झील के किनारे टहलते टहलते...तुम उठाकर थाम लेती हाथ में एक पत्थर और कुछ अलग से अंदाज में फेंकती झील के ठहरे पानी में...
पत्थर झील के पानी की सतह टकराता और डूबने की बजाये फिर उछलता...
कभी तीन तो कभी चार बार सतह पर टकराते हुए उछलते हुए अंततः डूब जाता वो पत्थर उस झील की गहराई में निराश हो कर.
तुम्हें देखकर मैं भी कोशिश करता पत्थर फेंकने की, तो ऐसा लगता कि मानो पत्थर ही खुश हो गया हो मेरा हाथ छुड़ा कर..मेरा साथ छोड़ कर...दूर जाकर गिरता पानी में...और डूब जाता गहराई में फिर कभी न दिखने को. उसमें कोई उत्साह नहीं मुझे फिर से उछलकर देखने का और न डूबने से बचने की कोशिश ,न कोई अभिलाषा कि फिर से थाम लूँ मैं शायद उसे.
तुम खिलखिला कर हँस पड़ती और मैं अपनी झेंप में एक और पत्थर उछालता पानी में- मगर होना क्या था. हर बार वही- उसका दूर जाकर पानी में डूब जाना बिना उछले.
सोचता हूँ वैसे ही जब साथ छोड़ा तुमने मेरा और उछाल फेंका मुझे गम और तनहाई के इस अथाह सागर में..आज तक एक अनजान उम्मीद को थामें..सतह से टकराता और उछलता बस चला जा रहा हूँ मैं..डूब नहीं पाया निराश हो कर....यादों की धड़कन की धुन आशा बन कर एक सुर लहरी सी सुनाई देती है..और एक बार फिर सतह से कुछ ऊपर उछल कर आगे बढ़ जाता हूँ मैं...एक अभिलाषा बाकी है अभी कि शायद फिर साथ मिलेगा तुम्हारा और तुम फिर थाम लोगी हाथों में अपने मेरा हाथ.
याद करता हूँ अपनी ही लिखी बात:
पत्थरों में
नहीं होता है दिल...
हाँ!!
पत्थर दिल इंसान
और
उनका वजूद
दिख जाता है अक्सर ही
आस पास
अपने!!
-समीर लाल 'समीर'
72 टिप्पणियां:
बहुत हृदयस्पर्शी रचना है ये, मानो सबकुछ सामने ही घट रहा हो...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति वाह!
,सुंदर शब्दों के संयोजन से रची रचना अच्छी लगी आभार
Aah!
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
कितना अच्छा और कितना सुन्दर...
पत्थरों को उछालना याद आ रहा है।
मुझे तो इंसान कम, इंसेन अधिक दिखाई देते हैं लोगों की भीड में.
...
फ़िर सोचता हूँ मैं
इंसानों में तो दिल होता है
कहीं दिल पर पत्थर तो नहीं?..
और फ़िर अभिलाषा जाग उठती है..
शायद....
नाजुक अभिव्यक्ति, लाजवाब चित्र.
सचमुच .....सब हमारे आस पास ही दिख जाता है......
आपकी कविता कथ्य से और भी निखर जाती है, भाव उभर का सामने आ जाता है।
झील में चांद नज़र आए,
थी हसरत उनकी....
जय हिंद...
पत्थरों में दिल नहीं होता... और इंसान पत्थर दिल होते हैं.... इस भाव में शब्दों का चमत्कार खूब आत्मसात किया है आपने!
ऊपर एक कमेन्ट में कही गयी बात भी कम चमत्कारी नहीं... 'इंसान' नहीं हैं लोग... सभी 'इंसेन' हैं...!
Bolti huwi prastuti....bahut sundar....
www.poeticprakash.com
हाँ ,पत्थरों को उछालना भी एक कौशल है,पहुँच गया गहरे में फिर निकलना कहाँ !
Sir ji jawab nahi aapka,
Bahut sunder tarike se man ke bhaw panno par likh dala aapne.
Aabhaar. . . !!
अच्छा लगता है याह जानना कि एक अधेड़ व्यक्ति में अठ्ठारह साल वाले का दिल है! :-)
bahut khoobsurti se likha hai.......
संवेदनशील ... पत्थर दिल इंसान होते हैं तो शायद पत्थर के भी दिल होता हो ... एक सम्भावना तो बनती है ..
