कल एक दफ्तर के मित्र के नये फ्लैट पर जाना हुआ. नया खरीदा है. जवान बालक है
और कुछ साल पहले ही कैरियर की शुरुआत की है. फ्लैट देखकर मुन्नाभाई एमबीबीएस फिल्म
के मुन्नाभाई हास्टल का कमरा देख सर्किट का डॉयलॉग याद आ गया...ये क्या भाई!! अभी
तो कमरे में घुसे ही हैं और कमरा खतम!
३०० स्क्वायर फीट का फ्लैट. वाटर फ्रन्ट पर. एक कमरा. वाशरुम और एक दीवाल पर
चिपका मार्डन किचन. दफ्तर के एकदम नजदीक. दाम सुना तो याद आ गया बहुत पहले एक बार
खुद का ठगा जाना हालांकि ठगे तो कई बार गये हैं. एक बार देश में एक नये शहर में एक
होटल में ठहरे थे. रात खाली थी तो सोचा कि नौ से बारह फिल्म देख ली जाये उमराव
जान. अखबार में देखा कि किस थियेटर में लगी है. होटल से बाहर आये. ऑटो वाले को
बताया थियेटर का नाम और उसने एक घंटे में पहुँचा दिया थियेटर ४०० रुपये लेकर उस
जमाने में. फिल्म देखकर निकले और एक ऑटो वाले से कहा कि फलाना होटल जाना है, चलोगे.
वो बोला वो सामने मोड़ पर ही तो है आपका होटाल, क्यूँ ऑटो कर
रहे हैं? नजर उठा कर देखा तो वाकई १० कदम पर होटल था. पहले
वाला ऑटो वाला सारी दुनिया घुमा कर होटल के पास में ही छोड़ गया और हम जान ही न
पाये. आज जब इस फ्लैट का साईज और दाम सुना तो न जाने क्यूँ मेरे मन में हजारों
प्रश्न उठ आये. उत्सुकता रोक पाने की मददा भी बढ़ती उम्र के साथ कम होती जाती है.
पूछ बैठे कि पार्किंग भी है क्या साथ में? मित्र कहने लगे
कि कार ही नहीं है तो पार्किंग किस लिए चाहिए? मैने कहा मगर
कभी अगर भविष्य में खरीदो तो कहाँ खड़ी करोगे? वो कहने लगा कि
क्यूँ खरीदूँगा भविष्य में भी कार? दफ्तर बाजू में है. कहीं
अगर जाना भी पड़ा तो ऊबर बुला लेता हूँ. आखिर जरुरत ही क्या है कार रखने की?
पार्किंग, इन्श्युरेंस, मैन्टेनेंस
की कौन झंझट उठाये और फिर कार तो हर बीतते दिन के साथ, चलाओ
या खड़ी हो पार्किंग में, दाम में कम ही होती जायेगी. बेकार
इन्वेस्टमेन्ट है जी. बात ठीक सी भी लगती है. खुद ही बेवकूफ से नजर आये जो खुद के
लिए एक और बीबी के लिए एक कार लिए बैठे हैं.
फिर मैने उससे पूछा कि इस किचन में खाना कैसे बनाते हो? वो
बोला कि खाना कौन बनाता है? ऊबर किचन को ऑर्डर करो, एकदम घर का बना खाना पहुँचा कर जाता है. हर रोज मनपसंद की डिश बताओ. खाना
किस लिए बनाना? मैने पूछा कि यह तो बड़ा मंहगा पड़ता होगा?
दो घंटा खाना बनाने पर खर्च करने की बजाये अगर दो घंटा कोई कमाई का
कार्य करो तो १५ मिनट की कमाई में खाना कवर हो जायेगा. मुझे फिर पहले वाली बेवकूफ
होने की फीलिंग आई.
