शायद उस उम्र का जोश और फिर इस उम्र की शिथिलता, अनुभव, परिस्थितियाँ और वातावरण इस बदलते फलसफे के जिम्मेदार हों. कौन जाने, लगता तो ऐसा ही है.
जिन्दगी की किताब के पन्ने पलटाता हूँ. कितने ही जबाब दर्ज हैं बिना प्रश्न के. आज शायद उन जबाबों के आधार पर प्रश्न गढ़ कर खुद से ही करुँ तो जबाब बदल जायें मगर ऐसा होता कहाँ है. जिन्दगी की किताब में तो जो एक बार दर्ज हो गया सो हो गया. आगे ही कुछ बदलाव संभव है, पीछे तो जो है, जैसा है, वैसा ही है. रो लो, मुस्करा लो या सीख लो.
कभी सोचता हूँ आज के डी वी डी युग को देख. काश, जिन्दगी ये सुविधा देती. उसे जहाँ तक मन किया, रिवाइंड किया, फेर बदल की, और फिर से जी लिए. कितनी सुखद परिकल्पना है. बस, एक परिकल्पना..जैसे आसमान छू लेने की. परिंदों के माफिक पर लगा कर स्वछंद आसमान में विचरने की अपनी मर्जी से अपने मन के अनुरुप.
लगता नहीं कि हम अपने हिसाब से जीते हैं. हम बस जीते हैं उस हिसाब से जो जीने के लिए जरुरी हो और ढाल लेते हैं अपने आपको उसके अनुरुप और खुश हो लेते हैं इस सामन्जस्य को बैठाकर कि हम जिन्दगी अपने हिसाब से जी रहे हैं. भूल जाते हैं कि हम जिन्दगी जैसे चल रही है, उसके अनुरुप जीना सीख गये हैं. एक समझौता कर लिया है हमने. शायद, खुश रहने का ये ही सूत्र हो मगर मुझे कहीं न कहीं, अब ये बात कचोटने लगी है.
पहले चुभते काँटों से अलग हो अपना रास्ता बनाना अपना तरीका मान लिया करता था. सोचता था कि राह में जो काँटे आये हैं, उनसे बच कर निकल गया और वो पीछे छूट गया. मगर शायद मैं ही गलत था, वो कांटे अदृश्य हो पीछा करते हैं. जब खुद से मिलो एकांत में, अपने आपसे सच सच रुबरु हो, तो चुभते भी हैं. अपने घाव छोड़ते हैं जो पक कर गंधाते हैं और हम अपनी झूठी जिन्दगी की उड़ानों का परफ्यूम उस पर छिड़के सड़ांध के खत्म हो जाने को गुमान पाले बैठे हैं. मगर, ऐसा होता है क्या कहीं. इन घावों के कोई मलहम भी नहीं होते. पकते जाना ही इनकी नियति है.
मैं अब बीमार हो जाता हूँ. कल्पना की उड़ानों वाला परफ्यूम अब चुक गया है. इसकी सप्लाई सीमित रहती है, और धावों की सड़ांध असीमित.कब तक दबाता और उस पर से रोज एक नया घाव.
जिन्दगी से थका हारा ये योद्धा आज आत्मसमर्पण करता है क्योंकि वो औरों के लिए जिया और अपनी शर्तों से ज्यादा दूसरों की भावनाओं को मान देता रहा.
काश!! वो जान पाता कि जिन्दगी एक समझौता नहीं, अपनी शर्तों पर जीने का सलीका है. आज बतला रहा है ये हारा योद्धा वरना हर जिन्दगी उसकी तरह ही हारेगी.
हे घाव देने वालों, तुम जीत गये. मेरी जिन्दगी की समझ, जो संस्कारों से मैने पाई थी और बदलते सामाजिक मूल्यों में अपनी मान्यता खो चुकी मेरी कल्पना की उड़ान हार गई. अब जो चाहो, मेरे साथ सलूक करो मैं प्रतिरोध नहीं करुँगा. मैं एक हारा हुआ योद्धा हूँ - खुद की करनी के चलते, इसमें किसी का कोई दोष नहीं.
मेरी शक्ति क्षीण हो गई है. मैं अब और नहीं लड़ सकता. मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो या सूली पर टांग दो, सब तुम्हारे हाथ है. मैं कर चुका, जितना कर सकता था. बस, एक अनुरोध, मेरी जिन्दगी की किताब का अंतिम पन्ना तुम लिख दो!!
कर दोगे न इतना तुम मेरे लिए!! तुम तो मेरे अपने थे न कभी..लोगों की नजर में आज भी....
कैसे गीत सुनाऊँ मैं, सुर मिलते ना साज
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज
आँखों में आंसू भरे, भीगे मन के ख्वाब
बचपन जिसमें तैरता, सूखा मिला तलाब....
