उधर मुम्बई में बम धमाके हो चले. लोग मर रहे थे, सुरक्षाकर्मी मुस्तैदी के साथ जुटे थे. मंत्रीगण बयानबाजी में व्यस्त थे. गृहमंत्री, हमला रुके तो बयान दें, इस हेतु नया सूट पहन कर कंघी करते चले जा रहे थे मगर हमला था कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था.
मुख्य मुम्बई के समस्त दफ्तर बंद कर दिये गये थे अतः छुट्टी थी और शर्मा जी इसलिये मय परिवार पिकनिक मनाने खंडाला चले गये.
मौसम गुलाबी है और अखबार लाल!!
आपसी मित्र सक्सेना जी ने शर्मा जी को फोन लगाया. मुम्बई धमाकों पर अपना क्रोध, घुटन और सरकार की अक्षमता की लानत मलानत की. विमर्श चला कि कौन लोग हो सकते हैं इस हमले के पीछे. पड़ोसी देश का नाम भी उठा मगर फिर आज के अखबार की खबर को देखते हुए उस पर इल्जाम लगाना ठीक सा नहीं प्रतीत हुआ. खामखां क्यूँ शक करना? अरे, हमें तो जब पक्का मालूम होता है तो शक की बिनाह पर फाँसी माफ कर लेते हैं तो अभी तो बस शक ही है.
अखबार कहता है कि यह देश पर राहू की वक्र दृष्टि की वजह से है जो कि चन्द्र पर पड़ रही है अतः ये तो होना ही था. तब किसे दोष दें. चन्द्रयान तक भेज दिया मगर राहू की हिम्मत देखो कि फिर भी वक्र दृष्टि डालता है. सरकार तो मगर फिर भी गलत कहलाई क्योंकि ज्योतिष और भविष्यवक्ता तो उनके पास भी हैं. पास तो क्या, सभी तो वो सारे भविष्यवक्ता ही हैं. वर्तमान और भूतकाल की कहाँ बात करते हैं? फिर कैसे नहीं जान पाये ये प्रकांड भविष्यवक्ता सारे..
सक्सेना जी ने अपने पिकनिक पर चले आने के प्रयोजन को सार्थक बताते हुए कहा कि ऐसी ही सरकारें उन्हें पसंद नहीं आती इसलिए वो कभी भी वोट नहीं देते.
शर्मा जी ने भी सरकार और उसके सूचना तंत्र को निष्क्रिय और विफल बताते हुए आगे से कभी वोट न देने की लगभग कसम खाते हुए मारे जा रहे लोगों के प्रति अपनी गहरी संवेदनाऐं व्यक्त की और इस बात पर हर्ष भी उनमें से उनकी पहचान वाला कोई नहीं था.
दोनों दोस्तों ने फिर इस सदमे से उबरने के लिए फोन पर ही चियर्स किया और अपने अपने कमरे में सुरापान करते हुए सारे गम गलत किए.परिवार के साथ समय बीता.
अब दोनों अपने अपने शहर में फ्रेश हैं नये सिरे से काम पर लौटने के लिए.
सरकार भी चेहरे बदलने और लोगों का ध्यान बंटाने में मगन हो गई है.
रिमोट वही है .. जनता भी वही है.
निष्क्रिय कौन-बस यही समझना बाकी है-वोट न देने वाला या वोट पाकर चुन लिए जाने वाला?
नोट:
आज सुशान्त दुबे ’बवाल’ यह शेर याद आता है:
बवाल मच रहा है, भड़की हैं सब दिशाएँ !
मुक्काबला है इस पे, के कितना लहू बहाएं ?
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73 टिप्पणियां:
लगता है व्यक्ति की संवेदनाएं भी मर चुकी है , कुछ भी असर नही दिख रहा |
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद | मैं आपको आदर्शों में गिनता हूँ , कृपया मार्गदर्शन करते रहें |
ग्रह शांति कराना सबसे आवश्यक लग रहा है!
अरे वोट तो करना था -चलिए यहाँ अभी भी वोटिंग चल रही है -http://mishraarvind.blogspot.com/
निष्क्रिय कौन-बस यही समझना बाकी है-वोट न देने वाला या वोट पाकर चुन लिए जाने वाला?
