जन्म लेना और मरना हमारे हाथ में नहीं. मृत्यु एक अटल सत्य है किन्तु इन्सान उम्र के किसी भी पड़ाव पर हो, उसके जीने की लालसा खतम नहीं होती.
इन्सान पैसा कमा कमा कर अघा सकता है. कमाने के लिए उल्टे सीधे हथकंडे अपनाना छोड़ सकता है. हलवाई मिठाई के बीच बैठा बैठा मीठा खाने से उब सकता है. अपराधी जुर्म कर कर थक के जुर्म की दुनिया से मूँह मोड़ सकता है लेकिन जिन्दा रह रह कर भी जीने की लालसा खतम करना, कभी नहीं. यह इन्सानी स्वभाव नहीं है.बीमारी और शारीरिक व्याधियों से परेशान इन्सान लाख बोल ले कि हे भगवान!! अब नहीं जिया जाता, अब तो तू मुझे उठा ही ले मगर जब मौत करीब आती है, तो एकदम घबरा उठता है. मानो जाने को तैयार ही न हो.
लालच की पराकाष्टा राजनिती तक से सारी जिन्दगी उसी दलदल में फंसे लोग एक उम्र पर निकल सकते हैं. प्रधानमंत्री रह चुके लोग भी घर बैठे राजनिती से दूर कविता रच रहे हैं मगर जीने की लालच, तौबा!! इसे छोड़ने की बात मत करो. यह नहीं हो पायेगा.
जिस उम्र में आर्ट ऑफ डाईंग सीखना चाहिये, याने मरने की कला, उस उम्र में लोग भीड़ लगाये खड़े हैं आर्ट ऑफ लिविंग सीखने के लिए जैसे कोई छात्र इन्जिनियरिंग का कोर्स खत्म करके के. जी. में एडमिशन लेने के लिए डोनेशन लिए पहुँचे. अरे, जितनी लिविंग करनी थी, सो तो कर ही चुके, अब अंत से समय में कैसा आर्ट और कैसी साईंस. कोई क्या सिखा देगा. वैसे कितना भी सिखा देखा, बुढ़ा तोता बोलेगा तो राम राम ही और माना कि सीख भी गये, तो जब तक निपुण होने का मौका आयेगा, ज्यादा उम्मीद यही है कि निकल चुके होगे या कहीं मुहाने पर होगे. कोई लड्डू तो है नहीं कि गप्प से खाया और अह्हा!! मीठा मीठा करने लगो. अभ्यास की बात है.
बाजार समझता है कि क्या बिकेगा. लोगों को क्या खरीदना है. किस बात पर वो ललचा कर रुक नहीं पायेंगे और बस!! वही एक बढ़िया व्यापारी शानदार पैकिंग बना कर बेचने निकल पड़ता है और खरीददारों की जमघट लग जाती है. व्यापारी गुरु कहलाता है और खरीददार चेले.
सारी जिन्दगी दो नम्बर की कमाई काटी, मातहतों को परेशान किया, नौकरों को फटकारा, झूट बोला, व्यापार में लोगों को चूना लगाया, टैक्स हजम कर गये और फिर जब चलने का समय आया तो मीठी वाणी के लाभ, ईमानदारी और पर पीड़ा समझने की पाठशाला में जाकर मूँह उठाये आँख मींचे बैठे हैं और वही पैसा न्यौछावर कर रहे हैं जो इन्हीं बातों से कमाया. गुरु जी भी धन का लोभ त्यागने का प्रवचन पिला पिला कर धन समेटने में व्यस्त हैं. धन्य हैं वो लोग. मैं उन्हें नमन करता हूँ.
उम्र दराज हो चुके बुजुर्गों के लिए जो ज्यादा जरुरी और करीबी है वो क्लास लगा कर देखो ’आर्ट ऑफ डाईंग’. उसमें सिखाओ कि कैसे तैयार हो अन्तिम यात्रा के लिए. कोई पूड़ी सब्जी कपड़े तो बाँध कर ले नहीं जाना है कि परेशानी हो. बस सिखाओ कि कैसे सब बातों से निवृत हो कर चैन से तैयार रहना है. कल के लिए कुछ पैन्डिग नहीं रखना है. जब सोने जाओ तो यह सोच कर कि अब उठ नहीं पायेंगे. सारे रुपये पैसे, वसीयत नामा वगैरह पूरा कर लो. प्रियजनों से मेल मुलाकात करते रहो. प्रेम से रहो. लड़ो झगड़ो मत. किसी का दिल न दुखाओ. इच्छाऐं जहाँ तक संभव हो, पूरी कर लो आदि आदि. इतना सा तो सिलेबस है इस कोर्स का.
