कहते हैं शब्दचित्र कलाकृति हैं, हृदय में उठते भावों के रंग से कलम की कूचि से कागज पर चित्रित.
कवि, शब्दों को चुनता है, सजाता है, संवारता है और उन्हें एक अनुशासन देता है कि शब्द अपने वही मायने संप्रषित करें जिनकी उनसे अपेक्षा है.
हर शब्द नपा तुला, रचना को संतुलित रखता और अन्य शब्दों के साथ मिल कर, अपनी गरिमा को बरकरार रखते हुए, पूरी रचना को एक आकृति प्रदान करता.
काव्य सृजन एक कला है और कवि एक कलाकार.
ऐसे में न जाने क्यूँ मेरे साथ अक्सर अनहोनी सी बात हो जाती है, तब सोचता हूँ कि जाने कैसे होते होंगे वो कलाकार:
शब्द
जब निकल जाते हैं
मेरे
मेरे होठों के बाहर
तो बदल लेते हैं
अपने मानी
सुविधानुसार
समय के
और परिस्थित के साथ
शब्दों के अर्थ
फिर बदलते हैं
पढ़ने वाले की
सोच के साथ
उसकी
इच्छानुसार
उफ़..........
मेरे शब्द
शब्द नहीं
आदमी बन गए हैं
-समीर लाल ’समीर’
कौन जाने सिर्फ मेरे साथ ही ऐसा होता है? मेरे साथ तो अनहोनी धटनाओं की फेहरिस्त है, आदत सी है मुझे इनके साथ जीने की:
आज अजनबी सी लग रही थी
अपनी परछाई..
बस, ऐसे में
न जाने क्यूँ..
तुम याद आई!!
-मौसम बदल रहा है...
देर शाम धूप नहीं रहती अब!!
-समीर लाल ’समीर’
98 टिप्पणियां:
"काव्य सृजन एक कला है और कवि एक कलाकार"
इससे बढ़िया परिभाषा और क्या होगी!
"उफ़..........
मेरे शब्द
शब्द नहीं
आदमी बन गए हैं"
वाह...!
आदमी भले ही आदमी न बने
मगर शब्द अवश्य आदमी बनते जा रहे हैं!
शब्दों का मानवीकरण बहुत सुन्दर रहा!
आपके लेखन ने इसे जानदार और शानदार बना दिया है....
कहते हैं शब्दचित्र कलाकृति हैं, हृदय में उठते भावों के रंग से कलम की कूचि से कागज पर चित्रित. कवि, शब्दों को चुनता है, सजाता है, संवारता है और उन्हें एक अनुशासन देता है कि शब्द अपने वही मायने संप्रषित करें जिनकी उनसे अपेक्षा है.
bilkul sahi kaha sir ji aapne
सुंदर भावात्मक प्रस्तुति...कवि की यही कोशिस रहती है की अपनी बात को सही दिशा में, सही शब्द और सही भाव से प्रस्तुत करें...शब्द की कलाकृति ही है सब को कुछ आपने यहाँ प्रस्तुत किया..बेहतरीन भाव..बधाई
"काव्य सृजन एक कला है और कवि एक कलाकार"
आदरणीय,
आज आपने मनोभावों को कुछ इस तरह से कहा की ....आपके शब्दों में बस खो ही गए !
बहुत अच्छा और बहुत सच्चा सृजन ..धन्यवाद !
सुंदर भावाभिव्यक्ति है। शब्द एक संयोजन में प्रयोग करने के उपरांत भी स्वतंत्र होते हैं। लोग उन का अपने अनुसार अर्थ करते हैं।
donon shabd chitra anupam aur prastuti .......wah.
दिल की आवाज़ भी सुन,
मेरे फ़साने पे न जा,
मेरी नज़रों की तरफ़ देख,
ज़माने पे न जा...
वक्त इनसान पे ऐसा भी कभी आता है,
राह में छोड़ के साया भी चला जाता है,
दिन भी निकलेगा कभी,
तू रात के आने पे न जा,
मेरी नज़रों की तरफ़ देख,
ज़माने पे न जा...
जय हिंद...
मेरे शब्द
शब्द नहीं
आदमी बन गए हैं.बहुत सुन्दर..
