हर व्यक्ति की इच्छा होती है कि वो महान कहलाये, अभी न भी सही, तो कम से कम
मरणोपरांत.
हमारे एक मित्र तो इसी चक्कर में माला पहन कर अगरबत्ती समाने रखकर
तस्वीर खिंचवा कर घर में टांग दिये हैं कि घर में टंगी रहेगी. कोई माला पहनाये न
पहनाये, अगरबत्ती
जलाये न जलाये, तस्वीर
महानता बरकरार रखेगी. साथ ही कुछ कार्ड छपवा कर फोटो के सामने रख दिये हैं.स्व.
कुंदन लाल गुप्ता, क्या
पता बाद में कोई स्वर्गीय कहे न कहे. जमाना तेजी से बदल रहा है.
एक मित्र नगर निगम को १५ लाख डोनेशन देकर मरे कि मरने के बाद चौराहा
उनके नाम कर दें या एक सड़क का नाम, गलीनुमा ही सही, उनके नाम हो जाये. हुआ नहीं, सब खा पी गये, यह अलग बात है. उनकी दूरदृष्टि का दोष कि
ऐसे निकम्मे्पन को भाँप न पाये. हम और आप ही कहाँ भाँप पा रहे रहे हैं, हर बार हाय करके
रह जाते हैं. बार बार अपनी औकात भर का दान कर ही देते हैं किसी न किसी राहत कोष
में. राहत किसे मिलती है, कौन जाने.
लोग वसीयत तक का फॉरमेट इस तरह बदल डाल रहे हैं कि उनकी महानता
स्थापित हो पाये. जैसे- मेरी जायजाद का आधा हिस्सा मेरे बेटे को उसी हालत में दिया
जाये जबकि वो मेरी बाकी आधी जायदाद को इस्तेमाल कर मेरी स्मृति में मेरे नाम का एक
वृद्धाश्रम खोले.
क्या क्या नहीं करता इंसान अपना नाम कायम किए रहने के लिए और खुद को
महान घोषित करवाने के लिए.
ऐसी महान आत्मायें जब मरने की कागार पर होती हैं तो उनको लगने लगता
है कि लोग उनके कहे में से सुभाषित खोजेंगे जैसे कि बाकी महानों के साथ किया. मसलन
महात्मा गाँधी ने ये कहा, लूथर किंग ने ये कहा, हिटलर ऐसा कह गये. उनका मानना है कि वो महान आत्मायें सिर्फ इतना सा
कह कर मर नहीं गईं. उन्होंने इससे लाख गुना कहा मगर उसमें से इतना भर सुनने लायक
है जो लोगों ने खोज कर निकाला और वो ही उन्हें महान बनाता है.
यही सोच कर वो तो रोज सुबह शाम ही कुछ न कुछ कहते ही रहते थे. उसमें
से कितना है सुनने लायक, यह वह पीछे छूट गये मनीषियों के विवेक पर छोड़ते हैं कि
वो कुछ ऐसा चुनें ताकि लोग उनकी महानता का जयकारा लगायें. अगर न लगा तो यह
मनीषियों की नाकामी है, वो तो खैर महान हैं ही. इसी गुमान में लोग आजकल देश चलाये
चले जा रहे हैं.
कौन जाने हमारे कहे में से ऐसे सुभाषित कोई खोजे या न खोजे.. एक लईना
में? कौन
जाने कहीं कोट हो न हो. या फिर ऐसा भी हो सकता है कि कोई अपने नाम ही से हमारी कही
महान बात न छाप जाये इस खराब जमाने में. किसे पता चलेगा कि इतनी बड़े महान व्यक्ति ने
ये कहाँ लिखा है. किसी का भरोसा तो रहा ही नहीं..
इसलिए हमने सोचा कि अभी तक के अपने लिखे में खुद ही काट छांट कर अलग
कर दें इस टाईप के सुभाषित और फिर हर एक नियमित समयांतराल में करते चलेंगे. इससे
एक तो किसी और को मेहनत न करना पड़ेगी और महान बनने में सरलता रहेगी. बताईये, ठीक है क्या यह
आईडिया?
यहाँ कुछ छांट कर लिख डाल रहे हैं अपने कहे में से:
’प्रशंसा और आलोचना में वही फर्क है जो सृजन और विंध्वस में.’
’गिनती सीधी गिनो या उल्टी, अंक वही होते हैं. सिर्फ क्रम बदल जाते हैं.’
’साहयता से गुरेज मात्र आत्म विश्वास का दिखावा है. हर व्यक्ति
साहयता चाहता है. मीडिल क्लास शरमाता है.’
’एसी की आहर्ता रखने वाले को आप एसी का किराया देकर सिर्फ बुला सकते
हैं जबकि तृतीय श्रेणी की आहर्ता रखने वाले को एसी का किराया देकर बुलाने पर आप
उसे कुछ भी सुना सकते हैं.’
’शराब सोडे मे मिलाओ या सोडा शराब में. नशा शराब का ही होता है.’
’हर लिखा पठनीय हो, यह आवश्यक नहीं किन्तु हर पठनीय लिखा हो, यह जरुरी है.’
’चिल्लर की तलाश में रुपये गँवाने वालों को सलाह है कि वो सरकारी
नौकरी प्राप्त करने की कोशिश करें.’
’सरकारी घोषणाओं और पैकेज के आधार पर आस लगाये बैठा व्यक्ति, जीवन भर
आस लगाये ही बैठा रहता है’
’जैसे टिटहरी चिड़िया टांग आकाश
की तरफ उठा कर सोती है और सोचती है कि आकाश उसी के कारण टिका है, वैसे ही देश की
आम जनता यह मान कर खुश रहती है कि सरकार उनके वोटों पर टिकी है.’
यूँ खुश रहने के लिए गालिब ख्याल अच्छा है.
-समीर लाल 'समीर'
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार मई २४,२०२० के अंक
में:
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4 टिप्पणियां:
Excellent climax and sattire on ambitious of persons to be called great, for whatever worth they are....Great!!! A feel from bottom of heart.....
बढ़िया जुगलबन्दी।
हा हा हा दद्दा आपने तो इन दिनों कहर ढाया हुआ है। जारी रहिये
आपका हास्य व्यंग्य बहुत मजेदार होता है. सच में नाम कमाने के लिए लोग क्या क्या न करते. अखबार में प्रकाशित होकर तो आपने वैसे ही नाम कमा लिया. जो उक्तियाँ आपने लिखी हैं, बहुत उम्दा है. शुभकामनाएँ.
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