बस, फिर क्या है. जब भी घड़ी आ जाये, मुस्कराते हुए चल दो. आखिर लोग घर छोड़ कर दूसरे देश में जा ही बसते हैं. क्या पता कब लौटें. सब कुछ निपटा कर ही निकलते हैं न!! फिर? अन्तिम यात्रा की तैयारी में शरमाना कैसा और घबराना कैसा? विदेश प्रवास तो फिर भी कैंसिल हो सकता है मगर यह तो तय है. बस, तारीख नहीं मालूम होती. लास्ट मिनट फ्लाईट जब सस्ती मिल जाती है तो खुशी खुशी निकलते हो कि नहीं कि पैसे बच गये तब फिर यहाँ-इसमें कैसा दुखी होना?
लेकिन तुम देखोगे कि इस ’आर्ट ऑफ डाईंग’ की क्लास के लिए एक भी इन्सान न मिलेगा. खाली हॉल में अकेले तुम होगे सिखाने के लिए इन्तजार करते भूख से डाईंग की ओर अग्रसर, डाईंग का साईंस अहसासते हुए. जो भी ऐसी क्लास लगायेगा वो एक दिन खुद ही आर्ट ऑफ लिविंग की क्लास में नजर आयेगा भीड़ के साथ लेट एडमिशन लेते.
जिस तरह जन्म लेकर जीना जरुरी है, उसी तरह जीने लेने के बाद मरना भी जरुरी है. फिर क्यूँ न इस कला में भी पारंगत हुआ जाये कि जब मौत आये तो मुस्कराते हुए खुशी खुशी गले लगायें कि आओ मित्र, अब मैं जी चुका और तुम्हारा स्वागत है. चलो, चलें.
वैसे तो सही है कि जब तक जिओ, स्वस्थ, खुश रहते हुए खुशियाँ बांटते हुए जिओ. इस कला में निपुण रहो. लेकिन होता विपरीत है. जब तक सक्षमता रहती है तब तक मनमानी कर अपने हिसाब से जी गये. रोज देर रात तक पार्टियाँ चली. सारी दुनिया की लतें जैसे इनके लिए ही बनी हैं तो सिगरेट से लेकर शराब और शबाब तक किसी से कोई परहेज नहीं. और जब अंत समय नजदीक आया, किसी काम के नहीं बचे, शरीर ने साथ देना बंद कर दिया तो आर्ट ऑफ लिविंग सीखने निकल पड़े. बेहतर होता इस समय आर्ट ऑफ डाईंग सीख लेते, वो भी अटल सत्य है.
ये तो वैसा ही हुआ कि जब तक मौका लगा, खूब दबा कर दो नम्बर की कमाई की और जब लाईन अटैच हो गये तो लगे ईमानदारी पर भाषण देने. ऐसा होते हमेशा ही दिखता है. इसीलिए शायद किसी ज्ञानी ने कहा होगा कि असली ईमानदार वो नहीं, जो ईमानदारी से जीवन यापन करता है. असली ईमानदार वो है जो भ्रष्टाचार का मौका होने पर भी ईमानदारी से जीवन यापन करते हैं.
पूरा सार बस इतना कि जब इन सब बातों को जीवन की नींव में डाला जाना था, तब ध्यान नहीं दिया और जब भवन धाराशाही होने का समय आया तो नींव निर्माण की प्रक्रिया सीखने निकल पड़े.
रेत की नींव पर,
मिट्टी का मकान
और उस पर
संगमरमरी कंगूरा
ये है आज का
ताजमहल!!
आज चमत्कार और झूट बिकता है, सच्चाई आज की दुनिया में मार खाती है. दर्पण देखने के अब हम आदी नहीं, तस्वीरें दिखाओ. वो हमें भाती हैं और वो ही हमें लुभाती हैं. दर्पण आऊट ऑफ फैशन हो चला है. हमें सपने दिखाओ, हम खरीदेंगे. सच्चाई के लिए क्या मोल देना, वो तो होना ही है, अपने आप दिख जायेगी.
यह मत सोचना कि हर घर में तो दर्पण हैं, सब देखते हैं. भूल में हो, पूछ कर देखना एक लड़की जब दर्पण के सामने खड़ी होती है तो दर्पण में उसे एश्वर्या दिखती है और एक लड़का, उसमें सलमान देखता है. खुद को जो देख लें, तो घर से निकलने का आत्म विश्वास ही खो दे?
100 टिप्पणियां:
ऐसे ही कई भाई लोग है जो हंसने के लिए हास्य कल्ब भी जाते हैं। हंसी नही आती है तब भी मान्यवर दांत निकालकर हंसते रहते हैं।
अभिताभ ने फिल्म नटवरलाल में ठीक ही कहा है- ये जीना भी कोई जीना है लल्लू।
आज आपकी पोस्ट कई सवाल खड़े करती है।
जीवन का दर्शन दिखा दिया आपने , पर जब आँख खुल जाए तब ठीक !! अभी आप कहेंगे कि रोने से क्या होगा जब चिड़िया चुग गयी खेत ...अर्थात ये विषय तार्किक बहस से किसी भी और मोड़ा जा सकता है. लोगों के अपने अपने हिसाब से अलग अलग विचार होते हैं.
