सब कहते कि वो गली मेरे घर आकर खत्म हो जाती है. मैने इसे कभी नहीं माना. मेरे लिए वो गली मेरे घर से शुरु होती थी.
लोग कहते कि गली का आखिरी मकान मेरा है और उसके बाद गली बन्द हो जाती है. मेरा हमेशा मानना रहा कि गली का पहला मकान मेरा है और वहीं से उसके बाद दूसरों के मकान शुरु होते हैं.
कोई उसे कहता कि श्रीवास्तव जी की, यानि हमारी गली, तो कोई सामने के मकान वाले तिवारी जी की गली, नुक्कड़ पर कुठरिया में रहने वाले घुन्सू चमार की गली तक भी मैं लोगों के कहे का बुरा नहीं मानता मगर जब कोई इसे खज़रे कट्खन्ने कुत्ते वाली गली कहता, तो मेरा खून खौल उठता.
खज़रा कटखन्ना कुत्ता- कालू. बस, एक बार पाण्डे जी के बेटे को काटा था उसने, वो भी तब जब उसने उसकी पूँछ पर से साइकिल चला दी थी. अब तो कालू को मरे भी जाने कितने साल गुजर गये थे मगर लोग-गाहे बगाहे मेरी गली को खज़रे कट्खन्ने कुत्ते वाली गली कह ही देते हैं.
मेरे लिए वो गली मेरे घर से शुरु होती है. वहीं मैं पैदा हुआ और होश संभाला. वो गली आकर बाजार में जुड़ती और फिर बाजार की सड़क से होती हुई राजमार्ग पर और फिर सीधे शहर में. शहर मुझे विदेश ले आया उस गली से शुरु होकर. वो गली मेरे लिए विदेश तक आती है. लौट लौट कर मैं उस तक जाता हूँ. कभी सच में मगर रोज - यादों में, सपनों में.
माँ मायके से आई और गली में समा गई. हाँ, उसके लिए गली हमारे घर पर समाप्त होती थी..वो जो उस घर में आई तो आँख मींचे ही निकली वहाँ से. उसे गली ने शमशान ले जाकर छोड़ा मगर वो तो माँ ने देखा नहीं. वो तो बस डोली में बैठकर आई थी इस घर में. दो बाँस और चार काँधों वाली सवारी कहाँ ले जाती है, सब जानकर भी नहीं जान पाते हैं जब खुद की सवारी निकलती है.
सामने वाले तिवारी जी मकान बेच कर अपने बेटे के पास शहर चले गये. मकान खरीदा वर्मा जी ने मगर गाँव ने कब भला माना इसे..वो मकान आज भी स्टेट बैंक वाले तिवारी जी का मकान कहलाता है. क्या पुराने और क्या नये- लोग अब भी उसे तिवारी जी की गली कहते हैं. कब मिटती हैं ऐसी पहचानें?
बहुत बदला गाँव. बिजली आई, नहर खुदी, एक सिनेमा बना. सरकारी स्कूल खुला. अस्पताल खुला. कई कुत्तों नें कई लोगों को काटा. सूखा पड़ा. बाढ़ आई. हैजा फैला. गली रुकी रही. मेरे लिए "श्रीवास्तव जी की गली"- मेरे साथ विदेश तक आई.
बचपन में पढ़ी उस भूत की कथा याद आई जिसका हाथ बड़ा होता जाता था दूर का सामान पकड़ने को. गली, जो मेरे घर से शुरु हुई, (और अब भी वहाँ है) मेरे साथ इस विदेशी गोरों की घरती पर भी आई. अजनबियों के इस देश में मेरा साथ निभाती आधी रात के अंधेरों में ढाढस बँधाती. एक तार को जोड़ती - बचपन से अब तक.परिवार के साथ. कुछ दूर न लगता.
एक दिन लौट जाना है - उस छोर पर जहाँ से गली शुरु हुई है. रास्ता याद दिलाती, यही तो दिली इच्छा है मेरी. मेरी ही क्यूँ..हर उस शक्स की जो गली से शुरु होकर दूर तक चला आया है.
सोचता हूँ क्या गली मुझे यहाँ लाई या मैं गली को?
गली चली या मैं ?? ..
रोशन जगमगाहट रोकती है और लालटेन की टिमटिमाती लौ बुलाती है.
पशोपेश में हूँ. फिर लौटने की चाह और रुके रहने की मजबूरी के बीच झूलता मैं.
वो
पिछवाड़े के दरवाजे पर
रात गये
तेरा छ्म्म से आना...
मुस्कराना
रोना
और
फिर बिछड़ जाना...
अब तो सब
सपनों की बातें हैं....
