देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन समारोह में शिक्षविद मनीषी एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य डॉ हरि शंकर दुबे का उदबोधन:
भाई समीर लाल जी ’समीर’ के सद्य प्रकाशित ग्रंथ ’देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन समारोह में मुख्य अतिथि की आसंदी को सुशोभित कर रहे परम सम्मानीय श्रद्धास्पद प्रोफेसर ज्ञानरंजन जी, भाई समीर लाल जी की जो लाली है, उस लाली के केन्द्र बिन्दु वो लाली जहाँ से आती है फूल सब देखते हैं लेकिन फूल का मूल जिससे वो आभा चमक है उसके मूल परम सम्मानीय श्री पी.के.लाल साहब, आज के इस कार्यक्रम को संचालित कर रहे, यहाँ के युवाओं के चेतना केन्द्र हमारे परम प्रिय भाई गिरीश बिल्लोरे जी, आज के इस कार्यक्रम के एक और केन्द्र बिन्दु बिल्लोरे जी के सहयोगी भाई गिरीश जी के सहयोगी डॉ विजय तिवारी जी और लाल साहब की इस विचार यात्रा की जो साधना है उस साधना की केन्द्र बिन्दु माननीय साधना जी, माननीय अलिनि श्रीवास्तव जी, यहाँ पर विराजमान माननीय श्री श्रवण दीपावरे जी, श्री श्याम गुप्ता जी, श्री लाल साहब के बचपन के मित्र श्री कथूरिया जी, श्री द्वारका गुप्त जी, श्री गुलुश स्वामी जी, बवाल जी और माननीय मुख्य अतिथि जी के बोलने के बाद जो स्वयं अपने आप में आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतने प्रामाणिक पुरुषार्थ के स्वयं प्रतीक हों, जो एक व्यक्ति के रुप में नहीं एक संस्था के रुप में विराजमान हों और जिनका मंगल आशीष मिल जाये, उनके कुछ कहने के बाद कुछ शेष नहीं रहता है. जहाँ उनकी उपस्थिति हो वहाँ निश्चित रुप से हम सबको गौरव होता है कि उनके साथ हमें कुछ क्षण बिताने का अवसर मिले. उनका साहचर्य प्रेरणादायी होता है वहाँ उनकी उपस्थिति में जिनके हम आशीर्वदा है जिनसे आशीष प्राप्त करते हैं उनके सामने कुछ कहना बहुत कठिन स्थिति है किन्तु भाई समीर लाल जी ने समय के सीने पर अपनी सोच से सत्य की जो सड़क बनाई है उसकी स्तुति के लिए मुझे उपस्थित होना ही था और यह मेरा धर्म भी है और कर्तव्य भी है इसलिए मैं उपस्थित हूँ.
ऐसी कौन सी जगह है जहाँ समीर का अबाध प्रवाह नहीं है, इस बात को प्रमाणित करती है यह कृति ’देख लूँ तो चलूँ’. कहा जाता है जह मन पवन न संचरइ रवि शशि नाह प्रवेश- ऐसी कोई सी जगह है जहाँ पवन का संचरण न हो, जहाँ समीर न हो अब समीर इसके बाद यहाँ से कनाडा तक और कनाडा से भारत तक अबाध रुप से प्रवाहित हो रही है और उस निर्वाध प्रवाह में निश्चित रुप से यह उपन्यासिका ’देख लूँ तो चलूँ’ आपके सामने है.
आपकी आज्ञा हो तो ज्वेल्स हैनरी का एक कथन मुझे स्मरण आ रहा है ’यदि समझना चाहते हो कि परिवर्तन क्या है, सामाजिक परिवर्तन क्या है, और अपना आत्मगत परिवर्तन क्या है, तो अपने समय और समाज के बारे में एक किताब लिखो’ ऐसा ज्वेल्स हैनरी ने कहा. ये पुस्तक इस बात का प्रमाण है कि कितनी सच्चाई के साथ और कितनी जीवंतता के साथ और कितनी आत्मीयता के साथ समीर लाल ने अपने समय को, अपने समाज को, अपनी जड़ों को, जिगरा के साथ देखने का साहस संजोया है.
