रविवार, जून 22, 2008

तुमको मैं अपनी जान कहूँ

घर से दफ्तर, दफ्तर से घर की रेल यात्राओं के दौरान, स्टेशन पर, स्टेशन की सीढ़ी पर चढ़ते-उतरते, ट्रेफिक में फंसे, गमझे में मूँह लपेटे इतनी महिलाओं के विषय में कथायें रच चुका हूँ कि मुझ जैसे निहायत शरीफ किस्म के दो जवान बेटों के बाप का इम्प्रेशन ही चौपट हो गया है.

कल शाम को ही एक मित्र का फोन आया. हम तो थे नहीं तो वो हमारी श्रीमती जी से ही पूछने लगे कि आजकल भाई साहब की नौकरी जाती रही क्या? पत्नी ने आश्चर्यपूर्वक उनको नाकारते हुए पूछा कि ऐसा क्यूँ पूछ रहे हैं? बोले कि बड़े दिन से ट्रेन में किसी महिला से मुलाकात की कथा नहीं छपी, इसलिये लगा.

अब बताईये लिखो तो बदनाम और न लिखो तो नौकरी ही छूट जाने का शक और उस पर से पत्नी को सारी कथाओं की खबर बोनस में दे गये. घर लौटने पर जो स्वागत हुआ, उसकी तो खैर छोड़िये. वैसे ही सबकी अपनी अपनी परेशानियां कम हैं क्या?

किसी तरह यह कह कर बचे कि सब काल्पनिक घटनाऐं है जो अपने संदेश को रोचक बनाने के लिए गढ़ी जाती हैं (लाई डिटेक्टर नहीं लगा था वरना लाल लाईट जल जाती). स्वागत गान में ऐसी भी पंक्ति सुनाई दी कि हम पर लिखने की फुर्सत तो है नहीं और दुनिया भर पर लिखते हो.

यह कविता, उसी इज्जत पर लगी खंरोच पर पैबंद मानिंद है. इसे जनहित में ही जारी किया मानें. कहीं भी मैने अपना नाम इसीलिये बीच कविता में इस्तेमाल नहीं किया है ताकि कोई भी पीड़ित पति इसका इस्तेमाल अपने नाम से कर सके. मल्टीकलर्ड पैबंद है, हर रंग में कहीं न कहीं मैच कर ही जायेगा.

rp

तुमको मैं अपनी जान कहूँ
या नील गगन का चाँद कहूँ

घनघोर उदासी छाती है
जब दूर जरा तुम होती हो
मदहोशी छाने लगती है
जब बाहों में तुम होती हो
ये कलम हो रही है डगमग
तब मधुशाला का जाम कहूँ

तुमको मैं अपनी जान कहूँ
या नील गगन का चाँद कहूँ..

कलियों के घूँघट खुल जाते
जब बागों में तुम जाती हो
घटा भी श्यामल हो जाये
जब जुल्फों को लहराती हो
शर्मसार सूरज को करती
क्या मैं सुरमई शाम कहूँ

तुमको मैं अपनी जान कहूँ
या नील गगन का चाँद कहूँ..

तेरे आने की आहट ही
जीने का कारण होती है
मेरे इस मन के मंदिर में
तू मूरत पावन होती है
पथ निर्वाणों के दे मुझको
तुमको मैं तीरथ धाम कहूँ

तुमको मैं अपनी जान कहूँ
या नील गगन का चाँद कहूँ..

--समीर लाल 'समीर'


नोट: उपर दर्शाया चित्र मेरी पत्नी का नहीं है, बस यही डर है.
चित्र साभार: रिपुदमन पचौरी
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80 टिप्‍पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

वाह क्या बात है? पर फोकट घबड़ा रहे हैं, भाभी से डरने का सामान नहीं है इस में।

मैथिली गुप्त ने कहा…

अपकी जनहित भावना का सम्मान और आपका आभार :)

राजीव रंजन प्रसाद ने कहा…

भूमिका जनहित में है :) लेकिन रचना मनहर है...


***राजीव रंजन प्रसाद

बेनामी ने कहा…

कलियों के घूँघट खुल जाते
जब बागों में तुम जाती हो
घटा भी श्यामल हो जाये
जब जुल्फों को लहराती हो
सूरज को शर्मसार करती
क्या मैं सुरमई शाम कहूँ

तुमको मैं अपनी जान कहूँ
या नील गगन का चाँद कहूँ..
wah itni khubsurat alankarit bhav se saji kavita,bhabhi ji bahut nasibowali hai;),hamari aur se unhe pranam kahe:)aur ye bhi ki aapse saathi pakar wo dhanya hai:):),kash hamare wale bhi kavita ke shaukin hote aur do line ham par bhilikhte:),udan ji aapki jitni bhi kavita padhi hai,ye bhabhi ji ke liye jo likhi hai na dil ke aarpar ho gayi,aapki jodi yuhibani rahe yahi dua hai.fine hv to run of my rounds now.

