जैसे एक आदमी होते हैं कई आदमी उसी तरह एक युग में होते हैं कई युग.
कलयुग के इस सेल्फी युग में जब व्यक्ति फोन खरीदने निकलता है तब
उसमें फोन की नहीं, उस फोन में लगे कैमरे की खूबियाँ देखता है.. फोन की साऊन्ड क्वालिटी
में भले ही थोड़ी खड़खड़ाहट हो, चाहे जगह जगह सिगनल लूज हो जायें.. मगर
कैमरे की रिजल्ट चौचक होना चाहिये. यहाँ चौचक से यह तात्पर्य नहीं है कि तस्वीर की
डीटेल एकदम विस्तार से दिखाये. अच्छे और चौचक रिजल्ट वाले कैमरे का यहाँ अर्थ है
कि हम भले ही सच में कैसे भी दिखते हों, फोटो में कैमरा हमें सलमान और पत्नी को
कटरीना दिखाये. बाकी की सारी डीटेल विस्तार से छिपाये, यही उम्मीद रहती
है दिल में.
कहने का तात्पर्य यह कि आदतें कुछ यूँ बदली कि व्यक्ति खरीदता फोन है,
चाहता
अद्भुत कैमरा है जो उसे हीरो दिखाये. यह वैसा ही है जैसे इन्सान चुनता अपना नेता
है मगर उसे मिलता फकीर है. और फकीर भी ऐसा..जिसके सेल्फी के चलते तो कई बार सेल्फी
सोचती होगी अगर ये न होते तो मेरा क्या होता? इसी शौक के चलते जब वे कश्मीर में नई
बनी लंबी सुरंग में खड़े सेल्फी खींच कर यहाँ मोह मोह के धागे सुलझा रहे थे,
उस
वक्त ज्ञानी लोग उनकी इस सेल्फी के खींचने के कारण की पहेली बुझा रहे हैं.
सेल्फी का माहौल ऐसा चला कि सेल्फी खींचना एक विधा हो निकली. फटो का
नाम बदल कर सेल्फी हो गया. फोटो स्टूडियो
खुल गये सेल्फी खींचने वाले..अपना अटपटा सा विज्ञापन करते कि हमारे यहाँ नेचुरल
सेल्फी खींची जाती है..बिना सोचे हुए कि नेचुरल चाहता कौन है? लोग
तो अपने अच्छे खासे चेहरे को पाऊट बना बना कर बन्दर सा कर लेते हैं..उस पर से फोटो
शॉप फोन में ही..कभी कुकर जुबान लगा कर तो कभी सींग लगा कर.
ग्रुप टूर बस से उतरे लोग, हर पर्यटन स्थल के फेमस प्वाईंटस पर
कतारबद्ध सेल्फी खींचने के लिए भीड़ लगाये खड़े हैं..दूर से देखो तो भेद कर पाना
मुश्किल हो जाये कि सेल्फी खींचने वालों की कतार है या नोट बन्दी के समय वाली
एटीएम की कतार है या अच्छे दिनों का इन्तजार करने वालों की..यहाँ भी संभावना वही
कि जब तक नम्बर आये आये, बस चलने का समय हो गया..जो सेल्फी खींच
पाया उसके चेहरे पर वही विजयी भाव जैसे उस वक्त जो नोट निकाल लेता था मशीन में नोट
खत्म होने के पहले.
लम्बी लम्बी सेल्फी स्टिक निकल पड़ी हैं..हाथ का विस्तार सीमित
है..लट्ठ का असीमित..शायद इसी लिए लठेतों से लोग डरते हैं. स्टिक दूर से सेल्फी
लेगा..मतलब की ज्यादा कवरेज..कवरेज का जमाना है. जितना ज्यादा कवरेज, उतना
सफल व्यक्तित्व.
बुजुर्ग परिशां दिखे..कि यह तो हद हुई कि दादी मर गई और बंदा उनकी डेथ बॉडी के साथ सेल्फी उतार कर फेस बुक अपडेट कर रहा है..है तो हद ही मगर उससे कम..जहाँ बंदें को बचाने के बदले उसकी आत्म हत्या की कोशिश को अपने बैकग्राऊण्ड में कैच कर शेयर कर देने की होड़ मची हो.
आज का इन्सान वक्त की महत्ता को अहसासता नहीं...आज का इन्सान गुलाब
की महक को महकता नहीं..आज का इन्सान किसी के दर्द से गमजदा होता नहीं..आज का
इन्सान उन्हें कैद करता है अपने फोन के कैमरे के माध्यम से..अपनी सेल्फी के
साथ.....मात्र वक्त के साथ वो लम्हे बाँटने के लिए जो उसने खुद मिस कर दिये सेल्फी
खींच कर बांटने में...बिना उन्हें अहसासे..
न जाने किस ओर ले जायेगा ये सेल्फी का युग इस युग को..इसलिए आज एक
सेल्फी खींच लेते हैं कि कल काम आयेगी आज को परिभाषित करने के लिए...
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जनवरी १७, २०२१ के अंक
में:
http://epaper.subahsavere.news/c/57776633
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3 टिप्पणियां:
Excellent depiction of paradox in prevalence where sensitivity of the occasion is lost in self -projection, of what one is not, through selfies and such virtual means .
A superb unusual humor of reality...
आज का इन्सान वक्त की महत्ता को अहसासता नहीं...आज का इन्सान गुलाब की महक को महकता नहीं..आज का इन्सान किसी के दर्द से गमजदा होता नहीं..आज का इन्सान उन्हें कैद करता है अपने फोन के कैमरे के माध्यम से..अपनी सेल्फी के साथ.....मात्र वक्त के साथ वो लम्हे बाँटने के लिए जो उसने खुद मिस कर दिये सेल्फी खींच कर बांटने में...बिना उन्हें अहसासे..
एकदम सटीक... आजकल लगता है लोग लम्हे महसूस नहीं करना चाहते बस उन्हें कैद करना चाहते हैं... पर्यटक स्थल पर जाता हूँ कई बार यही देखता हूँ... लोग आते सेल्फी लेते हैं और फिर चल देते हैं... जो सामने है उसे देखना, समझना नहीं चाहते...
युग में होते हैं कई युग ...
सही कहा है ... राहुल युग, मोदी युग ... सेल्फी यूँ ...
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