कुत्ता मूते तभी कुकुरमुत्ते पैदा हों, वो जमाना गुजरे भी जमाना गुजरा।
अंग्रेजी का अपना बोलबाला है। उसका विश्व स्वीकार्य
अपना वर्चस्व है। अंग्रेजी स्कूल मे पढ़ने वाला बच्चा तक इस बात को जानता है और हिन्दी
स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे को हेय दृष्टि से देखता है। हमने हिन्दी माध्यम स्कूल से
पढ़कर इस बात को जिया है। कुकुरमुत्ता जब अंग्रेजी वाला मशरूम हो जाये, तब वह एक मंहगा एवं लजीज खाद्य बन जाता है। कुकुरमुत्ता अब बिना कुत्ते के
सहयोग के ग्रीन हाउस में उगता है। उसे कुत्ते नहीं, बाजार
उगाते हैं। ठीक वैसा ही फरक है जो एक समाज सेवी संस्था और एन जी ओ में है। समाज
सेवी संस्था जब अंग्रेजी वाली एन जी ओ हो जाती है, तब उसे
समाज सेवक नहीं, ग्रान्ट चलाती है। उसका मुख्य उद्देश्य ही
ग्रान्ट प्राप्त करना होता
है। ग्रान्टदाता का अपना एजेन्डा होता है और एन जी ओ समाज सेवा का जामा पहन कर उसे
पूरा करती है।
वैसे ही जैसे आज सफेद खादी भी मात्र एक ऐसी ही
फेन्सी ड्रेस वाली पोशाक बन कर रह गई है। हर नेता अपने समाज सेवक वाले अभिनेता
पात्र को सफेद खादी उढ़ा कर मलाई काट रहा है। काम उसका भी अपने फायनेंसर
की ग्रान्ट पर समाज सेवा का अभिनय कर चुनाव जीतना है और फिर उन्हीं फायनेंसर की झोली
भरना है। इनके लिए जनता ५ वर्षों वाला गांधी है। जिस तरह हर २ अक्टूबर को गांधी जी को जिन्दा कर
के नमन वंदना का अभिनय कर अपना उल्लू साधा जाता है और फिर उनकी तस्वीर को साल भर के
लिए बक्से में बंद करके रख दिया जाता है। वैसे ही इस सफेद पोशाक में हर पाँच साल
में चुनाव के वक्त जनता को भगवान बना कर नमन वंदना कर ली जाती है और फिर फिर चुनाव
जीतते ही अगले पाँच वर्षों के लिए जनता रूपी गांधी को बक्से में बंद कर दिया जाता
है।
जनता को बक्से में बन्द करने का तात्पर्य यह होता
है कि नेता उनकी तरफ से अपनी आँख कान बंद कर लेता है। न जनता की समस्या दिखाई देगी
और न सुनाई देगी। बन्द को अंग्रेजी में लॉकडाउन पुकारो तब तो मामला इन नेताओं के लिए
और भी आरामदायक हो जाता है। पूरा देश घरों में बंद है। जो नहीं बंद हैँ वो या तो पिट
रहे हैं या पीट रहे हैं। यह जरूर है कि ऐसे मौके पर फ्रंटलाइन वर्कर वाकई भगवान का
स्वरूप हो गए हैं।
कोई भगवान हो जाये और ये न हो पाएं, यह भला हमारे
नेताओं को कहां मंजूर। अतः इस महामारी में भी सरकार गिराने से लेकर सरकार बनाने में
पूरी ताकत से जुटे हैं और पूछने पर कहते हैं कि हमे जनता ने अपनी अगुवाई के लिए चुना
है। हम प्रथम श्रेणी के फ्रंट लाइन वर्कर हैं।
सूर्य ग्रहण आकर निकाल लिया। शपथ ग्रहण जारी है।
महामारी में जनता घरों में बंद है अतः यह नेता आत्म निर्भरता का परिचय देते हुए स्वतः
ही अपने गले में मास्क की माला पहने एक दूसरे के गले में हाथ डाले मुस्कराते हुए फोटो
खींचा रहे हैं। जनता को संदेश दे रहे हैँ कि महामारी से बचने के लिए मास्क पहनिए और
एक दूसरे से निर्धारित दूरी बनाये रखिये। इनकी करनी और कथनी का फरक जनता घर में बंद
बैठी टी वी पर देख रही है। जनता जानती है की ये वही लोग हैं जो अहिंसा रैली की सफलता
का जश्न छः हवाई फायर करके मनाते हैँ।
ये नेता जिन्होंने सामान्य दिनों तक में कोई काम
नहीं किया वो आज इस दौर में अपने काम को अति आवश्यक सेवा का दर्जा देकर फ्रंट लाइन
वर्कर बने बैठे हैँ। जनसंख्या की एक बड़ी तादाद इस बात का बुरा नहीं भी नहीं मान रही है क्यूंकि इन्हीं नेताओं की कृपा से ही तो शराब
को आवश्यक वस्तु की श्रेणी में माना गया है।
शराब की दुकानें खुली हैँ। नेता जानते हैँ कि जनता
को शराब पिला कर अगर चुनाव जीता जा सकता है तो ऐसे मौके पर शराब दिला कर दिल तो जीता
जा ही सकता है। फिर पूछा जाएगा की हाऊ इज जोश? शराब के नशे में मदमदाती जनता एक सुर
में बोलेगी- हाई सर।
शराब से जहाँ एक ओर मजबूत सरकार बनती है तो वहीं
दूसरी ओर शराब से ही मजबूत अर्थव्यवस्था भी बनती है।
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जुलाई ०५,२०२० के अंक में:
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3 टिप्पणियां:
Excellently addressed difference between social worker and NGO. And concluded the paradox in humourous manner. Really superb....
बहुत ख़ूब। समाज में दोहरे चरित्र पर करारा व्यंग्य। बधाई।
बहुत सही।
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