क्या तुम जानती हो....
मेरे साथ आज भी
वो रातें हैं...
-समीर लाल ’समीर’
113 टिप्पणियां:
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
मध्यकालीन भारत-धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२), राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
बेहतरीन सन्देश छिपा कर बहुत ही गहरी बातें की हैं आपने,
शुरुआत से लेकर अंत तक आपने बाँध कर रखा... कविता बहत अच्छी लगी....
यह लेख अंतरात्मा को स्पर्श कर रही है | आभार
आपका लेखन हमेशा प्रवाहमयी होता है .
गली गली में शोर है
उड़न तस्तरी सब ओर है ...
सही है - जहाँ न पहुंचे रवि ..वहाँ पहुचे साहित्यकार!
अच्छी भावुक, और माटी से ओतप्रोत लेख !!
बधाई स्वीकार करें !
कविता बहुत अच्छी लगी समीर जी। कितनी अजीब बात है। जिस गली में बचपन बीता, वो हमेशा साथ चला करती है। चाहे पता बदले, या शहर। गली का साथ चलना अपनी पहचान का एक अभिन्ना हिस्सा साथ लिए चलना होता है शायद।
रोशन जगमगाहट रोकती है और लालटेन की टिमटिमाती लौ बुलाती है.
कश्मकश और असमंजस जिन्दगी के हिस्से हैं. इन्हें सावधानी से सुलझाना होता है.
मेरे साथ आज भी
वो रातें हैं...
शायद हमेशा रहेगी. कुछ लम्हात यादों के हिस्से बन जाते हैं और अपने यथार्थ रूप से ज्यादा और प्रभावशाली प्रभाव रखते हैं.
कायम रहे वो रात ......
आप मुकद्दर के सिकन्दर हैं आपकी गली न तो बंद होती है न मुड़ती है बस शुरू होती है और दिक्काल की सीमाएं नापती है -सशक्त रचना !
... बहुत खूब समीर भाई ...पुरानी यादें ... मां ... मकां ... गली ... गांव ... अदभुत चित्रण ! ... पढकर ऎसा लगा कि शायद लिखते-लिखते आपकी आंखें नम जरुर हुई होंगी !
"...मेरे लिए "श्रीवास्तव जी की गली"- मेरे साथ विदेश तक आई ..." .... ये क्या पहेली है ?
... बेहद संजीदगीपूर्ण अभिव्यक्ति !
यही तो वह लेखन है जो समीर लाल को समीर लाल बनाता है .
क्या छेड़ दिया है आप ने। इक्कीस साल पुराना मकान छोड़ कर एक नई बस्ती में आया हूँ। खोया-पाया का हिसाब कर रहा हूँ।
अपनी माटी से दूर होने की पीड़ा..
लौट आने की चाह ...
रुक जाने की मजबूरी ...
सताती तो होगी ही ...
बहुत उम्दा शब्द-चित्र लिखा है आपने. गली हर हाल में शुरू होती है का भाव बहुत प्रभावित करता है. कविता के साथ यह और भी जज़्ब हो जाता है. बहुत सुंदर.
समीर बाबू… क्या बर्नन किए हैं आप... एकदम ई जो करेजा है न, ओहीं जाकर अटैक करता है आपका एक एक सब्द... मगर एगो बात अखर गया.. स्पस्ट जरूर करेंगे, इग्नोर मत कीजिएगा... माता जी के लिए यह कहना किः
माँ मायके से आई और गली में समा गई. हाँ, उसके लिए गली हमारे घर पर समाप्त होती थी.
कुछ ठीक नहीं लगा. माताजी के लिए उस घर पर वह गली कहाँ समाप्त होती थी, दरसल वहीं से तो उनका भी सुरुआत हुआ होगा किन्हीं की बहू, किन्हीं की भार्या, फिर माँ… खैर, ई जो मन में आया सो लिख दिए. लेकिन सचमुच मन को छू गया एक एक दृश्य.
अऊर कबिता तो बेजोड़ हइये है. बस सम्भाल कर रखिये ऊ रात. कोई भी दौलत उस रात का बराबरी नहीं कर सकता है.
मधुर स्मृतियाँ !
बहुत पसंद लगता है आपको गलियों में भटकना, जितनी बार भी पढ़ा याद है, हर बार कुछ यादों से ही निकलता दीखता है आपका ... शायद आपको वो शेर भी बहुत पसंद होगा - इस तरह ग़म को भुलाया कीजिये, रोज़ मयखाने आया कीजिये ...
लिखते रहिये ...
