टेबल लेम्प की फीकी रोशनी. सामने टेबल पर एक काँच का गिलास और उसमें बची दो घूँट स्कॉच. उसी टेबल पर छितराये कुछ कोरे कागज, एक पेन्सिल और बगैर जिल्द वाली कोई पुरानी शेरो शायरी की किताब.
मुझे बाँसुरी बजाना नहीं आता..वरना बहुत पहले तुम्हें सम्मोहित करने को धुन छेड़ चुका होता. मलाल बहुत से हैं मेरे जीवन में, उनमें से एक यह भी है.
हाथ मसलता हूँ आपस में और फिर...
पैंसिल उठाकर उसको मानिंद बाँसुरी लगा लेता हूँ अपने ओठों से और जाने क्यूँ, कुछ धुन छेड़ देने को जी चाहता है.
फिर मन हार, कागज पर कुछ लकीरें खींच, आड़ी तिरछी- उसमें तुम्हें खोजता हूँ.
पानी लेने रसोई तक जाना होगा. उदासी आलस बन गई.
ऐसे ही नीट स्कॉच गले से उतार लेता हूँ और अहसासता हूँ उतरते उस आग के गोले को- हलक से पेट की गहराई तक.
आँख में जलन उतर आती है एक चमकीली लाल डोरी के साथ. एक छोटी सी बूँद बह निकली आंसू की-मानो तुम्हारी याद जिसे वो चमकीली डोरी बाँध के न रख पाई.
ओंठों को गोल कर-एक भरपूर कोशिश- सीटी बजा कोई दिली धुन निकालने की.
बस, एक फुसफुसाहट-कोरी हवा की.
आज फिर एक नाकामी हाथ लगी!!!
यूँ ही तमाम होगी एक दिन- ये याद, ये इन्तजार की घड़ी और मेरी जिन्दगी!!!
जब भी उठती है
कहीं दूर वादियों में
बाँसुरी की धुन....
जाने क्यूँ...
बहुत याद आती हो
तुम!!!
-समीर लाल ’समीर’
77 टिप्पणियां:
उफ़ कितनी बार कहा कि बढिया वाली स्काच पिया करें जिससे गले से उतारने में तकलीफ़ न हो, लगता है इस बार भी देसी वाली चढा ली आपने.
लगता है पार्सल भेजना ही पडेगा ;-)
आपने तो बस "मलाल बहुत से हैं" कहकर अकेली शाम के अंधेरे कमरे मे कितने अरमान जगा दिये और अरमान भी कैसे कि बस पलक झपकते ही बुझकर अफ़सोस बन जाना उनकी नियति हो ।
वैरी बैड समीर अंकल, वैरी बैड...
बाँसुरी की धुन में सम्मोहन होता है। मन, हाथ, आँख, गला, जब सब अपनी व्यथा कहने लगें तब जो चित्र उभरेंगे, उनका सुन्दर वर्णन किया है आपने।
क्या चित्र खींचा है....क्या कहने...बांसुरी की धुन पे कोइ याद आता है...
जब भी उठती है
कहीं दूर वादियों में
बाँसुरी की धुन....
जाने क्यूँ...
बहुत याद आती हो
तुम!!!
waah
आपकी पोस्ट में ऋतुराज की खनक सुनाई दे रही है!
बहुत बढ़िया!
Sham ko Dekhata hoon
ओह! तो आज यहाँ बैठी है!
यह उदासी नामधारी चिड़िया बड़ी शैतान है। कभी इस ब्ल़ॉग पर तो कभी उस ब्लॉग पर जा बैठती है।
...बांसुरी सीखना कोई कठिन काम नहीं। सिर्फ अपने पास रखिए और पेंसिल की जगह उसे फूंका कीजिए। ऐसे माहौल में ही बांसुरी बजाना आसान होता है।
...संघर्ष और नाकामी के दिनो की याद दिलाती सशक्त अभिव्यक्ति।
सजीव चित्रण अवसाद में स्थिरता पाने का!!