ये कृति कनाडा से भारत को देख रही है या भारत की दृष्टि से कनाडा को देख रही है विशेषकर कनाडा में बसे प्रवासी भारतीयों को, ये दो बिन्दु हैं. कनाडा में रहकर भी वो अपने भारत को एक एक घटनाओं में देख रहे हैं चाहे वो ट्रेफिक पुलिस वाला हो, चाहे वो पुरोहित की बात हो, चाहे वो साधु संत की बात हो, और चाहे कुछ भी हो बहुत बेबाकी से और बहुत ईमानदारी के साथ जिसमें कल्पना भी है, जिसमें विचार भी है, और जैसा अभी संकेत किया माननीय ज्ञानरंजन जी ने कि ये केवल एक उपन्यासिका भर नहीं है, कभी कभी लेखक जो सोच कर लिखता है जैसा कि भाई गुलुश जी ने कहा था कि ५ घंटे साढ़े ५ घंटे में लेकिन ये साढ़े ५ घंटे नहीं हैं साढ़े ५ घंटे में जो मंथन हुआ है उसमें पूरा का पूरा उनके बाल्य काल से लेकर अब तक का और बल्कि कहें आगे वाले समय में भी, आने वाले समय को वर्तमान में अवस्थित होकर देखने की चेष्टा की है कि आने वाले समय में समाज का क्या रुप बन सकता है उसकी ओर भी उन्होंने संकेत दिया है तो वो समय की सीमा का अतिक्रमण भी है, और उसी तरीके से विधागत संक्रमण भी है, जिसमें आप देखते हैं कि वह संस्मरणीय है, वह उपन्यास भी है, वह कहीं यात्रा वृतांत भी है और कहीं रिपोर्ताज जैसा भी है कि रिपोर्टिंग वो कर रहे हैं एक एक घटना की तो ये सारी चीजें बिल्कुल वो दिखाई देती हैं और आरंभ में ही जब वो कहते हैं कि (प्रमोद तिवारी जी की पंक्तियाँ)
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं
आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं
तो जब वो बात कहते हैं तो उनके पगों के द्वारा वो नाप लेते हैं जैसे कभी बामन ने तीन डग में नापा था ऐसा कभी लगता है कि एक डग इनका भारत में है, और एक चरण उनका कनाडा में है और तीसरा चरण जो विचार का चरण है उस तीसरे चरण .......इन तीन चरणों से वो नाप लेते हैं निश्चित रुप से जब वो बूढ़े बरगद की याद करते हैं जब वो मिट्टी के घरोंदों की याद करते हैं, जब वो जलते हुए चूल्हे की याद करते हैं और उन चूल्हों पर बनने वाले सौंधे महक से भरे हुए पराठों की याद करते हैं तो निश्चित रुप से लगता है कि उड़न तश्तरी जिसनें भी यह नाम दिया हो उन्होंने स्वयं चुना होगा तो निश्चित रुप से वो उड़न तश्तरी है जो इस लोक से जैसे कनाडा से इधर और इधर से उधर तक और तीसरी चीज जो दिखाई नहीं देती दृष्यमान नहीं है तीसरी बराबर यह है और प्रवासी भारतीयों की पीड़ा झलक उठती है जब वो, क्यूँकि मूलतः वो कवि भी हैं तो जब परदेश पर वो लिखते हैं दो लाईन पढ़ना चाहता हूँ
परदेस, देखता हूँ तुम्हारी हालत,
पढ़ता हूँ कागज पर,
उड़ेली हुई तुम्हारी वेदना,
जड़ से दूर जाने की...