दोनों ही निष्क्रिय है | यदि वोट पाने वाला निष्क्रिय है तो अगली बार सक्रीय वोट देने वाला उसे बदल भी सकता है,सक्रीय होने के लिए बाध्य भी कर सकता है |
are bhaai rahu kis neta ka nam pahale usko pakdo. narayan narayan
आपने अच्छा लिखा -
और ये कुँडली किसकी है ?
... अत्यंत प्रसंशनीय लेख है, शायद सिस्टम से लोग त्रस्त हो रहे हैं।
बढिया लेख!मैं हमेशा से मानता रहा हूँ कि जिसने वोट नहीं दिया उसे सरकार को गाली देने का भी अधिकार नहीं है।
निष्क्रीय है जनता, वह अफीम के नशे में है। उस का नशा छूटने तक बहुत देर हो चुकी होगी। जो नुकसान होना है उसे कोई नहीं रोक सकता।
बात तो सही है...हम जिनको चुनते हैं उन्हीं को गलियां देने लगते हैं....सूट बूट वाले कहते हैं मैं तो वोट देता ही नहीं....अबे देते नहीं तो भुगतो...हम लोग और किसी काम में शक्षम हों न हों लेकिन दूसरों को कोसने में सबसे आगे हैं...
अच्छा लग रहा है देख कर की आप की सुबह सुबह उठने की आदत भारत आ कर छुटी नहीं है...
नीरज
राहू साला रास्कल है। वक्री डालता है। इसकी आंख में एक पूरा पव्वा उड़ेल दीजिए।
यही बात है समीर जी, जब चुनने का वक्त आता है तो हम गाली देकर अपनी जिम्मेदारी से भाग जाते है.. और फिर ५ साल गाली देते है.. इसे करते करते ६० साल हो गये.. न जाने और कितने?
इन सबका जिम्मेदार राहु नही राहुल उर्फ़ रौल है .
अपने अधिकार को तो इस्तेमाल करनी ही चाहिए नही तो पछताना तो पड़ेगा ही जैसा होता रहा है...
vaise politics se hum bhi do haath door hi rehte hai ,lekh magar bahut achha laga.
बिल्कुल सही बात है शक के बिना पर फांसी माफ़ हो जाती है !
इस कुण्डली के चार ग्रह चन्द्रमा, बुध, मंगल और बृहस्पति को क्या ताज होटल में आतंकवादियों के हवाले कर दिया ? :)
अब अधूरी कुण्डली से तो अधूरी ही भविष्यवाणी होगी !
शान्ति से सहमत हूँ लेकिन नेताओं को अहसास दिलाना ज़रूरी
है.स्तीफों की नौटंकी जारी है इस बीच खैर देश नामुरादों का
देश नहीं है .....
एक गाना भी तो बना है इस पर न लाल साहब,
दैट राहू कान्ट लीव साला !
पता नहीं शायद मैंने ग़लत गाया.
अब जाने दें, मगर बात तो आपने एकदम खरी खरी बोल डाली जी हा हा !
ज़ोरदार व्यंग कस दिया. बिल्कुल सच कहा - ऐसे ही ग़म-ग़लत हुए हैं हर मर्तबा की तरह इस मर्तबा भी. जिस दिन ग़म-सही होने लगें तो तशद्दुद सारे फ़ौत हो जाएंगे अपने आप. आपको बवाल याद आया ऐसे मौके पर -- अब इसको अच्छा कैसे कहें ? हा हा और हंसने की भी बात नहीं. अजब कशाकश है और यही हाल उन सबका भी जो राहू के मारे हैं हा हा !
सक्रिय तो दोनों ही हैं - वोट डालने वाला मतदान के समय फोकट का दारू पीने के लिये और चुनकर आने वाला नोट कमाने के लिये।
बवाल मच रहा है, भड़की हैं सब दिशाएँ !
मुक्काबला है इस पे, के कितना लहू बहाएं ?