प्रणाम स्वीकार करें
ऐसे ही नीट स्कॉच गले से उतार लेता हूँ और अहसासता हूँ उतरते उस आग के गोले को- हलक से पेट की गहराई तक.
आँख में जलन उतर आती है एक चमकीली लाल डोरी के साथ. एक छोटी सी बूँद बह निकली आंसू की-मानो तुम्हारी याद जिसे वो चमकीली डोरी बाँध के न रख पाई.......
sameer bhaiya.......neet kyon:D
यादों का पिटारा अच्छा लगा।
ओंठों को गोल कर-एक भरपूर कोशिश- सीटी बजा कोई दिली धुन निकालने की.
बस, एक फुसफुसाहट-कोरी हवा की.
आज फिर एक नाकामी हाथ लगी!!!
यूँ ही तमाम होगी एक दिन- ये याद, ये इन्तजार की घड़ी और मेरी जिन्दगी!!!
"...................."
बाँसुरी की धुन और यादों का रिश्ता तो शायद दुआपर से ही चला आ रहा है। सुन्दर रचना।बधाई।
मीठा मीठा दर्द देती यादों की सरगम.
नौरंगी ही बढिया है
नौ रंग दिखाती है
यादों के साथ-साथ
वो भी चली आती है
:)
जब भी उठती है
कहीं दूर वादियों में
बाँसुरी की धुन....
जाने क्यूँ...
बहुत याद आती हो
तुम!!!
मन झंकृत हो गया
kuch ajeeb si kaskak hai ismen,han aisa bhi hota hi ha jeevan men khair bahut2 badahai...
"ऐसे ही नीट स्कॉच गले से उतार लेता हूँ और अहसासता हूँ उतरते उस आग के गोले को- हलक से पेट की गहराई तक. "
Aaah !
अच्छा है
जाने क्यूँ...
बहुत याद आती हो
तुम!!!
...बेहतरीन भावाभिव्यक्ति ..बधाई. !!
दिल को छु गयी आपकी ये खुबसुरत,प्रेममयी खुशबुदार रचना....बहुत सुंदर।
"यादों का आना और तुम्हे बुलाना,संगीत के सहारे ही तुम्हारे दिल मे उतर जाना"........मोहब्बत का एक अनुठा रंग।
नाकामी भी ऐसी सुरीली.
आज तो जैसे सारा दर्द समेट लिया है ..
जब भी उठती है
कहीं दूर वादियों में
बाँसुरी की धुन....
जाने क्यूँ...
बहुत याद आती हो
तुम!!!
माशाअल्लाह ये तो वो मुम्बई वाली की याद दिखती है जो विल्स के पन्नों पर उतरी थी?:)
लाजवाब.
रामराम.
NIHAAYAT HEE KHOOBSOORT LEKH KE
SAATH MARMSPARSHEE PANKTIYAN .
KISEE SHAAYAR KEE PANKTIYAN YAAD
HO AAYEE HAIN -
TEREE AAWAZ KEE JADUGAREE SE
NJANE KIS JAHAN MEIN KHO GYA HOON
ISEE AAWAAZ SE CHAUNKA THAA LEKIN
ISEE AAWAAZ MEIN GUM HO GYAA HOON
भारत मे बांसुरी बजती हे, ओर सुनाई कनाडा मे देती हे, हमारे सर से निकल जाती हे.. बहुत सुंदर, धन्यवाद
udasi ko abhivyakt karti shashakt rachana.....andhera kamra bansuri.aag ka gola,aansoo..bahut sunder shabd chachayan..
यूँ ही तमाम होगी एक दिन- ये याद, ये इन्तजार की घड़ी और मेरी जिन्दगी!!!
किसी ने कहा था --
जीने की तमन्ना में मरे जाते हैं लोग
मरने की आरजू में जिए जा रहा हूँ मैं ।
मियां बसंत के दिनों में ऐसी बात क्यों करते हो ।
सुंदर ।
यह तो अलग राग छेड़ रहे हैं आप!
घुघूती बासूती
Что подарите маме и девушке на 8-е марта?
जाने क्यूँ, बहुत याद आती हो तुम !!!