हम तो कहते है कि आज को जियो, आज को आनंदित रूप से गुजारो, बस म्रत्यु भी आपको नहीं डराएगी फिर. अगर कल पर सब कुछ डालते रहे तो फिर निश्चय ही डर और अनिश्चितता आपका रास्ता जोह रहा होगा !!
समीर भाई,
आज आपने एक ऐसे विषय को प्रस्तुत किया है जिसके विषय में कोई सोचना ही नहीं चाहता। मृत्यु चीज ही ऐसे है कि राजी खुशी कोई भी इसका वरण नहीं करना चाहता। मैने आत्महत्या का प्रयास करने वालों को दे्खा है,वे जहर खाने बाद अस्पताल में बचाने की गुहार करते हैं।
मौत को भी सहज स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए। सही है द आर्ट ऑफ़ डाईंग।
जोहार ले
आप तो प्रवचन देने लग गये जीवन दर्शन पर.
सही सवाल उठाया गया है ।हर इंसान में जीने की लालसा प्रबल है--
एक लकड़हारा गरीबी से तंग था ,बोलने लगा ’हे भगवान मुझे उठा लो ’
अचानक भगवान प्रकट हुये ,बोले’चल मैं आ गया उठाने ’
लकड़हारा घबरा के बोला ’अरे नही भगवान जी मुझे नहीं ,आप तो बस ये लकड़ी का गट्ठर उठा कर मेरे सर पर रख दो ।
हर इंसान गट्ठर ढो रहा है ।
जिन्दगी और मौत दोनो का सामना कैसे करें ये बताया है ललित भाई
रेत की नींव पर,
मिट्टी का मकान
और उस पर
संगमरमरी कंगूरा
ये है आज का
ताजमहल!!
...वाह! क्या बात है.
..बड़े गुस्से में लिखें है ई पोस्ट..!
..जब इन सब बातों को जीवन की नींव में डाला जाना था, तब ध्यान नहीं दिया और जब भवन धाराशाही होने का समय आया तो नींव निर्माण की प्रक्रिया सीखने निकल पड़े.
..यही कटु सत्य है.
आर्ट ऑफ डाइंग सीखने के लिए भगतसिंह का अनुसरण करना पड़ता है।
"जन्म लेना और मरना हमारे हाथ में नहीं. मृत्यु एक अटल सत्य है किन्तु इन्सान उम्र के किसी भी पड़ाव पर हो, उसके जीने की लालसा खतम नहीं होती."
--
मृत्यु से भय तो सबको लगता है!
मगर वो सबको ही आती है!
मृत्यु ही तो सच्ची साथी है!
--
जीवन दर्शन पर बढ़िया पोस्ट के लिए आभार!
जिन्दगी तो भरी प्रवाह की तरह गुजरती है ! पर आर्ट अफ डाइंग जरुर सीखना चाहिए ! बहुत सही कहा आपने ! धन्यवाद !
... धारदार प्रवचन ... १००-१५० टिप्पणीयां भी आना तय है ... क्यों न एक आश्रम खोल के बैठा जाय ... भटके लोगों को शिक्षा दी जाए!!!
'मृत्यु एक अटल सत्य है किन्तु इन्सान उम्र के किसी भी पड़ाव पर हो, उसके जीने की लालसा खतम नहीं होती.'
- यक्ष के प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठिर ने भी यही उत्तर दिया था.
भारतीय दर्शन में मृत्यु को सामन्य रूप से वरण करने की भी शिक्षा है. उसी बात को आपने रोचक तरीके से प्रस्तुत किया है. ऐसी ही प्रस्तुतियों के कारण ब्लॉग जगत पर आस्था बनी रहती है.
रेत की नींव पर,
मिट्टी का मकान
और उस पर
संगमरमरी कंगूरा
ये है आज का
ताजमहल!!
"द आर्ट ऑफ डाईंग"
ये भी कमाल की कला है ना.....
regards
समीर जी यह बात मै बहुत पहले लिखना चाह रहा था आपने इसे पेश कर बहुत अच्छा कार्य किया। आजक्ल सतंसग या किसी बाबा/गुरु को "फालो" करना एक फैशन बना हुआ है और कई लोगो का धंधा। मान भी लिया जाये कि वे जीने की कला सिखा रहे है लेकिन लोग इसका ढिढोरा येसे पीटते है जैसे आज से पहले उन्होने जीवन जिया ही नही, आज ही समझ आया उन्हे। और ये लाखोलोग जब "प्रैक्टिकल " जीवन मे आते है तो अपने फायदे के लिये कार्य मे हर प्रकार की चोरी करते है, एक दुसरे कि निंदा करते है। स्वार्थ से भरपूर है। वास्त्व में यही आज के जीवन जीने की कला है एक दुसरे पर पैर रखकर आगे बढो, मै(स्वार्थ) की खातिर हर एक को नीचा दिखाओ..आदि आदि..
