यू के का यॉर्क शहर - सालों साल धूप और बादलों के बीच चलती ठिठोली. कभी धूप जीत जाती तो कभी बादल जीत कर रिमझिम बरस जाते हैं. एक सिलसिला सा है जो कभी नहीं रुकता. शहर के भीतर पैदल चलने का शौक या पतली एकल मार्गी सड़को पर गाड़ी न ले जा पाने की मजबूरी- सड़को के किनारे या किले की दीवार पर पैदल चलते लोगों का हुजूम. उसी भीड़ का पिछले २० दिनों से नित हिस्सा बनता मैं, उद्देश्य शहर देखना और उसकी धड़कनों को समझना. लेकिन यह बाकी भीड़ कहाँ जाती होगी? कुछ ठीक ठीक कहना मुश्किल ही लगता है. सुबह एक निश्चित समय तक तो काम पर जाते लोग समझे जा सकते हैं मगर दिन भर वही रफ्तार. पर्यटकों की चाल की रफ्तार तो इतनी नहीं होती.
किले की दीवार |
ज्यादा वाशिंदे अपना रिटायरमेन्ट गुजारते ही नजर आते हैं. मकानों के बाहर से गुजरते उन मकानों के भीतर बसते सन्नाटे की चीख जहाँ तहाँ सुनाई दे ही जाती है. किसी खिड़की से कुर्सी पर बैठी आसमान ताकती दो बूढ़ी आँखे- बहुत समय तक यादों में आपका पीछा करती हैं. कौन थकता है, नहीं मालूम मगर मुश्किल से ओझल होती हैं स्मृति पटल से.
इस बीच अपनी यॉर्क यात्रा के दौरान मेनचेस्टर, लीडस, नॉरिच, लन्दन और स्कॉटलैण्ड की ऐतिहासिक नगरी एडिनबर्ग (कहा जाता है एडिनब्रा) की यात्रा पर भी निकल जाता हूँ. हर शहर की अपनी तरंग, अपना स्पंदन, अपनी गति, अपना स्वरुप और अपनी एक अलग खुशबू. बोली के भाषाई स्तर पर जहाँ इंगलैण्ड के लोग बोलते वक्त गोली चलाते महसूस होते हैं वहीं स्कॉटलैण्ड के लोग कोई लयबद्ध गीत गाते हुए.
यॉर्क वापस आकर पाता हूँ कि प्रकृति और मानव आर्किटेक्चर लन्दन से इतना करीब है कि यॉर्क की लायब्रेरी के सामने मैदान की बैंच पर पीली धूप सेंकते अक्सर नज़रें निर्मल वर्मा की ग्रेता को तलाशने लगती हैं कि शायद कहीं इन फूल वाली घासों के मैदान के बीचों बीच खड़े तीन एवर ग्रीन पेड़ों के साथ वाले मोटे तने वाले ओक के पेड़ के पीछे से कोई प्यारी सी आवाज उठेगी- आप पकड़े गये....अब आप नहीं जा सकते हैं बिना इन पेड़ों को खाना खिलाये. लेकिन न तो ग्रेता दिखी और न वो आवाज उठी. शायद इसलिए कि निर्मल वर्मा की कहानी ’दूसरी दुनिया’ में जिक्र लन्दन शहर का है. जाने क्यूँ मैं फिर भी कुछ मुरझाये फूल और बिखरे सूखे पत्तों को बटोर कर उन पेड़ों की जड़ों के पास रख देता हूँ, यह सोच कि शायद भूखे होंगे. इन शहरों की यात्राओं पर विस्तार से कभी अलग से जिक्र करने का मन है.
