परिवर्तन सृष्टि का नियम है और यह निरन्तर जारी रहता है. जिन्दगी में अगर आगे बढ़ना है तो परिवर्तन के साथ कदमताल मिला कर इसे आत्मसात करना होगा.जो अपनी झूठी मान प्रतिष्ठा के चलते उपजे अहंकारवश या उम्रजनित अक्षमताओं की दुहाई देते हुए मजबूरीवश ऐसा नहीं कर पाते, उन्हें अपने पीछे छूट जाने का एवं अस्तित्व को बचाये रखने का भय घेर लेता है. अक्सर जीवन के उस पड़ाव में समय भी कम बचा होने का अहसास होता है अतः नई चीज सीखकर उसे आत्मसात करने की रुचि और उत्साह भी नहीं बचा रहता. यही पीड़ा और खीज असह्य हो कुंठा का रुप धारण कर विरोध के रुप में चिंघाड़ती है जिसकी बुनियाद खोखली होती है और स्वर तीव्र.
किन्तु ऐसे में भी बहुतेरे आत्म संतोषी विरोध का स्वर न उठा अपने आपको अतीत की यादों में कैद कर जीवन गुजार देते हैं. यूँ भी अतीत की यादें स्वभावतः रुमानियत का एक मखमली लिहाफ ओढ़े सुकून का अहसास देती हैं और निरुद्देश्य जीवन को खुश होने का एक मौका हाथ लग जाता है भले ही और कुछ हासिल हो न हो. ऐसे लोग ही गाहे बगाहे कहते पाये जाते हैं कि हमारा समय गोल्डन समय था, अब तो जमाने को न जाने क्या हो गया है और भविष्य गर्त में जाता नजर आता है. ऐसे स्वभाव के हर कल ने सदियों से भविष्य को गर्त में ही जाते देखा है. उम्र के इस पड़ाव में यह पीढ़ियाँ भूल चुकी होती हैं कि कभी वह भी ऐसे ही किसी परिवर्तन के वाहक थे जिसे उनके पूर्वज गर्त में जाना कहते कहते इस धरा से सिधार गये.
इस तरह से अपने अस्तित्व को परिवर्तन की आँधी से बचाने के लिए अतीत रुपी खम्भे को पकड़े रहना या विरोध में चिल्ला उठना मात्र उन्हें आत्म संतुष्टी देता है किन्तु परिवर्तन होकर रहता है. न कभी समय रुका है और न कभी परिवर्तन की बयार- युग बदलते हैं. विरोध पीढ़ियों की विदाई के साथ रुखसत होता जाता है और जन्म लेता रहता है एक नया विरोध, एक नई पीढ़ी का, एक नये परिवर्तन के लिए, जिसका स्वागत कर रही होती है एक नई पीढ़ी, बहुत उम्मीदों के साथ.
परिवर्तन को रोकने का विचार मात्र नदी के प्रवाह को रोकने जैसा है जो कभी किसी प्रयास से ठहरा हुआ प्रतीत तो हो सकता है किन्तु सही मायने में वो प्रवाह और परिवर्तन ठहरता नहीं. वह उस रुकन को नेस्तनाबूत करने की तैयारी कर रहा होता है, जिसे हम ठहराव मान भ्रमित होते है. यह भ्रम भी क्षणिक ही होता है और देखते देखते ढह जाता है वह रुकन का कारण और प्रयास, वह खो देता है अपना अस्तित्व और फिर बह निकलता है नदिया का प्रवाह अपनी मंजिल की ओर किसी सागर मे मिल उसका हिस्सा बन जाने के लिए या नये प्रवाह/ परिवर्तन को एक स्पेस/यथोचित प्रदान करने के लिए.आज अभिव्यक्ति के माध्यमों में होते परिवर्तनों और प्रिन्ट/ अन्तर्जाल के बीच छिड़ी जंग देख बस यूँ ही इन विचारों ने शब्द रुप लिया. आज किताबों में उपलब्ध हिन्दी साहित्य को अन्तर्जाल पर लाने का एक भागीरथी प्रयास अपना आगाज़ कर चुका है.नया अन्तर्जाल और किताबों में समानान्तर दर्ज होता चल रहा है.