हमने तो जीने की कला के सीखे बगैर ही जीना सीख लिया है और हाँ मरने के लिये तो लगता है कि किसी प्रशिक्षण की जरुरत होनी ही चाहिये, जिससे मरना भी किसी न किसी का फ़ायदा कर के जाये।
एक गाना याद आता है "जिंदगी तो बेबफ़ा है एक दिन ठुकरायेगी, मौत महबूबा है......"
ब्लॉगिंग में ५ वर्ष पूरे अब आगे… कुछ यादें…कुछ बातें... विवेक रस्तोगी
एकदम कम्प्लीट पोस्ट -पूरा पैकेज है -भारत आईये यह नाय सम्रदाय शुरू किया जाय -आयेगें लोग जरूर आयेगें .. इस विचार के पेटेंट का अप्लीकेशन डाल दिए होते -पहले डिस्कस कर लिए होते तो पेटेंट के बाद पोस्ट लिखने की सलाह देते ..मगर अब तो कबूतर फुर्र हो गया है ! एक दम झक्कास आईडिया है -कहीं ताऊ की नजर न लग जाए !
जिस उम्र में आर्ट ऑफ डाईंग सीखना चाहिये, याने मरने की कला, उस उम्र में लोग भीड़ लगाये खड़े हैं आर्ट ऑफ लिविंग सीखने के लिए ---
बड़ी पते की बात कही है ।
जाने लोग सोचते क्यों नहीं हैं ।
बस लोग इतना जान लें कि कुछ साथ नहीं जाने वाला तो फिर ये हाय तौबा क्यों ।
बहुत ही बढ़िया लेख और सौ प्रतिशत सत्य वचन ! आखिर कहावत है कि बुझने से पहले ही तो चिराग सबसे ज्यादा जलता है ...
Yayati ki kahani suni hogi aapne SIR! 100 varsh jeene ke baad bhi yamraaj jab usse lene aaya to usne apne badle 20 saal ke jawan bete ko jane diya tha........:)
jeena to har koi chahta hai...
lekin haan jeeye khub, lekin sirf khud ke liye nahi........agar ek certain umar ke baad kam se kam kuchh logo ko apne karmo se khush kar saken to bahut badi baat hogi......
jaandaar laga mujhe ARt of Dying....:)
mera blog aapke intzaar me rahta hai:D
very practical and thought provoking indeed !
बहुत बढिया
प्रभु कहीं क्लास चलती हो आर्ट ऑफ डाइंड की तो बताइयेगा, हम तो आपकी सलाह पर एडमिशन ले ही !
वो झूठ बोल कर देखो आगे निकल गया
और मैं खड़ा खड़ा सच बोलता रह गया
मरना भी एक कला है....
मरने से पहले इंसान अगर ज़रा सी प्लानिंग कर ले तो फिर मरना भी सार्थक हो सकता है...
बहुत अच्छी लगी आपकी यह प्रविष्ठी भी...हमेशा की तरह...!!
agreed with dinesh ji
thanks for this post..
अंकल जी, आज तो आप पूरे फिलासफर लग रहे हैं...बढ़िया है.
_______________________
'पाखी की दुनिया' में 'कीचड़ फेंकने वाले ज्वालामुखी' जरुर देखें !
आपकी पोस्ट नें ओशो का स्मरण करा दिया. ओशो ने कहा " मै मृत्यु सिखाता हूं".
जिसनें द आर्ट आफ लिविंग को ठीक से समझा और अनासक्तिपूर्ण जीवन जिया, उसी को "द आर्ट आफ डाईंग" कोर्स में एडमिशन मिलता है.
सार्थक पोस्ट...जिसने मरने की कला सीख ली उसे जीने की कला स्वयं ही आ जाती है....पर आर्ट ऑफ डाईंग ही तो कोई सीखना नहीं चाहता....इसका सिलेबस बहुत सटीक दिया है...
"द आर्ट आफ डाईंग"
मुझे भी सीखना है
प्रणाम
जय हो महाराज जय हो !
आये है जीने के लिए या मृत्यु के लिए जीते है
कही मृत्यु तो वही नहीं हम जिसको जीवन कहते है
बधाई स्वीकारे
@जब तक मौका लगा, खूब दबा कर दो नम्बर की कमाई की और जब लाईन अटैच हो गये तो लगे ईमानदारी पर भाषण देने...
