-१-
दमन की मुखालफत
और
सहानुभूति की दरकार ने
बाँट दिया
हजारों
महिला, माता, बहनों, बच्चों, बूढ़ों
और स्वयं सेवकों में!!!!
वरना
लाख से ज्यादा आंदोलनकारी
खड़े थे एकजुट!!!
-२-
पुश्त दर पुश्त
देखते सहते
हो गई आदत...
बन गई
एक जीवन शैली..
स्वीकार्य
मानिंद
प्रारब्द्ध अपना..
नई पीढ़ी
खुद बदली..
जुनून में
एक ब एक
सब कुछ
बदल देने की चाहत...
इन्तजार
नहीं होता अब
एक पीढ़ी के
गुजर जाने का....
थामते थे जो
बढ़ते कदम!!!!
नई भोर की आस
रक्तिम आकाश!
-समीर लाल ’समीर’
नोट: अब अगली पोस्ट लंदन पहुँच कर २२ तारीख को.
73 टिप्पणियां:
बेमिसाल दोनों ही रचनाएँ समसामयिक हैं...... गहन अर्थ लिए उत्कृष्ट अभिव्यक्ति...
हौसला रखिये...आपके शब्दों को अर्थ भी मिल जायेंगे !
badlaav to hoga par vakt lagega...achi rachna .badhai...
सब कुछ
बदल देने की चाहत... इन्तजार
नहीं होता अब
एक पीढ़ी के
गुजर जाने का....
...लेकिन किसी भी बदलाव में समय तो लगता है. फ्रांस की क्रांति 1779 में हुई लकिन लोकतंत्र की व्यवस्था 1848 में लागू हुई. भारत 1947 में आज़ाद हुआ लेकिन आम लोगों को अभी तक खुली हवा में सांस लेने का अवसर नहीं मिला. अब तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतान्त्रिक तरीके से विरोध के अधिकार को भी छीनने की तैयारी हो रही है. देश दूसरे आपातकाल की और बढ़ रहा है.
नई भोर की आस तो है ही... देखिये अब वो भोर कब आती है... ? कदम भी बढ़ रहे हैं... लेकिन उस कदम पर इतना बोझ है कि ... कि ...कदम को बढ़ने में दम लगाना पड़ रहा है... उम्मीद पर ही दुनिया कायम है... और अभी यह उम्मीद और पीढियां लेंगी... तब जाकर कोई रिनेसौं आएगा.....
चित्र के साथ कविता बहुत अच्छी लगी...
नई भोर की आस तो है ही... देखिये अब वो भोर कब आती है... ? कदम भी बढ़ रहे हैं... लेकिन उस कदम पर इतना बोझ है कि ... कि ...कदम को बढ़ने में दम लगाना पड़ रहा है... उम्मीद पर ही दुनिया कायम है... और अभी यह उम्मीद और पीढियां लेंगी... तब जाकर कोई रिनेसौं आएगा.....
चित्र के साथ कविता बहुत अच्छी लगी...
जो बिकता है वो दिखता है...
कारोबारियों या चमत्कारियों के मजमा जुटाने से इंकलाब नहीं आते...उसके लिए भगत सिंह जैसा जुनून होना ज़रूरी है...
जय हिंद...
इन्तजार
नहीं होता अब
एक पीढ़ी के
गुजर जाने का....
थामते थे जो
बढ़ते कदम!!!!sahi kaha
वह सुबह कभी तो आयेगी।
वो सुबह कभी तो आएगी ...
कहा गया है कि कार्य के प्रारंभ में शेर जैसी ताकत लगाना चाहिए, कार्य सफ़ल होता है।
शक्ति बचाकर किए गए कार्य में असफ़लता ही मिलती है।
सामयिक कविता के लिए आभार
मिलते हैं लंदन में।:)
इन्तजार
नहीं होता अब
एक पीढ़ी के
गुजर जाने का....
kina bada sach kah diya aapne.yahi to baat hai.
शब्दों में उतरे हैं भाव खुद ही ...सुन्दर
गहन अर्थ लिए उत्कृष्ट अभिव्यक्ति|
गहन भावों के साथ अनुपम प्रस्तुति ।
वो सुबह ,नयी और पुरानी ,दोनो पीढ़ियों के समन्वय से ही आयेगी .... सादर !