अमिया की डाली कटी, तुलसी है नाराज
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज
राहों को तकते नयन, बन्द हुए किस रोज
माँ के आँचल के लिये, रीती मेरी खोज
कोई अब ऐसा नहीं, हो मेरा हमराज
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज
ना मितवा ना मीत हैं, ना पीपल की छांव
बेगाना मुझ से हुआ, मेरा अपना गांव
कैसे सब कुछ लुट गया, है ये गहरा राज
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज
वो सूरज का झांकना, वो मुर्गे की बांग
ऐसा अब कुछ भी नहीं, अर्थहीन है मांग
अपनों की घातें लगीं, जैसे ताके बाज
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज
याद लिए कट जायेगा, जीवन थोड़ा पास
मन पागल कब मानता, पाले रखता आस
खोज रहा मैं अंश वो, जिस पर करता नाज
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज
-समीर लाल ’समीर’
नोट: अगले दस दिनों नेट पर आना अनियमित रहेगा. ११ तारीख की सुबह टेक्सास, यू एस ए जा रहा हूँ. ह्यूस्टन, डैलेस एवं ऑस्टिन. नीरज रोहिल्ला से मुलाकात होनी है.
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94 टिप्पणियां:
आँखों में आंसू भरे, भीगे मन के ख्वाब
बचपन जिसमें तैरता, सूखा मिला तालाब....
अमिया की डाली कटी, तुलसी है नाराज
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज सही बात लिखी है । शरीर की थकान विचारों मे भी महशूश हो रही है ।
ऐसा नहीं कहते .......बल्कि सच यह है -
जो हार को जीत में बदल दे वह योद्धा है समीर लाल
जिससे हार घबराए और मुंह न दिखाए वह योद्धा है समीर लाल
उठिए एक नहीं कई चौखटे आपका इंतज़ार कर रही हैं
कभी कभी मन करता है मुंह औंधाकर चुपचाप लेटे रहें, ये क्षण भी आवश्यक है, इनके बिना खुशियों के क्षण की कीमत पता नहीं चलती
मेरे पास जब ये क्षण आते हैं तो मैं "अखियों के झरोखे से" का गीत "जाते हुये ये पल छिन यूंहीं जीवन लिये जायें' सुनता रहता हुं.
लिखा बहुत अच्छा है
हारा हुआ योद्धा..अंतिम पन्ना लिख दो ...यह सब क्या है...!!
बहुत उदास कर दिया आपने..!!
अरे दोद्धा कभी भी हारा हुआ नहीं होता है वो या तो विजयी होता है या शहीद,
उठ खड़े होओ विजयी होगे ..
JO DHAAR NAHIN RUKTI HAI
CHATTAANON SE BHI
SAGAR KEVAL UNKA
ABHINANDAN KARTA HAI
JO PAON NAHIN RUKTE HAI .
VYAVDHAANON ME BHI
PARVAT KEVAL UNKE HI AAGE JHUKTA HAI
__________haar aur jeet me fark samajhne ki abhi fursat kahan hai ............aur zaroorat bhi kahan hai ?
jung jaari hai jeevan se jaari rahe
ek k baad dusre dard ki taiyaari rahe.....
aaj aapki post ne khilkhilaaya nahin dravit kar diya.......
all the best !
wish you very happy journey of texax..........
समीर जी किस बात से दुखी हैं। कुछ निराशात्मक चिट्ठी लगी। बिमारी तो आती जाती रहती है।
याद लिए कट जायेगा, जीवन थोड़ा पास
मन पागल कब मानता, पाले रखता आस
खोज रहा मैं अंश वो, जिस पर करता नाज
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज
आज क्या हुआ आपको, बहुत भावक कर गयी आपकी आज की पोस्ट....."
आप पर तो सभी को नाज है, और आप का इन्तजार करता हर द्वार .....
regards
लगता है किसी को कि
वह अपने हिसाब से जीता है
मैं अपने हिसाब से जीने की कोशिश करता हूँ
गुजर जाते हैं साल दर साल
कोशिश खत्म नहीं होती
जीवन के अंतिम पड़ाव तक
जारी रहती है
जिन्दगी जीनी पड़ती है
दुनिया के हिसाब से
सभी को
हम अपने हिसाब से उस में
केवल कुछ बदलाव करते हैं
कहते हैं
हम अपने हिसाब से जीते हैं
याद लिए कट जायेगा, जीवन थोड़ा पास
मन पागल कब मानता, पाले रखता आस
समीर जी।
आपने दोहा छन्द में मन की ऊहा-पोह को
बाखूबी बाँधा है।
समीर कभी हारता नहा है।
मुझे आशा ही नही अपितु विश्वास भी है कि
निराशा को कभी जीवन में आने नही दोगे।
शुभकामनाओं सहित-
अभी कुछ भी कहना ठीक नहीं लग रहा...
मार््मिक कविता। स््तरीय कविता।
मन के हारे हार है और मनके जीते जीत
योद्धा कभी हार स्वीकार नहीं करता है वह बार बार पराजित होने के बावजूद बार बार विजय के लिए निरंतर संघर्ष करता है . इतिहास में ऐसे अनेको उदाहरण है की मोहम्मद गजनी और सिकंदर ने बार बार पराजय का स्वाद प्राप्त करने के बाद युद्ध में विजय प्राप्त की. आप तो ब्लागिंग के योद्धा है जो ब्लॉग के माध्यम से अपनी बात निरंतर सभी के सामने रख रहे है. रचना भी बेहद भावप्रधान है आभार.