यहाँ तक तो फिर भी गनीमत है ...लोग तो भ्रष्टाचार की लाइन में लगे हुए भी ईमानदारी के भाषण देते हैं ...भाषण देने में क्या जाता है ..मुश्किल उस पर अमल करना है ...
@असली ईमानदार वो है जो भ्रष्टाचार का मौका होने पर भी ईमानदारी से जीवन यापन करते हैं....अंतिम यात्रा में यही आत्मसंतोष साथ जाता है ...
मृत्यु सत्य है ...जीवन है तो मृत्यु भी है ...जो इस सच को स्वीकार कर लेता है वही जीवन जी सकता है ...
दार्शनिक पोस्ट ने बहुत कुछ सोचने पर विवश किया ..आभार ...!!
दार्शनिकता की और अग्रसर हो रहे हैं. हाँ भाई उम्र भी हो रही है.
Is 'art' ko maine apne dada-dadi ko apnaate dekha...Art of living aur art of dying,dono sikha gaye! Apne jeevan me kitna utar payi yah to pata nahi..
Hamesha ki tarah,aapka yah aalekh bhi behtareen hai...!
बिल्कुल सही कहा आपने॥जीने की लालसा कभी ख़त्म नहीं होती....
दार्शनिक पोस्ट...वास्तव मे जो आर्ट ऑफ डाइंग सीख ले उसे आर्ट ऑफ लीविंग तो स्वतः आ ही जाएगी..पर आर्ट ऑफ लीविंग के चक्कर मे सारी उमर गुजरने के बाद ना तो इंसान सही से जी पता है और ना ही सही से मर ही पता है.......
नीरज जी ने कहा है
"म्रत्यु क्या है बस इतनी सी ही तो बात है
किसी की आँख खुल गयी किसी को नींद आ गयी.."
जब जीवन को दिन में समेट कर जीना प्रारम्भ करेंगे तो संभवतः मरने के लिये स्वयं को प्रतिदिन तैयार कर पायेंगे ।
जिस उम्र में आर्ट ऑफ डाईंग सीखना चाहिये, याने मरने की कला, उस उम्र में लोग भीड़ लगाये खड़े हैं....
आर्ट ऑफ डाईंग सीखने की कोई उम्र नहीं होती। जिस उम्र में हम अपना होश संभाल लेते हैं उसी दिन से आर्ट ऑफ लीवींग के साथ ही आर्ट ऑफ डाइंग का कोर्स भी चालू कर देना चाहिये।
.... वैसे बिजनेस का अच्छा स्कोप है। सब लींवीम्ग सिखा रहे हैं क्यों ना आप स्वामी समीरानंद बन कर......
:)
अजी शान से जीये है, जब मरना होगा तो भी शान से मरना ही चाहेगे, आंखे क्या चुरानी ? जिस चीज पर मेरा हक ही नही उस से लगाब केसा, लेकिन कोई रेल गाडी के नीचे आये कुये मै कुदे यह कोई बहादुरी तो नही, जब कुदरती मोत आये तो खुशी खुशी जायेगे
आर्ट ऑफ़ लिविंग ही आर्ट ऑफ़ डाईंग सिखा सकती है , ऐसे जीना कि सब अपने हैं , ऐसे मरना कि कुछ नहीं अपना ...जब जीते जी हम अपना अभिमान मार लेते हैं तो मरने को क्या शेष रह गया । खुद को आत्मा के रूप में देख सकना ..नूर कभी मरता ही नहीं ..सिर्फ चोला बदल लेता है ...बस वो नजर आसान नहीं है अपने अन्दर लाना ...इस ज्ञान का बाजारीकरण हो जाने से बहुत नुक्सान होता है । आपका खफा होना भी जायज है और ये भी सच है पहले न सीखा तो बुढ़ापे में तो कोई इस रास्ते की ए बी सी डी भी नहीं सीख सकता ।
सब सत्य है... लेकिन जैसा कि आपने कहा है ये लालसा ख़त्म होने की नहीं :) हम तो इसे ही ज्ञान मान बैठे.
आज की पोस्ट ने फिर से दुखती रग पर हाथ रख दिया..कुछ हादसे हम भूलना भी चाहे तो नही भूल सकते...सबसे बडी हैरानी की बात यही लगती है कि हर रोज़ हज़ारो लोग मरते है लेकिन जो ज़िन्दा होते है वे सोचते ही नही कि कभी हमे भी उसी राह पर जाना है...'द आर्ट ऑफ डाईंग' जिसने सीख लिया उसे आर्ट ऑफ लिविंग सीखने की ज़रूरत ही नही पडती..
really philosophical post
कुछ कविताओं में ज्यादा जी रहे हैं आप , दार्शनिक मनोभूमि
वहीं से मिल रही है क्या ?
सही भी है , भारतीय मनीषा अध्यात्म चिंतन से पृथक हो भी नहीं सकती !
बात तो पते की की है आपने.
