कुछ उलझन को सुलझाने में..
नादां दिल को समझाने में..
बीती, फिर रात बिताने में..
उगती सुबह को सजाने में…
अपने रुठों को मनाने में..
कोई बिगड़ी बात बनाने में….
कुछ
यादों में खो जाने में..
खुद को कुछ देर रुलाने में..
खोई कोई साख जुटाने में.
टूटे रिश्ते के जुड़ जाने में..
सब
कुछ खोकर कुछ पाने में
हम गुम हो गये जमाने में..
कुछ जामों के टकराने
में..
कुछ बहके कदम बढ़ाने में..
नासूरों
के भर जाने में
कुछ
जख्म हरे हो जाने में
हर झूठ को सच बतलाने में
और सच को यूँ झुठलाने में..
उसको नीचा दिखलाने में..
खुद को हर पल भरमाने में..
इस जीवन को जी जाने में..
और जीते जी मर जाने में..
सब
कुछ खोकर कुछ पाने में
हम गुम हो
गये हैं जमाने में..
सोचो गर ये जो सोच सको
कल रो कर न हँस पाये तो..
चुप रह कर न कह पाये तो
मन ही मन हम पछताये तो
कल सोकर न उठ पाये तो..
बस रह जायेंगे अफसाने में..
सब
कुछ खोकर !
क्या पाने में?
हम गुम हो
गये हैं जमाने में..
इस जीवन को जी जाने में..
और जीते जी मर जाने में..
सब
कुछ खोकर ! क्या ? पाने में
हम गुम हो
गये हैं जमाने में..
नोट: मित्र पुष्पेन्द्र पुष्प की दो पंक्तियाँ पढ़ी..और बह निकली एक पूरी रचना..कुछ
बरस पहले...
6 टिप्पणियां:
संवेदनशील मन से निकले भाव हैं समीर भाई ...इसलिए सच के बहुत करीब हैं ...
Behtreen!Umda!!Laajawaab!!!
इस जीवन को जी जाने में..
और जीते जी मर जाने में..
सब कुछ खोकर कुछ पाने में
हम गुम हो गये हैं जमाने में..
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वाह,,,,बहुत खूब
खूबसूरत रचना
nice lines-in nice flow.
कृपया मुझे भी पढ़े व अच्छा लगे तो follow करे मेरा blog है ।। againindian.blogspot.com
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