तब हमने पूछा कि अगर मेहमान आयें तो कहाँ बैठाओगे, कहाँ
खिलाओगे और कहाँ सुलाओगे? अब वो हंसने लगा..क्या बात करते
हैं आप? मेहमान अब कहाँ आते हैं? जो अगर
आ भी जायेगा पुराने ख्याल वाला कोई तो उसके लिए एयर बी ऎन्ड बी है न! खाना किसी
रेस्टॉरेन्ट में मिल कर खा लेंगे, वहीं बैठ लेंगे और बतिया
लेंगे. आखिर बतियाने को कुछ खास होता भी कहाँ है, सारी
बातचीत तो व्हाटसएप पर होती ही रहती है लगातार.एक बार फिर..वही फीलिंग.
फिर भी एक प्रश्न तो बचा ही था कि कल को शादी होगी तब? वो
कहने लगा कि शादी किसलिए? लिव ईन की बात चल रही है. डबल बैड
तो लगा ही है. वो भी ऊबर से खाना मंगाती है. कैरियर उसके लिए भी बहुत मायने रखता
है. शादी और बच्चे वच्चे करने में हम दोनों का कोई विश्वास नहीं है. आगे चलकर किसी
चैरिटी के माध्यम से किसी बच्चे की पढ़ाई और रख रखाव स्पॉन्सर कर देंगे. वे
स्पाँन्सर्ड बच्चे से बात कराते रहते हैं. बच्चे से चिट्ठी भी भिजवाते हैं और
तस्वीरें भी भेजते रहते हैं. लगता ही नहीं कि अपना बच्चा नहीं है.
अरे, मगर माँ बाप तो आ ही सकते हैं न तुम्हारे पास? न न!! वो तो मस्त हैं फाईव स्टार टाईप सारी लक्जरी वाले ओल्ड एज होम में.
घर बेच कर वो खुद वहाँ शिफ्ट हो गये हैं. उन्होंने तो मुझे १८ साल का होते ही अलग
कर दिया था कि अब खुद को संभालो. मगर वो बहुत बढ़िया लोग हैं इसलिए अक्सर संडे
वगैरह को मौका निकाल कर हम कहीं साथ में लंच वगैरह कर लेते हैं. फैमली बाईन्डिग तो
है ही न!!
फिर पता चला ऊबर स्कूल, जहां से मन हो- लाग ऑन करो. पिछली बार के आगे पढ़ाई शुरु.
मुझे एकाएक लगा कि मैं कितने पुराने जमाने का बुढ़ा सा इन्सान हूँ. जमाना बदल
रहा है. कल को ऊबर घर होंगे, ऊबर बीबीयाँ होंगी, ऊबर माँ बाप होंगे, ऊबर बच्चे होंगे, ऊबर दोस्त. जिस शहर गये, वहाँ अलग मगर उपलब्ध.
ऊबर अहसास, ऊबर मोहब्बत, ऊबर रिश्तों का युग दरवाजा
खटखटा रहा है.
स्वागत करने के तैयार रहो.
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित सुबह
सवेरे के रविवार सितम्बर ०२, २०१८ में:
#Jugalbandi
#जुगलबंदी
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#हिन्दी_ब्लॉगिंग
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4 टिप्पणियां:
बहुत खूब, बिलकुल नयी सोच के साथ , वास्तव में हमें नए ज़माने की नयी सोच को समझने तैयार रहना होगा | परिवर्तन और उसकी दर को बदलने की शायद अब शक्ति नहीं रह गयी | साथ ही बढ़ती ुवा आबादी के साथ हम वैसे ही अल्पमत में हैं | बस अब एक ही पर्याय है की ऊबर से ऊबे नहीं।
जी आजकल लम्बी कमिटमेंट कोई नहीं चाहता। सब आज में जीना चाहते हैं। इस चीज के नुकसान हैं। शायद आगे आने वाली पीढ़ी को पता लगे। फ़िलहाल, नई पीढ़ी तो एन्जॉय ही करने वाली है।वैसे, गाड़ी वाली बात से तो मैं भी सहमत हूँ। मुझे भी अब गाड़ी की जरूरत महसूस नहीं होती।
शानदार व्यंग।
बहुत बढ़िया
वाह ! ऊबर युग सच में अनोखा होगा।
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