" हालत का सही ब्यौरा सिमट गया है इस शेर मे , और लहू किसका कितना बहा ये कहना मुश्किल है... बेहिसाब बहा , बेइन्तहा बहा ..."
regards
आपके विचारो से सहमत हूँ . व्यक्ति को वोट देकर अपने अधिकारों का प्रयोग करना चाहिए. आभार धन्यवाद..
जो बोट से आए वो तो एन एस जी के कमांडो ने मार दिए, जो वोट से आते हैं, उनको तो हमें संभालना पड़ेगा न!
Please support: http://shabdaarth.blogspot.com/2008/12/blog-post.html
अपन तो आज बहौत खुश हैं। आप भी खुश हो जाइए। हम सुरक्षित हैं, आप सुरक्षित हैं। अगले 3-4 महीनों के लिए हम सब को जीवनदान मिल गया है। क्योंकि आम तौर एक धमाके के बाद 3-4 महीने तो शांति रहती ही है। क्या हुआ जो 3-4 महीने बाद फिर हम करोड़ों लोगों में से 50, 100 या 200 के परिवारों पर कहर टूटेगा। बाकी तो बचे रहेंगे। दरअसल सरकार का गणित यही है। हमारे पास मरने के लिए बहुत लोग हैं। चिंता क्या है। नपुंसक सरकार की प्रजा होने का यह सही दंड है।
पूरी दुनिया में आतंकवादियों को इससे सुरक्षित ज़मीन कहां मिलेगी। सच मानिए, ये हमले अभी बंद नहीं होंगे और कभी बंद नहीं होंगे।
कयूं कि यहां आतंकवाद से निपटने की रणनीति भी अपने चुनावी समीकरण के हिसाब से तय की जाती है।
आप कल्पना कर सकते हैं110 करोड़ लोगों का भाग्यनियंता, देश का सबसे शक्तिशाली (कम से कम पद के मुताबिक,दम के मुताबिक नहीं) व्यक्ति कायरों की तरह ये कहता है कि आतंकवाद पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए एक स्थायी कोष बना देना चाहिए।
हर आतंकवादी हमले के बाद टेलीविजन चैनलों पर दिखने वाला गृहमंत्री का निरीह, बेचारा चेहरा फिर प्रकट हुआ। शिवराज पाटिल ने कहा कि उन्हे इस आतंकवादी हमले की जानकारीपहले से थी। धन्य हो महाराज!आपकी तो चरणवंदना होनी चाहिए.
लेकिन इन सब बातों का मतलब ये भी नहीं कि आतंकवाद की सभी घटनाओं के लिए केवल मनमोहन सिंह की सरकार ही दोषी है। मेरा तो मानना है कि सच्चा दोषी समाज है, हम खुद हैं। क्योंकि हम खुद ही इन हमलों और मौतों के प्रति इतनी असंवेदनशील हो गए हैं कि हमें ये ज़्यादा समय तक विचलित नहीं करतीं। सरकारें सच पूछिए तो जनता का ही अक्श होती हैं जो सत्ता के आइने में जनता का असली चेहरा दिखाती हैं। भारत की जनता ही इतनी स्वकेन्द्रित हो गई है कि सरकार कोई भी आए, ऐसी ही होगी। हम भारतीय इतिहास का वो सबसे शर्मनाक हादसा नहीं भूल सकते ,जब स्वयं को राष्ट्रवाद का प्रतिनिधि बताने वाली बी.जे.पी. सरकार का विदेश मंत्री तीन आतंकवादियों को लेकर कंधार गया था। इस निर्लज्ज तर्क के साथ कि सरकार का दायित्व अपहरण कर लिए गए एक हवाईजहाज में बैठे लोगों को बचाना था। तो क्या उसी सरकार के विदेश मंत्री, प्रधानमंत्री और स्वयं को लौहपुरुष कहलवाने के शौकीन माननीय (?)लाल कृष्ण आडवाणी उन हर हत्याओं की ज़िम्मेदारी लेंगे, जो उन तीन छोड़े गए आतंकवादियों के संगठनों द्वारा की जा रही है।
वाह री राष्ट्रवादी पार्टी, धिक्कार है।