गुरुदेव,
करीब चार दशक पहले एक फिल्म आई थी कटी पतंग...उसका एक गाना था-
जिस गली में तेरा घर न हो बालमा,
उस गली में पांव धरना नहीं,
जो डगर तेरे द्वारे पे जाती न हो,
उस डगर से गुज़रना नहीं...
मुझे आज तक समझ नहीं आया कि जब ये जनाब हर वक्त बालमा की गली में धूनी रमाए बैठे रहते थे तो काम-धाम कब करते होंगे...
दूसरी बात...
एक एनआरआई बाबू जेंटलमैन बनकर बरसों बाद पुराने शहर लौटे...रिक्शा वाले से बोले नील का भैंसा ले चलो...रिक्शा वाला बोला...बाबू, ऐसी कोई जगह नहीं है शहर में...हां नील का कटरा है...इस पर जैंटलमैन जी बोले...साला दस साल बाद भी नील का कटरा, कटरा ही रहा, भैंसा नहीं बना....
जय हिंद...
कितने भावुक हैं आप!विदेश में बसने के बाद भी उस गली ने ना आपका साथ छोड़ा ना आपने उसका.
नही.आपने ही उसे नही छोड़ा.आपके साथ जीती है वो और उसके साथ उससे जुडी यादे.
आइयेगा देखिएगा आज भी नन्हे से ले के बड़े होते हुए आपके पैरों के निशान वहाँ मौजूद होंगे.कोई
दोनों छूट गई फिर भी ...मुझ में समा गई.जाने कौन गली होगी जहाँ से गुजरते हुए नही देख पाउंगी कि कहाँ से गुजरी?
इतनी है फिर भी मेरी गली कोई भी नही.भाग्यशाली हैं आप कोई गली तो है आपके साथ.
कहाँ लौट पाते हैं वहां
छोड़ आए जो गलियां ।
अब तो यादों में ही आनंद लीजिये ।
समीरजी! अभी-अभी आपकी यह पोस्ट पढी और मैं अपने गॉंव हो आया। मन गीला और भरी हो गया। आज की सुबह पूरे दिन पर हावी रहेगी।
सोचता हूँ क्या गली मुझे यहाँ लाई या मैं गली को?
गली चली या मैं ?? ..
जहां बचपन बीते उन गलियों का सिलसिला कभी खत्म नहीं होता, भावुक अभिव्यक्ति ...
regards
खुजलाने वाले कुत्ते की गली, बस ऐसे ही सम्बोधन दिल में चुभ जाते हैं। लौट आइए, अपने देश और आपके अन्दर का स्नेह दे डालिए इस देशवासियों को।
बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति .. पुरानी यादें भला कब पीछा छोडती हैं ??
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
बेहतरीन प्रस्तुति।
सच में बहुत मुश्किल होता है उन गलियों को भुलाना
जहाँ बचपन गुज़ारा हो.... बड़ा जीवंत वर्णन किया आपने.....कविता संजीदगीपूर्ण
ब्लागजगत में अब तक छपे बेहतरीन लेखों में से एक जिसे यहाँ के लोग समझ नहीं पायेंगे समीर भाई ....
यहाँ तो गली ख़त्म हो गयी है ...बस !
सादर
अमिताभ जी का वह डायलॉग याद आ गया, “हम जहाँ खड़े हो जाते हैं लाइन वहीं से शुरू होती है।” क्या ख़ूब बात कही है बॉस। एकदम दिल को टचती हुई। सुन्दर कविता।
गली चली या मैं ?? ..
बहुत से रस्ते ऐसा ही सोचने पर मजबूर करते हैं .
गलियां 'मकानों 'को जोड़ती भी हैं ..'भूत के हाथ' की तरह कहीं भी बढती पहुँच जाती हैं.
सुन्दर लेखन, भावमय प्रस्तुति ।
फिर लौटने की चाह और रुके रहने की मजबूरी के बीच झूलता मैं.....काश इस मज़बूरी से मजबूर न होते !!
बहुत ही प्रभावशाली प्रस्तुति है ....हर गली वाला जो अपने साथ आगे तक उस गली के ले आया या वह गली उन्हें आगे ले गई ....हर उस मजबूर गली वालें को अपनी ही लगेगी .
आभार
बेहतरीन भाव...सुन्दर अभिव्यक्ति...बधाई.
__________________________
"शब्द-शिखर' पर जयंती पर दुर्गा भाभी का पुनीत स्मरण...
सोचने वाली बात है कि चली गली थी कि आप चले थे....ये भी की गली चली थी.....ईब कोई तो चला था कि आप उन गलियों से चलते हुए राजमार्ग से होते हुए फिर किसी गली मैं आ गए ....उङन तश्तरी वाली गल्ली
आपकी प्रस्तुति पर क्या कहू बस पढ़कर कुछ देर के लिए दिल chup हो जाता है
बहुत अच्छी रचना,
मुबारक हो.