योद्धा न हारता है न थकता है वो तो बस युद्ध करता है वही उसका धर्म है।
राहों को तकते नयन, बन्द हुए किस रोज
माँ के आँचल के लिये, रीती मेरी खोज
कोई अब ऐसा नहीं, हो मेरा हमराज
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज
bahut hi marmik rachana.sahi zindagi ke falsafe badal jaate hai waqt ke saath.yatra shubh ho.
क्या बात है,आज कुछ ज्यादा परेशान लग रहे है ?
मूड सही कीजिये और फिर से एक नयी उडान पे ले चलिए हम सब को |
Just take care n be cool.
क्या बात है,आज कुछ ज्यादा परेशान लग रहे है ?
मूड सही कीजिये और फिर से एक नयी उडान पे ले चलिए हम सब को |
Just take care n be cool.
वाकई ये भी जीवन का एक नजरिया है.
जिन्दगी के फलसफे हर मोड़ पर बदलते जाते हैं. जो आज हैं, वो कल नहीं थे और शायद कल नहीं रहेंगे. ऐसे बिरले ही होंगे जो एक ही फलसफा लिए सारी जिन्दगी जी गये
और शायद जीवन इसके बिना चल भी नही सकता. सबकी अपनी २ समझ है. पर योद्धा कभी हारते नही. और जो हार गया वो योद्धा नही.. पर आप और हम तो जन्मजात योद्धा हैं तो ऐसा सोच कार्यान्वित ना होने पाये.
रामराम.
ऐसा कैसे कह सकते हैं आप! आप जो,असंख्य लोगों के दिलो में जगह बना चुके हैं! ये बात मेरे जैसा कोई कहे तो फिरभी ठीक है ..! आप जानते हैं , क्या हुआथा ,' दुविधा ' लिखते लिखते ..! मुझे अपनी URL ही अंत में बदल देनी पडी..पुराने कोई पाठक comment करने नही आते! और मलिका तो मुझे ब्लॉग परसे हटानी पडी...! जब कि,पाठकों के फैसले का इंतज़ार था!
लेकिन आप ?
आपकी किस्सा बयानी तो एकदम सच है ...हमारे नज़रिए बदल जाते हैं .....लेकिन कविता ने तो रुला ही दिया ..मुझे मेरे ही अल्फाज़ याद आ गए , जो ज़िंदगी के प्रति गुहार लगाके लिखे थे ,"कहाँ जाऊँ ....के हर द्वार बंद कर रही है तू ..!"
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पिछली कुछ पोस्ट्स से देख रहा हूँ की आप अब अधिक सेंटियाने लगे हैं...जीवन के प्रति अधिक दार्शनिक रुख रखने लगे हैं...ऐसा होता है...एक दौर आता है ज़िन्दगी में जब इंसान बहुत सेंटीयाता है...ये दौर लम्बा चलने वाला नहीं है...चिंता मत करें...मस्त रहें...और हारा हुआ योद्धा जैसे शब्दों से परहेज करें...ये शब्द आपके लिए नहीं बने हैं...पोस्ट और कविता हमेशा की तरह लाजवाब लिखी है आपने...बधाई.
नीरज
और आपका 'बागवानी 'पे किया सवाल, ' कहाँ गया वो बगीचा ?"..तो उसका जवाब बागवानी पे ही देती हूँ .."aajtakyahantak 'इस ब्लॉग पे मैंने अपनी एक सहेली के बारेमे लिखा था ," नेकी कर कुएमे डाल" ...जवाब वहीँ पे है ..खैर !
वैसे मैंने बनाये,अनगिनत बगीचों में से एकभी नही बचा...जो सारी तस्वीरें ब्लॉग पे हैं...उन में से भी नही...तस्वीरें केवल यादें बन के रह गयी हैं!
"बागवानी " पे आपकी ख़ातिर लिख ने जा रही हूँ ( आज दिन में किसी वक़्त) ,..ज़रूर पढियेगा ..!
याद लिए कट जायेगा, जीवन थोड़ा पास
मन पागल कब मानता, पाले रखता आस
खोज रहा मैं अंश वो, जिस पर करता नाज
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज
आपकी रचना समीर की तरह ही साँसों में उतर जाती है...
मीत
बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधि लेय
परिवर्तन ही जीवन का सत्य है
हम मुश्किल से ही वर्तमान में जीते हैं या तो भूत या भविष्य में भटकते रहते हैं एक जो चला गया और दूसरा जिसका कोई पता नहीं दोनों ही ख्वाब हैं
काश जीवन rewritable .डीवीडी होता. काव्यांश भी सुन्दर. आभार.
"राहों को तकते नयन, बन्द हुए किस रोज
माँ के आँचल के लिये, रीती मेरी खोज
कोई अब ऐसा नहीं, हो मेरा हमराज
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज"
समीर जी, वाह-वाह करके आपकी इस ख़ूबसूरत रचना की महिमा कम नहीं करना चाहूंगा, सिर्फ इतना ही कहूंगा कि "Superb" !!