समीर भाई, हम तो हर कभी मर मिटते हैं। मैं मजाक नहीं कर रहा हूं। सचमुच किसी पर मर मिटना ही असल में मरना है। आप भी शायद इसी दर्शन की तरफ इशारा कर रहे हैं। मेरे हिसाब से मरना केवल शरीर से मरना नहीं है। आत्मा को मारकर जीना भी एक कला है। किसी को दिल देकर जीना भी एक कला है। देखिए न इस 23 जून को मैंने अपने वैवाहिक जीवन के 25 साल पूरे किए। दोस्तों को लिखा कि हम दोनों एक दूसरे पर शहीद होने के 25 साल पूरे कर रहे हैं। एक मित्र ने लिखा बंधु अपनी ही शहादत मनाना भी कम बड़ी बात नहीं। सही है।
और समीर भाई आज का आम आदमी तो मर मरकर ही जी रहा है न। शायद हमारे लिए तो यही आर्ट ऑफ डांइग है।
जो भी बात कहते हो...
उसमें दर्शन छिपा रहता है....
जय हो...
सत्य वचन मौत के बारे में कौन सोचना चाहता है !
सच बताऊँ तो गलती से मैंने फीड रीडर पर Art of drawing पढ़ लिया। भागा भागा आया देखने महाराज अब ड्राइंग की कक्षा भी लेने लगे। पर यहाँ विषय की गंभीरता देख अपनी गलती का भान हुआ।
जीवन की मृगतृष्णा,और मृत्यु का मर्म प्रकाशित कर दिया।
सुन्दर प्रस्तूतिकरण हेतू आभार!
शरीर जब जीवन का साथ न दे पाये,मृत्यु निश्चित महसूस हो,सम्भाव में रहने का सामर्थ्य हो तो,बिना दर्द बिना दयनियता के शरीर त्याग को जैन दर्शन में 'संथारा'कहा जाता है।
यह यात्रा हम सब को करनी है लेकिन फिर भी डर लगता है।
सर,
यक्ष के युधिष्ठिर से यह पूछने पर कि सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? युधिष्टिर ने ऐसा ही कुछ कहा था न, कि हर मनुष्य रोज अपने परिचितों. मित्रों को रोज मरते हुये देखता है लेकिन खुद को मृत्यु से ऊपर समझता है।
हम लोग तो न जीना सीख पाये और न मरना। लेकिन योगी लोग जिस समाधि अवस्था की बात करते हैं, वह ’आर्ट ऑफ़ डाईंग’ ही है, आई बिलीव।
सोचने पर मजबूर करती है आपकी यह पोस्ट।
स्तब्ध हूं।
जीवन का जो सबसे बड़ा सच है, उसी से हम मुंह चुराते रहते हैं।
मरने की कला सिर्फ़ वही सीख सकता है जिसे जीने का सलीका आता हो .
Shirshak se laga ki aap itna rinatmak kaise ho gaye, parantu lekh pad kar laga wakai gabmbheer lekh hai, thodi si jurrat kar raha hoon kyon ki har purani cheej sona nahi hoti ;
रेत की नींव पर,
संगमरमरी मकान
और उस पर
संगमरमरी कंगूरा
ये है ताजमहल!
जीवन और मृत्यु एक ही चीज़ के दो पहलू हैं ... जो एक को सीख लेगा वह दूसरे से अनभिज्ञ नहीं रह सकता ... जो एक भी नहीं सीखता वह जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसा रहेगा...तब तक जब तक कि इनमें से किसी एक को न सीख पाए । बाकी तो सब तोता रटंत उपदेश हैं ...
Bahut badhaaee,
Shubhkamnaayen ek achhe chintan ke liye.
jeenaa-marnaa.........
dono hi apne haath mein nahin hain...
jaane kaisi zindgi mile...kaisi maut..
...........
koi guru is baare mein apne se baat hi nahin kartaa.....
na jeene walaa...naa marne walaa
आपकी पोस्ट भी पढी और टिप्पणियां भी। सही कह रहे है कि अब तैयारी शुरू करनी चाहिए। भाई हमने तो शुरू कर दी है, शापिंग नहीं करते हैं। जीवन का हिसाब-किताब रखने के लिए जैसे सीए की नियुक्ति करते हैं वैसे ही अब मरने के हिसाब के लिए भी नियुक्ति करनी पडेगी। आप तो स्वयं सीए हैं तो अब मरने के हिसाब के लिए भी विज्ञापन डाल लो। हम सब तो आप से ही अपना हिसाब बनवाएंगे। हा हा हा हा। वैसे बहुत ही अच्छी पोस्ट है, इसे सर्वोत्तम की श्रेणी में रखा जा सकता है।
kharee baatein kahin aapne
achchha laga
इंसान बहुत कमीनी चीज है बॉस... वो भली भांति सारी चीजें जानता है, लेकिन फिर भी....