यहाँ भी पधारें:-
ऐ कॉमनवेल्थ तेरे प्यार में
भावुक कर देते हो जी हमें भी
प्रणाम
कोई उसे कहता कि श्रीवास्तव जी की, यानि हमारी गली, तो कोई सामने के मकान वाले तिवारी जी की गली, नुक्कड़ पर कुठरिया में रहने वाले घुन्सू चमार की गली तक भी मैं लोगों के कहे का बुरा नहीं मानता मगर जब कोई इसे खज़रे कट्खन्ने कुत्ते वाली गली कहता, तो मेरा खून खौल उठता.
--
इस सन्देशपरक पोस्ट के लिए बहुत-बहुत बधाई!
--
वैसे भी हर गली किसी न किसी के मकान से शुरू होती है और किसी न किसी के मकान पर खत्म होती है!
यह पोस्ट हृदय फलक पर गहरी छाप छोड़ती है।
इंसान का अस्तित्व अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य से जूझता हुआ खुद को ढूंढता रहता है। अकसरहां स्मृतियों और वर्तमान के अनुभव एक-दूसरे के सामने आ खड़े होते हैं। तब हम फिर लौटने की चाह और रुके रहने की मजबूरी के बीच झूलते रहते हैं।
कुछ घाव पुराने याद आये
जीने के बहाने याद आये
आतमा मे ये गलियाँ कहीं न कहीं जरूर रहती हैं चाहे आप कहीं भी चले जायें। बहुत भावपूर्ण दिल को छूने वाली पोस्ट है।
शुभकामनायें।
ये गलियाँ भी क्या चीज हैं जो भूले नहीं भुलाई जाती ... रचना एक अलग अंदाज में बढ़िया लगी...आभार
बहुत ही प्रभावशाली रचना।...आरंभ के संस्मरण में भी कविता जैसा प्रवाह है।...प्रारंभ से अंत तक रोचक।
गली आती है या आप जाते है गली कों उस पार तक लेकर .... इसका निर्धारण होना कठिन है, पर ये सुनिश्चित है कि आपका यह प्रेम आपको वापस ले आएगा उसी गली तक ...
'दो बाँस और चार काँधों वाली सवारी कहाँ ले जाती है, सब जानकर भी नहीं जान पाते हैं.' ... जीवन का यथार्थ प्रस्तुत करती ये पंक्तियाँ भावुक करदेती हैं ....
स्मृतियों में जी रही कविता भी सुन्दर लगी...
शुभकामनाएं....
समीर जी, हमेशा की तरह लेख एक उपदेश और सन्देश दे रहा है, उस पर तो क्या कहू , आपने ही बहुत कुछ कह दिया ! लेकिन निम्न पंक्तियों पर टिपण्णी किये बगैर भला कैसे रह सकता हूँ ;
"वो
पिछवाड़े के दरवाजे पर
रात गये
तेरा छ्म्म से आना..."
गली के आख़िरी छोर का मकान होने का यही तो सबसे बड़ा फायदा होता है ! :)
किसी ने क्या खूब लिखा है की -
...लिखा था नशीब में होना ,पडोसी किसी शहंशाह का...........
आज मैं आपके ब्लॉग पर आया और ब्लोगिंग के माध्यम से आपको पढने का अवसर मिला
ख़ुशी हुई.
ये गलियां कभी नहीं छूटतीं ..
सोचता हूँ क्या गली मुझे यहाँ लाई या मैं गली को?
गली चली या मैं ?? ..
रोशन जगमगाहट रोकती है और लालटेन की टिमटिमाती लौ बुलाती है.
पशोपेश में हूँ. फिर लौटने की चाह और रुके रहने की मजबूरी के बीच झूलता मैं.
और ये कशमकश कभी पीछा नहीं छोड़तीं ..बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति.
बेहतरीन भावों से सजी है आपकी यह पोस्ट ...जहाँ बचपन बीता हो उसे कहाँ भुला पाते हैं ...माँ के बारे में बहुत संजीदगी से लिखा है ..
रोना
और
फिर बिछड़ जाना...
बिछड गए तभी तो आज भी याद है छम्म से उसका आना ...
बहुत भावमयी प्रस्तुति
"अजनबियों के इस देश में मेरा साथ निभाती आधी रात के अंधेरों में ढाढस बँधाती. एक तार को जोड़ती - बचपन से अब तक.परिवार के साथ. कुछ दूर न लगता. "
कैसे दूर लगेगा...क्यूंकि वो गली आत्मा में बिछी हुई थी..