मैं अब और नहीं लड़ सकता. मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो या सूली पर टांग दो, सब तुम्हारे हाथ है. मैं कर चुका, जितना कर सकता था. बस, एक अनुरोध, मेरी जिन्दगी की किताब का अंतिम पन्ना तुम लिख दो!!... समीर जी..ये क्या लिख डाला आपने... ऐसे नहीं चलेगा.. इसे पढ़ते तो उदासी छा गई... आप ऐसे योद्धा तो नहीं हो सकते, जो हार मान ले... हर दिन तो आपका बॉल्ग पढ़ने में गुज़र जाता है.. कोई बात नहीं, आप यूएएसए से लौटकर आईये.. लेकिन ये हारने की बात फिर कभी मत कीजिए...
पहला रुल यही है की कोई रुल नहीं होता ....जीने का...जिंदगी की कोई स्क्रिप्ट नहीं होती बाबू मोशाय....
NATMASTAK HOO...............EK BAAR FIR
"पहले चुभते काँटों से अलग हो अपना रास्ता बनाना अपना तरीका मान लिया करता था. सोचता था कि राह में जो काँटे आये हैं, उनसे बच कर निकल गया और वो पीछे छूट गया. मगर शायद मैं ही गलत था, वो कांटे अदृश्य हो पीछा करते हैं. जब खुद से मिलो एकांत में, अपने आपसे सच सच रुबरु हो, तो चुभते भी हैं"
...ye lekh hai ya nazm bus ye bata dijiye ....
...flawless !!
blog main aaiye an aaiye aap par...
"yahan" to hamesha raheinge...
...apke niyamit hone ka intzaar rahega, waise texas jaane se pehle wo gol chamde wali kali topi aur lambi nali wali bandook rakhna mat bhoolna..
haha
लेख बहुत सुन्दर है, लेकिन आप का अन्तर्मन कहीं उदास है. वह उदासी इसमें झलक रही है.
आँखों में आंसू भरे, भीगे मन के ख्वाब
बचपन जिसमें तैरता, सूखा मिला तालाब
sameer भाई............ आज बहुत उदासी नज़र aa रही है आपकी पोस्ट में...... अक्सर उदासी में इंसान अपने होने की saarthakta khojtaa है, अपना beeta madhumaas ढूंढता है........ इसी pravaah से nikli आपकी kaaljayi शायरी कमाल की है.......... हर शब्द beete समय में khainch कर ले जाता है.......... लाजवाब
आँखों में आंसू भरे, भीगे मन के ख्वाब
बचपन जिसमें तैरता, सूखा मिला तालाब
sameer भाई............ आज बहुत उदासी नज़र aa रही है आपकी पोस्ट में...... अक्सर उदासी में इंसान अपने होने की saarthakta khojtaa है, अपना beeta madhumaas ढूंढता है........ इसी pravaah से nikli आपकी kaaljayi शायरी कमाल की है.......... हर शब्द beete समय में khainch कर ले जाता है.......... लाजवाब
राहों को तकते नयन, बन्द हुए किस रोज
माँ के आँचल के लिये, रीती मेरी खोज
कोई अब ऐसा नहीं, हो मेरा हमराज
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज
atyanta sanvedanshil
@बस, एक अनुरोध, मेरी जिन्दगी की किताब का अंतिम पन्ना तुम लिख दो!!
अरे लालाजी! क्यो टेशनवा लेते हो अन्तिम क्या पहला पेज भी लिख देगे। बस एक साथ रहे हमारा तुम्हारा।
इस बात पर राम राम बोलना पडेगा
आपके लेखन में इतनी निराशा???? खुद से ये प्रश्न पूछने का जी करता है- क्या ये "समीर" जी का ही लेख है?
समीर के मंद झोंके जहाँ शीतलता देने में समर्थ हैं, वहीँ तूफ़ान खडा कर देने का साहस भी है उनमें.....हार को जीत में बदलने वाले इस योद्धा को खड़ा होना ही होगा, हमें आपसे प्रेरणा मिलती है ........
आपके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिए मंगल कामनाएं .....
अब बीमार हो गया हू......उस पर रोज एक नया घाव.-दुखी कर गया मन को.
Life is a tale told by an idiot.
शब्द नहीं है....मौन हूँ.....
Aapke liye baagwaanee blog pe lekh likha hai..matlab aapke sawal ke jawab me...!
http://shamasansmaran.blogspot.com
http://shama-baagwaanee.blogspot.com
Dekh len...aapke kitne shubh chintak hain..38 se adhik comments aa gaye..aap to jeete hue yoddhaa hain!
kripya aap aise lekh naa likha karein,itni nirasha...udasi aakhir karan kya hai. ye ham sabhi ko janane kaa shayad haq hai.
भौत रोना-धोना मचा रखा है। अच्छे बच्चे ऐसा नहीं करते जी- कीचड़ हो जायेगा!
कैसे गीत सुनाऊँ मैं, सुर मिलते ना साज
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज
बहुत खुब..