गुरुदेव,
उम्मीद की हद देखिए...
एक 99 साल की बड़ी बी ने अपने मोबाइल के लिए लाइफटाइम रिचार्ज आवेदन किया...
जय हिंद...
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम!
युधिष्ठर से यक्ष ने पूछा दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य.....पल का ठिकाना नहीं, सामान सौ बरस का...सबसे बड़ा आश्चर्य आज भी यही है.....
सत्य लिखा है आपने इस जीवन का .....
मैं चिटठा जगत की दुनिया में नया हूँ. मेरे द्वारा भी एक छोटा सा प्रयास किया गया है. मेरी रचनाओ पर भी आप की समालोचनात्मक टिप्पणिया चाहूँगा. एवं यह भी जानना चाहूँगा की किस प्रकार मैं भी अपने चिट्ठे को लोगो तक पंहुचा सकता हूँ. आपकी सभी की मदद एवं टिप्पणिओं की आशा में आपका अभिनव पाण्डेय
यह रहा मेरा चिटठा:-
सुनहरीयादें
सुन्दर लेखन।
आप बहुत ही सारगर्भित पोस्ट लिखें हैं आज...सच है जो अटल है उसी को लेकर हम हिलते रहते हैं...अपन तो तैयार ही रहते हैं जी और गाते रहते हैं..." लाये हयात आये कज़ा ले चली चले, अपनी ख़ुशी न आये न अपनी ख़ुशी चले"
एक शेर हमारा सुनिए:
जब तलक जीना है "नीरज" मुस्कुराते ही रहो
क्या पता हिस्से में कितनी अब बची है ज़िन्दगी
नीरज
मौत को भी सहज स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए। सही है द आर्ट ऑफ़ डाईंग।
dhongi babaon ..aur logon ki dohri mansikta kai sari cheezon ki ek sath band bajai hai aapne ..bahut achhi post lagi aap ki
एकदम ठीक कहा आपने, आदमी मरते मरते भी जीने की लालसा नहीं छोड़ता। लेकिन क्या कीजिएगा एक ही बार न मिलती है यह ज़िंदगी। अगर इसे भी पूरा न जीया, तो क्या जीया। इसलिए लोग आर्ट ऑफ लिविंग उस समय भी सीखते रहते हैं, जब आर्ट ऑफ डाइंग का वक्त रहता है।
mere blog pr bhasha pariwartan nhin ho rha hai kya karen\
mere blog pr bhasha pariwartan nhin ho rha hai kya karen\
mere blog pr bhasha pariwartan nhin ho rha hai kya karen\
@ अनिल जी
आपका ब्लॉग तो खुल ही नहीं रहा. आप मुझे डिटेल में समस्या लिखकर ईमेल करें, देखते हैं क्या समाधान हो सकता है. शुभकामनाएँ.
sir..aise vishay sochne ko majboor karte hain!
Dikkat yahi hai ki jise hum jeena samajhte rahe,marte samay pata chalata hai ki wah to asli jeena tha hi nahin.Isliye,thoda aur jee lene ki tamanna kabhi khatm nahin hoti.Koi aatmgyani hi apna shareer sahaj bhaav se chhod sakta hai.
गुरु जी भी धन का लोभ त्यागने का प्रवचन पिला पिला कर धन समेटने में व्यस्त हैं.
इसी एक बात पर दिल चाहता है कि 100 टिप्पणी दे दूँ। हर बात से सहमत हूँ। इन सं तो ने भी बाजार के गुर सीखने के लिये मास्ट्री की है। मौत तो निश्चित ही निश्चित समय पर आयेगी कोई आर्ट उसे रोक नही सकता
हमारे भाई साहिब रोज़ दो घण्टे योगा मे लगाते थे मगर अचानक एक दिन हर्ट अटैक हुया । बडिया पोस्ट है शुभकामनायें।
bhaai ji yanha to roj kapde gande ho jate hai unhe roj nahi to ek do din me badalana hi padata hai lekin upar wale ne aadami ko aisa kapada diya hai jo 80 - 90 - 100 sal me badalana padata hai . are bhaai koi marata thode hi hai is janm me bota hai , agale janam me katata hai. kahe ko marane ki chinta khub bowo - khub kato - mast raho .
arganikbhagyoday.blogspot.com
गुरु देव आपकी महिमा अपार है। क्या से क्या बना दिया आपने...
शायद ईश्वर ने ही हमें ऐसी मानसिकता बक्षी है कि हम जीवन से अघाएं ना!..हमारी ईच्छाएं न कभी बूढी होती है, न मरती है!आज हमें पता चला है कि चांद पर पानी का विपुल भंडार है.. तो हम चाहेंगे कि उस पानी से 'गंगा स्नान' करें, उस पानी का सूर्य को अर्ध्य चढाएं..लेकिन वहां आम आदमी को पहुंचने में कई सौ साल लग जाएंगे...तो हमें उस पानी का आनंद उठाने के लिए जीने की ईच्छा जीवित रखनी पडेगी!... और भी बहुत कुछ है, जिसका उपभोग करने के लिए हमें जीवन से नाता जोड कर रहना है!...मृत्यु की सोच अवसाद के पलों में जरुर हमें घेर लेती है!