यॉर्क शहर में मुख्य मार्ग से कुछ दूरी पर शहर के बीचों बीच से बहती, अपने दोनों बाजूओं के विस्तार को मानवों द्वारा अपने कांक्रीटी टहल मार्ग द्वारा बाँधी हुई दो दो नदियाँ, ऊज़ एवं फॉस, के किनारे किनारे लगभग लगातार टहलने वालों का तांता/ तो कुछ कुछ दूरी पर चंद कुर्सियों टेबलों को लगाकर किसी पब या बार की बैठक और बीयर सुटकते लोग. चाय के शौकीनों के लिए टी हाऊस, वह भी जगह जगह हर थोड़ी दूर पर. भारतीय पकवानों की रेस्टारेन्टों की बहुलता मगर अधिकतर के मालिक पाकिस्तान या बंगला देश से आये हुए/ गोरों की एक बड़ी भीड़ को रोज आकर्षित करते.
घर से मुख्य मार्ग पर आने के बाद गाड़ी जब तक ठीक ठीक एकरस रफ्तार पकड़े, तब तक आप अपने आपको शहर से बाहर पाते हैं - ऐतिहासिक धरोहरों/ पुराने किले और अनुपयोगी एबेन्डन्ड भवनों से पटा पड़ा शहर/ भारत के किसी गाँव की अधकच्ची दीवारों पर चिपके पुरानी फिल्मों के उधड़े हुए इश्तेहारी पोस्टरों के तरह कुछ खुले अधखुले औद्योगिक प्रतिष्ठान एवं सेल्फ स्टोरेज हाऊस/ देखने के लिए किले की दीवालें/ एक अदद रेल्वे का म्यूजियम और उनके बीच से मूँह निकाल कर झाँकता विशालकाय यॉर्क मिनिस्टर -एक केथेड्रल- भगवान के निवास का एक भव्य भवन एवं साथ ही नई आबादी के लिए बनते दड़बेनुमा मकान/ एक दूसरे से टकराते सटे सटे फ्लैट.
यॉर्क मिनिस्टर |
बेतरतीब पुरातन विरासतों को जतनपूर्वक सहेजता आर्किटेक्चर. सरकारी इमारतों को मुहैय्या की गई ढेर सारी जगह. बीच बाजार में नट नटनियों के बरसों से दोहराये जा रहे करतबों को देखने घंटों तक लगा जमावड़ा. छोटे छोटे से पब और बारों में बीयर की कड़वाहट को सिगरेट के धुँए में उड़ाते प्राचीन भव्यता की सुधि लेने जाने कहाँ कहाँ से आए नाउम्मीद अहसासों के पालक भिन्न भिन्न परिवेशों के सेलानी. पतली पतली गलियों नुमा सड़कें/उस पर से गलियों की असीमित ख्वाहिश, दो भवनों के बीच झीरी में तब्दील होती/ जिन गलियों में घुस कर घूम लेने की गुँजाईश दिखी, उनकी ईंट जड़ित जमीन मुझे एहसास कराती कि मैं बनारस की गलियों में घूम रहा हूँ- गलियों में आती हवा में घोड़े की लीद की गंध और दीवारों से उठती सीलन मेरी इस सोच को और पुख्ता करती लेकिन शीघ्र ही अपनी विशिष्ट गंध से आकर्षित करती पान, जलेबी और दूध की दुकानों का आभाव और पंडों का न दिखना मुझे वापस यॉर्क के धरातल पर ला पटकता.
दिमाग को घुमा देने वाले हर ओर से आये मार्गों को जोड़ते गोल चक्कर/ हर प्रश्न के जबाब में स्पेस की कमी का रोना - ये शहर अखबारों और पत्रिकाओं का नव लिख्खाड़ों के साथ किए जा रहे व्यवहार की नुमाईश लगता है मुझे. इनकी नजरों और सोच में जो कुछ कालजयी रचा जाना था, रचा जा चुका. अब स्पेस नहीं है इन तथाकथित बेशउर नवलेखकों के लिए और इनसे भला कालजयी रचे जाने की उम्मीद भी कहाँ है!! जो भी स्पेस दे दो, वो अहसान ही है!!
किले की दीवार नाखून से खरोच कर देखता हूँ. पक्के पुराने पत्थर. नाखून चोटिल हो जाते हैं, पत्थर पर कोई निशान नहीं उभरता.