भोर की आस तो सभी को है ... और सभी को जल्दी भी है ...
बहुत संवेदनशील समीर भाई .... लंदन प्रवास शुभ हो ...
चित्र के साथ दोनों ही रचनाएँ बहुत अच्छी लगी..
कहावत है रात जितनी अंधेरी होगी सुबह उतनी ही सुहानी होती है।
आमीन।
भाई समीर जी बहुत सुंदर कविता बधाई आपका मेरे ब्लाग पर आना अच्छा लगा आभार |
कैसे बदल जाता है यक-ब-यक लेखन से कविता का मूड:)
इन्तजार
नहीं होता अब
एक पीढ़ी के
गुजर जाने का....
थामते थे जो
बढ़ते कदम!!!!
नई भोर की आस
रक्तिम आकाश!
बहुत सामयिक एवं सटीक रचना ! इन बढ़ते कदमों को कोई ना रोक सके यही होना भी चाहिये ! बेह्तरीन रचना ! बधाई !
मेरा बिना पानी पिए आज का उपवास है आप भी जाने क्यों मैंने यह व्रत किया है.
दिल्ली पुलिस का कोई खाकी वर्दी वाला मेरे मृतक शरीर को न छूने की कोशिश भी न करें. मैं नहीं मानता कि-तुम मेरे मृतक शरीर को छूने के भी लायक हो.आप भी उपरोक्त पत्र पढ़कर जाने की क्यों नहीं हैं पुलिस के अधिकारी मेरे मृतक शरीर को छूने के लायक?
मैं आपसे पत्र के माध्यम से वादा करता हूँ की अगर न्याय प्रक्रिया मेरा साथ देती है तब कम से कम 551लाख रूपये का राजस्व का सरकार को फायदा करवा सकता हूँ. मुझे किसी प्रकार का कोई ईनाम भी नहीं चाहिए.ऐसा ही एक पत्र दिल्ली के उच्च न्यायालय में लिखकर भेजा है. ज्यादा पढ़ने के लिए किल्क करके पढ़ें. मैं खाली हाथ आया और खाली हाथ लौट जाऊँगा.
मैंने अपनी पत्नी व उसके परिजनों के साथ ही दिल्ली पुलिस और न्याय व्यवस्था के अत्याचारों के विरोध में 20 मई 2011 से अन्न का त्याग किया हुआ है और 20 जून 2011 से केवल जल पीकर 28 जुलाई तक जैन धर्म की तपस्या करूँगा.जिसके कारण मोबाईल और लैंडलाइन फोन भी बंद रहेंगे. 23 जून से मौन व्रत भी शुरू होगा. आप दुआ करें कि-मेरी तपस्या पूरी हो
राजतंत्र में दमन की बात समझ मे आती है लेकिन लोकतंत्र में ऐसा हो तो बस समझिए कि किसी भी पल क्रांति आ जाएगी... फिर कोई भी नई सुबह को आने से रोक न पाएगा...
क्या बात है..
दोनों ही रचनाएं, मन उद्वेलित कर गयीं.
खूबसूरत, सामयिक, बधाई।
गहन भाव
गंभीर मसले को हौसला देने को धन्यवाद
नई पीढ़ी
खुद बदली..
जुनून में
एक ब एक
सब कुछ
बदल देने की चाहत...
इन्तजार
नहीं होता अब
एक पीढ़ी के
गुजर जाने का....
थामते थे जो
बढ़ते कदम!!!!
वाह! बहुत खूब लिखा है आपने! गहरी सोच के साथ शानदार रचनाएँ और साथ ही सुन्दर चित्र के साथ उम्दा प्रस्तुती!
एक चिंगारी भड़की है। इसकी लौ जलाए रखना ज़रूरी है। साहित्यकार इस मुहिम में बहुत पीछे रह गए हैं। आपने अपनी भूमिका निभा दी है।
आस तो रखनी हो होगी , ईश्वर पर , क्रांतिकारियों के हौसलों पर और स्वयं पर भी ।
नयी पीढ़ी बहुत समझदार है...वो जानती है की बदलने की गुंजाईश नहीं है...इसलिए चलती का नाम गाड़ी वाला एटीटयूड इख्तियार कर लिया है...कहती है जीवन अगर यात्रा है...तो जनरल बोगी में सफ़र करने से अच्छा है...एसी कोच में सफ़र करना...चाहे कोई भी रुट अपनाना पड़े...