बदल लेते हैं
अपने मानी
सुविधानुसार
समय के
और परिस्थित के साथ
आपकी रंगारंग अनुभूतियों का एक और शब्द-चित्र, मार्मिक लगा. एक पुराना शेर यूँ याद हो आया है:-
''दश्ते तन्हाई में खुश्बूए हिना किसकी थी,
साया दीवार पे मैरा था सदा किस की थी?''
मैंने भी आपकी कल्पना की ' तश्तरी' पर 'उड़ान' भरी तो ये एहसास मन में उभरा, पेश है:-
शब्दों के अनजान चेहरे,
धुंधलके में ऐसे उभरे,
जैसे मैं, गुम हो गया हूँ!
और तुम हो पास मैरे.
हट गए है सारे पहरे,
फासले सब मिट गए है,
वक्त और घड़िया सिमट कर,
कर रही है अपने फेरे.
तुम खमोशी की जुबां में,
निष्कपट संवेदना से,
ख़ुद को प्रकट कर रही हो,
डाल कर बांहों के घेरे.
-mansoor ali hashmi
http://aatm-manthan.com
शब्द...
बदल लेते हैं
अपने मानी
सुविधानुसार
समय के
और परिस्थित के साथ ............
समीर भाई,
गहन, सार्थक पक्तियां कई सांकेतिकों से रू-ब-रू करा जाती हैं। या कहिए कि सृजन से आत्मालोचन तक सहज ही ले जाती हैं। अच्छी रचना है तीखी और सार्वकालिक। भांति-भांति के शब्दार्थ लिए हुए। बधाई।
आजकल आपके पोस्ट गहरे भाव लिए होते हैं !!
आज अजनबी सी लग रही थी
अपनी परछाई..
बस, ऐसे में
न जाने क्यूँ..
तुम याद आई!!
कमाल की लाइनें,एक -एक शब्द-भाव बेहतरीन.
एक संक्षिप्त पोस्ट लेकिन असर लघुकथा जैसा। सच है कि हम जब शब्दों का हम उपयोग करते हैं तो उसके मायने लोग अपने हिसाब से लगाते हैं। आपने आदमी का उदाहरण बहुत ही सटीक दिया है। परिस्थिजन्य बदलने वाले। बेहद सार्थक पोस्ट।
आज अजनबी सी लग रही थी
अपनी परछाई..
बस, ऐसे में
न जाने क्यूँ..
तुम याद आई!!
-मौसम बदल रहा है...
वाकई मौसम भी बडी अजीब चीज है. सुंदर सोच के लिये साधुवाद.
रामराम.
आज अजनबी सी लग रही थी
अपनी परछाई..
बस, ऐसे में
न जाने क्यूँ..
तुम याद आई!!
-मौसम बदल रहा है...
देर शाम धूप नहीं रहती अब!!
Sameer ji kee jai ! Bahut khoob !!
Ab kya misal doon
"काव्य सृजन एक कला है और कवि एक कलाकार"
sach kaha apne
शब्द आदमी बन गये हैं...
क्या खूब कल्पना है.
शब्द आदमी बन गये हैं...
क्या खूब कल्पना है.
"आज अजनबी सी लग रही थी
अपनी परछाई..
बस, ऐसे में
न जाने क्यूँ..
तुम याद आई!!"
Wow! Exelent Sir!!!
"RAM"
शब्दों के अर्थ पढने वालों की सोच के साथ बदलते हैं....बहुत सटीक बात....सुन्दर प्रस्तुति ....बधाई
Shabchitr kalakruti hai...! Koyi doray nahi....lekhak/kavi dono kalakar..yah bhi utnahi sahi...."उफ़..........
मेरे शब्द
शब्द नहीं
आदमी बन गए हैं"
Nishabd kar diya aapne!
आज अजनबी सी लग रही थी
अपनी परछाई..
बस, ऐसे में
न जाने क्यूँ..
तुम याद आई!!
कमाल की लाइनें,भाव बेहतरीन.
शब्द नहीं एक कराह होती है जो अक्सर निकल जाती है और शब्दों का रंग ले लेती है ..... पर जब अपने ..शब्द नहीं
आदमी बन गए हैं ....तो सिर्फ ठगा ही रह जाता है इंसान.....
आज अजनबी सी लग रही थी
अपनी परछाई..
बस, ऐसे में
न जाने क्यूँ..
तुम याद आई!!
-मौसम बदल रहा है...