तो जड़ से दूर हो जाने की जो वेदना है परदेश में जाकर बराबर वो देखते हैं और जितने भी सारी चीजें हैं चाहे वो वीक एण्ड का चोचला हो, जो उन्हें व्यथित करता है, वीक एण्ड आप लोग अपने घर में, अपने मित्रों के साथ क्यूँ नहीं मनाना चाहते, क्या थकान मिटाने के लिए अपनों से जाना दूर है, या बूढ़े माता पिता को लेकर के बड़े प्रसन्न होते हैं कि हमारे बेटे ने विदेश में हमें बुलाया है लेकिन बुलाया इसलिए है कि उसे वहाँ नौकरों का आभाव है और उसी लिए अपने बूढ़े माता पिता को वो नौकरों के स्थापन्न रुप में वो बुला रहे हैं तो कितनी मार्मिकता के साथ, जैसा अभी सम्मानीय ज्ञान जी ने कहा कि इसके अंदर केवल व्यंग्य भर नहीं है जो अन्तर्वेदना है और जो त्रासदी की बात उन्होंने की थी वो त्रासदी कम से कम आगे जाकर के वो प्रकट होना चाहिये- त्रासदी की बात वो बहुत बड़ी बात है.
निश्चित रुप से मैं एक बात उल्लेख करना चाहूँगा जो कृतिकार ने अंत में कही है कि मैं लिखता तो हूँ मगर मेरी कमजोरी है कि मैं पूर्ण विराम लगाना भूल जाता हूँ. मुझे लगता है कि यह उनकी सहजोरी है कमजोरी नहीं है कि पूर्ण विराम लगाना भूल जाते हैं यह कृति में पूर्ण विराम नहीं है. आप पूर्ण विराम लगाना ऐसे ही भूलते रहिये ताकि कम से कम वो वाक्य पूरा नहीं होगा क्य़ूँकि जो कथ्य है जो भाव है जो आप कहना चाहते हैं वो आगे भी गतिमान रहेगा, मैं समीर लाल जी अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ और इस उत्तम आयोजन के लिए, इस वैचारिक यात्रा के लिए आयोजकों को बधाई देता हूँ और मुझे इतना सम्मान दिया कि सम्मानीय ज्ञान जी, सम्मानीय श्री पी. के. लाल साहब के साथ बैठ कर उनके साहचर्य का मुझे सुख दिया है वो वर्णनातीत है आप सबके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए आप सबके श्रीचरणों में अपना नम्र प्रमाण निवेदित करता हूँ. धन्यवाद.
ऐसी कौन सी जगह है जहाँ समीर का अबाध प्रवाह नहीं है, इस बात को प्रमाणित करती है यह कृति ’देख लूँ तो चलूँ’. कहा जाता है जह मन पवन न संचरइ रवि शशि नाह प्रवेश- ऐसी कोई सी जगह है जहाँ पवन का संचरण न हो, जहाँ समीर न हो अब समीर इसके बाद यहाँ से कनाडा तक और कनाडा से भारत तक अबाध रुप से प्रवाहित हो रही है और उस निर्वाध प्रवाह में निश्चित रुप से यह उपन्यासिका ’देख लूँ तो चलूँ’ आपके सामने है.
यह शत प्रतिशत सच है, आपकी पुस्तक प्राप्त होने के बाद से मैं दो बार पढ़ चुका हूँ और अभीतक पढ़ने की प्यास बनी हुई है ....मैं इसकी समीक्षा प्रिंट मीडिया के लिए तैयार कर रहा हूँ , शीघ्र प्रकाशन की सूचना दूंगा !
निश्चित रूप से डॉ. हरि शंकर दुबे जी की ' देख लूँ तो चलूँ ' पर समीक्षात्मक, उद्देश्यपरक एवं सारगर्भित अभिव्यक्ति का मैं भी साक्ष्य हूँ , इसका आनंद अलग हे था. सच मानिए उस दिन प्रो. ज्ञान रंजन जी एवं डॉ. दुबे जी ने पुस्तक पर अपनी अभिव्यक्ति दी है उसके सुपात्र बहुत विरले होते हैं. इस अवसर पर भाई गिरीश जी ने सच ही कहा था कि "हमें ईर्ष्या होती है' लेकिन सकारात्मक वाली. बहुत बहुत बधाई भाई समीर जी को. - विजय तिवारी 'किसलय '
बहुत प्रसन्नता हो रही है आचार्य डॉ हरि शंकर जी दुबे के श्री मुख से आपके बारे में ये उदगार सुनकर. उनका यह कहना कि "ऐसी कौन सी जगह है जहाँ समीर का अबाध प्रवाह नहीं है?" अब और कहने को बचा ही क्या है? बहुत ही गदगद और प्रसन्न हो रहा हूं. बहुत शुभकामनाएं.