बढि़या...ऐसा भी होता है टाइप
हंसी के फव्वारे में- हाय ये इम्तहान
इन्तजार
नहीं होता अब
एक पीढ़ी के
गुजर जाने का...
Besabri ka aalam hai aur us par aap ke kadam tez raftaar se aage aur aage.............!!
Kalam ka zor aur behtar......!!
Badhayi
लोग सोचने की दशा और दिशा दोनों ही बदल चुके हैं. "अपना" नफा-नुकसान लगा लेते हैं पहले ही.
हर रात की सुबह होती है .वह सुबह भी जरुर आएगी.
गहन अभिव्यक्ति.
आज के समय में स्वार्थपरक भावनाओं ने अपनी समाज में गहरी जड़ें जमा ली हैं ... अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु आन्दोलन किये जा रहे हैं चाहे नेता हो या बाबा .... दोनों रचना बहुत कुछ सन्देश दे रही हैं ...आभार
पुश्त दर पुश्त
देखते सहते
हो गई आदत...
बन गई
एक जीवन शैली..
सही कहा आपने हमें किसी भी चीज़ की आदत हो जाती है
नई भोर की आस
रक्तिम आकाश!
bahut sunder rachna ...aasha hi jeevan hai ..!!
'परचा' कठिन था दाद ही देकर चले गए !
आये थे भूखा रहने वो खाकर ['मार'] चले गए.
'बाग़ी' के तेवरों से लरज़ते है हुक्मराँ,
'पोषाक' वो तो अपनी बदल कर चले गए!!
http://aatm-manthan.com
स्वीकार्य
मानिंद
प्रारब्द्ध अपना.
चार शब्द और सब कुछ कह दिया गया है| बधाई|
वर्तमान परिवेश पर कम शब्दों में ज्यादा कह गए ।
समय बदलता है , पीढियां भी बदलती हैं । जो आज नई है , कल पुरानी होगी ।
लेकिन सोच का बदलना ज़रूरी है ।
नई पीढ़ी से हमेशा नई उम्मीद रहती है ।
दोनों शब्द चित्र गहन भाव रखे हुए ..
नई भोर की आस
रक्तिम आकाश!
बस इसी भोर का तो इंतज़ार है ..
इन्तजार
नहीं होता अब
एक पीढ़ी के
गुजर जाने का....
थामते थे जो
बढ़ते कदम!!!
क्या प्रस्तुति है वाह! आपका जवाब नहीं सर!
नई भोर की आस
रक्तिम आकाश!
ये आस बनी रहे ----
दोनों ही रचनाएँ बहुत उम्दा हैं!
फादर्स-डे की बहुत बहुत शुभकामनाएँ!
बहुत अच्छे लगे आपके ये दोनों शब्द चित्र
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कल 20/06/2011को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की गयी है-
आपके विचारों का स्वागत है .
धन्यवाद
नयी-पुरानी हलचल
उस भोर की ओर सभी आस लगाये बैठे हैं उम्मीद की किरण कभी तो जगेगी
gahan arth liye hain dono rachnayen ....
बाबा और अन्ना ने अलख जगाई है जरुर इस रात की सुबह भी होगी..
बस इन जुनूनी दीवानों को चमत्कारियों के मजमा कहने वाले लोगो को अपने विचारों में परिशोधन की जरुरत है..
क्या इन्कलाब १० जनपथ में दलाली लड्डू बटने से आएगा???
अति सुन्दर रचना के लिए बधाई
बाबा और अन्ना ने अलख जगाई है जरुर इस रात की सुबह भी होगी..
बस इन जुनूनी दीवानों को चमत्कारियों के मजमा कहने वाले लोगो को अपने विचारों में परिशोधन की जरुरत है..
क्या इन्कलाब १० जनपथ में दलाली लड्डू बटने से आएगा???