देर शाम धूप नहीं रहती अब!!
" बेहद नाजुक और कोमल अभिव्यक्ति........."
regards
"काव्य सृजन एक कला है और कवि एक कलाकार
क्या बात कह दी आपने ..और कविता तो बहुत ही सुन्दर है
शब्दों के अर्थ
फिर बदलते हैं
पढ़ने वाले की
सोच के साथ
उसकी
इच्छानुसार
उफ़..........
bhawnayen alag alag kainwas per alag arth lekar ubharti hai.......shabd ek hote hain, unke arth badalte hain....yahi satya hai aur yun kahen ek tarah ki jeet bhi aur kabhi haar bhi !
बहुत सुंदर परिभाषा दी आप ने, आप की कलम को सलाम
shabd ko shabdon me bahot achhe se piroya hai
utkrishta rachna hai sirji
tanik hame bhi aashirwad dijiyega!!!
shbd ko omkaar kahaa gayaa he yaani omkaar hi pratham shbd mana gayaa he..jab vo pratidhvnit hota he to vaayu ke sang apna aakaar banaataa he, jiski jeise ichha jesa bhaav..use us roop me prapt hota he to yah sach likha he aapne ki
मेरे होठों के बाहर
तो बदल लेते हैं
अपने मानी
सुविधानुसार
समय के
और परिस्थित के साथ शब्दों के अर्थ
fir yah likhna ki-
मेरे शब्द
शब्द नहीं
आदमी बन गए हैं
aadmi aaj knha he? aour agar shabd aadmi ban jaate he to yah uska safal jeevan mana jaayegaa.../ me aadami shbd ko usake poore imaandaar purushaarth se leta hu..lihaza aapke shabd kisi omkaar se kam nahi.
आज अजनबी सी लग रही थी
अपनी परछाई..
ये आपकी परछाई तो नहीं समीर जी .......
कार वाली की तो नहीं .....अरे वही जिसे अपनी कार के आईने से देखते रहे थे बड़ी देर तक ...और .वो कमबख्त बिना बताये मुड़ गयी थी उसे रस्ते जिस और आप नहीं मुड़ पाए थे ......????
मौसम तो यूँ ही बदलते रहते हैं ......आज नहीं तो कल होगी .....!!
दोनों ही नज्में बेहतरीन ....दूसरी वाली कुछ ज्यादा अच्छी लगी .....!!
bahut khoob !
chitra ki baat
kavita ke sath
शब्दों के अर्थ
फिर बदलते हैं
पढ़ने वाले की
सोच के साथ
उसकी
इच्छानुसार
बहुत ही सटीक कहा है....
शब्दों के अर्थ पढ़ने वाले की सोच के अनुसार बदलते रहते हैं .... बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .....
कलाकार जब भावनाओं को आत्मसात करता है तब कला का जन्म होता है.
और फिर जो बात हो गयी वह अनहोनी कैसे?
अनहोनी तो वह बात है जो कभी हुई नहीं और कभी होगी नहीं.
-मौसम बदल रहा है...
देर शाम धूप नहीं रहती अब!!
-मौसम बदल रहा है...
शाम ढले भी
उनके चेहरे से धूप हटती नहीं
shabd nahi aadami ban gaye hai.... kitani jiwantta hai shabdo men.........
shabd nahi aadami ban gaye hai.... kitani jiwantta hai shabdo men.........
शब्द की महिमा निराली है
चहुं ओर शब्द की लाली है
शब्दों के समीकरण बनते हैं
शब्दों से ही होती दीवाली है।
कवि और कविता
मैं और मेरी तन्हाई कुछ बातें करती हैं
jab se hamne aapko padhna shuru kiya hai ....ye rachna sab par bhaari hai ....bejod hai...han beshak उफ़..........
मेरे शब्द
शब्द नहीं
आदमी बन गए हैं
gazab!
कितना सही लिखा है आपने कलाकार की मन के भाव कलम से बाहर निकल कर जब दूसरों के सामने पहुंचते हैं तो उनके अनुसार ढल जाते हैं उनकी सोच के मुताबिक 1
सुमन’मीत’
आज कल बदले बदले से सरकार नज़र आते हैं...:)
आपकी मान्यता पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। यथार्थबोध के साथ कलात्मक जागरूकता भी स्पष्ट है।
शब्दों के अर्थ
फिर बदलते हैं
पढ़ने वाले की
सोच के साथ
उसकी
इच्छानुसार
उफ़..........