बेनामी ने कहा…

हम तो पहले ही कह चूके हैं, इसलिये यही कहेंगे कि इस बार हमारी टिप्पणी पहले आयी (यानि हमारी पोस्ट, लिंक दिया जाय जिससे पब्लिक को भी कन्फर्म हो जाय) और उसके बाद आपने उस टिप्पणी के लिये ये पोस्ट लिखी ;)। कल सोमवार को ट्रैन पर चढते ही आपकी सफलता के पिछे के हाथों में दो अदद हाथ और जुड़ जाये।

Arvind Mishra ने कहा…

वाह वाह !लगता है सारे हिन्दी ब्लागजगत में इस समय काव्यात्मकता का दौर दौरा है .जिस चिट्ठे पर पहुँचिये एक से एक नायब कविता स्वागत के लिए तैयार है .
सच है साहित्य जीवन का मूल भाव है .
हम विज्ञान प्रेमियों के दिन लद गए लगते हैं .
समीर जी ,इस कविता के साथ बच्चन जी की वह कविता भी फिर से पढ़ लीजियेगा -
देवता उसने कहा था ,देवता उसने कहा था
रख दिए थे पुष्प लाकर नत नयन मेरे चरण पर
देर तक अचरज भरा मैं देखता ख़ुद को रहा था ,देवता ...
गोंद मन्दिर बन गयी थी दे नए सपने गयी थी
किंतु जब आँखे खुली तो कुछ न था मन्दिर जहाँ था ,देवता ...
प्यार पूजा थी उसीकी , है उपेक्षा भी उसी की
क्या कठिन सहना घृणा का
भार पूजा का सहा था ,देवता .......

Arun Arora ने कहा…

सच्ची सच्ची बताईये नौकरी जाती रही क्या ? वैसे हमारे पास आपके लिये एक अवैतनिक नौकरी का प्रपोजल है , हमारे ब्लोग पर लिखा कीजीये ना :) नही तो हम भाभी को फ़ोन करके इस कविता की प्रेरणा के बारे मे बताने की सोच रहे है :)

रंजू भाटिया ने कहा…

जनहित में जारी यह कविता और आपकी यह सफाई सच्चाई से पेश करने की कोशिश बहुत पसंद आई ..यूँ ही जनहित के बहाने अपने हित में इस तरह की पोस्ट जारी रखे :) धन्यवाद

Alpana Verma ने कहा…

'ये कलम हो रही है डगमग
तब मधुशाला का जाम कहूँ

तुमको मैं अपनी जान कहूँ
या नील गगन का चाँद कहूँ.'

yah kavita aap unhen din mein ek baar to suna hi dejeeye-- ruthey hue ko manane ke liye kafi hai.
[mahilaon ke vishay mein kahani likhne se aap ki Mrs. naraaz thode hi hoti hongee?]

[Sameer ji aap ke blogs par pictures jo aap flickr site ke thru blogpost mein karte hain hum nahin dekh paate kyunki wo site yahan [UAE mein block hai .]
--

Shiv ने कहा…

समीर भाई, आपके मित्र जी ने बड़ा सॉलिड निष्कर्ष निकाला....इनके अन्दर तो एक पुलिसमैन छिपा है...:-)
कविता शानदार है.

mamta ने कहा…

अब इस कविता को पढने और सुनने के बाद तो भाभी जी नाराज रह ही नही सकती है। :)

डा. अमर कुमार ने कहा…

लिखो जी ख़ूब लिखो,
अब आप तो दुनिया देखे भये हो,
ऎसे विभीषणों से क्यों घबड़ा गये ?

पत्नी ग़र ख़ूँटा है, तो बाहर वाली चारा
चारा से भी आँखें फेर, अब कैसे जिये बेचारा


यह क्या ? यह तो कविता बनी जा रही है ।
संगत का क्या इतना तेज असर होता है ?

अच्छा जी, मैं तो चला । नहीं तो, पंडिताइन का्टेगी ।
ख़्वामख़ाह आप भी ब्लैकलिस्ट हो जाओगे ।

संजय बेंगाणी ने कहा…

जनहित में पोस्ट ठेले रहिए.

Manjit Thakur ने कहा…

पत्नी से बचने अथवा ुसे मनाने के लिए दी गई कविता के लिए आभार। अंदेशा है कि इस्तेमाल ज़रूर होगी। वैसे पोस्ट के साथ चस्पां तस्वीर आपकी पत्नी की नहीं है.. पर होगी तो किसी न किसी की पत्नी की ही..। गुस्ताख़

बेनामी ने कहा…

Chitra mein size se pata chalta hai ki ye unka ho hi nahin sakta!

