लोगों को उम्मीद बंधी कि आज तिवारी जी बोलें तो शायद समस्या का
समाधान मिले, तब तब तिवारी जी पान दबाए चुप बैठे रहे। अहम मुद्दों पर उनकी मौन साधना देख
कर लगता है कि इतनी लंबी साधना के बाद जब कभी वह बोलेंगे तो शायद बुद्ध वचन झरेंगे
लेकिन हर मौन साधना तोड़ने के साथ साथ उन्होंने बुद्ध वाणी का सपना भी तोड़ा है। ढाक
के तीन पात कहावत को हमेशा चरितार्थ किया है।
आज जब गुस्सा
थूकने के बाद उन्होंने मुंह खोला तो मुझे लगा कि करोना राहत पर कुछ बोलेंगे। मगर
वो कहने लगे, अब जमाना पहले वाला नहीं रहा। आजकल के तरीके बदल गए हैं। हम जब नगर
निगम के सामने आंदोलन किया करते थे तो सरकारें थर्राती थीं। आंदोलन पर जाने के
पहले घर से कंकड़ उछाल कर चलते थे कि अब लौटेंगे तभी जब या तो हमारी मांग मान ली
जाए या सरकार खुद चली जाए। आमरण अनशन पर बैठा करते थे। आज यहां जिंदा बैठे हैं यही
इस बात का गवाह है कि आजतक के सभी आमरण अनशन सफल रहे और कभी मरण तक जाने की नौबत ही
नहीं आई।
बताते बताते भूख
हड़तालों की दौरान होने वाली रजाई दावतों की गौरवशाली परंपरा के पर भी प्रकाश डाला।
किस तरह रात में पंडाल के पीछे से खाने और पीने की सप्लाई सीधे रजाई के भीतर हो
जाया करती थी। भरी गरमी में भी हड़ताली दोपहर में रजाई ओढ़े समोसे दबा लेता था।
मान्यता यह थी कि चोरी करने में कोई बुराई नहीं है, चोरी करते पकड़े जाना बुरा है। खैर,
यह मान्यता तो आज भी उतनी ही हरी है और यह हरियाली सदाबहार है जो कभी न जाने वाली
है।
आगे कहने लगे कि
एक बात का मलाल हमेशा रहेगा कि हमारे समय ट्विटर नहीं था वरना विदेशों में अपनी
पहचान भी कम न थी। हमारे पड़ोसी शर्मा जी लड़की अमरीका में ब्याही है, और कुछ नहीं
तो वो ही समर्थन में ट्वीट कर देती। जिस बात को मनवाने या सरकार को गिरवाने में जो
6 -6 महीने लगा करते थे, वो काम चार ट्वीट में दो महीने में ही हो लेता।
खैर, नया जमाना
है, नया तरीका है तो मांगे मनवाना और मांगे न मानना भी नया ही होगा। बाड़ देख ली, कील
की पैदावार देख ली। अब देखना है कि फसल कौन सी और कब कटती है?
-समीर लाल
‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार फरवरी ०७, २०२१ के अंक
में:
http://epaper.subahsavere.news/c/58262690
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2 टिप्पणियां:
कहाँ तिवारी जी और कहाँ गौतम बुद्ध, खूबसूरत व्यंग
आगे-आगे देखिए होता है क्या?
सदंबुद्धि दे परमात्मा।
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