बाजार जाता हूँ तो देख कर लगता है कि जमाना
बहुत बदल गया है. साधारण सी स्वभाविक बातें भी बतानी पड़ती है. कल
जब दही खरीदने लगा तो उसके डिब्बे पर लिखा था कि यह पोष्टिक दही घास खाने वाली गाय
के दूध का है. मैं समझ नहीं पाया कि इसमें बताने जैसा क्या है? गाय
तो घास ही खाती है. मगर इतना लिख देने मात्र से वो दही सबसे तेजी
से बिक रहा था. बाकी के दही के डिब्बे जैसे सजे थे वैसे ही सजे
थे. किसी
को तो क्या कहें, हमने खुद भी वही खरीदा जबकि बाकी दहियों से
मंहगा भी था.
ऐसे ही एक दिन बिकते देखा ’फ्रेश
ब्रेड’. अब
भला बाजार में बाकी के ब्राण्ड क्या बासी ब्रेड बेच रहे हैं? और फिर यह जानने के लिए उस पर
एक्सपायरी डेट भी तो लिखी होती है. फ्रेश ब्रेड भी तो एक्सपायरी के बाद बासी ही हो
जायेगी मगर पन्नी पर तो फिर भी फ्रेश ब्रेड ही लिखा रहेगा.
ऐसा ही युग है बाजारवाद का यह. लोगों
की मानसिकता पर प्रहार करके उन्हें अपने जाल में फंसा कर अपना उल्लु सीधा करने का
युग.
अण्डा है तो पाश्चर रैज्ड एग याने कि जिन मुर्गियों का यह अण्डा है वो पिंजरे की
शकिस्ति में न पलकर खुले में घास पर बड़ी जगह में टहल टहल कर खाकर अंडा देती है. अब
अंडा तो अंडा है, पिंजरे में दो तो या खुले में दो तो. मगर
बाजार उन्हें ज्यादा ताकतवर और स्वादिष्ट बता कर बेच ले रहा है.
अब निंबू को पेड़ से हाथ से तोड़कर या टूट कर
गिरा हुआ निंबू उठाकर आपने उसके ताजा रस को मिलाकर मेरे कपड़े धोने का साबुन बनाया, उससे
क्या फरक पड़ेगा? निंबू का रस तो वो ही है मगर बताने का तरीका
ऐसा कि लगा फेक्टरी वाले सिर्फ मेरे लिए कांटों के बीच अपना हाथ जख्मी करते हुए
निंबू तोड़कर उसका ताजा रस निचोड़े हैं मेरे कपड़े धोने का साबुन बनाने के लिए. तो
बेचारे कुछ रुपया ज्यादा मांग रहे हैं तो बनती है उनकी. वरना इतना ख्याल तो बीबी भी नहीं रखती. शिकंजी
मांगो तो बोतल वाले निंबू के रस से फटाफट बनाकर टिका देती है. कौन जहमत उठाये निंबू निचोड़ने की. वही
निचोड़ कर के तो फेक्टरी वालों ने बोतल में पैक करके दिया है.
हर बार बेवकूफ बनते हैं मगर बाजार उस्ताद है. बार
बार बेवकूफ बना देता है. बचपन में ६ हफ्ते में गोरा बनाने का वादा करके
हमको फेयर एण्ड लवली क्रीम बेच दी थी. ६ हफ्ते में रंग २० का १९.९ भी न हुआ तो उम्मीद त्याग दी और कसम
खाई कि भगवान को अगर यही रंग मंजूर है तो यही सही. अब कभी इस पर पैसा नहीं खर्च करेंगे. साल
भर बाद फिर यह कह कर कि अबकी बार पहले से ज्यादा मुलायम और पहले से ज्यादा असरदार, एक
बार फिर मन ललचवा दिया. हम फिर ६ हफ्ते घिसते रहे और वही ढाक के तीन
पात.
फिर तो जीवन भर बाजार तरह तरह के नुस्खे हमें
बेचता रहा हर बार नया प्रलोभन देकर. कभी इसमें आंवला है तो कभी हल्दी. नुस्खे
बदलते रहे, बैंक
का बेलेन्स बदलता रहा मगर जिस रंग को बदलने की कवायद थी वो कभी न बदला. सब
काम नकली, प्रभु
का काम असली. अब जाकर समझ आया है.
हालिया हालात देखकर तो लगा कि अगली बार नोबल
पुरुस्कार देते समय नोबल वालों को बताना पड़ेगा कि ये असली वाला नोबल है जो असली
अर्थशास्त्री को दिया जा रहा है वरना तो ये सब मिलकर नोबल की धज्ज उतार ही चुके
हैं इस बार. यही
हालत रहे तो इनके चलते किसी दिन नोबल भारतियों को मिलना ही न बंद हो जाये.
इनके पास भी नुस्खे हैं हर पांच साल में खुद को
बेच लेने के तो फिर क्यूँ न मन की करें? क्यूँ निंदा सुनें, क्यूँ सुधरें? बाजार का भरपूर ज्ञान है.
कभी विनाश को टाइपो बता कर विकास कर देंगे और कभी देशभक्ति का अर्थ ही हिन्दुत्व
रख देंगे. जनता
का क्या है उसे तो बाजार सदा से ही बेवकूफ बनाता आ रहा है तो सत्ता के बाजार ने भी
बेवकूफ बना दिया तो इसमें नया क्या है?
अच्छा हुआ कबीर समय पर निकल लिए वरना यह कहने
पर तो निकाल ही दिये जाते:
’निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन
बिना, निर्मल करे सुभाय!!’
जब अच्छे खासे अंतरराष्ट्रीय के अर्थशास्त्री जिनका लोहा
विश्व मान रहा है, नोबल से नवाज़ रहा है, वो नहीं बर्दाश्त सिर्फ इसलिए कि
उन्होंने इनकी नितियों की निंदा कर दी, सही राय दे दी, तो खैर कवि की तो क्या बिसात!!
बाजारवाद में सत्यता कोई नहीं परखता, जुमलों की चलती है.
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार
अक्टूबर २०, २०१९ में:
#Jugalbandi
#जुगलबंदी
#व्यंग्य_की_जुगलबंदी
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
#Hindi_Blogging
#जुगलबंदी
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8 टिप्पणियां:
Beautifully effect of marketing strategies to increase sales has been made contextual to the race in political campaigning strategies. it reminds me of a phrase 'जिसका सिक्का जाये वही सिकंदर '
A great read....
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 20 अक्टूबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
लाजवाब :)
बेहतरीन लेख। काम से ज्यादा उसका ढ़ोल पीटना सहायक होता है। कॉर्पोरेट में भी यही चलता है और बाज़ार में भी। राजनीति इससे अछूती क्यों रहेगी भला। उसी सामान को अलग वर्क में बेचने की कला ही राजनीति होती है। धारदार व्यंग्य।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-10-2019) को " सभ्यता के प्रतीक मिट्टी के दीप" (चर्चा अंक- 3496) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
पहली बार आपको पढ़ने का मोका मिला बहुत अच्छा और वर्तमान स्थितियों पर बहुत सटीक लिखा है 👌
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है
ये मुखौटा केवल बाज़ारवाद तक ही सिमटा नहीं है ... ये दिखावा हमें आम ज़िन्दगी में भी देखने/झेलने पड़ते हैं ...
अच्छा व्यंग्यात्मक आलेख ...
क्या किया जाय ,इतना खुराफ़ाती हो गया आदमी का दिमाग़ कि सीधी सी बात समझ नहीं पाता अपनी खुड़पेंच लगाए बिना. .
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