एक अजीब सी उदासी लिए हुए...दिल में कहीं कुछ हुआ है
यह क्या हो गया है??? योद्धा कभी हारता नहीं है. वह सिर्फ लड़ना जानता है और लड़ता है जीवन के अंतिम क्षणों तक बिना रुके, अविराम. जीत और हार का nirnay सिर्फ समय करता है.
समीर जी,
लगता है आप थोड़े डिप्रेस्ड हैं आज।
कविता खूबसूरत है।
जिन्दगी एक समझौता नहीं, अपनी शर्तों पर जीने का सलीका है
sahi kaha bandhuwar.
aapka ye atmamanthan man ko choo gaya
आजतक आपके पोस्ट और आपकी टिप्पणियों में आपके सकारात्मक दृष्टिकोण की झलक ही मिलती आयी है .. आज पहली बार .. निराशाजनक बातें .. बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा .. आप तो दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत हैं !!
sameer ji,
chinta na keejiye, Houston mein aapko jeet ka tamgaa diya jaayega aur bole to saari problem solve.
Bas 2 din ki hi baat hai, aapse milne ki badi icchha hai...
समीर जी,
लगता है आप थोड़े डिप्रेस्ड हैं आज।
कविता खूबसूरत है।
आपकी रच्ना का जवाब नहीं
---
राम सेतु – मानव निर्मित या प्राकृतिक?
आप अतिशीघ्र इस मनःस्थिति से बाहर आएं ...ऊपर वाले से यही प्रार्थना है
ना! बढ़ती उम्र और शिथिलता इसके लिए ज़िम्मेदार कतई नहीं है. यह आपके सही मायने में प्रगतिशील होने का नतीजा है. सिर्फ़ जड़ हैं जो बदलते नहीं हैं. जो चेतन हैं उनका तो सब कुछ बदलता ही रहता है.
याद लिए कट जायेगा, जीवन थोड़ा पास
मन पागल कब मानता, पाले रखता आस
खोज रहा मैं अंश वो, जिस पर करता नाज
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज
समीर जी
प्लीज,उम्र की थकान को उडन तस्तरी मे न आने दे
योद्धा कभी हारा नहीं करते हाँ कभी जीत नहीं पाते लेकिन वह उनकी हार नहीं होती .
" कितने ही जबाब दर्ज हैं बिना प्रश्न के. आज शायद उन जबाबों के आधार पर प्रश्न गढ़ कर खुद से ही करुँ"
अरे भैया, ई का उलटी गंगा बहा दी?????:-)
ये क्या है सरकार?
योद्धा हारते नहीं...वो लड़ते रहते हैं जब तक जीत नहीं जाते।
आपने तो रुला ही दिया ,मैं तो पहली बार ब्लॉग पर आया हूँ ,ऐसा क्यों कहते हैं आप ,ऐसी बातें नहीं करतें ,आप कितने दिलों में रहतें हैं ,आपने खुद ही कहा "योद्धा" ,योद्धा भी भला हारते हैं कभी ,मुझे तो नहीं पता ,महा कवी नीरज़ ने कहा भी हैं "छुप-छुप अश्रु बहाने बालो ,जीवन व्यर्थ लुटाने वालो ,कुछ sapno के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता हैं " , ऐसी उदासी ठीक नहीं चलिए मैं तो आपकी अभिव्यक्ति का नया प्रशंशक हूँ ,और आयेगे मेरे जैसे कितने ही जिन्हें सच में आपकी ज़रूरत हैं , कहीं पढ़ा था "हो के मायूस यूँ ना शाम से ढलते रहिये ,जिंदगी भौर हैं सूरज से निकलते रहिये ,एक ही पाव पर ठहरोगे तो थक जाओगे धीरे-धीरे सही दिशा में दोनों कदमो से चलते रहिये " समीर जी ऐसा नहीं करते सुनो मेरी बात " हैं पथ के प्रहरी जीवन हैं तेरा जीने को ,तू हर पल को ज़ी ले ,ना इधर देख ना उधर देख ,तूने इस धरा पर युद्ध किया ,आगे बढ़ते रहना हैं ,दुर्योधन अभी बहुत मिलेगें ,शकुनी की क्या बात करूँ मैं लेना सम्पूर्ण विजय हमें तो व्यर्थ भला क्यों बात करूँ मैं , हैं पथ के प्रहरी जीवन है तेरा जीने को तू हर पल को ज़ीले इसको ..................................समीर जी आप हलकी फुलकी बातें सोचिये ,ज़रा बताता हूँ मैं आपको ,कल एक शेरनी खरगोश को प्यार कर रही थी ,कुदरत की पर देक्ल्हों ज़रा ,भाग्यरेखा को कर्म रेखा से बड़ा मत होने दीज्ज्ज्ज्जिये .........................समीर जी जागो , याद करो लक्ष्य को अपने .........
Kal saree rat jagate rahe kya bhaiya iseese itanee thakee thakee baten likhi hain. panna pehala ho ya antim likhaan to apne aap hee hai. aur har kar to kam nahee na chalta uth ke khada hona padata hai bar bar.