बहुत ही सुन्दर लिखा है..एकदम आत्मीय सा..
Sameer bhaai, ye yaaden bahut sahaara detee hain, bahut pyaar detee hain. aap ko yaad hai apanee gali, tivaaree jee ka makan aur bahut saaree baaten, yah aap kaa khajaana hai, ek aisa khajaana jismen se chaahe jitana kharch kijiye, par kabhee khaali naheen hota. aap ko galeee kheechatee hai, vo isliye ki usamen jindagee kee sahajata thee, videsh kee nakalee jagamagahat se bilkul alag. main kahoon to galee ap ko videsh tak le gayee par aap uske prati kritagy rahe, galee ko yaad se alag naheen kiya, use bhulaaya naheen, yah nastalgia hee aap ko bada banaata hai. jo shahar jakar ganv ko bhool jate hain ve videsh jaakar to apane maa-baap ko bhee bhool sakate hain, par jise galee tak kee yaad hai, vah apanee jadon ko sambhaal kar rakh sakata hai. bahut achchha laga padhakar.
अतीत के झरोखे से निकली यादें हमेशा मन को सकूँ देती हैं ..... उन गकियों में वापस जाना हमेशा सुख की गहरी अनुभूति देता है ....
वो
पिछवाड़े के दरवाजे पर
रात गये
तेरा छ्म्म से आना...
मुस्कराना
रोना
और
फिर बिछड़ जाना...
अब तो सब
सपनों की बातें हैं....
क्या तुम जानती हो....
मेरे साथ आज भी
वो रातें हैं...
bahut hi badhiyaa, yaaden ... kahan saath chhodti hain
अतीत के झरोखे से निकली यादें हमेशा मन को सकूँ देती हैं ..... उन गकियों में वापस जाना हमेशा सुख की गहरी अनुभूति देता है ....
बेहतरीन प्रस्तुति। आभार
बेहतरीन प्रस्तुति। आभार
कुछ यादें ज़िन्दगी होती हैं…………कब पीछा छोडती हैं।
आपकी गली का ये अंदाज सचमुच लाजवाब कर गया।
एक ऐसी गली अपनी भी है, बिलकुल ऐसी ही. जानी पहचानी लगी ये गली.
शुरुआत से लेकर अंत तक आपने बाँध कर रखा... कविता बहत अच्छी लगी....
यह लेख अंतरात्मा को स्पर्श कर रही है |
`सब कहते कि वो गली मेरे घर आकर खत्म हो जाती है. मैने इसे कभी नहीं माना. मेरे लिए वो गली मेरे घर से शुरु होती थी'
यह तो आधा गिलास खाली या आधा भरा वाला मामला लगे हैं :)
समीर साहब
काफी दिनों बाद आ सका आपके ब्लॉग पर...माफ़ करें...! आलेख में यह कविता बिलकुल सोने पे सुहागा की तरह चमक रही है....!
क्या ही उम्दा कविता है......वाह वाह
वो
पिछवाड़े के दरवाजे पर
रात गये
तेरा छ्म्म से आना...
मुस्कराना
रोना
और
फिर बिछड़ जाना...
गलियाँ बहुत कुछ कहती हैं
कुछ गलियाँ कभी नहीं भुलती
कुछ गलियाँ दिल को दिल से जोड़ती हैं
कुछ गलियाँ हमेशा जिन्दा रहती हैं दिल के किसी कोने में ....
देश की गलियों पर विदेश में रहते अच्छा चित्र उकेरा है ...फिर
वो
पिछवाड़े के दरवाजे पर
रात गये
तेरा छ्म्म से आना... मुस्कराना
रोना
और
फिर बिछड़ जाना... अब तो सब
सपनों की बातें हैं.... क्या तुम जानती हो.... मेरे साथ आज भी
वो रातें हैं...
गली के साथ एक अच्छा संवाद किया है आपने यहाँ !!!
लेकिन बिहारी बाबू से सहमत हूँ कि माँ और गली वाला प्रसंग कुछ जँचा नहीं ।
खज़रे कट्खन्ने कुत्ते के विलाप में लिखी पंक्तियाँ बेहद सुन्दर हैं - :)
कुछ पुरानी यादें , पुरानी गलियाँ, वहां लौटने की तड़प... बहुत ही सुन्दर लेखन....
मेरे ब्लॉग इस बार मेरी रचना ...
स्त्री
बहुत ही भावुक अभिव्यक्ति .रोशन जगमगाहट रोकती है और लालटेन की टिमटिमाती लौ बुलाती है ...बहुत बढ़िया .आभार .