64 टिप्पणियां:
मैं तो यही कहूंगा कि मनुष्य की फितरत एक जैसी ही है, शहर कोई भी हो.
और हां, वाकई पत्थरों पर कोई खरोंच नहीं उभरती, उन्हें तोड़ने के लिये हथौड़े की ही जरूरत पड़ती है..
सुन्दर चित्रण। कभी नोटिस किया क्या कि हमारे यहाँ भी पहाडी बोलियाँ लयात्मक सी लगती हैं।
किले की दीवार नाखून से खरोच कर देखता हूँ. पक्के पुराने पत्थर. नाखून चोटिल हो जाते हैं, पत्थर पर कोई निशान नहीं उभरता.
ठीक आज के नए इनसानों की तरह...सपाट...दूसरे के किसी दुख-दर्द से कोई भाव नहीं उभरता...छूने की गुस्ताखी करोगे तो पत्थर की तरह शांत नहीं रहेंगे...सटाक से जवाब मिलेगा...हाऊ डेयर यू टू टच मी....
जय हिंद...
@पत्थर पर कोई निशान नहीं उभरता.
इसी लिए तो पत्थर है.
बढ़िया वृत्तांत.
नाखून चोटिल हो जाते हैं, पत्थर पर कोई निशान नहीं उभरता.
बीते वक़्त में संवेदना को खोजता आपका यह आलेख .....इसलिए नाख़ून चोटिल हो जाते हैं लेकिन निशान नहीं पड़ते ...!
सर! आपके इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 19-07-2011 के मंगलवारीय चर्चा मंच http://charchamanch.blogspot.com/ पर भी होगी आप सादर पधार कर अपने अमूल्य विचारों से अवगत कराएं
प्रकृति प्रदत्त उपहार समस्त जगत के लिये है बस आवश्यकता है उसे सहेजने की उसका आनंद लेने की। बहुत ही सुंदर चित्रण किया है आपने साथ ही रिटायर्मेंट लाइफ़ का भी……………शुक्रिया।
योर्क शहर के बारे में आपने बहुत सुन्दर वर्णन किया है! नयी जानकारी मिली! शानदार पोस्ट!
सच कहूँ तो बड़े दिनों बाद आपकी किसी पोस्ट को पढ़ने में आनंद आया हो सकता है इसका एक कारण मेरा यात्रा वृत्तांत से विशेष लगाव होना पर यात्रा में जो बिम्ब आपने उकेरे हैं वो अद्भुत हैं मैंने भी आपके साथ एक यात्रा जी ली एक एक पंक्ति को कई बार पढ़ा बहुत बहुत शुभकामनायें लिखते रहे
बहुत रोचक है सर.
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कल 19/07/2011 को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
इस सचित्र प्रस्तुति के लिये आपका आभार ।
sundar waradan ,lekin kuchh aur photo dekhane ka man hai ,kyonki -ye dil maange More.
man kitna bolta hai ...apni space to dhoondh hi leta hai ...do jodi aankhon ka dard ...har koi kahan mahsoos kar pata hai ...
यह यात्रावृत्त है या रिपोर्ताज, जो भी हो, मगर बहुत अच्छा लगा पढ़कर। पारम्परिक शहरों में आपको ऐसी ही सड़कें गलियां मिलेंगी, यदि यार्क से भी संकरी गलियां देखनी हों तो लखनऊ आइये, पुराने शहर की पेंचदार गलियों में घूमने के लिए। लेकिन आपको तो शायद स्पेस की तलाश है। वह तो चंडीगढ़ जैसे 'प्लान्ड' शहरों में ही मिल सकता है।
लगता है योर्क जाना ही पड़ेगा अब तो...
समय की शिलाओं से गढ़े स्मारक.
ऐसा लगता है कि हम भी साथ साथ शहर की गलियों में घूम रहे हैं...गहराई से महसूस किए गए पलों का सजीव चित्रण...
AAPKEE YORKSHIRE KEE YATRA NE MUJHE
DOBAARAA YATRA KARWAA DEE HAI .