कुछ स्वभाविक उम्रजनित, अक्षमताओं जनित एवं अहमजनित विरोध भी अन्तर्जाल की ओर आने की दिशा में रहा है मगर जैसा कि पहले कह चुका हूँ कि वही तो हर परिवर्तन का स्वभाव है और वो पीढ़ी विशेष के प्रस्थान के साथ ही प्रस्थित होगा. उसका कोई विशेष प्रभाव भी नहीं होना है मात्र चर्चा के अलावा. चर्चा अवश्य आवश्यक एवं आकर्षक होती है क्यूँकि उसमें विशिष्ट व्यक्ति की स्टेटस की विशिष्टता होती है न कि विचारों की.
मुझे न जाने क्यूँ ऐसा लगता है कि मेरा यह विचार कुछ विमर्श मांगता है.
मैं
अतीत के गलीचों परनृत्य करता
अपने में मगन
न जाने कहाँ खो गया....
जमाना बदला....
और
आज खुद को तलाशता हूँ
मैं!!!
-समीर लाल ’समीर’
64 टिप्पणियां:
समीर सुपुत्र
चिरंजीव भवः
आज किताबों में उपलब्ध हिन्दी साहित्य को अन्तर्जाल पर लाने का एक भागीरथी प्रयास अपना आगाज़ कर चुका है.नया अन्तर्जाल और किताबों में समानान्तर दर्ज होता चल रहा है.कुछ स्वभाविक उम्रजनित, अक्षमताओं
आज के बच्चे क्या समझे बहुत सुंदर स्टीक लेख अच्छा लगा आपका लेख बेटा
समीर भाई ! साथ के चित्र ने सब कुछ बयान कर दिया ......विरोध और नव सृजन मनुष्य समाज की सनातन परंपरा है ....क्या राम और कृष्ण का विरोध नहीं हुआ था ? ......यह विरोध ही है जो घोषणा करता है कि सावधान ! नव-सृजन हो रहा है ........स्वीकारने के लिए तैयार हो जाओ ........
शुतुरमुर्गी मुंह छुपाने वालों की समस्या है यह.
वाकई... हर परिवर्तन के साथ सामंजस्य बिठाना ही होगा । वर्ना सिर्फ कुढन के कहीं कुछ हासिल नहीं होगा ।
परिवर्तन एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसका न होना समय का रुक जाना है
आपने पीढी अन्ताराल के द्वंद्व को खूबसूरत ढंग से शाब्दिक रूप दे दिया
बधाई
--
आलेख, चित्र और कविता तीनों का संगम बहुत ही सुंदर और सटीक है। यह आलेख बिलकुल सही समय पर आया है। इस से अनेक बातें स्पष्ट हो गई हैं और यह भी कि गति और परिवर्तन विश्व के वे नियम हैं जो इस अखिल विश्व के साथ साथ अस्तित्व में रहते हैं।
वैसे भी अंतर्जाल से शायद ही कोई लेखक अप्रसन्न हो। उसे तो स्वाभाविक रूप से प्रसन्न होना ही चाहिए कि इस माध्यम से उस का लिखा पूरी दुनिया की पहुँच में आ गया है।
संसार की हर शह का,
इतना ही फ़साना है,
इक धुंध से आना है,
इक धुंध में जाना है...
जय हिंद...
बहुत सही कहा आपने
वो कहते हैं न....
तब्दीलियां तो वक्त का पहला उसूल है...
परिवर्तन सृष्टि का नियम है और यह निरन्तर जारी रहता है. जिन्दगी में अगर आगे बढ़ना है तो परिवर्तन के साथ कदमताल मिला कर इसे आत्मसात करना होगा.
bilkul sahi kaha aapne....