मेरे शब्द
शब्द नहीं
आदमी बन गए हैं
बहुत-बहुत सुन्दर. "बिखरे मोती" पढना चाहूं तो?
बहुत ही सुंदर रचना है. आपके एक-एक शब्द को सलाम..................
.
.
.
"उफ़..........
मेरे शब्द
शब्द नहीं
आदमी बन गए हैं"
बहुत गहरे जाता हुआ आलेख,
आभार!
ha.n mere saath bhi ye anjani si ghatna ghatTi hai...per aisa kyu hota hai....hamare shabd...shabd nahi...koi aur roop le lete hai...
per aisa kyu hota hai?????????
mujhe bhi jawab dena jo apko mil jaye to.
shukriya.
"उफ़..........
मेरे शब्द
शब्द नहीं
आदमी बन गए हैं"
-अद्भुत!
समीर जी
नमस्कार
बहुत ही उम्दा विचार हैं.
रचना भी अच्छी लगी.
-विजय तिवारी " किसलय "
शब्द पन्नों पे उतरते ही बदल जाते हैं... नो डाउट !
निस्सन्देह प्रत्येक सृजन कलात्मक होता है.
फिर चाहे काव्य हो या कथन.
प्रत्येक सृजन की अपनी एक कहानी भी होती है. कभी कभी तो दर्द भरी.
आँय,, लेकिन परछाई तो कौनो जनानी की लग रही है सर जी.. लिखा तो आज भी बढ़िया है, के भगवान झूठ ना बुलवाए.. कसम से
समीर भाई
जब् कवि ऐसी पंक्तियाँ लिखता है
" बस, ऐसे में
न जाने क्यूँ..
तुम याद आई!! "
तब दुनिया की भीड़ में होते हुए भी नितांत अकेला होता है ..वाह
स स्नेह,
- लावण्या
उफ़..........
मेरे शब्द
शब्द नहीं
आदमी बन गए हैं
....बहुत सुन्दर,अदभुत अभिव्यक्ति!!!
मन में हिलकोरे ले रहे उदगार ही सृजन करता है कवि को फिर उनके द्वारा कहा गया एक एक शब्द बिलकुल अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग मायने रखता है | एक रामायण का अंश है " जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखि तिन तैसी"| आपके कलम से संजोया गया शब्द फिर उससे बना कविता वास्तव में एक जीता-जागता मानवीय चेहरा को प्रस्तुत करता है |
बहूत सुंदर प्रस्तुति |
काव्य सृजन एक कला है और कवि एक कलाकार.
वाह...लाख टके की बात कही है आपने...आपकी रचना भी इस से कुछ कम नहीं...
नीरज
समीर जी, शब्दों का खेल निराला है, लेकिन आप माहिर खिलाडी हो! आप के शब्द सटीक ही होते हैं, हम तो आप को पढ़कर प्रेरणा लेते हैं!
Kafi samaya bad aapke blog par aana hua .par aana safal hua eak alag trha ki rachna padhne ko mili...shabdon ki yahi to karamat ha..sameer ji bahut2 badhai..
उफ़..........
मेरे शब्द
शब्द नहीं
आदमी बन गए हैं
...कविता की सुन्दर व्याख्या और आज के दौर में बदलती कविता की सुन्दर पड़ताल..वाकई लाजवाब !!
_____________________
"शब्द-शिखर" पर - हिन्दी की तलाश जारी है
बहुत गंभीर और गहरी रचना ! आपकी कविता के सम्मोहन से बाहर निकालना आसान नहीं होता ! शायद रचना पढ़ने वाले के लिए भी शब्दों का अर्थ वही नहीं रह जाता जिस भावना के साथ कवि ने उसे रचा होता है ! तभी तो एक रचना का प्रभाव प्रत्येक पाठक पर भिन्न होता है ! बहुत ही सार्थक और सारगर्भित प्रस्तुति ! आभार एवं धन्यवाद !
कविताओ की समझ नहीं है फिर भी कुछ ऐसा है जो आपकी पोस्ट को पढ़ने पर मजबूर कर देता है |
Life is nothing but accumulation of few words.
Lets live it !