बहुत प्रसन्नता हो रही है आचार्य डॉ हरि शंकर जी दुबे के श्री मुख से आपके बारे में ये उदगार सुनकर. उनका यह कहना कि "ऐसी कौन सी जगह है जहाँ समीर का अबाध प्रवाह नहीं है?" अब और कहने को बचा ही क्या है? बहुत ही गदगद और प्रसन्न हो रहा हूं. बहुत शुभकामनाएं.
बहुत प्रसन्नता हो रही है आचार्य डॉ हरि शंकर जी दुबे के श्री मुख से आपके बारे में ये उदगार सुनकर. उनका यह कहना कि "ऐसी कौन सी जगह है जहाँ समीर का अबाध प्रवाह नहीं है?" अब और कहने को बचा ही क्या है? बहुत ही गदगद और प्रसन्न हो रहा हूं. बहुत शुभकामनाएं.
"देख लूं तो चलूं" के लिये हार्दिक शुभकामनाएं. बहुत ही सशक्त प्रवाह है इसका. इसीलिये आदरणीय दुबे जी ने सही कहा कि "समीर का प्रवाह कहां नही है? बहुत बधाई.
"देख लूं तो चलूं" के लिये हार्दिक शुभकामनाएं. बहुत ही सशक्त प्रवाह है इसका. इसीलिये आदरणीय दुबे जी ने सही कहा कि "समीर का प्रवाह कहां नही है? बहुत बधाई.
अपने अभिभाषण की परिचयात्मक भूमिका में ही दुबे जी ने इतनी सक्षम बातें कह दीं । बहुत सुन्दर शब्दों में सही बखान किया है । सच है कि आपकी लेखनी में बहुत विविधता है , भारत से लेकर कनाडा तक और फिर वापस भारत । पुस्तक प्रकाशन और विमोचन के लिए पुन : बधाई ,समीर भाई ।
वहाँ मनीषियों के मुख से जो शब्द उच्चरित हुए ,उन्हें पढ़ कर गहरी परितृप्ति का अनुभव हुया. प्रत्यक्ष सुनने और ग्रहण करने का अपना आनन्द है ,लेकिन ,साहित्य पर वक्तव्य भी जब साहित्य जैसा लालित्य और अर्थमय हो तो उसे पढ़कर उन शब्दों को थाहने का सुख भी कम नहीं . जो पुस्तक इसका आधार बनी है उसके प्रति उत्सुकता और बढ़ गई है ! बधाई, समीर जी !
पुस्तक हाथ में लिए बैठी हूँ ..... ये वही कार है क्या जिसके शीशे से पीछे की कार झाँका करते थे .....? दुसरे पन्ने पे आपकी खुबसूरत सी हस्तलिपि ...शुभकामनाओं के साथ ... और खुबसूरत सा हस्ताक्षर ....
अंतिम सफ़्हा...... सबको हक़ है अपनी तरह जीने का ... लेकिन पूर्ण विराम ...? वो मुझे पसंद नहीं फिर भी थमी नदी के पानी में एक कंकड़ उछाल हलचल देख मुस्कुराता हूँ मैं ..... बहती नदिया में यह भला कहाँ मुमकिन .... फिर भी बहा जाता हूँ मैं !! फिर भी बहा जाता हूँ मैं !! *****
समीर जी हीर धन्य हुई ... याद रखने के लिए .... शुक्रिया ...!!
समीर जी बधाई आपकी उडन तश्तरी खूब उड़ानें भर रही है लोकप्रियता के सोपान पर आप अव्वल हैं । आपकी उडन तश्तरी बहुत पढ़ी जाती है आंकड़े कह रहे हैं । हमारी और से दिल से बधाई
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं in panktiyon ke saath saath lekh bhi prabhavshaali hai ,badhai ho . gantantra divas ki bhi badhai aapko ,jai hind .