आपने बिल्कुल सही कहा की परिवर्तन तो संसार का नियम है और हमें अगर कदम से कदम मिला के चलना है तो हमे इसे स्वीकारना ही होगा क्युकी जब तक हम नए को अपनाने के लिए जगह नहीं बनायेंगे तब तक हम नये को ग्रहण कर ही नहीं सकते और अगर सृजन चाहते हो तो हमें इसे अपनाना ही होगा |
सार्थक विचार के साथ सुन्दर पोस्ट की बधाई |
सरलता से गहराई का विमोचन..!!
विचारणीय !
sameer ji , lekh aur chitr dono ne apni baat kah di hai .. net par sahitya ka bhavishya ujjawal hai .. ye main samjhta hoon . dhanywaad.
kisi nakaratmak halchal pe virodh ka ye sakaratmak srijan samasya ko samjhne me bari saralta pradan ki....
bahte jal me dhar tabhi ati hai jab........koi use rokne ka prayatn
karta hai....
yse apke ke liye nih:shabd hona hi samichin hai.....
pranam.
बहुत सही कहा है आपने ।
" आज अभिव्यक्ति के माध्यमों में होते परिवर्तनों और प्रिन्ट/ अन्तर्जाल के बीच छिड़ी जंग देख बस यूँ ही इन विचारों ने शब्द रुप लिया..."
आपके विचारों से शत प्रतिशत सहमत हूँ .... बहुत ही सारगर्वित अभिव्यक्ति ... आभार
जमाना बदला....
और
आज खुद को तलाशता हूँ
मैं!!!
kitni sundar baat likhe hain.
बहुत बढ़िया रचना!
लौहांगना ब्लॉगर का राग-विलाप
परिवर्तन संसार का नियम है उसे रोकने वाला उसे तो नहीं रोक पाता हाँ खुद जरुर जीवन की दौड में पीछे रह जाता है.
liked the post
समाज और परिवार में आते परिवर्तन को जो भांप नहीं पाते वे स्वाभाविक तौर पर मानसिक कुंठाओं और बंद दिमाग के साथ, परिवार में नेतृत्व प्रदान करने के लिए अक्षम होते हैं !
बड़े परिवार में ऐसे लोग मजबूरी के कारण स्वीकार्य होते हैं ! समय के साथ, यह लोग अपना सम्मान धीरे धीरे खोते हुए भी, महसूस न करके जब तब अपनी चौधराहट झाड़ते रहते हैं !
रेगिस्तान में रेत में अपना मुंह घुसाए यह बेचारा शुतुरमुर्ग, चारो तरफ से घेरा कसते शिकारियों की दया का पात्र होना चाहिए ! मेरी सहानुभूति इसके साथ है !
एक बढ़िया और सामयिक लेख के लिए मेरी शुभकामनायें समीर भाई !
परिवर्तन को रोकने का विचार मात्र नदी के प्रवाह को रोकने जैसा है जो कभी किसी प्रयास से ठहरा हुआ प्रतीत तो हो सकता है किन्तु सही मायने में वो प्रवाह और परिवर्तन ठहरता नहीं.
सत्य वचन...परिवर्तन को खुले मन से स्वीकारना ही श्रेयस्कर है.
परिवर्तन प्रकृति का नियम है।
---------
काले साए, आत्माएं, टोने-टोटके, काला जादू।
असल में हम जैसे होते है उसी के अनुसार अपने आस पास की चीजो को व्यवस्थित कर लेते है अपने करीबियों को अपनी सोच में ढाल कर जीवन सरल बना लेते है किन्तु परिवर्तन का बयार बहते है हमारी सोच चीजे सब अस्थिर हो जाती है और हम परिवर्तन को स्वीकार ना कर उसे नकारने अपनी सत्ता को जाते देख खीज कर परिवर्तन को बुरा कहने लगते है किन्तु इससे होने वाले बदलावों में कोई फर्क नहीं आता है और अंत में सभी उसे मन से या बेमन से स्वीकार कर ही लेते है |
सुन्दर आलेख!