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

बहुत भद्र और सुसंस्कृत महिला से आपका विवाह हुआ है; तभी मजे में गा-चहक रहे हैं!
सुकरात की पत्नी जैसी मिली होती तो बताती!:)

Unknown ने कहा…

गुरु, परेशान क्‍यों होते हो, लिखते जाओ, बस भाभी भी एक दिन तुम्‍हारे लेखन में रस लेने लगेंगी, मगर एक बात बताओ कविता के नीचे नोट लिखने की क्‍या जरूरत थी, भाभी सब समझती है

Unknown ने कहा…

कितने भी प्रशंसा गीत लिख लें पर यह भी याद रखें:

घर आने में रात को, पति हो जायें लेट।
तीन देवियाँ साथ हैं, चिमटा, बेलन, प्लेट॥

(इस्माइल 'जगदलपुरी' की रचना)

Sanjeet Tripathi ने कहा…

वाह वाह, तो आप डरते भी हैं ;)

मस्त है!

Mohinder56 ने कहा…

समीर जी,

भूमिका भारी पड गई कविता पर... :)

Unknown ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Abhishek Ojha ने कहा…

ये अंदाज भी खूब जमा... अब तो निधड़क होके ट्रेन की मुलाकात लिखिए, बचने का मन्त्र तो जुगाड़ ही लिया है आपने !

बेनामी ने कहा…

घनघोर उदासी छाती है
जब दूर जरा तुम होती हो
मदहोशी छाने लगती है
जब बाहों में तुम होती हो
ये कलम हो रही है डगमग
तब मधुशाला का जाम कहूँ
bhut sundar.ye paktiya padkar bhut aacha laga.

कुश ने कहा…

बड़ी दिनो से फटी पतलून पहन के घूम रहे है.. कोई ढंग का पैबंद नही मिला.. आपने ये समस्या भी दूर कर दी.. ये मल्टी कलर पैबंद तो वाकई बढ़िया है..

श्रद्धा जैन ने कहा…

wah kya baat hai aaj to aapko halwa puri milne wali hai
aaj to aapne patni devi ki pooja hi kar dali hai

bahut hi achha laga sameer ji aap man ko badha halka kar dete hain

समय चक्र ने कहा…

पुराने जख्म अब कुरेद ही दिए है तो खैर आपकी कविता की ये पंक्तियाँ मनभावन लगी बहुत सुंदर .
तेरे आने की आहट ही
जीने का कारण होती है
मेरे इस मन के मंदिर में
तू मूरत पावन होती है
पथ निर्वाणों के दे मुझको
तुमको मैं तीरथ धाम कहूँ ये पंक्तियाँ को पढ़कर एसा लग रहा है कि ये तो मेरे साथ प्रतिदिन होता है किसी के आहट का मुझे बेसब्री से इन्तजार होता है वो है मेरी धर्म......आभार .

Ashok Pandey ने कहा…

अरे वाह। मोहल्‍ले में कवि सम्‍मेलन क्‍या होने लगे, सभी बंधु रोमांटिक मूड में आ गये। जरूर समीर भाई की निगाह सर्वश्रेष्‍ठ ब्‍लॉगर कवि के खिताब पर है।

PD ने कहा…

आप तो भाभी जी को कह सकते हैं कि आप पर ही लिखा था..
सच में लाजवाब..

अबरार अहमद ने कहा…

bahut badhia.

मीनाक्षी ने कहा…

ऐसा सुन्दर पैबन्द ...! देखकर तो एक ही बात मन मे आती है कि खरोंच लगती रहे और जनहित के नाम ऐसे ही और पैबन्द आते रहें...!

Rajesh Roshan ने कहा…

Simply Superb

राकेश खंडेलवाल ने कहा…

अब सब कुछ कह ही डाला है आपने तो हम क्या कहें ?

Neeraj Badhwar ने कहा…

kavita me gunatmak sudhar kar save kar liya hai. gunatmak sudhar ke naam par sirf lekhak ka naam sameer se badal kar neeraj kiya hai.

vakai hamesha ki tarah behtareen likha hai.

Vinay ने कहा…

शृंगार रस की यह कविता बहुत बढ़िया है!