एकान्त के उन कुछ खास पलों में...
"श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम ,लोग करें मीरा को यूहीं बदनाम "
समीर जी आपकी बांसुरी किसकी धुन छेड़ना चाह रही है, कृपया बताएं, वर्ना लोग यूँ ही बदनाम करेंगे आपको.
'मनसा वाचा कर्मणा' पर आयें.कुछ दिल बहल जाएगा आपका .
ये उदासी भी फ़बती है आप पर, लेकिन मुस्कुराहट से कम!! लेकिन नीट उदासी कोई स्कॉच नहीं बहुत मुश्किल होता है लीलना..
"देख लूँ तो चलूँ" पर अपनी बात आज रखी है.. इसे बस इत्तिला समझें..आकर देख जाएँ तो खुशी होगी!!
बाँसुरी बजाना न आने का मलाल मुझे भी बहुत है।
पर जब किसी की याद आए तो सीटी पर धुन तो बजा सकता हूँ। ओह! देखिए, कितनी जलन पैदा हो गई है। मैं आपस में तुलना करने लगा। चलो रसोई तक जा कर दो गिलास पानी हलक में डाल लेता हूँ। शायद जलन कम हो ...
इस शब्द चित्र ने मन फ़लक पर सुंदर तस्वीर अंकित कर दिया है।
अद्भुत!!
अजीब इत्तेफाक है ये वाला मलाल तो हमें भी है.
जिन्दगी यूं बसर हुई तन्हा..
जब भी उठती है
कहीं दूर वादियों में
बाँसुरी की धुन....
जाने क्यूँ...
बहुत याद आती हो
तुम!!
सुन्दर रचना।बधाई।
चचा पहले तो आप कनाडा से जबलपुर सर्र से चले जाते थे...लेकिन आजकल यात्रा कम कर रहे हैं क्या...गुस्ताख आपके आशीर्वाद के बिना अधूरा सा महसूस करता है।
जब भी उठती है
कहीं दूर वादियों में
बाँसुरी की धुन....
जाने क्यूँ...
बहुत याद आती हो
तुम!!!
यह बिम्ब और भाव का शब्दिक अवतरण दोनों बेमिसाल ......
बांसुरी की धुन और तुम्हारा याद आना ....अंतर्मन की भावनाओं को दर्शा गया ...सुन्दर ..
उदासी और खुशी -दोनों इन्फ़ेक्शस होती हैं ,
चलिए ,यही सही !
आड़ी तिरछी लाईनों वाले कागज़ की तस्वीर लगा देते ...समझ तो आता की बांसुरी किसकी याद दिलाती है ...
आलेख और कविता की उदासी मन को उदास कर रही है !
वाह,फिर उम्दा पोस्ट.
बाँसुरी की धुन पर किसी का याद आना मन को भा गया . आभार.
आज आपकी कलम में अमृता प्रीतम नज़र आयी.
पता नहीं क्यों.
सलाम
कम शब्दों में सलीके से बात कहने का आपका हुनर क़ाबिले-तारीफ़ है.
पढ़कर अच्छा लगा.
ज्यादा स्काच पीनी ठीक नहीं...वोदका शुरू कर दें..ग्रे गूज या फिर स्नो क्वीन...इस से क्या है नाकामी का अहसास भी बना रहता है और जलन भी नहीं होती...:-)
नीरज
सरकार, शब्दों की ये जादूगरी मन को छू गयी है।
...और हाँ, किताब उधर घर पर पहुंच चुकी है। होली में छुट्टी लेकर घर जा रहा हूं। पढ़ने की उत्कंठा अपने चरम पर है, विशेष कर तमाम समिक्षायें पढ़ लेने के बाद...
काल करूंगा।
बांसुरी की धुन जुदाई के दर्द को और गहरा देती है .. बहुत खूब समीर जी
बाऊ जी,
नमस्ते!
!!!!!!!!!
!!!!!!!!!
!!!!!!!!!
आशीष
---
लम्हा!!!
तप्सरा और फिर कागज़ पर उतरे कुछ शब्द ....