कविता भी अच्छी है!
मौलिक विचार।
साहित्य अब केवल कागज तक सीमित नहीं है।
bahut sundar ... सही कहा ..बदलाव सृष्टि का नियम है और उसको सहज स्वीकार किया जाना चाहिए ... आपकी यह सुन्दर पोस्ट कल चर्चामंच पर होगी... आपका आभार ...
http://charchaamanch.blogspot.com
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ब्लॉग अभी प्रारम्भिक अवस्था में हैं, साहित्य जितना पकने का समय मिलेगा तो साहित्य बन जायेगा। माध्यम कोई भी हो लिखा तो साहित्य ही जाता है।
परिवर्तन एक प्राकृतिक प्रक्रिया है
चित्र ने सब कुछ बयान कर दिया
वर्तमान परिदृष्य में यह एक सटीक और सामयिक आलेख लिखा गया है, बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
परिवर्तन को रोकने का विचार मात्र नदी के प्रवाह को रोकने जैसा है जो कभी किसी प्रयास से ठहरा हुआ प्रतीत तो हो सकता है किन्तु सही मायने में वो प्रवाह और परिवर्तन ठहरता नहीं. वह उस रुकन को नेस्तनाबूत करने की तैयारी कर रहा होता है, जिसे हम ठहराव मान भ्रमित होते है. यह भ्रम भी क्षणिक ही होता है और देखते देखते ढह जाता है वह रुकन का कारण और प्रयास, वह खो देता है अपना अस्तित्व और फिर बह निकलता है नदिया का प्रवाह अपनी मंजिल की ओर किसी सागर मे मिल उसका हिस्सा बन जाने के लिए या नये प्रवाह/ परिवर्तन को एक स्पेस/यथोचित प्रदान करने के लिए.
सार तो आपने कह ही दिया , वो भी बिल्कुल स्पष्ट ....उन्हें बस थोडी और प्रतीक्षा करनी होगी ..उसके बाद कुछ कहने सुनने की गुंजाईश ही नहीं बचेगी ...चाहे समीर लाल हों न हों ..अजय कुमार झा हों न हों ..हिंदी होगी और हिंदी ब्लॉगिंग भी होगी जोरदार होगी ..हम आप रहें न रहें ...साहित्यकार रहें न रहें
समय के साथी परिवर्तन जरूरी है....लेकिन क्या परिवर्तन से पहले ये नहीं सोचना चाहिए की ये समाज को किस दिशा में ले जाएगा.
वैसे फिजिक्स में नियम है की किसी भी अवस्था परिवर्तन (phase transition ) के लिए एक एनेर्जी (excitation barrier) की जरूरत होती है. और बदलाव के लिए system
को इस बाधा को पार करना ही पड़ता है.....येअही प्रकृती और भौतिकी का नियम है.
अच्छा लेख लगा..
परिवर्तन को स्वीकार करना और उसके अनुरूप ढलना ही ज़िंदगी है ..अच्छा लेख
समय के साथ बदलती चीज़ों के लिए सबके अपने विचार होते हैं...... ऐसे हालात विषय विमर्श चाहते हैं....
जिन परिस्थितियों की बात आप कर रहे हैं उन्हें आपने कविता ....लेख और चित्र में पूरी तरह से उकेर दिया है......उससे सहमति रखती हूँ ....
वैसे परिवर्तन को अगर विकास का क्रम कहें तो ज़्यादा ठीक रहे !
हर साहित्य अपनी प्रारंभिक अवस्था में प्रयोग ही होता है -परिपक्वता समय के साथ आती है और
स्वीकार्यता भी .
अंततः परिवर्तन को स्वीकार करना ही होगा !