परछाई बन घुमती थी मेरे साथ साथ
तेरी यादे
नही भुला पाया तेरे अक्स को
इस कदर समाई मुझ में कि
परछाई मेरी भूल गयी मेरे जिस्म को
हर सूं बनती थी तेरे रूप में
खुश था कि तु साथ है हर घड़ी
खिलखिलाते देखा तुझे उस दिन
अजनबी लगने लगी मेरी परछाई मुझको
धूप प्यार की भी छंट गई अब तो
तुझे क्या कहूँ? जिसे मजबूरी समझता था
वो बेवफाई तेरी फितरत हो गई है
मैं मासूम शब्द सा हूँ आज भी
जी चाहा वो तेरी मर्जी -सा मायना बना लिया
जानता हूँ अब ये तेरी आदत हो गई है
bahut badhiya post. shabdon ka achha chitran.
आज अजनबी सी लग रही थी
अपनी परछाई..
बस, ऐसे में
न जाने क्यूँ..
तुम याद आई!!
man ko chooti gahn anubhuti,
sameer ek antraal ke baad rachna dekhi abhivykti ke uchya star par vicharo ke saath rachnaye bahut kuch kahti hai ,jinhe samjhna jaroori hai.
क्यों पीछा करते हैं आप ज़ुबान से निकली बात का
क्यों पीछे पड़े हैं आप मुख से निकले शब्दों के.
मुँह से निकली बात
दहलीज़ पार करने वाली कलजुग़ी औरत है
अग्नि परीक्षा देने भी नहीं आने वाली है वो
पता नहीं किस किस के हाथ लगेगी वो
मुँह से निकली बात
संसद में बैठा नेता है
हर बात के दस मतलब बतायेगा
और सभी को जायज़ ठहरायेगा.
शब्द तो होते ही आदमी हैं जन्म से
तभी तो जानवर बेज़ुबान होते हैं..
http://samvedanakeswar.blogspot.com
आजकल आपकी पोस्टों को पढने के बाद कुछ भी लिखने कहने का मन नहीं करता ..पोस्ट पर कहे शब्द मन में आत्मसात हो जाते हैं ..सोचता हूं कि फ़िर मैं क्या लिखूं ..जो कहना है अपने मन के भीतर ही ..मेरे शब्द ..आपके शब्द से मिल लिया करते हैं ...
अजय कुमार झा
शब्द जब आदमी बन जाते है तब उनका होना सार्थक हो जाता है ।
शब्द.....जब निकल जाते हैं
मेरे....मेरे होठों के बाहर
तो बदल लेते हैं....अपने मानी...सुविधानुसार
समय के....और परिस्थिति के साथ...
अकसर ऐसा ही होता है......
एक शायर ने यूं भी कहा है-
तर्के-तआलुकात का अंदाज़ देखिये,
वो भी सुना है उसने जो मैंने नहीं कहा.
मौसम बदल रहा है...
देर शाम धूप नहीं रहती अब!!
शाम की परछाई का रहस्य भी अजीब होता है..दिन और रात के बीच का यह वक्त भी दिन की परछाई की तरह होता है.जो रात के अंधेरे मे विलीन हो जाती हो..और बस एक अजनबियत रह जाती है पास..खुद की शिनाख्त करने के लिये भी किसी रोशनी की जरूरत होती है..या अपने अंदर के अंधेरे को छुपाने के लिये शायद..
और शब्द आदमी से होते तो हैं..मगर एक फ़र्क रहता है..शब्द अमर होते हैं..
बहुत विचारयोग्य पोस्ट!!!
आपकी दोनों रचनाएँ ही अद्भुत कलाकृति हैं-अपकी बात की पुष्टि करती हैं.
शब्द अंधे का हाथी हैं
जों भावनाओं की सम्पूर्णता में पकड़े ही नहीं जाते
और कोई शब्द किस पूर्णता के साथ संप्रेषित हो सकें यही तो सर्जक की सार्थकता है ...
आपकी रचना की संवेदनशीलता सदैव की तरह अद्भुत है
आज अजनबी सी लग रही थी
अपनी परछाई..
बस, ऐसे में
न जाने क्यूँ..
तुम याद आई!!
अद्भुत सुन्दर पंक्तियाँ! भावपूर्ण और उम्दा प्रस्तुती! बधाई!
