आपदा में चाहे लाख बुराई हो लेकिन एक बात तो है
कि वह एक बड़ी आबादी को ज्ञानी बना जाती है। एक दफा हमारे शहर में
बहुत तगड़ा भूकंप आया था। देखते देखते घंसु से लेकर तिवारी जी तक को न सिर्फ इपि
सेंटर, रिक्टर स्केल, आफ्टर शॉक आदि जैसे शब्दों का पहली बार पता चला बल्कि वो
उनका खुल कर इस्तेमाल भी करने लगे। एक दिन तिवारी जी गुस्से में घंसु से बोल रहे
थे अगर हमने मूँह खोल दिया तो संसद में कम से कम ८ रिक्टर स्केल का भूकंप आ जाएगा।
हमको ऐसे ऐसे राज पता हैं कि सब लपेटे जायेंगे। घंसु हँसते हुए बोल रहा था कि जो
बच जाएंगे, वो आफ्टर शॉक में लपेटे जाएंगे। ज्ञान के स्तर में एकाएक इतना इजाफा तो
आपदा के ही बस की बात है। वरना तो घंसु ३ साल तक भरपूर कोशिश के बाद भी ८ वीं न
पास कर पाये थे।
फिर जब सुनामी आया तो उनको पता चला कि सुनामी की
स्पेलिंग टी से शुरू होती है, तो तिवारी जी ने भी आईने में खुद को इवारी जी बुला
कर देखा था। पसंद नहीं आया तो खारिज कर दिया – कोई कृषि कानून तो है नहीं कि खारिज
न किया जा सके। सुनामी के मद्दे नजर तब वो नेता जी के लिए कहते पाये गए कि गजब का
बंदा है। रेडियो से भी इतनी इतनी ऊंची ऊंची फेंकता है कि सुनामी की लहरें भी बौनी
नजर आयें। समुन्द्र वाली सुनामी का तो फिर भी पता कर लो मगर इनके फेके का इपि सेंटर
कहाँ है, कोई नहीं जान पाता है। घंसु कहने लगा कि हमने सुना है – ये फेंकते दिल्ली
से हैँ और इपि सेंटर मुंबई में होता है।
खैर ये सब आपदा तो क्षण पर को आईं थी, तब इतना
ज्ञान दे गईं। अब जो आपदा आई है जो जाने का नाम ही नहीं ले रही है, इससे प्राप्त ज्ञान
का तो क्या कहा जाए? लोग पीएचडी हुये जा रहे हैं। तिवारी जी तो अपने नाम के आगे मानद
उपाधि प्राप्त डॉक्टर लिखने भी लगे हैँ। किसने दी यह मानद उपाधि पूछने पर उनके
बोलने से पहले ही उनके भक्त घंसु गाली बकने लग जाते हैं। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई
डॉक्टर साहेब से ये पूछने की? डॉक्टर साहेब कितनी मेहनत करते हैं। पान के ठेले पर
१६ १६ घंटे बैठे राष्ट्र हित में बिना थके ज्ञान बिखरते हैं। इनके बिखेरे ज्ञान कणों
को न जाने कितने मोर चुग चुग कर अपना जीवन यापन करते हैँ और सेल्फी खिंचाते हैं और
तुम पूछते हो किसने दी यह मानद उपाधि? तुम उस समय कहाँ थे जब बाकियों को मानद
उपाधि दी जाती थी? पूछने वाला अपना सा मूँह लेकर रह जाता और तिवारी जी और घंसु एक
दूसरे को देखकर मुस्कराते।
आजकल लोग एक नया शब्द सीख गए हैं ‘एसिम्प्टमैटिक’।
पूछने पर अर्थ बताया कि जिसके लक्षण नहीं दिखते किन्तु वो चीज होती है। जैसे कइयों
को न जुकाम, न खांसी है, न बुखार मगर टेस्ट करवाओ तो कोविड निकल आता है।
‘एसिम्प्टमैटिक’ शब्द पर डॉक्टर तिवारी फरमाते हैं कि
अगर आप समझना चाहते हैं तो मैं आपको उदाहरण देकर समझा सकता हूँ। इसका सबसे अच्छा
उदाहरण देश में हो रहा विकास है। एकदम एसिम्प्टमैटिक विकास। लक्षण कुछ दिखते नहीं,
टेस्टिंग के कोई साधन नहीं मगर बताया जा रहा है कि कितना सारा विकास हो गया है।
अक्सर तो एक शिक्षा मंत्री का शिक्षित होना भी एसिम्प्टमैटिक
ही रहता है। न डिग्री, न ज्ञान मगर हैं शिक्षा के मंत्री।
बाकी सब तो छोड़ो, यहाँ तो चुनाव के नतीजे भी
एसिम्प्टमैटिक ही हैं। हवा चलती है किस दिशा की और नतीजे की पतंग उड़ती है विपरीत
दिशा में। विपक्ष है कि चुनावी रणनीति बनाने की बजाए पतंग कटने के इन्तजार में ‘काइट
रनर’ होने की प्रेक्टिस कर रहा है। कब किसान इनकी पतंग काटे और ये भाग कर लूट लें।
खुद के भरोसे तो कुछ होने से रहा। एक उम्मीद ये भी है कि कभी कभी पतंग खुद ही पेड़ और
झाड़ियों में उलझ जाती है और उड़ाने वाले को खुद ही धागा तोड़ कर छोड़ देना पड़ता है।
बाकी नए आयाम और भी आ गए हैँ जैसे कि वादों की होम
डिलेवरी, आभासी सेवाओं का कर्ब साईड पिक अप और आपकी उम्मीदों पर अनिश्चित कालीन लॉकडाउन।
अभी तो जाने में समय है इस आपदा को – ज्ञानियों की
सुनामी ही न आ जाए।
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल
से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जनवरी ३१,२०२१ के अंक में:
http://epaper.subahsavere.news/c/58094761
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2 टिप्पणियां:
बहुत सार्थक आलेख।
लेखक को कूछ एसा बोलना चाहीये जो लोगो को पहले से मालूम न हो |
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