नाम जिनका समीर है दिल का वो अमीर है देती खुश्बु सब को जो बहती हुयी समीर है। समीर जी को बधाई। पुस्तक के प्रकाशन के लिये। आपको गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें।
समीर जी आपकी पुस्तक के विमोचन के शुभ अवसर पर अभिनन्दन.
"देख लूँ तो चलूँ".. बहुत ही सुन्दर, अर्थपूर्ण और काव्यात्मक नाम... नाम सुनकर ही पुस्तक पढ़ने की जिज्ञासा प्रबल हो गयी है. सुन्दर और विश्लेष्णात्मक समीक्षा ने इस उत्कंठा को और भी बढ़ा दिया है. मै कैलिफोर्निया में रहती हूँ, कृपया मुझे बताएं की आपकी पुस्तक कैसे प्राप्त कर सकती हूँ. यदि आपके हस्ताक्षर युक्त प्रति मिलेगी तो सोने पर सुहागा .... सादर मंजु
आदरणीय समीर जी दिल से आभारी हूँ ये पुस्तक हमे मिल चुकी है, हमने पढ़ भी ली है, आपकी लेखनी के हम पहले से ही कायल हैं. "देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन पर एक बार फिर से हार्दिक बधाई और शुभकामनाये. regards
सर्वप्रथम तो समीर जी आपको बधाई... "देख लूं तो चलूँ" के लिए ..और शुभकामनायें .. कि आपकी किताब सब के हाथो में आये .. हमें कैसे उपलब्ध होगी यह भी मालूम करना है... और डॉ हरी शंकर जी की यह बाते अच्छी लगी जो उन्होंने पुस्तक विमोचन के समय का जिक्र किया है...
.आपकी ,खूबसूरत और भावमयी और जानकारी प्रस्तुति भी आज के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है आज (28/1/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा। http://charchamanch.uchcharan.com
देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन समारोह में शिक्षविद मनीषी एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य डॉ हरि शंकर दुबे जी का उदबोधन बहुत ही अच्छा लगा. एक पुस्तक के अन्दर के महत्वपूर्ण झलकियों के साथ लेखक के अहम् व्यक्तित्व को समझने का सुन्दर प्रस्तुतीकरण बहुत अच्छा लगा ..... इस अनुपम कृति के लिए समीर जी को बहुत बहुत बधाई ..
आप हिन्दी में लिखते हैं. आप हिन्दी पढ़ते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं, इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है. एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.
57 टिप्पणियां:
ऐसी कौन सी जगह है जहाँ समीर का अबाध प्रवाह नहीं है, इस बात को प्रमाणित करती है यह कृति ’देख लूँ तो चलूँ’. कहा जाता है जह मन पवन न संचरइ रवि शशि नाह प्रवेश- ऐसी कोई सी जगह है जहाँ पवन का संचरण न हो, जहाँ समीर न हो अब समीर इसके बाद यहाँ से कनाडा तक और कनाडा से भारत तक अबाध रुप से प्रवाहित हो रही है और उस निर्वाध प्रवाह में निश्चित रुप से यह उपन्यासिका ’देख लूँ तो चलूँ’ आपके सामने है.
यह शत प्रतिशत सच है, आपकी पुस्तक प्राप्त होने के बाद से मैं दो बार पढ़ चुका हूँ और अभीतक पढ़ने की प्यास बनी हुई है ....मैं इसकी समीक्षा प्रिंट मीडिया के लिए तैयार कर रहा हूँ , शीघ्र प्रकाशन की सूचना दूंगा !
अफसोस है इस बार मुलाक़ात न हो सकी.....
अच्छा लग रहा है इन विद्वतजनों को सुनना...अभी सुन ही रहा हूँ.. उपन्यासिका का कुछ अंश अगर संभव हो तो यहाँ भी डालिए...
बहुत सुंदर। सब कुछ समेट लिया गया है इस आलेख में।
bahut-bahit vadhayi sameerji.......
देख लूं तो चलूं ....के लिये हमारी भी शुभकामनाएं एवं बधाई ।
ek anubhaw ko janna sach ke kuch aur kareeb hona hai...