अब क्या कहें, सरकार चाहे अटल बिहारी वाजपेयी की हो या मनमोहन सिंह की, आतंकवाद हमारी नियति है। ये तो केवल भूमिका बन रही है, हम पर और बड़ी विपत्तियां आने वाली हैं।क्यूं कि 2020 तक महाशक्ति बनने का सपना देख रहे इस देश की हुकूमत चंद कायर और सत्तालोलुप नपुंसक कर रहे हैं।
क्या कहूँ ?डी के शर्मा जी का कथन कही न कही उस नजरिये को दिखाता है की एक ओर भारतीय है जो बैचैन है ,हताश है ...कहना चाहता है की बस अब ओर नही....उन्होंने एक ओर बात की है हमारे चरित्र में कमी आयी है .आम भारतीय का चरित्र गिरा है वरना सिर्फ चंद पैसो के लिए कुछ नौकयो को रजिस्ट्रेशन क्यों दे दिया जाता ?बंगलादेशी नौकायो को ...इससे पहले भी मुंबई ब्लास्ट में कुछ अफसरों के कारन इतना बड़ा असला हमारे देश की सीमा में पहुँचा था
जनता चुनती है आशाओं पर इन प्रतिनिधिओं को. जनता बहुत कुछ नहीं जानती इनके बारे में. जानती भी है तो कुछ कर नहीं पाती . मामला सिस्टम का है . इससे मोहभंग तो होगा ही . वोट न देना अपनी असहायता से उपजी उदासीनता है, और कुछ नहीं .
आपकी पोस्ट ने बहुत प्रभावित किया . धन्यवाद मेरे ब्लॉग पर आकर मेरा हौसला बढ़ाने के लिए .
क्या करें, इसके सिवाय कि अगले धमाकों का इंतजार करें। बच गये तो ब्लाग लिखें, नहीं तो फिर अगले धमाकों तक के लिए इंतजार करें।
सच में लगता है सब राहू केतु की दशा से ही हो रहा है ..वोटिंग - बोटिंग सब एक जैसे ही लग रहे हैं हमको तो
अब देखिये, यह फर्क होता है मंजे ब्लॉगर और हम जैसे अनाड़ी में। सारा खेल राहू का था और हम उसकी, क्या बोले तो, बुद्धिजीवी व्याख्या में भेजा गरम करते रहे।
आपने तो ज्ञानचक्षु खोल दिये।
वृहस्पतिवार को हमला हुआ था. वृहस्पति की चाल पर ध्यान रखना पड़ेगा.
मेरा वोट तो वृहस्पति के लिए पक्का.
hamare desh ki kundali me ek do nahi, ek sansad bhavan bharke rahu-ketu hain. aise me sach me samajh nahi aata ki kise kosein?
अखबार कहता है कि यह देश पर राहू की वक्र दृष्टि की वजह से है--sahi hai ab raahu ko hi doshi karaar do!
Numerology wale -Mumbai ka naam badalne ki salaah dete hain--
--निष्क्रिय कौन-बस यही समझना बाकी है-वोट न देने वाला या वोट पाकर चुन लिए जाने वाला? vote den to kisey??ek taraf--naagraj hain dusri taraf -saanpraj!
''हमें तो जब पक्का मालूम होता है तो शक की बिनाह पर फाँसी माफ कर लेते हैं तो अभी तो बस शक ही है.''
''निष्क्रिय कौन-बस यही समझना बाकी है-वोट न देने वाला या वोट पाकर चुन लिए जाने वाला?''
समीर भाई, बात बात में आपने बहुत पते की बातें कह दीं, आभार।
इस छोटे से लेख में बहुत कुछ बोल दिया आपने! इस छोटे से लेख में बहुत कुछ बोल दिया आपने! सर निष्क्रिय तो दोनों ही हैं - नेता भी, और जनता भी.
नेताओं के काज नहीं बदलते
जनता के सरताज नहीं बदलते
लेकिन जनता तो बेचारी बेबस है
उसके सामने कोई अच्छा विकल्प ही नहीं, एक सांपनाथ तो दूसरा नागनाथ.
आखिर किसे चुने?