कितना कुछ होता है बांसुरी की धुन में ... लाजवाब समीर भाई ...
yaad..jindagi ki kadvi-mithi tis..aaj to kahin aur hi hain hum!
oye hoye jnaab kya khoobsoorti se byan kiya hai apne kisi ki kami ko.
sach main dil me utar gaya apka likha hua.
shukriya.
वाह...वाह..वाह...के आगे और क्या कहा जाय...अभी तो समझ नहीं पड़ रहा...
ओ दादा! ये किसकी कही?जग की ?या खुद की?
आप जैसे माहिर जग की कहते हैं तो भी खुद में सब उतार कर और अपनी कहते हैं तो भी सबके अनुभवों सा. पता ही नही चलता कि ये....किसका सत्य है.अपना हो कर भी जो अपना नही लगता.कौन सी कसक है जो एक दो रचना के बाद ही फिर आ जाता है.देखो ना वही सब इसमें भी है और अनुभूति की गहनता ने गद्य में पद्य-सी गहराई भर दी तो पद्य ?????अधूरा अधूरा सा रहा अचानक नींद टूट जाने से पहले वाला सपना सा.
सकोच के अपने अनुभव हैं एक घूँट अंदर गई और निर्विकार और अनावृत कर देता है मन को .दो से ज्यादा के बाद का अनुभव मुझे नही.
मगर ये सब पढ़ कर मन उदास हुआ है मेरा,दादा!
बांसुरी की धुन ....और ..वृन्दावन युगों पहले का.
आप कहाँ पहुंचे, नही मालूम? मुझे तो जिसने रंग दिया उसका आभास देती है आपकी ये रचना.
किसके लिए मेरे दादा के मन में आज भी कसक है बांसुरी बजा ना पाने की किन्तु .....उस पल क्या बिना होठों से लगाये ही आपने धून नही सुनी उसकी? ऐसा हो ही नही सकता.जब पढ़ती हूँ अपने दादा के चेहरे को पढ़ती हूँ और हथेली बढा देती हूँ अपनी.
इतने सस्ते नही आपके आँसू ....उसके लिए बहे जिसने मुड कर एक बार भी नही देखा अँधेरे में यादों के चराग जलते मेरे दादा को.
प्यार,चरण स्पर्श
अआप जैसा तो नही लिखना आता मुझे किन्तु डूबना आता है. किसी भी रचना में मैं रचनाकार के अक्स को देखती हूँ.किसी और के अनुभव में भी बिना डूबे कोई कुछ कैसे लिख सकता है दादा!
यादें जीने का सहारा बन जाती है अच्छा भी है किन्तु अँधेरे में वे हमे खींच कर दुःख या विषाद की गहराइयों में डूबाने लगे तो....उन्हें छोडना अच्छा है.
प्रसिद्द, समृद्ध, प्यारा,सम्मानीय,लोकप्रिय मिस्टर समीरलाल जी का ये कैसा रूप है?वो एक शब्दों का जादूगर है या ..............इतना ज्यादा संवेदनशील व्यक्ति जो नही भूल पाया 'उस' अपने को और अपनों को ? बस सोच रही हूँ.
शायद ज्यादा सोचती हूँ.
हा हा हा क्या करूं? ऐसिच हूँ मैं तो
पर दादा! आपको प्यार भी करती हूँ और आपकी चिंता भी. किस रिश्ते से ?? हा हा हा जानती तो बता ना देती.दादा! ऐसी रचनाएँ मत लिखा करो.मुझे बिलकुल अच्छी नही लगती.मैं बहुत रोती हूँ पढ़ने के बाद.
......................................................
...................................................
बाँसुरी के सुरों में तो जादू होता है। जैसा मन होता स्वर भी हमें वैसे ही लगने लगते हैं। पीड़ा में पीड़ा को बढ़ा देते हैं और खुशी के क्षणों में बाँसुरी मन को खुशी से भर देती है। एक अच्छी रचना के लिए
बधाई स्वीकारें।
आज आपकी पोस्ट पढ़ कर अपनी सारी गर्ल फ्रेंड्स याद आ गयीं...,
आज पता नहीं कईयों को हिचकियाँ आयीं होंगीं... रचना बहुत सुंदर लगीं ...मन झंकार हो उठा....
shabdon men lipti hui udaasi udaas kar gayee.