अविराम चलता रहे यह लेखन, बधाई.
सार्थक उद्बोधन .....यह कृति पढ़ने की उत्कंठा निरंतर बलवती हो रही है ..
बहुत ही सारगर्भीत .... सच है समीर कहाँ कहाँ नही है ...
समीर भाई जिंदाबाद ....
विमोचन के तारतम्य में साहित्यकार आचार्य डॉ हरि शंकर दुबे जी के सारगर्वित विचार जाने ... आपकी कलम को नमन ... अंत में हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई ...
MERE VICHAAR MEIN SAMEER LAL
VAKAEE SAMEER HAIN , SHEETAL -
SHEETAL AUR SABKO LUBHAANE WALE .
UNKAA JAESA MOHAK VYAKTITV HAI
VAESA HEE MOHAK KRITITV HAI.VE
SAMEER HAIN AUR SAMEER SAA HEE
JAADOO JAGAA RAHE HAIN , APNEE
LEKHNI DWAARAA .
बहुत कुछ जानने को मिल रहा है ,ये पुस्तक न जाने कब मिलेगी पढ़ने को...
सुन्दर ।समीर जी आपको हिन्दी ब्लागर २०१० बनने पर बधाई।
पहला अध्याय पढ़ लिया है, प्रवाह अबाध है।
निश्चित रूप से डॉ. हरि शंकर दुबे जी की ' देख लूँ तो चलूँ ' पर समीक्षात्मक, उद्देश्यपरक एवं सारगर्भित अभिव्यक्ति का मैं भी साक्ष्य हूँ , इसका आनंद अलग हे था. सच मानिए उस दिन प्रो. ज्ञान रंजन जी एवं डॉ. दुबे जी ने पुस्तक पर अपनी अभिव्यक्ति दी है उसके सुपात्र बहुत विरले होते हैं. इस अवसर पर भाई गिरीश जी ने सच ही कहा था कि "हमें ईर्ष्या होती है' लेकिन सकारात्मक वाली.
बहुत बहुत बधाई भाई समीर जी को.
- विजय तिवारी 'किसलय '
DESH - VIDESH MEIN APNEE RACHNAAON
KEE SUGANDH FAILAA RAHE SAMEER LAL
SAMEER PAR BAHUT KUCHH LIKHE JAANE
KEE ZAROORAT HAI . JAGO AALOCHKO !
हम इंतज़ार करेंगे :)
बहुत सुंदर।
‘मैं लिखता तो हूँ मगर मेरी कमजोरी है कि मैं पूर्ण विराम लगाना भूल जाता हूँ. ’
हम भी यही चाहते हैं कि आप के लेखन को किसी भी तरह का - न अल्प न पूर्ण विराम लगे :)
देख लूं तो चलूं ...के लिये शुभकामनाएं एवं बधाई, समीर जी।
अत्यंत सार्थक उदबोधन, बहुत बहुत शुभकामनाएं.
बहुत प्रसन्नता हो रही है आचार्य डॉ हरि शंकर जी दुबे के श्री मुख से आपके बारे में ये उदगार सुनकर. उनका यह कहना कि "ऐसी कौन सी जगह है जहाँ समीर का अबाध प्रवाह नहीं है?" अब और कहने को बचा ही क्या है? बहुत ही गदगद और प्रसन्न हो रहा हूं. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत प्रसन्नता हो रही है आचार्य डॉ हरि शंकर जी दुबे के श्री मुख से आपके बारे में ये उदगार सुनकर. उनका यह कहना कि "ऐसी कौन सी जगह है जहाँ समीर का अबाध प्रवाह नहीं है?" अब और कहने को बचा ही क्या है? बहुत ही गदगद और प्रसन्न हो रहा हूं. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत प्रसन्नता हो रही है आचार्य डॉ हरि शंकर जी दुबे के श्री मुख से आपके बारे में ये उदगार सुनकर. उनका यह कहना कि "ऐसी कौन सी जगह है जहाँ समीर का अबाध प्रवाह नहीं है?" अब और कहने को बचा ही क्या है? बहुत ही गदगद और प्रसन्न हो रहा हूं. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
"देख लूं तो चलूं" के लिये हार्दिक शुभकामनाएं. बहुत ही सशक्त प्रवाह है इसका. इसीलिये आदरणीय दुबे जी ने सही कहा कि "समीर का प्रवाह कहां नही है? बहुत बधाई.