रास नहीं मन में हुआ, सुनकर यह आवाज।
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज॥
‘जिस पर लौटूँ आज’, नहीं अब ऐसा कहिए।
हमको अब भी नाज, आप बस लिखते रहिए॥
दिवस-रात्रि के चक्र सा सुख-दुख का आभास।
छँटे उदासी ग्रहण सी, पुनि-पुनि जागे रास॥
समीर जी आज तो आपकी इस कविता ने मन उद्वेलित कर डाला!!
बस इतना ही कहूँगा.... योद्धा कभी हारता नही......वह कुछ देर के लिए थक भले ही जाए.....अपनो के आघात भले ही कुछ देर के लिए उसे विचलित कर दे.....वह फिर उठेगा.....और जूझ पड़ेगा......सब जानते हैं .....समीर को कही कोई रोक पाया आगे बढने से.....
आदरणीय समीर सा,
आपकी कविता बहुत भावः प्रवण और सुन्दर लगी...
पर यह पोस्ट कुछ निराशामय पर गहरे दर्शन से प्रभावित लगी...
थोडी आपकी हमेशा कि लेखनी से हट के...तो थोडा अजीब लगा.
पर आप ब्लॉग जगत में सर्वश्रेष्ठ है...
समीर जी,
आपकी यह पोस्ट जिन्दगी के प्रति एक गहरी मुस्कान की कसक लिए हुए है.. अपने दो शेर सुनाने की गुस्ताखी कर रहा हूं जिससे आपका थोड़ा मूड बन जाये..
नजर उठाई
तो पत्थर तमाम ढेर मिले
मैं चौंक चौंक गया
लम्बे पथरवाह के बाद
.....
वार दुश्मन का फिर आज खाली गया
बीच में कूद कर शाइरी आ गयी..
याद लिए कट जायेगा, जीवन थोड़ा पास
मन पागल कब मानता, पाले रखता आस
खोज रहा मैं अंश वो, जिस पर करता नाज
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज
समीर जी ,
कुछ भी नहीं कह पा रहा इसकी प्रतिक्रिया में.
बहुत दिनों से आपको पढ़ रहा हूँ परन्तु आज कुछ अलग सा ही मिला |
बहुत भावुक कर गई ये कविता आपकी ......सच है कुछ ये भी कहीं तो पर मैं कुछ कह ही नहीं पा रहा हूँ ....
समीर जी, आप निराश से क्यों हैं ? हम सभी ब्लोगर भाई-बहनों का प्यार आपके साथ जुटा है, निराशा आपके आस-पास से निकल जायेगी पर आपको छु भी नहीं पाएगी, आपके लिए मैं यही कहना चाहता हूँ- तुम्हें और क्या दूं, मैं दिल के सिवाये, तुमको हमारी उमर लग जाये....! शुभ यात्रा !
आज कुछ अलग बात है.......गंभीरता है.....गहराई है......दर्शन है.......लेकिन ये हताशा और निराशा के भाव आपके लिए नहीं हैं मान्यवर, जानता हूँ मैं.......वैसे मेरे हिसाब से हर इंसान अगर अकेले में ज़िन्दगी के बारे में सोचता है तो उसे पाने से ज्यादा अधिकतर खोने वाली बातें ही याद आती हैं......मगर इतना ज़रूर है कि कुछ न कुछ सीख ज़रूर दे जाती हैं ये बातें......
यात्रा पर निकले हैं तो, शुभ यात्रा.......
साभार
हमसफ़र यादों का.......
"द्वार नहीं कोई कहीं, जिस पर लौटूँ आज"
लाजवाब!
खोज रहा मैं अंश वो, जिस पर करता नाज
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज ।
बहुत ही सुन्दर दिल को छूते हुये शब्द बेहद भावमय प्रस्तुति आभार्
भावुक और सच्चे इंसान प्यार के लायक ही होते हैं ! ऐसे लोगों को अगर सहयोग या सम्मान नहीं सीख पाए हैं, तो कम से इनका अपमान नहीं करना चाहिए .... आज के निष्ठुर समय में ऐसे लोग वास्तव में दुर्लभ हैं !
ऐसे प्यारों के साथ सम्मान और इज्ज़त का ही व्यवहार होना चाहिए जिसके यह सर्वथा योग्य है !
समीर लाल के लिए कुछ लिखने का दिल हुआ सो लिखा है
http://satish-saxena.blogspot.com/2009/08/blog-post_11.html
वो योद्धा ही क्या जो हार मान जाए.
{ Treasurer-T & S }
इस लेख में आज पहली दफा मैंने आपको एक चिंतक के रूप में देखा व महसूस किया है। मैं इस लेख और कविता से प्रभावित हूं।
आँखों में आंसू भरे, भीगे मन के ख्वाब
बचपन जिसमें तैरता, सूखा मिला तालाब....
अमिया की डाली कटी, तुलसी है नाराज
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज,
बेहतरीन अभिव्यक्ति,
बदलते समय के साथ सब कुछ बदलने लगता है,और फिर हम खुद को भी नही रोक पाते है,यह दुनिया हमे इतना मजबूर कर देती है की हमे बस अपनों तक ही सिमटना पड़ता है और पुरानी यादों के लिए तो वक्त ही नही निकाल पाते.पर आप तो आप है...बढ़िया लगा आप ने सोचने पर मजबूर कर दिया यादों के झरोखों मे फिर से..