जब भी ये दिल उदास होता है,
जाने कौन आस-पास होता है,
रोज आती हो तुम ख्यालों में,
ज़िंदगी में भी मेरी आ जाओ,
एक मासूम सा सवाल लिए...
जब भी ये दिल उदास होता है...
जय हिंद...
आपकी पुस्तक ’देख लूँ तो चलूँ’ के बारे में विस्तृत जानकारी हिन्दी साहित्य संगम जबलपुर ब्लॉग पर देखा......बहुत बहुत बधाई समीरजी !
जब भी उठती है
कहीं दूर वादियों में
बाँसुरी की धुन....जाने क्यूँ...
बहुत याद आती हो
तुम!
बहुत खूब...बहुत खूब....
सुंदर.
sameer ji ,
pata nahi kal sapne me aapko dekha tha , kuch aisa tha ki aap mujhe kahi le jaa rahe hai , door door tak khet hai aur maidaan , ek jagah ruk kar aap kah rahe ho ki , likhna bhoolna nahi , ham phir milenge . maine kaha ki aapse jabalpur me milne ke baad , man ko trupti nahi hui hai .. to aapne kaha ki samay ka intjaar karo vijay , ham jald milenge ..
phir main uth gaya , subah ke 4 baje the.. pata nahi is sapne ka kya matlab hai ... haan lekin main aapse phir milna chahunga , baar baar milna chahunga ..
is post ke baare me kya kahun , bahut saal hue , ek baar me baitha tha , wahan ek poster tha ek ladki baansuri bajaate hue.. usi ki yaad aa gayi aur kisi aur ki bhi jise bansuri bahut pasand thi ..
aap aise aag mat lagaya kare sir..
sir mujhe aapki wo poem chahiye thhi .. jo us raat ko sunayi thi aapne , aankho se madira pi dheere dheere wali....
thanks
aapka
vijay
वाह
बांसुरी के माध्यम से सुन्दर प्रस्तुति...बधाई.
अब सीटी भी नहीं बजती तो नाकामी का एहसास तो होगा ही :(
बढिया चित्र खींचा है आप ने- बधाई स्वीकारें।
aap ke jindadil pita ji se mulakat hui dr r p srivastava ke yahan, kanpur main. unse udantashtari ke bare main pata chala. canada se hindi ka parcham lahrane ke liye badhaiyan aur shubh kamnayein.
बहुत सुन्दर ....बासुरी की धुन सी ही सुरीली और मीठी यादों सी मीठी रचना
महा शिवरात्रि की शुभकामनाएँ !!
यह भी एक रंग है, जीवन के इन्द्र धनुष का।
यूँ ही तमाम होगी एक दिन- ये याद, ये इन्तजार की घड़ी और मेरी जिन्दगी!!!
और ये तो खैर,
जब भी उठती है
कहीं दूर वादियों में
बाँसुरी की धुन....
जाने क्यूँ...
बहुत याद आती हो
तुम!!!
-- नोट कर लिया है मैंने :)
बस, एक फुसफुसाहट-कोरी हवा की.
आज फिर एक नाकामी हाथ लगी!!!
" ऐसे ख्यालों को लफ्जों में संजोना आसान नहीं.....कलाकार है आप सच.."
regards
बहुत बढ़िया लगा सर!
सादर
कुछ यादे नयी पुरानी सी बहुत याद आती है उम्र भर .....
बाँसुरी की धुन में सम्मोहन होता है। मन, हाथ, आँख, गला, जब सब अपनी व्यथा कहने लगें तब जो चित्र उभरेंगे, उनका सुन्दर वर्णन किया है आपने।
उदासी का इतना संवेदनशील शब्द-चित्र .... कमाल है समीर जी आपका .... सादर !
एक टिप्पणी भेजें