"देख लूं तो चलूं" के लिये हार्दिक शुभकामनाएं. बहुत ही सशक्त प्रवाह है इसका. इसीलिये आदरणीय दुबे जी ने सही कहा कि "समीर का प्रवाह कहां नही है? बहुत बधाई.
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
बालिका दिवस
हाउस वाइफ़
इस संबोधन नें कृति को देखने -पढनें की उत्कंठा और जगा दी है.
अपने अभिभाषण की परिचयात्मक भूमिका में ही दुबे जी ने इतनी सक्षम बातें कह दीं ।
बहुत सुन्दर शब्दों में सही बखान किया है ।
सच है कि आपकी लेखनी में बहुत विविधता है , भारत से लेकर कनाडा तक और फिर वापस भारत ।
पुस्तक प्रकाशन और विमोचन के लिए पुन : बधाई ,समीर भाई ।
इन सुधी जनों, साहित्यिक व्यक्तित्वों की बातें भी अभूतपूर्व आनन्द का संचार कर रही हैं...
बहुत खुब जी, अब देख लिया भारत तो चलो.... जॊ, उधर कनाडा वाले भी इंतजार कर रहे हे
वहाँ मनीषियों के मुख से जो शब्द उच्चरित हुए ,उन्हें पढ़ कर गहरी परितृप्ति का अनुभव हुया. प्रत्यक्ष सुनने और ग्रहण करने का अपना आनन्द है ,लेकिन ,साहित्य पर वक्तव्य भी जब साहित्य जैसा लालित्य और अर्थमय हो तो उसे पढ़कर उन शब्दों को थाहने का सुख भी कम नहीं . जो पुस्तक इसका आधार बनी है उसके प्रति उत्सुकता और बढ़ गई है !
बधाई, समीर जी !
सर्वप्रथम पुस्तक के शानदार विमोचन के लिए बधाइयाँ...इक निगाह आपकी पुस्तक पर डाली है, बेहतरीन !!
बहुत सुन्दर! एक जोर से सांस ली है मैने; जिससे समीर को (जितना हो सके) अनुभव कर लूं!
पुस्तक के प्रति जिज्ञासा बन गई है!
इस महत्वपूर्ण उद्बोधन को हम तक पहुंचाने का आभार।
-------
क्या आपको मालूम है कि हिन्दी के सर्वाधिक चर्चित ब्लॉग कौन से हैं?
पढकर और सुनकर अच्छा लगा
सोच रहा हँू ट्रेलर ऐसा है तो फिल्म कैसी होगी
शुभकामनाएं एवं बधाई ।
पुस्तक हाथ में लिए बैठी हूँ .....
ये वही कार है क्या जिसके शीशे से पीछे की कार झाँका करते थे .....?
दुसरे पन्ने पे आपकी खुबसूरत सी हस्तलिपि ...शुभकामनाओं के साथ ...
और खुबसूरत सा हस्ताक्षर ....
अंतिम सफ़्हा......
सबको हक़ है अपनी तरह जीने का ...
लेकिन पूर्ण विराम ...?
वो मुझे पसंद नहीं फिर भी
थमी नदी के पानी में
एक कंकड़ उछाल
हलचल देख
मुस्कुराता हूँ मैं .....
बहती नदिया में
यह भला कहाँ मुमकिन ....
फिर भी
बहा जाता हूँ मैं !!
फिर भी
बहा जाता हूँ मैं !!
*****
समीर जी हीर धन्य हुई ...
याद रखने के लिए ....
शुक्रिया ...!!