BAHUT KHOOB ! SADHUWAAD AAPKAA.
इन दिवारों पर इतिहास के इतने निशाँ पढ़ चुके हैं की नए निशाँ का बोध भी नहीं हो पाता होगा उन्हें ... मालिक संस्मरण भी जोरदार लिखते हो ... माखून बचा कर रखना ... आगे भी बहुत कुछ लिखना है ...
आपने तो पूरी यात्रा ही करा दी :)
पत्थर पर कुछ असर हो जाये तो वो पत्थर कैसा ?
बेहतरीन शब्दों में वर्णित किया ...
किले की दीवार नाखून से खरोच कर देखता हूँ. पक्के पुराने पत्थर. नाखून चोटिल हो जाते हैं, पत्थर पर कोई निशान नहीं उभरता.
अंतिम पंक्ति बहुत से विचार दे गयी ..
स्पेस तो है बाबू। बिल्कुल है। और यदि नहीं है तो फिर हम सब की प्यारी उड़नतश्तरी भला इतनी सुन्दर सुन्दर उड़ाने कैसे भर रही है ? शायद इस पोस्ट की तारीफ़ में शब्दों की तलाश ज़रूर करनी पड़ेगी। अहा ! लो आज आपके दूसरे ब्लॉग लाल और बवाल "जुगलबंदी" को भी इसी बात पर कुछ हरा भरा किए देते हैं।
किले की दीवार नाखून से खरोच कर देखता हूँ. पक्के पुराने पत्थर. नाखून चोटिल हो जाते हैं, पत्थर पर कोई निशान नहीं उभरता.
bahut sahi baat hai.......
अपनी भाषा बोलने का लहजा संस्कृति की परछांई होता है, इंग्लैण्ड तो शासक वर्ग रहा है।
बहुत सुन्दर चित्रमयी प्रस्तुति!
यॉर्क शहर के बारे में अच्छी जानकारी दी है आपने!
सुन्दर चित्रण। पूरी यात्रा करा दी
यॉर्क शहर कि अच्छी जानकारी दी है आपने!
किले की दीवार नाखून से खरोच कर देखता हूँ. पक्के पुराने पत्थर. नाखून चोटिल हो जाते हैं, पत्थर पर कोई निशान नहीं उभरता.
बहुत बेहतरीन यात्रा वॄतांत, शुभकामनाएं.
रामराम.
अपने अंदाज़ में यॉर्क शहर घुमा दिया . और तस्वीरों की तमन्ना रह गई .
मकानों के भीतर बसते सन्नाटे की चीख जहाँ तहाँ सुनाई दे ही जाती है. किसी खिड़की से कुर्सी पर बैठी आसमान ताकती दो बूढ़ी आँखे- बहुत समय तक यादों में आपका पीछा करती हैं. कौन थकता है, नहीं मालूम मगर मुश्किल से ओझल होती हैं स्मृति पटल से.
Sameer padhkar bahut accha laga. ek nazar chaiye jo yeh sab jharokhon mein jhank paaye aur vah YOU HAVE. DAAD!!
बड़े ही दिलकश अंदाज़ में यात्रा वृतांत लिखा है आपने पढ़ कर मजा आ गया, अति सुन्दर...
बेहतरीन विवरण...योर्क दर्शन आपकी नज़रों से करके अच्छा लगा...
पढ़ते-पढ़ते लगा की शब्दों के साथ पाँव भी उन्हीं सड़कों और गलियों में साथ-साथ घूम रहे हैं!
अक्सर देखा जाता है की ऐसे संवेदनहीन जगहों पर भी हम जैसे लोग संवेदना देखने की ख्वाहिश रखते हैं...लेकिन पत्थरों में मजबूती है,ख़ूबसूरती है,तभी तो मूर्तियाँ गढ़ी जाती हैं उनसे... मगर जीवन्तता.....?? फिर बात किसी इमारत की हो,मूर्ति की हो,किसी के दिल की......!!!
इतना सुन्दर यात्रा वृत्तांत पढ़ने का सुअवसर आपने दिया ...शुक्रिया !!