मेरी आन ,
मेरे देश की आन ,
न करो इसे राजनीती पर कुर्बान ,
मिटा डालो इस आतंकवाद और इस के रहनुमाओ को जो ,
जो डाले हाथ को मेरे देश की आन पर /
आप जैसी ब्लोगिया व्यक्तित्व का मेरे ब्लॉग पर आने से मेरा ब्लॉग धन्य हो गया , क्रप्या इसे इसी परकार धन्य धन्य करते रहे आभार
ऐसे लोगों से अधिक गलीज़ कोई नहीं होता जो वोट डालने नहीं जाते और फिर बाद में सरकार को कोसते हैं। सरकार को कोसने का उन लोगों को कोई हक नहीं जिन्होंने सरकार चुनने के अपने अधिकार का प्रयोग नहीं किया!!
ab kya kahiye aise logo ko
लिखा तो आपने बिल्कुल ठीक है, वोट न देने वाला भी उतना ही बडा दोषी है.
जिसने वोट नहीं दिया उसे सरकार को गाली देने का भी अधिकार नहीं है।
ज़ोरदार व्यंग!!!!111111
aapne to kundali hi nikal kar ke rakh rahu ketu ki..ab woh bechare kahan jaye?
भावपूर्ण... कमेन्ट
अब क्या कहा जाय... हमले के बाद नेता तो इसीमें व्यस्त हैं
- इस्तीफा दें की नहीं?
- रामू को लेकर चले गए तो ग़लत क्या किया? क्या बोलें?
- मैडम का अगला विश्वासपात्र कौन है? अब प्रतिभा तो चाहिए नहीं !
- शहीद के घर जाएँ नहीं जाएँ... कुछ ग़लत तो नहीं बोल दिया? अब जबान ही है फिसल ही जायेगी.
- दिन में दसियों प्रेस कांफ्रेंस इसी सब को लेकर हो रहा है... अब हमला और बाकी चीजें किसी को नहीं दिख रही !
आपने सब कुछ कह दिया. शेष कुछ भी नहीं
आपने सब कुछ कह दिया. शेष कुछ भी नहीं
क्या बात है, माई माइनो की कुंडली लगती है,
धन्यवाद
इस्तीफ़े की राजनीति न कर के,दोषी अधिकारियो व नेताओ को फ़ांसी की सजा दी जानी चाहिये ताकी फ़िर से इतने मासूम ना मारे जाये
सही कहानी बुनी है। यही हो रहा है। निष्क्रिय नेता भी हैं, जनता भी।
बढिया व्यंग्य है। वैसे सरकार को ग्रह शांत कराने वाले पण्डों का सबसे पहले इंतजाम करना चाहिए।
१- कूढ़-मगजता को अच्छा धरा आपने।
२- भाँग पूरे ही कुएँ में पड़ी है, अब बेहतर विकल्पों की तलाश कहाँ से कौन करेगा?
अबकी मेरा वोट तो ऐसी पार्टी को, जो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मेरे गाँव के पुरोहित पंडित चंद्रधर मिश्र "शास्त्री" को बनाए. पंडित वोट भी सेट.
शुक्रिया बड़े भैया हालात को अच्छी तरह कटाक्ष किया आपने...एक शेर याद आया जो मुझे सीख के रूप में मिला है...डॉक्टर अहसन कहते है
कितनी आसानी से मशहूर किया है खुद को
हमने अपने से बड़े लोगों को गाली दी है...
आपकी छोटी बहन
शानू
Sahi kaha aapne...
sahi hak ka galat prayog....aur natija saamne hai...
जबर्दस्त व्यंग्य है।
अरे, हमें तो जब पक्का मालूम होता है तो शक की बिनाह पर फाँसी माफ कर लेते हैं तो अभी तो बस शक ही है……… निष्क्रिय कौन-बस यही समझना बाकी है-वोट न देने वाला या वोट पाकर चुन लिए जाने वाला?