मधुर स्मृतियों की बातें कर
भावुक कर दिया है आपने ...
गली को पढते हुए गला रुंधनें लगा है ! ज़ज्बाती पोस्ट ! सांकेतिक तौर पर हम सभी पर लागू संस्मरण !
come back
Intense. Beautiful.
लोग कहते हैं गली वहाँ खत्म होती है, मैं कहता हूँ गली मेरे घर से शुरू होती है।
गली गाथा बहुत कुछ समेटे है अपने अंदर।
नजरिया मस्त है आपका।
हम भी साहब, फ़िलहाल बंद गली के आखिरी मकान में आबाद हैं। लेकिन हम मान लेते हैं जो लोग कहते हैं।
आपकी कोई कोई पोस्ट लगभग सभी की पोस्ट होती है, इस तरह की याद हर एक अपने दिल में समेटे है पर............
एक और बेवजह की पोस्ट---
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
यही हमारी नियति है कि हम ज़िन्दगी भर जाने कितनी गकियों में भटकते रहते है और उस गली तक नहीं पहुंच पाते जहाँ हमने चलना सीखा था । संवेदना का बहुत सुन्दर संसार सजय है आपने और कविता उसकी चरम अभिव्यक्ति है ।
अच्छा लिखते हो भैयाजी
कभी हमारे द्वारे भी आना
जै राम जी की
इत्ती टिप्पणी का का करते हो भाई
@ चला बिहारी ब्लॉगर बनने:
स्पस्ट जरूर करेंगे, इग्नोर मत कीजिएगा... माता जी के लिए यह कहना किः
माँ मायके से आई और गली में समा गई. हाँ, उसके लिए गली हमारे घर पर समाप्त होती थी.
कुछ ठीक नहीं लगा. माताजी के लिए उस घर पर वह गली कहाँ समाप्त होती थी, दरसल वहीं से तो उनका भी सुरुआत हुआ होगा किन्हीं की बहू, किन्हीं की भार्या, फिर माँ…
-मित्र..
इस आलेख में माँ उस नारी स्वरुपा को चित्रित कर रही है जिसकी दुनिया अपना घर सजाने संवारने और उसे दिशा देने में घर के भीतर सीमित हो कर रह जाती है. यह उस जमाने की वो भारतीय नारी है जो घर की चहार दीवारी के भीतर रह कर विश्व निर्माण करती है. ऐसे ऐसे लाल पैदा करती है, उन्हे पालती है, संस्कार देती है कि सारा जगत उसे नमन करता है किन्तु उसकी खुद की दुनिया, उसका खुद का घर होती है..वो भी पिता वाला नहीं, पति वाला जिसे वो अपना घर कहती है. जिसकी वो राज रानी होती है. वो उस घर की ड्योढी तभी लाँघना चाहती है, जब उसकी अंतिम यात्रा निकले. बस, कुछ इसी भाव को प्रकट करने का प्रयास था माँ के माध्यम से.
शायद शब्द क्षमता कमजोर रही या लेखन. बस, अपनी क्षमता भर प्रयास था. आपने इस ओर इंगित किया, बहुत अच्छा लगा.
अब शायद कुछ स्पष्ट हुआ हो. आगे से और मेहनत का प्रयास रहेगा किन्तु आपसे हमेशा अपेक्षा रहेगी कि इसी तरह रोककर मार्गदर्शन करें. इग्नोर वो भी भला आपको, कैसे कर सकता हूँ. आपने तो मुझे मार्ग दिखाया है.आभार जरुर कर सकता हूँ मगर आप अपने हैं अतः वो भी नहीं. :)
सादर
समीर लाल
@माँ मायके से आई और गली में समा गई. हाँ, उसके लिए गली हमारे घर पर समाप्त होती थी.
सही कहा है, नारी घर में आने के बाद बस उस घर की ही होकर रह जाती है। परिवार बसाने और घर को संभालने में सम्पूर्ण जीवन व्यतीत हो जाता है।
आभार
माँ मायके से आई और गली में समा गई. हाँ, उसके लिए गली हमारे घर पर समाप्त होती थी..वो जो उस घर में आई तो आँख मींचे ही निकली वहाँ से. उसे गली ने शमशान ले जाकर छोड़ा मगर वो तो माँ ने देखा नहीं. वो तो बस डोली में बैठकर आई थी इस घर में. दो बाँस और चार काँधों वाली सवारी कहाँ ले जाती है, सब जानकर भी नहीं जान पाते हैं जब खुद की सवारी निकलती है.
बहुत सुंदर रचना! बधाई
समीर भाई, आपने मान रखा... मेरे लिए यही बहुत है...माता जी के श्रीचरणों में मेरी श्रद्धांजलि...