बहुत सार्थक आलेख है आपका ! बिलकुल सच कहा है आपने बुजुर्गों की पीढ़ी अपने वक्त के सुनहरी दौर को सराहते और याद करते तथा वर्तमान को कोसते और अस्वीकार हुए ही प्रस्थान कर जाती है लेकिन परिवर्तन को रोक नहीं पाती ! परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है और इसको रोकना तो सृष्टिकर्ता के हाथ में भी नहीं होता ! बहुत शानदार और सारगर्भित आलेख ! बधाई एवं शुभकामनायें !
बढियां चिंतनपरक आलेख
बिलकुल सही कहा आपने... सहमत हूँ!
परिवर्तन को रोकने का विचार मात्र नदी के प्रवाह को रोकने जैसा है--- सही कहा आपने। कविता ने बहुत कुछ कह दिया। कौशलेन्द्र जी ने सही कहा। शायद कुछ लोग अपनी कुंठाओं को सहेज नही पा रहे। या फिर डर गये हैं कि इतने बडे अथाह स्मुद्र { अन्तरजाल , ब्लाग्स वेब साईट्स } मे कही खो न जायें , या जो कागज़ी दुनिया के बाद शाह थे वो इस समुद्र मे एक बूँद समान न हो जायें। सब अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिये प्रयासरत हैं बस किसी को आगे नही आने देना चाहते। पोस्ट बहुत अच्छी लगी। धन्यवाद।
तकनीकी व्यवधान के कारण मुझे अपने ब्लॉग का पुराना url [ journalistkrati.blogspot.com ] बदलना पढ़ रहा है , मेरा नया url [ krati-fourthpillar.blogspot.com ] असुविधा के लिए खेद है | कृपया सहयोग देकर नवोदित कलाकारों का हौंसला बढ़ाएं |
मेरी टिप्पणी कहाँ गयी इतनी बडी टिप्पणी अब बस मे नही।कविता आलेख बहुत अच्छे लगे। कौशलेन्द्र जी ने दो टूक बात कह दी है। आभार।
परिवर्तन तो शाश्वत है....
अंतरजाल तेजी से विस्तार और समृद्धि पाता जा रहा है, यह बड़ा शुभ है...क्योंकि प्रिंट और दृश्य मिडिया में चाहे समाचार हो या साहित्य उपेक्षा ही पा रहा था..
जो सत्य है,सुन्दर है...समय के साथ अपना स्थान बना ही लेती है किसी न किसी तरह..कहीं न कहीं...
आज का यह आलेख आपके अनुभव की दास्ताँ ब्यान कर रहा है. निश्चित रूप से एक आवश्यक विमर्श की दिशा में है. परिवर्तन तो हर हाल में सबके लिए है. जीवन-संघर्ष भी तो यही कहता है.
Time changes and the changes are inevitable. We must look forward, but the best of the past must be kept alive.
Time changes and the changes are inevitable. We must look forward, but the best of the past must be kept alive.
चचा, आप बहुत गंभीर मुद्रा में गंभीर विषय पर बात कर रहे हैं। हिंदी में नेट-लेखन बहुत हल्का है अभी भी..। किंतु इस विषय पर मुद्दा उठा कर आप पंक्ति में सबसे आगे खड़े हो गए हैं। कोशिश कीजिए कि इस पर कुछ ठोस भी हो।
सादर,
आपका भतीजा
‘कुछ स्वभाविक उम्रजनित, अक्षमताओं जनित एवं अहमजनित विरोध भी अन्तर्जाल की ओर आने की दिशा में रहा है’
परंतु समय बदलता है और कुछ वृद्ध समय के साथ चलते है तो कुछ समय से आगे भी निकल जाते है। ऐसा हुआ तो युवा पीढी को वृद्धों के अनुभव का लाभ भी मिलेगा॥
बहुत खूब लिखा है |
आशा
सामयिक चिंतन, उत्तम प्रस्तुति, बधाई.
माध्यम छपने का बदला है, यही अंतर है बस,
वर्ना साहित्य...तो निरंतर हो रहा निर्माण है,
फर्क इतना है कि जो जागीर थी चंद लोग की,
भावनाएं व्यक्त करदे, सब का ये अरमान है.
http://aatm-manthan.com
सामयिक चिंतन, उत्तम प्रस्तुति, बधाई.