अति सुन्दर रचना के लिए बधाई
नई भोर की आस
रक्तिम आकाश !
बहुत सुंदर पंक्तियाँ है !
नई भोर होगी जरुर होगी
सिर्फ कोहरे में ढकी है आज प्रभात !
nice post .. umda shabdon ka istemal kiye hain..
नई भोर की आस
रक्तिम आकाश!
विश्वास बरकरार तो आस भी बरकरार
गागर में सागर जैसे भाव।
---------
टेक्निकल एडवाइस चाहिए...
क्यों लग रही है यह रहस्यम आग...
आग की लपट अब शबाब पर है
झुलसने को तैयार रहें वो लोग
जिन्हें आदत पड़ी है धुंआ छिपाने की
आपकी दोनों कवितायें झकझोर देने में सक्षम हैं
बहुत उम्दा कवितायें समीर जी
धन्यवाद !
बेहतरीन लगी आपकी यह दोनों रचनाएँ ...
कविताओं में आप भाव भर देते हैं... दोनों शब्द चित्र बोल रहे हैं...
beautiful poem
वाह समीर भाई
अदभुत
अब पुन: सक्रीय हो गया हूं
स्नेह बनाए रखिये
बावस्ता रहगुजर से उम्मीदे बहार रख.
आपने मेरे ब्लॉग पर आकर जो मेरा उत्साहवर्धन किया है,उसके लिए मैं दिल से आभारी हूँ.युरोप के टूर पर गया हुआ था,कल ही लौटा हूँ.
आपके ब्लॉग पर देरी से आने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ.आपकी शानदार रचना से मन प्रसन्न हो गया.यह लाइन बहुत अच्छी लगी ' नई भोर की आस
रक्तिम आकाश!'
इन्तजार
नहीं होता अब
एक पीढ़ी के
गुजर जाने का....
थामते थे जो
बढ़ते कदम!!!! नई भोर की आस
रक्तिम आकाश!
बहुत खूब..हमेशा की तरह...कम शब्दों में गहरी बात
आकाश रक्तिम होने के पश्चात् ही नया दिवस उदित होता है .अब अगली नहीं ,परिवर्तन इसी पीढ़ी को लाना है ,कि हम भी करें उस नये प्रभात का स्वागत देख और सकें नई आशाओं का उदय !
दरअसल, कितनी गहरी मिलावट है जीवन के, दिमाग के तंतुओं में कि हमसे क्रांति का सूत्रपात भी नहीं होता अब...। जो दिखता है, वह समय ढलते रफा हो जाता है, कुछ नया सा दिखने लगता है और हवा उसकी ओर बहने लगती हैं..फिर पालिश होती है सरकारी बूट पालिश की तरह चमकाने की..चमकते हैं, भूल जाते हैं जन..जनवादी विचार...। दिखती है रोटी...।
साधु, संन्यासी, योगी, भोगी सब कोई तो करोडों में भीगा हुआ...। खैर...बढते कदम..नई भोर की आस....रक्तिम आकाश...खूब कह गये अंत में..जिसका अर्थ भी कुछ होने की उन संभावनाओं की ओर इंगित करता है जो न होने की चाहत रखता है..रक्तिम...., किंतु सच यही है..आकाश रक्तिम होना है..सुबह की किरणे रक्तिम होना ज्यादा पसंद करती है.....।
सब कुछ
बदल देने की चाहत... इन्तजार
नहीं होता अब
एक पीढ़ी के
गुजर जाने का....
बेमिसाल- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
बदलाव होगा । होने के आसार तो दिखने लगे हैं .
अति उत्तम और सहज लिखावट ............
वाह...
चित्र के साथ कविता बहुत अच्छी लगी ,
बेह्तरीन रचना !
बधाई !
सुंदर शब्द चित्र अपनी पांक्तियों में उकेरा है आपने सर...
Thank u..
Pooja Goswami to me
नई पीढ़ी
खुद बदली..
जुनून में
एक ब एक
सब कुछ
बदल देने की चाहत...
बढ़िया प्रस्तुति...दोनों कविताएँ यथार्थ के करीब॥
सदैव की भांति उत्तम रचना|
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