पुरानी यादों में मैं भी चला गया । सशक्त लेखन ।
गली का घर और उसमें समाई माँ ,ये तो सदा साथ ही रहेंगे ,फिर कभी वहाँ जा पायें या नहीं .वैसे न जाना अधिक सुरक्षित क्योंकि अब गलियों के परिवेश एकदम बदले हुए मिलते हैं .
-बहुत अच्छा लगा !
hi Sameer darling? how r u?
हम्म्म्म...आज आप बहुत सेंटीमेंटल लग रहे हैं...बचपन की गलियां कभी छूटती नहीं हैं आपके साथ साथ चलती हैं...आप उन्हें छोड़ छाड़ कर भले ही कहीं बस जाएँ लेकिन वो आप का साथ नहीं छोडती...बचपन की गलियां सुविधाओं के राजमहल तक नहीं जातीं इसीलिए हम उन्हें वहीँ छोड़ आते हैं....
नीरज
रोशन जगमगाहट रोकती है और लालटेन की टिमटिमाती लौ बुलाती है.
पशोपेश में हूँ. फिर लौटने की चाह और रुके रहने की मजबूरी के बीच झूलता मैं.
समीर जी दिल को छू सी गयीं आप की यह यादें. तहे दिल से शुक्रिया आपका.
नीरज गोस्वामी जी ने बिल्कुल सही कहा है बचपन की गलियां राजमहल तक नही जाती इसीलिये उन्हें छोड दिया जाता है.
बहुत ही भावुक पोस्ट, शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
आपको और आपके परिवार को नवरात्र की हार्दिक शुभ कामनाएं
आपका प्रवाहमयी लेखन है .
बहुत अच्छी प्रस्तुति। प्रवाहमयी लेखन है .
समीर बिटवा नवरात्र की बहुते शुभकामना अऊर बधाई, जुग जुग जीओ.
अऊर सुनत हैं कि तुम इंडिया आरहे हो त हमारे नखलेऊ आकर अम्माजी से जरूर मिलना हम इंतजार करेंगी तुम्हारा.
@ अम्मा जी
बस आपका आशीर्वाद मिल गया तो सब कुशल मंगल चलना ही है.
नखलेऊ आकर अम्माजी से जरूर मिलना है मगर मिलेंगी कहाँ, ये तो बताईये. :)
आप कैसे सहज शैली में, सरल शब्दों में ही जीवन-दर्शन लिख देते हैं. बिना किसी आडम्बर के. मैं आपसे मिली नहीं हूँ, पर आपकी बातों और लेखों से लगता है कि आप इतने ही सरल होंगे, जितना आपका लेखन.
छोड आये हमsss वो गलियां । सबको अपनी अपनी गलियों की यादों ने बैचैन कर दिया । बहुत सुंदर ।
इन गलियों का इतराना किसी के नामों पर, नाम बदल लेना किसी सफलपुत्र के नाम पर, पहचान न बना पाना इतने वर्षों के बाद भी। गलियों की यह स्थिति भी तो हमने ही बनायी है, उन्हे गलियाँ बना कर छोड़ दिया है बस।
समीर जी सुबह उठने के बाद सबसे पहला आपका यह पोस्ट पढ़ा, बहुत-सी यादों की याद दिला गई. आपके लेखन में जो भावाप्रवाह है उससे मन अभिभूत हो उठता है. विदेश में रह कर अपनी उस गली को अब भी इस तरह याद करना, बहुत ही अच्छा लगा. बस अब चले आईये. जब कभी अपनी गली में आईएगा तो उसे भी जरूर लिखियेगा. कविता भी बहुत सुन्दर लगी!
नवरात्र की शुभकामनाएं सहित!
क्या तुम जानती हो....
मेरे साथ आज भी
वो रातें हैं... भावभीनी रचना..बधाई.
बढिया लगा ..
आप का स्टाइल ही ऐसा है कि कब हलकी फुलकी बात करते करते एक दम गहराई में उतर जाएँ.
कुछ भी पता नहीं चलता...........
छोटा मुहं और बड़ी बात : अपनी पोस्ट के आखिर में २-४ पंक्तियाँ नए ब्लोग्गर्स के लिए भी लिख दीजिए.... जो टिप्स का काम करेंगी.
आभार.... अगर इतनी भीड़ में मेरी टिपण्णी पढ़ ली गई तो.
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी!
अध्यात्म में ठीक ही कहा गया है कि हम जिस चीज़ को बड़ा मानकर पाना चाहते हैं,वह मिलते ही छोटी हो जाती है!