यह क्या समीर जी, आज हमारे जन्मदिन पर आपने ये कैसा तोहफा दिया. इतना उदास तो आपको कभी नहीं देखा. बीमार होकर थोडा डिप्रेसन होने की संभावना तो रहती है, लेकिन किसने कहा आप बीमार हैं. फिर इतनी उदासी क्यों? वैसे ऐसे मूड में मोहम्मद रफी के पुराने गाने बहुत अच्छे लगते है. सुनकर देखिये अच्छा लगेगा.
“बहुत अच्छा लिखा। मजा आ गया (समझने से बच गये)” :)
योद्धा हमेशा लड़ते है और जीतते है।
जिन्दगी के फलसफे हर मोड़ पर बदलते जाते हैं. जो आज हैं, वो कल नहीं थे और शायद कल नहीं रहेंगे. ऐसे बिरले ही होंगे जो एक ही फलसफा लिए सारी जिन्दगी जी गये।
ये भी सच है।
दिनकर जी की पंक्तियां-
वीरता का सच्चा बंधुत्व
झूठ है हार-जीत का भेद
वीर को नहीं विजय का गर्व
वीर को नहीं हार का खेद
किये जो मस्तक ऊंचा रहे
पराजय जय में एक समान
छीनते नहीं यहां के लोग
कभी उस वैरी का अभिमान
मैं भी सपनों मैं खोया था | आपके "एक हारा हुआ योद्धा" ने पहले तो झकझोर कर जगाया और अब देखता हूँ तो आँखों मैं आंसू छलक आये हैं |
राहों को तकते नयन, बन्द हुए किस रोज
माँ के आँचल के लिये, रीती मेरी खोज
कोई अब ऐसा नहीं, हो मेरा हमराज
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज...
समीर भाई सच बोलता हूँ आपने रुला दिया मुझे | और विडम्बना देखिये , फिर भी आपको दिल धन्यवाद दे रहा हूँ |
आप की पोस्ट में जो निराशा झलक रही है ,वो ठीक नहीं है सर. एक इल्तजा है वजन कम करिए.हम चाहते हैं की आप जैसे एनर्जेटिक लोग ज्यादा दिनों तक साथ रहें. अगर बुरा लगा हो तो माफ़ी चाहूँगा क्योंकि मेरा भी वजन बाधा था तो दुनिया बुरी सी लगी और आत्मविश्वाश में कमी आई .अब सब ठीक है
अत्यन्त संवेदनशील अभिव्यक्ति। आपके कविताओं का कायल तो थे ही किंतु आज तो गद्य और पद्य दोनों ने ही झकझोर के रख दिया । वाह ऐसा लगा जैसे जीवन की पीड़ा के स्वर शब्द दर शब्द निकल आयें हों...
"जिन्दगी की किताब के पन्ने पलटाता हूँ। कितने ही जबाब दर्ज हैं बिना प्रश्न के। आज शायद उन जबाबों के आधार पर प्रश्न गढ़ कर खुद से ही करुँ तो जबाब बदल जायें मगर ऐसा होता कहाँ है."
***
आँखों में आंसू भरे, भीगे मन के ख्वाब
बचपन जिसमें तैरता, सूखा मिला तलाब....
अमिया की डाली कटी, तुलसी है नाराज
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज
वाह !! आप की रचनात्मकता को सहस्र नमन ...साधू !! साधू!!!
भाई समीर जी ,आपके ब्लॉग पर सुकून से ही आती हूँ...ये लेख बेहद अच्छा लिखा हैआपने हमेशा की तरह,लेकिन इतनी निराशा क्यो ?बहुत से बदलावों के लिए मुझे लगता है ध्यान ,प्रेम प्रतिब्धता और कार्य सभी की ज़रूरत है अस्तितव केप्रति अपनी ज़िमेदारी भी लेकिन ये भी सही है की कभी-कभी इसे आचरण में लाना मुश्किल होता हैसहमत हूँ इस बात से काश, जिन्दगी ये सुविधा देती. उसे जहाँ तक मन किया, रिवाइंड किया, फेर बदल की, और फिर से जी लिए.और मुझे लगता है कि ध्यान ,प्रेम प्रतिब्धता और कार्य की ज़रूरत की तरह अस्तितवके पार्टी अपनी ज़िमेदारीभी लेकिन ये भी सच है की इसे आचरण में लाना मुश्किल हो जाता है ...मैने ओशो को खूब पढ़ा है ...हाल ही में उनके एक लेख .योगा ..ए न्यू डाय रेक्शन में उन्होने लिखा है पूरी दुनिया को हँसी से भर दो हँसी किसी भी नाभिकीय हथियार से अधिक शक्ति शालीहै,प्रेम से भरी दुनिया युध का निर्णय नही लेगी ...लेकिन ये भी सही है की हमारी तकलीफें भी जिंदगी का एक बेतरतीब सच है जिसे चाहें तो ठीक कर लें अन्यथा जिंदगी तो हर हाल में कट ही जाएगी
Yahi jiwan ki lay hai.. kai bar aram kar lrna behtar hota hai..tabhi to agli manjil ke liye nai energy milagi.