किले की दीवार नाखून से खरोच कर देखता हूँ. पक्के पुराने पत्थर. नाखून चोटिल हो जाते हैं, पत्थर पर कोई निशान नहीं उभरता........
बहुत खूबसूरत ये पंक्तियाँ
पढ़ते-पढ़ते ऐसा एहसास हुआ मानों मैं वहीं कहीं हूँ और कोई मुझे वहाँ के बारे में बता रहा है एक दम जीता जागता चित्रण आगे भी इंतज़ार रहेगा...
किले की दीवार नाखून से खरोच कर देखता हूँ. पक्के पुराने पत्थर. नाखून चोटिल हो जाते हैं, पत्थर पर कोई निशान नहीं उभरता.
बहुत खूब कहा है ..।
एक पल को तो ऐसा लगा की मैं खुद वहाँ पहुच गया हूँ
बढ़िया वृत्तांत
काव्यात्मक रिपोर्तार्ज...निर्मल वर्मा जी की याद ताज़ा हो गयी...फोटो और लगाते तो आनंद तिगुना हो जाता...दुगना तो आपको पढ़ के ही आ जाता है...
नीरज
साथ साथ हम भी घूम लिए आपके .रोचक लगा यह चित्रण .........
वहाँ जाना कब नसीब होगा ..पता नही ?आपके द्वारा घूम लिए जनाब !कुछ फोटू और होते तो मजा तिगुना हो जाता ..
योर्क शहर के बारे में आपने बहुत सुन्दर वर्णन किया है! नयी जानकारी मिली! शानदार पोस्ट!
लिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/
आपको मेरी हार्दिक शुभकामनायें.
अगर आपको love everbody का यह प्रयास पसंद आया हो, तो कृपया फॉलोअर बन कर हमारा उत्साह अवश्य बढ़ाएँ।
बनारस से तुलना बहुत ही अच्छी बन पड़ी है । योर्क की यात्रा करवाने के लिये धन्यवाद
bahut khub ...rachna gahre asar chhodnewali hai ....
बहुत ही रोचक और ज्ञानवर्घक यात्रा -वृतांत
चित्र और वृत्तांत बहुत मन-भावन हैं
जैसे खुद ही कहीं
यात्रा कर ली हो
पत्रिका "सरस्वती-सुमन" में आपको पढ़ना
बहुत ही सुखद अनुभव रहा
बधाई स्वीकारें .
पत्थर तो पत्थर हैं उस पर जख्म कहां दिखेंगे...
चोटिल तो हम ही होंगे....
बहुत सुंदर चित्रण.....
yayavari vritti ka damdar varnan!!!!!
बहुत रोचक अंदाज़ में लिखा बढ़िया वृत्तांत ...
बहुत ख़ूब समीर जी, प्रेरणादायक लेख...
"नक्श पत्थर पे तहरीर कैसे करूं?
[सब कहा जा चुका है तो अब क्या लिखू,]
कुछ खरोचा तो, नाख़ून हुए है लहू,
थक गया मैं 'जगह'* ढूँदते-ढूँदते." *[space]
और भी है... आत्म-मंथन पर....
http://aatm-manthan.com
--mansoor ali hashmi
योर्क पड़ोस में है और वहां कई बार गई हूँ लेकिन आपके साथ इतने करीब से पहली बार देखा...
किले की दीवार नाखून से खरोच कर देखता हूँ. पक्के पुराने पत्थर. नाखून चोटिल हो जाते हैं, पत्थर पर कोई निशान नहीं उभरता. अंतिम पंक्ति बहुत असदर सी लगी.... वैसे आपकी हर पोस्ट में अंत एक कविता से होते हुए ही पढ़ा है अब तक.. इसमें क्यूँ नहीं है..... :-(
"नाउम्मीद अहसासों के पालक भिन्न भिन्न परिवेशों के सेलानी. पतली पतली गलियों नुमा सड़कें/उस पर से गलियों की असीमित ख्वाहिश, दो भवनों के बीच झीरी में तब्दील होती/ जिन गलियों"
गद्य पढ़ने की आदत डलवा रहे हो आप और प्रवीण भाई|
उपरोक्त शब्द संयोजन आप के इस यात्रा से गहरे जुड़ाव को सहज ही बयान कर रहा है|
और वहाँ भी 'नट-नटनी'..............