समीर भाई,
आपका आलेख "सात समुंदर पार आती गली " बारीकी से पढ़ते-पढ़ते जब मैंने ---
"एक दिन लौट जाना है - उस छोर पर जहाँ से गली शुरु हुई है. रास्ता याद दिलाती, यही तो दिली इच्छा है मेरी. मेरी ही क्यूँ..हर उस शक्स की जो गली से शुरु होकर दूर तक चला आया है" , आपके लिखे उपरोक्त वाक्य पढ़े तो आँखें नम हो गईं. विदेश में रहते हुए अपनी जन्म-भूमि का सच्चा बेटा ' समीर ' और समीर जैसा ही कोई हो सकता है. समीर भाई कितना स्नेह है आपको अपने वतन और अपनी मिटटी से .... हम तो आपकी भावनाओं को शत-शत नमन करते हैं. ईश्वर आपको सदैव खुश रखे.
विजय तिवारी " किसलय "
अब तो सब
सपनों की बातें हैं....
क्या तुम जानती हो....
मेरे साथ आज भी
वो रातें हैं...
बहुत ही खूबसूरत संस्मरणात्मक पोस्ट----नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें स्वीकारें।
समीर जी
देखने समझने का फर्क ही इंसान को अलहदा रखता है...
जिसे सब बंद गली कहते हैं वहीँ आप उसे गली कि शुरुआत samjhte हैं...yahi soch aapko shikhar तक pahunchati है......!
अच्छी-अच्छी यादें...कुछ भी नहीं भूले आप.
बेशक़ सही और यादें ही ले जातीं हैं अपनी गलियों और ज़मीन पर
यादों का कौन भरोसा, बिन चाहे भी आ जाती हैं...
7/10
excellent
मेरे जैसे भावुक इन्सान के दिमाग में इस रचना को पढने के बाद विचार आने बंद हो गए हैं
यही मेरी टिप्पणी है
"विचार आने बंद हो गए हैं , मन शांत है .. "
बहुत ही अच्छी संस्मरणात्मक पोस्ट---।
वो
पिछवाड़े के दरवाजे पर
रात गये
तेरा छ्म्म से आना...
मुस्कराना
रोना
और
फिर बिछड़ जाना... श्रीमान यह यात्रा और इस के साथ घर से विदेश तक का नक्शा आंख भीगा गया- फ़राज़ जी का शेर -अब ना वोह मैं हूँ ,ना तू है ना माजी है फ़राज़ /जेसे दो साये तम्मना के सराबों में मिलें
सोचता हूँ क्या गली मुझे यहाँ लाई या मैं गली को?
गली चली या मैं ??
फिर लौटने की चाह और रुके रहने की मजबूरी के बीच झूलता मैं.
अंतरात्मा को स्पर्श करती. भावपूर्ण अभिव्यक्ति
bahut sunder.
nice
पांच लाख से भी जियादा लोग फायदा उठा चुके हैं
प्यारे मालिक के ये दो नाम हैं जो कोई भी इनको सच्चे दिल से 100 बार पढेगा।
मालिक उसको हर परेशानी से छुटकारा देगा और अपना सच्चा रास्ता
दिखा कर रहेगा। वो दो नाम यह हैं।
या हादी
(ऐ सच्चा रास्ता दिखाने वाले)
या रहीम
(ऐ हर परेशानी में दया करने वाले)
आइये हमारे ब्लॉग पर और पढ़िए एक छोटी सी पुस्तक
{आप की अमानत आपकी सेवा में}
इस पुस्तक को पढ़ कर
पांच लाख से भी जियादा लोग
फायदा उठा चुके हैं ब्लॉग का पता है aapkiamanat.blogspotcom
सुन्दर प्रस्तुति जो भावुक करती है.
आपके सुन्दर हृदय से प्रकट यह प्रस्तुति
अनुपम है.बार बार पढ़ने को मन करता है.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
बहुत सुंदर आलेख ,...अच्छी प्रस्तुती,
क्रिसमस की बहुत२ शुभकामनाए.....
मेरे पोस्ट के लिए--"काव्यान्जलि"--बेटी और पेड़-- मे click करे
एहसासों को कुरेदती अच्छी प्रस्तुति .बधाई .नववर्ष की .
Saat samunder paar Aati gali ... Apne ateet me baar baar vapis le Jane vali gali ... Maa Ki yaad dilati gali .... Bachpan me fir se le jati gali ... Kisi khas Ki chann chanahat Ki yaad dilati gali ... Vapis aaja paradesi Ki Guhar lagati gali .... Ek chitr oobhar ker aata hai aapki ye rachna padhker... Badhai aapko !!
Nice post thanks for share This valuble knowledge
एक टिप्पणी भेजें