बहुत बढ़िया ...बेहतरीन
बहुत सुन्दर
बहुत सुन्दर रचना! दिल को छू गई !भावपूर्ण प्रस्तुती!
achanak se paani mei uchhale gae pathhar saamne uchhalte nazar aa gaye...
aur last lines se kuch yaad aaya
"paathhar pooje HARI mile
to, mai poojoon tera dil"
बहुत सुन्दर और हृदयस्पर्शी रचना ...
सुन्दर भाव...
मर्मस्पर्शी रचना..
बहुत ही सुन्दर रचना
बहुत ही सुन्दर रचना
तबियत के साथ खूब उछाले पत्थर ... उसकी एक अनुभूति अलग ही तरह की होती है ... सर पत्थर भी अलग अलग भाव से उछाले जाते हैं ... हा हा ... बेहद भावपूर्ण अभिव्यक्ति .. छोटी मगर बढ़िया पोस्ट के लिए आभार
शब्दों की श्रृखला और भावों की माला है आपकी प्रस्तुति |
पत्थरों में दिल नहीं होता , पर दिल पत्थर बन जाता है ।
बहुत खूब ।
उछल कर डूबना या विना उछले ही.... यह तो हाथ की सफ़ाई पर निर्भर है :)
जब साथ छोडा तुमने मेरा और उठाकर फेंका मुझे गम और तन्हाई के इस कर अथाह सागर में------
आज तक एक अनजान उम्मीद को थामें----उछलता बस जा रहा हूं----एक अभिलाषा बाकी है----
तुम फिर थाम लोगी हाथों में अपने मेरा हाथ----
समीर जी,कुछ पंक्तियां उन अनुभूतियों को बिखेरिती हैं—जो दबीं हैं हर सीने में.कुछ ही हैं,जो स्वीकार कर पातें है,सत्य की एक अनूठी झलक.
बहुत खूब ...सवेदन शील रचना
ह्रदय स्पर्शी प्रस्तुति....
सादर...
पत्थरों में दिल नहीं होता... और इंसान पत्थर दिल होते हैं.... इस भाव में शब्दों का चमत्कार खूब आत्मसात किया है आपने!
हर बार की तरह इस बार भी लाजवाब......
पत्थरों में
नहीं होता है दिल...
हाँ!!
पत्थर दिल इंसान
और
उनका वजूद
दिख जाता है अक्सर ही
आस पास
अपने!!
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vo to bahut dikhate hain
पत्थरों में नहीं होता दिल..पर इंसान पत्थरदिल होते हँ...क्या बात है...
बहुत ही हृदयस्पर्शी रचना
संग दिल इंसानों की इस दुनिया में दिल की बात करती दिल तलाशती एक रचना .
क्या अब भी पत्थर डूब जाता है?
अच्छा शब्चित्र खींचा है आपने
सुन्दर कविता... आप पत्थर में भी प्राण फूंक देते हैं...
पत्थर तो चिनते जा रहे हैं इमारतों में
दिल ही अब पत्थर होते जा रहे हैं ...
भावपूर्ण !
पत्थर के ज़रिये आपने मन की जो व्यथा व्यक्त की है उसे पढ़कर मुझे किसी का एक प्यारा-सा शेर याद आ गया. शेर है :-
जब कभी हाथ से उम्मीद का दामन छूटा,
ले लिया आपके दामन का सहारा हमने.
ek anjaan ummid hoti hai jo puri zindagi ko bachaaye rakhti hai, shayad...bahut sundar abhivyakti, shubhkaamnaayen.
बहुत खूब समीर भाई ... पत्थर इंसान के कितने करीब होते हैं ...
समीर जी,..
जिसके घर शीशे के हों दूसरों को पत्थर नहीं फेका करते,....खुबशुरत प्रस्तुति के लिए बधाई....
मेरी नई पोस्ट की चंद लाइनें पेश है....
जहर इन्हीं का बोया है, प्रेम-भाव परिपाटी में
घोल दिया बारूद इन्होने, हँसते गाते माटी में,
मस्ती में बौराये नेता, चमचे लगे दलाली में
रख छूरी जनता के,अफसर मस्त है लाली में,
पूरी रचना पढ़ने के लिए काव्यान्जलि मे click करे
बेहद भाव पूर्ण ..ये तो पत्थरों का शहर है यहाँ किसको अपना बनाईये....
dil ko chhute bhav ... aabhar
अतुकांत कविता गद्य रूप में...अच्छा प्रयोग है...