माध्यम छपने का बदला है, यही अंतर है बस,
वर्ना साहित्य...तो निरंतर हो रहा निर्माण है,
फर्क इतना है कि जो जागीर थी चंद लोग की,
भावनाएं व्यक्त करदे, सब का ये अरमान है.
http://aatm-manthan.com
सत्य वचन...
परिवर्तन तो होना है और होकर रहेगा कोई बेशक जितना मर्जी नाक...मुँह और भौहें सिकोड़ ले
परिवर्तन का न होना समय का रुक जाना है...
चित्र और कविता का संगम बहुत ही सुंदर है !
सार्थक आलेख है आपका ...
बहुत बढ़िया आलेख..
Change is the only thing which is constant !
परिवर्तन को साढ़े पांच शब्दों को बखूबी परिभाषित किया है. काल से लेकर युगों तक की बात कह दी. अब समय अपने में परिवर्तन का है कि जो बदल रहा है उसके साथ खुद को बदल डालने की सोचें या फिर उसको स्वीकार करने में ही बुद्धिमत्ता है.
अन्तर्जाल एक सफल मंच है और साहित्य इससे बहुत दूर तक जा रहा है. प्रकाशित साहित्य अक्षय कहा जा सकता है किन्तु यह देश और परदेश कि सीमाओं से पार जाकर सबके पास बिना भेदभाव के पहुँच रहा है. वो अनुभव और विषय जिन्हें शायद प्रकाशक प्रकाशन के योग्य नहीं समझते हैं प्रकाशित होकर सराहे जा रहे हैं.
परिवर्तन को रोकने का विचार मात्र नदी के प्रवाह को रोकने जैसा है जो कभी किसी प्रयास से ठहरा हुआ प्रतीत तो हो सकता है किन्तु सही मायने में वो प्रवाह और परिवर्तन ठहरता नहीं. वह उस रुकन को नेस्तनाबूत करने की तैयारी कर रहा होता है, जिसे हम ठहराव मान भ्रमित होते है. यह भ्रम भी क्षणिक ही होता है और देखते देखते ढह जाता है वह रुकन का कारण और प्रयास, वह खो देता है अपना अस्तित्व और फिर बह निकलता है नदिया का प्रवाह अपनी मंजिल की ओर किसी सागर मे मिल उसका हिस्सा बन जाने के लिए या नये प्रवाह/ परिवर्तन को एक स्पेस/यथोचित प्रदान करने के लिए.
गहन चिंतन, सार्थक लेखन.
दूसरे भाग की प्रतीक्षा रहेगी.
यह तो आपने एक दम सही बात कही है सरजी। बदलना तो पडेगा ही नही ंहम बेकार हो जाएगें पर अफसोस कि बस लोग दूसरों को कोसने मे ही समय बिता देते है और वे बेकार हो जाते है।
उड़न तस्तरी की रचना उड़ती रहती है ।
अपने ढंग से अलग राह मुडती रहती है ।
परदेशी होकर भी देशी बने हुए हैं -
इसीलिए हर मन से वह जुडती रहती है ॥
aadab
kafi zandaar safar hai aapka aur utna hi zandaar rachna sheelta.
shykriya
hum jaise logon ke liye prerna sroot hain aap
बिना परिवर्तन के जीवन एक ही जगह रुके पानी सा सड़ जाता है...इसे ताजगी देने के लिए लगातार परिवर्तन जरूरी है...पुराने पत्ते झड़ेंगे नहीं तो नए आयेंगे कैसे...??? लेकिन दिक्कत येही है...डाल से चिपके पीले पत्ते आसानी से झरना नहीं चाहते आजकल...:-)
नीरज
अतीत और वर्तमान के बीच सदियाँ गुजर जाती हैं......और खुद की तलाश....अधूरी रह जाती है...
regards
एक टिप्पणी भेजें