ऊपर अमित भाई ने कहा कि सरकार का उन लोगों को कोई हक नहीं जिन्होंने सरकार चुनने के अपने अधिकार का प्रयोग नहीं किया। भई,प्रवासियों का तो पत्ता ही काट दिया। कितने ही प्रवासियों को तो भारत-सरकार चुनने का अधिकार ही नहीं है, सो अब क्या कहें? फिर भी जन्म से, दिल से तो अभी भी भारतीय जरूर हैं।
सरकार को नमन...काश के ये बाण व्यंग्य का कुछ उधर भी चुभे जिधर को निशाना है
कैसे हैं आप?
यही तो त्रासदी है!
लीजिये हम कल झुट्ठे ही फूट-फूट कर रोये थे, ये सब तो राहू कर रहा था !!
रो लिए, बहुत हलके हो गए हैं, अब फ़िर से मेरे चिट्ठे पर कुछ लिखा मिलेगा. आप आए थे, धन्यवाद.
भटक कर आ जाया कीजिए. हम भी आते रहेंगे. :)
इस त्रासदी भरे माहौल में इसके पहले की घुट कर मर जाते आपने एक मुस्कान दी, धन्यवाद.
हमारी संवेदनाएं बस एयर कंडीशन कमरों तक सिमिटकर रह गयीं है
सही कहा आपने, काश हम कुछ जागरूक हो सकें
"गृहमंत्री, हमला रुके तो बयान दें, इस हेतु नया सूट पहन कर कंघी करते चले जा रहे थे मगर हमला था कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था."
ईश्वर का शुक्र हो, अब उनके पास "पहनने" के लिये कुछ ना रहा -- ऐसे अनावृत हुए स्तीफा देके.
हमारे लोकल अखबार में तो उनके कार्टून में कौपीन के अलावा कोई वस्त्र नहीं था. (जिन मित्रों के लिये यह शब्द नया है वे जर निखंटू में देख लें. जिन के लिये यह शब्द भी नया है वे समीर जी से पूछ लें)
सस्नेह -- शास्त्री
मौसम गुलाबी है और अखबार लाल!!
हमें तो जब पक्का मालूम होता है तो शक की बिनाह पर फाँसी माफ कर लेते हैं तो अभी तो बस शक ही है.
भाई समीर लाल जी,
आपका लेख पढ़ा। क्या खूब लिखा है आपने आपकी लेखनी ने बेहद प्रभावित किया कुछ पंक्तियां तो बेहद चोट करती हैं जैसे इन पंक्तियों को ही ले लें "चन्द्रयान तक भेज दिया मगर राहू की हिम्मत देखो कि फिर भी वक्र दृष्टि डालता ह" वाह बेहद प्रभावी व्यंग्य है।
"शर्मा जी ने भी सरकार और उसके सूचना तंत्र को निष्क्रिय और विफल बताते हुए आगे से कभी वोट न देने की लगभग कसम खाते हुए मारे जा रहे लोगों के प्रति अपनी गहरी संवेदनाऐं व्यक्त की और इस बात पर हर्ष भी उनमें से उनकी पहचान वाला कोई नहीं था" इन पंक्तियों से आपने उन लोगों को आगाह किया है जो लोकतंत्र के अर्थ को समझ नहीं पाए है और ऐसे ही लोगों की वजह से हम सही और योग्य नेता को नहीं चुन पा रहे। दूसरी ओर से यह पंक्तियां शायद समाज के उस सोए पड़े ज़मीर को जगाने के लिये की है जो अपनी ताकत से बेखबर दो कौड़ी के नेताओं को ही सब कुछ मान बैठे हैं। समाज अपनी ताकत को भूल बैठा है। ये वही समाज तो है जिसके जागने पर शिवराज पाटिल, देशमुख और उनके गृह मंत्री दूसरे पाटिल को भी इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा। ऐसा तभी हुआ जब सोया हुआ समाज जागा। अगर यह जागृति पहले आ जाती तो शायद मुम्बई में कुछ भी न खोता।
"निष्क्रिय कौन-बस यही समझना बाकी है-वोट न देने वाला या वोट पाकर चुन लिए जाने वाला"