...आपने इसी भावना का सुंदर शब्दों में वर्णन किया है...बधाई!
आज चमत्कार और झूट बिकता है, सच्चाई आज की दुनिया में मार खाती है. दर्पण देखने के अब हम आदी नहीं, तस्वीरें दिखाओ. वो हमें भाती हैं और वो ही हमें लुभाती हैं. दर्पण आऊट ऑफ फैशन हो चला है. हमें सपने दिखाओ, हम खरीदेंगे. सच्चाई के लिए क्या मोल देना, वो तो होना ही है, अपने आप दिख जायेगी.
इस दुनियां के फैश्ान में आउट क्या और इन क्या। फैशन एक वृत्त है इसलिये लौट के बार बार वापस आता और जाता है। इस वृत्त के अन्दर रहने वाले आदमी की सोच सच के दायरे से बाहर होती है। सच के दायरे से बाहर जाने पर आदमी "मरने की कला" सीखने की परिधि से भी बाहर हो जाता है।
समीर जी आपने मानव-मन के मनोविज्ञान का यथार्थ चित्रण किया है.यदि हम इस जीवन दर्शन को समझ लें, तो सारे कष्ट ही दूर हो जाएँ. सुन्दर पोस्ट के लिए बधाई.
डॉ. मीना अग्रवाल
आज से तो मेरे स्कूल खुल गए. अब मुझे आर्ट आफ स्कूलिंग सीखनी पड़ेगी.
समीर जी आपने मानव-मनोविज्ञान का बड़ा ही सही चित्रण किया है.लेकिन मेरा मानना है कि जिसे 'द आर्ट ऑफ लिविंग' आ गई,उसे तो 'आर्ट ऑफ डाइंग' स्वतः ही आ जाएगी.वैसे दोनों में से कोई भी एक को सीखने से दूसरा अपने आप ही आ जाएगा, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.सुंदर पोस्ट के लिए बधाई.
हम तो अभी आर्ट आफ लिविंग में ही मस्त हैं...
kamaal ki lekhan hai aapka ...aapne to soch hi badal daali ..badhai ..
आपके अंदर आध्यात्मिक विचारधारा का प्रवाह है यदि आप मानवता व मानव धर्म आधारित आध्यात्मिक लेख अथवा विचार प्रेषित करें तो अवश्य ही आचार्य जी ब्लाग पर प्रकाशित किये जायेंगे, आपके विचार अधिक से अधिक लोग पढें व मनन करें यही उद्देश्य है, धन्यवाद।
जय गुरुदेव
जीवन सार इस सारगर्भित पोस्ट में समेट कर रख दिया आपने...
मेरी भी गहन आस्था है इसपर कि ,जिसने आर्ट ऑफ़ डाइंग न सीखी ,वह जीने की कला(आर्ट ऑफ़ लिविंग) नहीं सीख सकता...
सौ परसेंट मेरे मन की ही बात कह दी आपने...
इतना आनंद आया पढ़कर कि कह नहीं सकती...
Jai Gurudev!!:-))
बढ़िया सटीक आलेख.....जो अपने नजरिये से बहुत कुछ कह रहा है ....आभार
आपने बहुत गहरा दार्शनिक चिन्तन किया है.
आर्ट ऑफ डाइंग-विचार करने योग्य।
श्मशान सत्य जो जीवन रहते समझ लिये जायें तो स्वयं के साथ-साथ मानवता, प्रकृति और पर्यावरण, सभी के लिए हितकर। सुंदर।
पल पल मर रहे है, सोच रहे बड़े हो रहे है
जिए कितना, अरे हिसाब करो मरे कितना
सत्य वचन!!
कभी सोचा ही नही.
धन्यवाद सर आप के कमेन्ट के लिए
जीवन सहज नहीं रहा,कृत्रिमताओं का लबादा बन गया है। इसलिए जीने की कला भी अब सीखी जा रही है।
ओशो की आत्मा जीवित है
बहुत सुंदर पोस्ट.
बढिया जीवनदर्शन
गज़ब का चिंतन.
आहा! गुरुदेव आप ही खोल सकते हैं ऐसा एक आर्ट ऑफ़ डाइंग आश्रम बहुत से लोग मिल जायेंगे, और मैं तो कहता हूँ आर्ट ऑफ़ लिविंग से भी ज्यादा अनुसरण करता मिल जायेंगे बहुत गहरी सोच है भाई साहब !!
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