लेकिन इन पत्थरों पर ही तो जमती है बर्फ की परत और वहीं से फूट पड़ते हैं झरने।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
आपकी अनमोल राय की अपेक्षा करती है हमारी यह पोस्ट-
‘‘क्या अन्ना हजारे द्वारा संचालित भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की प्रक्रिया और कार्यपद्धति लोकतन्त्र के लिए एक चुनौती है?’’
कभी-न-कभी तो किनारे लगेंगे,
जिंदगानी रही,तमन्ना बची तो फिर मिलेंगे !!
bahut marmik chitran,sunder.jaise sab kuch ankhon ke samne ho raha ho.
आपका पोस्ट अच्छा लगा । मेरे नए पोस्ट "खुशवंत सिंह" पर आपकी प्रतिक्रियायों की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद ।
मैंने सुना है पत्थर भी हमसे ज्यादा रोया करते हैं पर इंसानी फितरत...
बढ़िया अभिव्यक्ति भाई जी ....
शुभकामनायें आपको !
पत्थरों में
नहीं होता है दिल...
हाँ!!
पत्थर दिल इंसान
और
उनका वजूद
दिख जाता है अक्सर ही
आस पास
अपने!!
वाकई एक दम से दिल को छू जाने वाली कविता.....!
आपकी प्रस्तुति अच्छी लगी । मेरे नए पोस्ट "खुशवंत सिंह" पर आपका इंतजार रहेगा ।
बचपन की याद आ गई जब पतला सा पत्थर फेक कर उसके उछलने का इंतज़ार मेरा तो कभी सपल ना हुआ । पर इस छोटी सी बात को लेकर जो रचना सिध्द हुई है भई वाह ।
आपकी पोस्ट आज की ब्लोगर्स मीट वीकली (२२) में शामिल की गई है /कृपया आप वहां आइये .और अपने विचारों से हमें अवगत करिए /आपका सहयोग हमेशा इसी तरह हमको मिलता रहे यही कामना है /लिंक है
http://hbfint.blogspot.com/2011/12/22-ramayana.html
पत्थरों में
नहीं होता है दिल...
हाँ!!
पत्थर दिल इंसान
और
उनका वजूद
दिख जाता है अक्सर ही
आस पास
अपने!!
khoobsoort.....
kahin aas-pass hote hain sabhi ke kuchh aise hi log...!!
mere blog par aane ka dhanyvaad....!
vah sameer ji ak sundar abhivykti ke liye aabhar
"बस की एक दिन एक पत्थर "अनमने" मन से उछालने की बजे, डूब गया| झील की सतह, जो बहुत नीची थी, उसपे जाके टिका| वहां और पत्थर मिले उसे, उनसे बात हुई उसकी | वो सब बहुत पुराने थे, जड़ हो चुके थे, उन्होंने समझाया की वापस चले जाओ, यहाँ आकर भी सुकून नहीं मिलेगा | तब से वो पत्थर तली से उठाने की कोशिश कर रहा था| एक दिन किसी जलचर की पीठ पे सवार हो वो सतह तक पहुंचा| तब से वो खुद ही उछल रहा है, और आज वो खुश है"
बहुत गहरी सोच लिए हुए आपकी पोस्ट...
डूबना और न डूबना, सब कुछ मन के हाथों होता है। वरना एक शेर कुछ यूँ न होता -
लाश थी, इसलिए तैरती रही,
डूबने के लिए जिन्दगी चाहिए।
आप तो ब्लागियों के देवानन्द हैं।
आपके पोस्ट पर आना सार्थक हुआ । बहुत ही अच्छी प्रस्तुति । मेर नए पोस्ट "उपेंद्र नाथ अश्क" पर आपकी सादर उपस्थिति प्रार्थनीय है । धन्यवाद ।
बेहतरीन रचना ....कमाल की प्रस्तुति
मेरे नए पोस्ट के लिए--"काव्यान्जलि"--"बेटी और पेड़"--में click करे
नव वर्ष पर आपको और आपके परिवार को हार्दिक शुभकामनायें।
http://www.sbhamboo.blogspot.com/2011/12/2012.html
पत्थरों का इन्सान से सबाका पड़ा तो डूब गया...दिल तो पत्थर से भी कठोर निकला...
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