रविवार, मार्च 05, 2017

लब आजाद हैं मेरे...


आज तक गाँधी, भगत सिंग, सन ४७ आदि का जिक्र सुनते ही मानट पटल पर बैकड्राप में आजादी की आवाज गूँज उठती थी लेकिन एकाएक कुछ समय से अभिव्यक्ति का जिक्र आते ही यही गूँज धमाका बन कर सुनाई देने लगी है उसी आजादी वाले बैकड्राप के साथ. वैसे हम शादी शुदा पुरुषों को इस तरह की अभिव्यक्ति की आजादी के स्वपन भी नहीं देखना चाहिये किन्तु फिर भी माहौल को कैसे नजर अंदाज करें?
कभी जिस अभिव्यक्ति के साथ भावनात्मक, रचनात्मक जैसे विशेषण जुड़ा करते थे आज वही आजाद और बोल्ड बनी, आजादी के साथ गलबहिंया किये खड़ी अभिव्यक्ति की आजादी के नारे लगा रही है
सब के सब लामबद्ध होकर इस बात को स्वीकार करते हैं कि देश में अभिव्यक्ति की आजादी है. मगर जब तक अभिव्यक्ति उनके स्तुति गान करे तब तक तो ठीक वरना अभिव्यक्ति की आजादी का दुरुपयोग और इस आजादी का दुरुपयोग देशद्रोह कहला रहा है, भले ही यह आजादी देश की नहीं अभिव्यक्ति की थी.  
जैसे किसी बाबा जी के कहने पर कि सारी इच्छायें त्याग कर प्रभु में ध्यान लगाओ और सारे भक्त आँख मूँद कर प्रभु में ध्यान लगाने हेतु सारी इच्छायें त्यागने में जुट जाते हैं और भूल जाते हैं कि सारी इच्छायें त्यागने की इच्छा भी तो एक इच्छा ही है. उसी तरह निष्पक्षों की एक बड़ी जमात ने अपना एक अलग पक्ष बना लिया है.
वे इस अभिव्यक्ति की आजादी के प्रणेता और देशद्रोहियों के बीच होती कुश्ति पर नित सोशल मीडिया में अफसोस जाहिर करते हुए देखे जा सकते हैं. ये चुनावी सभाओं की उन लोगों की भीड़ के समान हैं जो हर पार्टी की सभाओं में जा कर भीड़ बढ़ा आते हैं मगर वोटिंग के दिन पिकनिक मनाने निकल जाते हैं. इनका सभाओं में होना चुनावी परिणामों पर कोई मायने नहीं रखता मगर इनकी तादाद बहुत बड़ी होती है. वैसे ही यह निष्पक्ष गुटेरे हर तरफ अफसोस जाहिर करते नजर आते हैं मगर अभिव्यक्ति की आजादी के बसह को इनके माध्यम से कोई मुकाम नहीं मिलता.
अभिव्यक्ति की आजादी पर बात करना, उसके लिए नारे बुलंद करना और इस आजादी का परचम लहराने के लिए एकाएक कोई बोल्ड सा बयान दे देना आजकल सोशल मीडिया पर बुद्धिजीवी कहलाने का माध्यम एवं स्टेटस सिम्बाल सा बन गया है.
अभिव्यक्ति की आजादी के छप्पर के नीचे खड़े होकर कही गई एक बोल्ड पंक्ति भी साहित्य के ऊँचे मंच से खड़े होकर कही गई १५०० पंक्तियों की रचनात्मक अभिव्यक्ति को पछाड़े हुए है. हालात यूँ बने कि पछाड़ खाते खाते जब परेशान होकर वही साहित्यकार उसी आजादी वाले छप्पर के नीचे जाकर गुस्से में एक पंक्ति की हुँकार लगा आता है, तब जाकर लोगों को पता चलता है कि इन्होंने १५०० पंक्तियों वाली कोई रचनात्मक अभिव्यक्ति भी की हुई है.
ग्लोबल वार्मिंग की तरह ही इस अभिव्यक्ति की आजादी के माहौल की गर्माहट का हर क्षेत्र में कुछ न कुछ असर दिख रहा है. अखबार और पत्रिका कहते हैं कि अपनी व्यंग्य रचनायें भेजिये, हम छापेंगे. एकदम निष्पक्ष होकर लिखिये बस थोड़ा सा ध्यान रखियेगा कि एक तो सरकार और उसकी नीतियों पर तंज हो...(बिना बताये समझ लें कि विज्ञापन तो वहीं से आयेगा) और दूसरा स्पेस कन्सट्रेन्ट तो आप जैसे लेखक समझते ही हैं अतः आलेख ५०० शब्दों से ज्यादा का न हो.
अब ऐसा आजाद और निष्पक्ष लेखन निश्चित शब्द सीमा में करना उसी तोते की आजादी जैसा है जिसका पूरा आसमान उसके पिंजड़े की सीमा रेखा है. पंख तो हैं, पिंजड़े में से नीला आसमान भी नजर आता है और उड़ना भी मना नहीं है मगर पिंजड़े में उड़े भी तो भला कैसे? जुबान भी है, बोल भी लेता है. गाली देना भी आती है और गुस्सा भी आता है पिंजड़े में बंद रखने के लिए मगर बोलता है तो सिर्फ राम राम, आखिर सुबह शाम खाना देने वाले को गाली बके भी तो कैसे?
राम राम भी शायद इसीलिए बोलता होगा ताकि कम से कम इतना अहम जिन्दा रहे कि सुन लो, लब आजाद हैं मेरे!!

-समीर लाल ’समीर”
#Jugalbandi #जुगलबन्दी
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7 टिप्‍पणियां:

PRAN SHARMA ने कहा…

Bahut khoob , Bhai Sameer Ji .

HARSHVARDHAN ने कहा…

आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति ब्लॉग बुलेटिन - आप सभी को लठ्ठमार होली (बरसाना) की हार्दिक बधाई में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

हर पार्टी की सभाओं में जा कर भीड़ बढ़ा आते हैं मगर वोटिंग के दिन पिकनिक मनाने निकल जाते हैं - अपने को क्या करना सबकी सुन लेंगे (अभिव्यक्ति की आज़ादी के साथ सुनने-समझने की आज़ादी भी जुड़ी है.)

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

:) बहुत बढ़िया ।

कविता रावत ने कहा…

अभिव्यक्ति की आजादी भी समान रूप से सब पर कहाँ लागू होती है

Anita ने कहा…

'जब तक अभिव्यक्ति उनके स्तुति गान करे तब तक तो ठीक वरना अभिव्यक्ति की आजादी का दुरुपयोग और इस आजादी का दुरुपयोग देशद्रोह कहला रहा है',

सही कहा है आपने, जितना इस अभिव्यक्ति को दबाया जायेगा उतना ही उसका रूप विकृत होता जायेगा, बहता हुआ पानी अपने आप स्वच्छ होता जाता है

जवाहर लाल सिंह ने कहा…

बहुत ही गलत परंपरा विकसित हो रही है. बुद्धिजीवियों को इस परंपरा का विरोध करना ही होगा!