सारी दुनिया गोल है भाई ..........
शब्दों और भावों को सजाना कोई आपसे सीखे।
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बेहतर लेखन की ‘अनवरत’ प्रस्तुति।
अब आप अल्पना वर्मा से विज्ञान समाचार सुनिए..
अच्छे बिम्ब उकेरे हैं। बधाई।
अच्छा यात्रावत्त। सुंदर चित्र। आभार॥
बहुत बढ़िया चित्रण किया है समीर भाई। और सुनाईये कैसे हैं आप? और हमारा आर्यव ठीक है न? सुना है सीटी बजाने लगा है आजकल...:)
इस पोस्ट को महसूस कर रहा हूँ-अपने प्रत्येक रक्त-कण में किन्तु व्यक्त कर पाना मुमकिन नहीं हो पा रहा। हाशमीजी की कविता में मेरी बात को शामिल कर लीजिएगा।
क्या मस्त मस्त लिखतें हैं आप समीर भाई.
लगा जैसे यार्क की सैर मै खुद ही कर रहा हूँ.
आपकी यह बात पढकर कि
उनकी ईंट जड़ित जमीन मुझे एहसास कराती कि मैं बनारस की गलियों में घूम रहा हूँ- गलियों में आती हवा में घोड़े की लीद की गंध और दीवारों से उठती सीलन मेरी इस सोच को और पुख्ता करती लेकिन शीघ्र ही अपनी विशिष्ट गंध से आकर्षित करती पान, जलेबी और दूध की दुकानों का आभाव और पंडों का न दिखना मुझे वापस यॉर्क के धरातल पर ला पटकता.
मैं कल्पना कर रहा हूँ कि
जब वहाँ भी पान,जलेबी और दूध की दुकाने खुल जायेंगीं और पंडे भी आ जायेंगें तब तो वहाँ भी बनारस लगेगा न.
सुन्दर रोचक,धाराप्रवाह प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार.
आपकी आज्ञा का पालन कर दिया है मैंने.
मेरे ब्लॉग पर आकर देख लीजियेगा.
बनारस की गलियाँ, बनारस छोड़ और कहाँ मिलेगी....
सुन्दर संस्मरणात्मक पोस्ट...या कहें गद्यात्मक नज़्म...
बनारस की गलियाँ, बनारस छोड़ और कहाँ मिलेगी....
सुन्दर संस्मरणात्मक पोस्ट...या कहें गद्यात्मक नज़्म...
लन्दन और यार्क शहर के यात्रा संस्मरण बेहद भावपूर्ण हैं .. पढ़कर रोमांचित हूँ ...आभार
यूनिवर्सिटी की पढ़ाई से फुर्सत मिल गयी. अब या तो खुद से पढ़े या फिर दूसरों को पढ़ायें.. लेकिन अब ब्लॉग सुधार कार्यक्रम शुरू कर दिया है.. फुर्सत के समय में अब कभी मन की बात टीपने की सोच रहा हूँ.. कहीं न कहीं अपनी साँसों को चलने दूँ.. ऐसे तो लगेगा हम मर ही गये.
स्पेस की तलाश और अन्य तलाश खाने के बाद करता हूँ.. अभी तो बस हवा खाने निक्ल आया था. ;)
आपका अंदाज़े बयाँ है कुछ और !
बहुत सुंदर यात्रा वृतांत... आपके साथ हम भी घूम लिए.... लेकिन एक बात मन को कचोटती बहुत, की आखिर इन बड़े -बड़े शहरों की संवेदनहीनता कभी ख़त्म भी होगी ?....
यार्क जो तस्वीर खींची है उससे मन बाग़ बाग़ हो उठा. आभार.
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