आपकी ये पंक्तिया भी बेहद सटीक हैं। ये सवाल हमें खुद से पूछना होगा कि निष्क्रिय कौन? अगर हमें इसका उत्तर सही-सही पता चल जाए तो भारत महाने में इस तरह की वारदात की पुनरावृत्ति रोकी जा सकती है। आपकी लेखनी को प्रणाम।
कुछ ग़लत लिख दिया हो तो छोटे भाई को माफी दे दें।
आपकी पोस्ट तो 'सतसैया के दोहरे' का आनन्द देती है । आप यदि ब्लाग लेखन के गुर देने के लिए आन लाइन व्यवस्था शुरु कर दें तो सच मानिए, हिन्दी ब्लाग जगत में का्रन्ति आ जाए ।
पहले किया निवेदन दोहरा रहा हूं - मुझे आपका ब्लाग ई-मेल पर नहीं मिल रहा । मैं बार-बार कोशिश कर चुका हूं और बार नाकाम रहा ।
यदि मदद कर सकें तो कीजिएगा ।
यह तो सर्व विदित है जी, कि करता कोई है, भरता कोई है... अब तो कहना पडेगा कि मरता कोई है।... वॉट मांगना नेताओं का अधिकार हैः काम करना थोडे ही है?... वॉट देना या ना देना जनता का अधिकार है....तो निष्क्रिय तो कोई भी नहीं है।....अपने सही कुंड्ली प्रस्तुत की है समीरजी।...धन्यवाद।
लगता है हम सब मुर्दे हो रहे है !! आदमी या तो जिंदा नही है या जिंदा नजर नही आ रहा है ?
जै हो भगवन आप ग्रेट हैं
बस्स हमीं थोड़ा सा लेट हैं
itni samajh aajaye to samaj ke parivartan me samay na lage
राहू ने हमारी आँखें खोलीं या उनका साथ दिया! ज़रा सोचो तो!
ओह!! जोर का धक्का आपने धीरे से दिया और वोट न डालने वाले तथा इन जैसों के कारण धोखे से चुन लिए जाने वालों की आपने खाट खड़ी कर
kiski badmaashi....kaisee badmaashi....goli chalaane waalon kee...yaa ab us par aayog....vagairah bathaane walo kee...!!nishkriy kaun...jo musyaid hai is kaam ke liye...jab vo hee nahin....aur hamare rahnooma....jinhe desh ki laaj kaa bhaan hi nahin....??
marak vyangya..aam janta aur neta donon ko lapet liya aapne.
Atankvaadi hamlon se to koi bhi desh achuta nahin hai par isse judi sanvedanhinta,aarop-pratyaropon ka daur aur is tarah ki ghatna ko bhi ek 'commodity' banakar bajar me bachne ki media ki koshish kam bhayawah nahin hai.
guptasandhya.blogspot.com
सरकार भी चेहरे बदलने और लोगों का ध्यान बंटाने में मगन हो गई है.
सही है । बदलने को ज्यादा चेहेरे भी नही हैं । हम किसे चुनें ?
मौसम गुलाबी है और अखबार लाल!!
केवल एक यह पंक्ति बहुत कुछ कह रही है ..अच्छा लिखा है
आपके एक पिछले ब्लॊग पर पढी़ हुई एक बात भुलाये नहीं भूल पा रहा हूं.
आपने टोरेंटो हवाई अड्डे पर एक स्वचलित मोनोरेल देखी और आपने क्या खूब सिमिली दी कि अपना पूर देश ऐसी ही तरह चल रहा है. ६० साल हो गये,अभी भी टेस्टिंग फ़ेज़ चल रहा है. ये भ्रम है कि चालक चला रहा है, और ये चालाक चालक हमें यह भ्रम पालने में मदत कर रहा है.हम हैं कि पालने में से बाहर नहीं निकल पा रहे है, अंगूठा चूसते हुए पडे़ है. कोउ होई नृप हमें का?
पहली बार आपका ब्लाग देखा.
आपका नाम अन्यान्य ट्टिपणियों पर देखता रहा हूँ.
उ~अन तश्तरी अजीब लगा था
अब कुछ-कुछ समझ पा रहा हूँ.
नया-नया हूँ, अपने ब्लाग पर अभी शुरु भी नही किया...क्या मेरी ट्टिपणियों पर कुछ कहेंगे?...उम्मेद साधक
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