ये कविता नहीं, भाव चित्र हैं। अपने ख़यालों की उड़ान को बेलगाम ही रहने दीजिएगा।
''ऐसे मे न जाने क्यूँ तुम याद आए '' समीर जी
लाजवाब !!!!
शब्दों के अर्थ मे छुपा दर्द उफ कोई शब्द नही है मेरे पास कहने को !!!!!!!!!
कलाकारी ही है शब्दो को जन मानस तक पहुचाना...आपके शब्द तो सच मे artificial intelligence के साथ आते है.. आप जहा पहुचाना चाहते है, सीधे वही चोट करते है..
दोनो कविताये जबरदस्त..
main bhi aader niya shastri ji ki
baatose puuri tarah sahamat hun वाह...
!
आदमी भले ही आदमी न बने
मगर शब्द अवश्य आदमी बनते जा रहे हैं!
शब्दों का मानवीकरण बहुत सुन्दर रहा
bahut hi badhiya likha hai aapane
poonam
अद्भुत!
मेरे शब्द तो अक्सर काले थे,
बिल्कुल कौए जैसे,
फिर भी
उन्होंने कई रंग निकाल लिए/
यह बात तो बिल्कुल सत्य है कि हर पढ़ने वाले के अनुसार शब्दों के अर्थ बदलते रहते हैं ।
sir aapki ab tak jitni bhi kavita padhi hain...unme sarva shresth...
bahut gehri samvedna...bhav hain inme... gambhir kavita hai...
sir aapki ab tak jitni bhi kavita padhi hain...unme sarva shresth...
bahut gehri samvedna...bhav hain inme... gambhir kavita hai...
बहुत सुन्दर.....और आप अमित्रघात पर आए आभार!
amitraghat.blogspot.com
sirji maza aa gaya. SHABD NAHI AADMI BAN GAYE.
शब्दों के अर्थ
फिर बदलते हैं
पढ़ने वाले की
सोच के साथ
उसकी
इच्छानुसार
उफ़..........
मेरे शब्द
शब्द नहीं
आदमी बन गए हैं ।
सुन्दर प्रस्तुति।
मौसम बदल रहा है...
देर शाम धूप नहीं रहती अब!
मौसम के इस बदलाव में ही जिंदगी की सच्चाई है।
मेरे शब्द
शब्द नहीं
आदमी बन गए हैं -
जी हाँ, आदमी का चरित्र अब ऐसा ही रह गया है।
आज अजनबी सी लग रही थी अपनी परछाई.. बस, ऐसे में न जाने क्यूँ.. तुम याद आई!!
:)
न जाने क्यूँ???!!!!
जब निकल जाते हैं
मेरे
मेरे होठों के बाहर
तो बदल लेते हैं
अपने मानी
सुविधानुसार
समय के
और परिस्थित के साथ शब्दों के अर्थ
फिर बदलते हैं
पढ़ने वाले की
सोच के साथ
उसकी
इच्छानुसार
उफ़..........
मेरे शब्द
शब्द नहीं
bahut khoob kah dala kala aur khoobsurati ke saath bhi ,sundar rachna
पहचानने की कोशिश कर रहा हूँ समीर भाई ... ये किसकी परछाई है ....
आज अजनबी सी लग रही थी अपनी परछाई..
बस, ऐसे में न जाने क्यूँ.. तुम याद आई!!
bahut khoob sir ji
Respect samirji
shabdo per apkee rachna behad achhee ban padi hai. Apkee rachnadhamita ka javab nahi hai. ye shabd nai chintan ka murta roop hi. Badhai.
wah...sameerlalji....bhaisaheb...kya baat hai...kya jagah aadmi sabd kaa estemaal kiya hai....wah wah ....
उफ़..........
मेरे शब्द
शब्द नहीं
आदमी बन गए हैं
sameer ji .....wah bahut der gunjegi ye panktiyan ...peecha nahi chodegi mera...wah wah
शब्द!
जिसमें हाथ तंग है, उसकी ही बात कर रहे हैं आप।
शब्त तीहा हो, आधा तक हो!
पर सम्प्रेषण में बाधा मत हो! :)
शब्द देते हैं मन के भावों को नया एहसास और दिल फिर यूँ ही अपने मायने रच देता है ..और वही सोच लेता है ..बहुत पसंद आई आपकी यह पोस्ट ..शुक्रिया
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