समीर जी बधाई आपकी उडन तश्तरी खूब उड़ानें भर रही है लोकप्रियता के सोपान पर आप अव्वल हैं । आपकी उडन तश्तरी बहुत पढ़ी जाती है आंकड़े कह रहे हैं । हमारी और से दिल से बधाई
अत्यंत सार्थक उदबोधन, बहुत बहुत शुभकामनाएं|
समीर जी, इस पुस्तक के लिये बधाई और शुभकामनायें ....
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं
आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं
in panktiyon ke saath saath lekh bhi prabhavshaali hai ,badhai ho .
gantantra divas ki bhi badhai aapko ,jai hind .
अच्छा आलेख. काफी कुछ जानने को मिला
बहुत सुंदर! बधाई!
नाम जिनका समीर है
दिल का वो अमीर है
देती खुश्बु सब को जो
बहती हुयी समीर है। समीर जी को बधाई। पुस्तक के प्रकाशन के लिये।
आपको गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें।
आपके ब्लॉग देखता रहता हूँ,'देख लूँ तो चलूँ'से अभी मुखातिब नहीं हो पाया,मौका लगने पर बताऊंगा.
लेखन में यूं ही धमक और चमक बनाते रहिये !
बहुत कुछ जानने को मिला .... धन्यवाद
गणतंत्र दिवस के पावन अवसर पर आप को ढेरों शुभकामनाये
दुबे जी की बातों से तो हम कब से इत्तिफाक रखते हैं। दुआ है कि समीर जी का ये अबाध प्रवाह निरंतर जारी रहे...
इतना सब पढ़ने के बाद अब इंतज़ार नहीं हों रहा है ,हम कब पढ़ पायेंगे ?
इतना सब पढ़ने के बाद अब इंतज़ार नहीं हों रहा है ,हम कब पढ़ पायेंगे ?
समीर के माफिक सब सच है।
waah....
mugdhkaari !!!!
समीर जी आपकी पुस्तक के विमोचन के शुभ अवसर पर अभिनन्दन.
"देख लूँ तो चलूँ".. बहुत ही सुन्दर, अर्थपूर्ण और काव्यात्मक नाम... नाम सुनकर ही पुस्तक पढ़ने की जिज्ञासा प्रबल हो गयी है. सुन्दर और विश्लेष्णात्मक समीक्षा ने इस उत्कंठा को और भी बढ़ा दिया है. मै कैलिफोर्निया में रहती हूँ, कृपया मुझे बताएं की आपकी पुस्तक कैसे प्राप्त कर सकती हूँ. यदि आपके हस्ताक्षर युक्त प्रति मिलेगी तो सोने पर सुहागा ....
सादर
मंजु
बहुत सुंदर। सब कुछ समेट लिया गया है इस आलेख में।
आदरणीय समीर जी दिल से आभारी हूँ ये पुस्तक हमे मिल चुकी है, हमने पढ़ भी ली है, आपकी लेखनी के हम पहले से ही कायल हैं. "देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन पर एक बार फिर से हार्दिक बधाई और शुभकामनाये.
regards
देख लूँ तो चलूँ - जब पढने को मिलेगी तो जरुर ही इसका लुत्फ और होगा लेकिन इस पोस्ट इस कृति का आभास हो गया....
सर्वप्रथम तो समीर जी आपको बधाई... "देख लूं तो चलूँ" के लिए ..और शुभकामनायें .. कि आपकी किताब सब के हाथो में आये .. हमें कैसे उपलब्ध होगी यह भी मालूम करना है...
और डॉ हरी शंकर जी की यह बाते अच्छी लगी जो उन्होंने पुस्तक विमोचन के समय का जिक्र किया है...
.आपकी ,खूबसूरत और भावमयी और जानकारी
प्रस्तुति भी आज के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
आज (28/1/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन समारोह में शिक्षविद मनीषी एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य डॉ हरि शंकर दुबे जी का उदबोधन बहुत ही अच्छा लगा. एक पुस्तक के अन्दर के महत्वपूर्ण झलकियों के साथ लेखक के अहम् व्यक्तित्व को समझने का सुन्दर प्रस्तुतीकरण बहुत अच्छा लगा ..... इस अनुपम कृति के लिए समीर जी को बहुत बहुत बधाई ..
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