जिन्दगी की गाड़ी एक ऐसी गाड़ी है
जिसमें रिवर्स करने की सुविधा नहीं होती। वो सिर्फ चलती चली जाती है। वो जब रुकती
है तो वह आपकी जिन्दगी का अंतिम पड़ाव होता है। लोगों से कई बार इस महामारी के दौर
मे सुनने में आया कि जिन्दगी की गाड़ी एकदम से रुक गई है। दरअसल गाड़ी चल रही है
सिर्फ आपको अहसास नहीं हो रहा है। जिनकी गाड़ी रुक गई है वो बताने को शेष नहीं हैं।
अगर इसे ही रुकना कहते हैं
तो ऐसे ही रुका रहे। सीखना एक क्रिया है, और रुके में भला कौन सी क्रिया?
जिन बंदों ने जीवन में कभी
खुद से उठकर पानी भी नहीं पिया था वो आज खाना बनाने में माहिर हो गए हैं। जिनके
लिए कभी दाल सिर्फ दाल हुआ करती थी वो आज वीडियो बना बना कर अरहर, चने और मूंग की
दाल में फरक बता रहे हैं।
जिसे देखो वो आज दिन में दस
बार बीस बीस सेकेंड हाथ धोना सीख गया है। घिस घिस कर धोते धोते हाथ का रंग इतना
साफ हो गया है कि हम जैसे श्याम वर्णीय अपना खुद का हाथ नहीं पहचान पा रहे हैं। कल
अपने ही पैर पर अपना हाथ देखकर पत्नी को टोक दिया कि हाथ अलग करो। पत्नी भी कुछ न बोली बल्कि एक सहानुभूति भरी
नजर से देखती रही। उसने कल ही कहीं पढ़ा था कि आज इंसान जिस दौर से गुजर रहा है
उसमें बहुत से लोगों को मानसिक स्वास्थय की समस्या आ जाएगी। उसकी नजर में कुछ तो
यह समस्या हमको पहले से ही थी, अब और बढ़ गई होगी। वैसे श्याम वर्णीय की जगह सचमुच
वाला काला रंग इसलिए नहीं लिखा कि कहीं अमरीकी समाचारों से प्रभावित होकर अपना खुद
का ही गोरा हाथ हमारे काले गाल पर झपट न पड़े। खुद को खुद के हाथों से पीटे जाने की
कल्पना भी उतनी ही भयावह है जितनी की अमरीकी घटना जहाँ अमरीकी ही अमरीकी को मात्र
इसलिए मार बैठा की उसका रंग काला है। डर तो लगता ही है। सोशल मीडिया से लेकर मीडिया
तक से लोग सीखे ले रहे हैं, तो हाथ भी वर्ण भेद सीख जाए तो इसमें क्या अचरज?
आखिर अमरीका की पुलिस ने भी
तो कहीं न कहीं से बिना सोचे समझे डंडे बरसाना सीखा ही है न! वो तो आप भी जानते
हैं की कहाँ से सीखा होगा। पहले तो इनको इस तरह डंडे बरसाते कभी नहीं देखा। मुझे
ज्यादा चिंता इस बात की नहीं है कि ये हमारा टीवी देख कर डंडे बरसाना सीख गए हैं।
मुझे चिंता उनकी है जिनको डंडे पड़े हैँ। मीडिया ने हमारे पिटे लोगों को हल्दी का
पुलटिस लगाते हुए और गरम पोटली से सिकाई करते हुए तो दिखाया ही नहीं तो ये बेचारे
कैसे जानेंगे कि अब इसका तुरंत इलाज कैसे हो। कितना दर्द झेलना होगा उनको पिटाई के
बाद का। भारत में तो हम बचपन से सीखे हुए हैं तो सब जानते थे।
खैर बात रुकी गाड़ी को रुका न
मान नए नए गुर सीखने की चल रही थी और मैं मन की बात लिखने लगा। मन की बात भटका
देती है। मन का क्या है वो तो जाने किस बात पर मचल जाए? उसे न तो यथार्थ से मतलब
होता है, न ही मान्यताओं से और न ही किसी का शर्म लिहाज। तभी तो कितने ही बुजुर्ग
आज भी मन ही मन में फिल्म देखते हुए क्या क्या सपने पाल बैठते हैं वो किससे छिपा
है। इसीलिए पुराने समझा गए थे कि मन की बात सुनो, खुश हो लो और भूल जाओ। उसे अमली
जाम पहनाने की कोशिश करोगे तो कहीं के न रहोगे।
इस दौर ने बहुत कुछ सिखलाया
है। जिंदगी की पाठशाला ही सबसे बड़ी पाठशाला है। नौकर आते नहीं, बर्तन खुद धोते
हैं, कपड़े खुद धोते हैं, घर खुद साफ करते हैं। खाना खुद बनाते हैं। बच्चों को खुद
पढ़ाते हैं। मोटापा खुद बढ़ाते हैं और फिर उसे कम करने का सपना भी खुद सजाते हैं मानो
हम हम नहीं, सरकार हों कि फूट भी हम हीं डालें और फिर भाईचारे और सदभाव का पाठ
पढ़ायें।
कितना कुछ बदल गया है। यह
रुका हुआ दौर नहीं है। इससे बड़े बदलाव का दौर तो वर्तमान मानव प्रजाति ने कभी देखा
ही नहीं। मंगल गृह तक पहुँचने की तमन्ना रखने वाले आज घर की देहरी लांघने की जुगत
भिड़ा रहे हैं। आज जब सब खुद से खुद में
जीना सीख गए हैं, तब आत्म निर्भर बनने की नसीहत दिए जाना वैसा ही है जैसे कि आसमान
में उड़ना सीख चुके चिड़िया के बच्चे को यह बताना की तुम उड़ सकते हो, तुमको उड़ना चाहिए।
इसी तरह तो हर स्तर पर लोग
सीख रहे हैं। जिनके हाथ में सत्ता है वो भी। अब कौन अमरीका से सीखा और कौन हमसे,
कौन जाने मगर पिसी तो आम जनता ही दोनों तरफ। जैसे बहुतेरे आरटीआई से मुक्त हैं,
वैसे ही लगता है कि महामारी के कैटेलॉग में यमराज ने भी
इनको महामारी की मार से मुक्त की श्रेणी में रखा होगा.
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के
रविवार जून ७,२०२० के अंक में:
ब्लॉग पर पढ़ें:
8 टिप्पणियां:
बहुत खूब!!! हर व्यंग - लेख एक नएपन के पूर्व घटनाओं के साथ प्रासंगिक होना आपकी लेखनी की विशेषता है.....
वर्तमान का अच्छा चित्रण।
बहुत सहजता से इतने गंभीर मुद्दों पर आपने लिखा है। शुभकामनाएँ।
ज़िंदगी की पाठशाला बहुत खिच सिखा जाती है ... ये भी चिड़िया के बच्चों को उड़ान कैसे सिखानी है ।।।
ग़ज़ब का व्यंग और तीखी धार ... नमस्कार समीर भाई ...
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (10-06-2020) को "वक़्त बदलेगा" (चर्चा अंक-3728) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सार्थक व्यंग्य रचना !
बहुत बढ़िया।
वाह शानदार व्यंग्य ।
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