"वन्देमातरम और मुस्लिम समाज" को देखें "शब्द-शिखर" की निगाह से...
याद लिए कट जायेगा, जीवन थोड़ा पास
मन पागल कब मानता, पाले रखता आस
खोज रहा मैं अंश वो, जिस पर करता नाज
द्वार नहीं कोई कहीं , जिस पर लौटूँ आज
bahut hi behtareen...........
aapki yatra shubh ho..............
hum apko miss karenge.......
कहन में थकन उतर आई है बंधु. थोड़ा धीरज बटोरो. थोड़ा याद करो यक्ष-युधिष्ठिर का संवाद. बाकी बेमिसाल लिखा खासकर कविता.
Sameer Bhaiya,
Aisi kavita aapke upar bilkul bhi suit nahi karti.
Sandeep-Roopika
जिंदगी का निचोड़ है इस गीत में।
इतने लोगों के बाद हम तो बस समीर लाल की जै का नारा ही लगा सकते हैं।
::)))
बहुत ही सुंदर भाव और अभिव्यक्ति के साथ लिखी हुई आपकी ये शानदार पोस्ट बहुत अच्छी लगी!
आपका लेख पढ़कर बस किसी की कही एक बात याद आ गई...
"आदमी वो नहीं हालात बदल दे जिसको
आदमी वो है जो हालात बदल देते हैं" ।
सुधी सिद्धार्थ
जिस समय एकांत मुखर हो संवेदनाओं को वाणी देता है...मन इसी तरह बहा करता है.....यह थकान नहीं,बल्कि आगे बढ़ाने वाली उर्जा है....
देखा आपने,भाव शब्द लययुक्त होकर काव्य का कितना सुन्दर निर्झरनी बन गया....
......जिन्दगी में बहुत बार शायद ऐसा होता है....कि सही मायनों में हम सच को सोच पाते हैं....और हम यह भी पाते हैं....कि हमने सारा जीवन अपनी इस वक्त की सच्ची और गहन सोच की विपरीत जिया है....और सच जानिए उस वक्त हमें अपने सारे जीवन पर बड़ी कोफ्त होती है....मगर तब कुछ किया भी नहीं जा सकता....यहाँ तक कि समीर हरा भी नहीं जा सकता....इसलिए थोड़े समय का यह जो विषाद है.....यह थोड़े ही समय में ढल भी जाएगा....क्यूंकि सब चीज़ों की यही तो नियति है....आना और अपनी भूमिका पूरी करके चले जाना
......जिन्दगी में बहुत बार शायद ऐसा होता है....कि सही मायनों में हम सच को सोच पाते हैं....और हम यह भी पाते हैं....कि हमने सारा जीवन अपनी इस वक्त की सच्ची और गहन सोच की विपरीत जिया है....और सच जानिए उस वक्त हमें अपने सारे जीवन पर बड़ी कोफ्त होती है....मगर तब कुछ किया भी नहीं जा सकता....यहाँ तक कि समीर हरा भी नहीं जा सकता....इसलिए थोड़े समय का यह जो विषाद है.....यह थोड़े ही समय में ढल भी जाएगा....क्यूंकि सब चीज़ों की यही तो नियति है....आना और अपनी भूमिका पूरी करके चले जाना
यह पोस्ट आज देखे है तो आज ही टिप्पणी कर रहे हैं।
निराशा बुरी लत समान है इसलिए ज़्यादा न ही साथ रहे तो ठीक है। क्षणिक है तो कोई बात नहीं।
समीरभाई! आपने तो कबसे ऐसे लिखना छोड़ दिया था फिर अचानक?
शुभकामनाएँ!
प्यारे बड्डे।
आप सोचते होंगे के आपका यह बवाल कहाँ गायब है जो ब्लाग पर पहुँचता ही नहीं। माफ़ करना गुरू, कुछ तो मसरूफ़ियत कुछ बच्चों की बीमारी हमें चैन नहीं लेने दे रही थी। मगर जो सबसे बड़ी बात है ना, वो ये के हर बार आपको पढ़ने के बाद हम आश्चर्यजनक रूप से किंकर्तव्यविमूढ़ हुए जाते थे। ये विल्स कार्ड की और ये फ़ल्सफ़े की बड़ी बड़ी बातें ! बाप रे ये वही हमारे समीर भाई हैं क्या ? बाबा, आपने यह उड़नतश्तरी क्या उड़ाई, आप स्वयं अतुलनीय बन गए। सच बतलाएँ हमको आपके परम मित्र और छोटे भाई होने पर अब सरसर फ़ख़्र महसूस हुआ करता है। बहुत बहुत बहुत ही ख़ूब लेखन है यह, बेजोड़ है और इतिहास बनाने को निश्चित रूप से तत्पर है। हमारा नमन, शुभकामनाऎं एवं आभार स्वीकार करें।
A Great poem ....
but
made me SAD :-(
Thank You for sharing this information about Shubh Yodha. It's very Helpful.
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