पारुल "पुखराज" ने कहा…

bahut bhaavpuurn panktiyaan hain sameer jii...sadhu sadhu

seema gupta ने कहा…

तेरे आने की आहट ही
जीने का कारण होती है
मेरे इस मन के मंदिर में
तू मूरत पावन होती है
पथ निर्वाणों के दे मुझको
तुमको मैं तीरथ धाम कहूँ
"beautifully composed, liked reading it ya"

Regards

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

"अरे जब मियाँ बीबी राजी
तो का कर लेगा काजी "
;-)
कविता बडी मीठी है ..
जादु की झप्पी जैसी :)
स स्नेह्,
-लावण्या

cartoonist ABHISHEK ने कहा…

vah!! kya baat hai....

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा…

आप जैसे लोग भी भाभी (मेरी) से घबराते हैं? न घबराने का कारण आपका हर विषय को मनोरंजकता से प्रस्तुत करना हो सकता है, वैसे बीवी से इन मसलों पर मनोरंजन नहीं किया जा सकता, अपना कुछ भंजन होने का डर रहता है। वैसे इतने सब के बाद भी जो चाह रहे हैं की आप ऐसा लिखें और जो चाह रहे हैं की ऐसा न लिखें उनके लिए-

अंदाज़ अपने देखते हैं आईने में वो,

और ये भी देखते हैं की कोई देखता न हो।

Manish Kumar ने कहा…

सुंदर सहज छंदों से दिल को छू लिया आपने !

वर्षा ने कहा…

पत्नियां यूं ही मारी जाती हैं, अच्छी उड़ान भरी

Unknown ने कहा…

कलियों के घूँघट खुल जाते
जब बागों में तुम जाती हो
घटा भी श्यामल हो जाये
जब जुल्फों को लहराती हो
वह,बहुत सुन्दरतम चित्रण

रश्मि प्रभा... ने कहा…

gr8........

Reetesh Gupta ने कहा…

लालाजी,
कविता बहुत पसंद आई ..सुंदर भाव...बधाई
यू ही लिखते रहें...

pallavi trivedi ने कहा…

waah waah...shringaar ras mein badi badhiya kavita kahi aapne. hame ye bhi bataiye ki bhabhi ji ne ye post aur kavita padhne ke baad kya kaha?

अनूप भार्गव ने कहा…

बढिया है ।

Girish Kumar Billore ने कहा…

सुकुमार ख्यालों को ले कर बुन लिया आपने गीत
समीर जी बेहद मन मोहक रचना है
तेरे आने की आहट ही
जीने का कारण होती है
मेरे इस मन के मंदिर में
तू मूरत पावन होती है
पथ निर्वाणों के दे मुझको
तुमको मैं तीरथ धाम कहूँ

Girish Kumar Billore ने कहा…

पथ निर्वाणों के दे मुझको
तुमको मैं तीरथ धाम कहूँ
YAHAAN निर्वाणों SHABD KE PRAYOG KAA KAARAN JANANA CHAHOONGA

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

जितनी तारीफ की जाये उतनी ही कम...बहुत-बहुत बधाई...

नीरज गोस्वामी ने कहा…

समीर जी
आप की इस कविता को हर उस व्यक्ति को जो "पति" नाम से पीड़ित है रट लेना चाहिए. प्रेम और शान्ति बनाये रखने का ये राम बाण नुस्खा दे दिया है आपने.
नीरज

admin ने कहा…

"तेरे आने की आहट ही
जीने का कारण होती है
मेरे इस मन के मंदिर में
तू मूरत पावन होती है
पथ निर्वाणों के दे मुझको
तुमको मैं तीरथ धाम कहूँ"

उपरोक्त पंक्तियाँ मन को छू गयीं, बधाई।

महावीर ने कहा…

यह मल्टीकलर्ड पैबंद केवल पीड़ित पति ही के लिए लाभदायक नहीं बल्कि नये प्रेमियों के लिए भी बहुत लाभादायक हैं। टूटे फूटे दिल वालों के लिए भी बाम साबित हो सकता है। इस को तो आप फ्री दे रहें हैं, इसे पेटेन्ट करवा कर बहुत कमा सकते थे। चलो कोई बात नहीं, जरूरतमंद आप को याद रखेंगे, दुआ देंगे।

बवाल ने कहा…

Bahut Shandaar kya baat hai !
-----------------------------
Age samachaar ye hai ke-
Bhaujee ko meri bhaiya,
Hai Jabalpur bhee aana !
Tipiya ke is vishay par,
Mujhe kaan nai khinchaana !!
-----------------------------

Shishir Shah ने कहा…

"dard mein bhi kuchh baat hai"aap ne aaj sach kar diya...

kavita to badi hi mohak thi... par us se pehle jo sama bandha hain...us mein ye line badi hi mazedar thi....

लिखो तो बदनाम और न लिखो तो नौकरी ही छूट जाने का शक और उस पर से पत्नी को सारी कथाओं की खबर बोनस में दे गये.

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

समीर जी, आपने डाल दिया न साँसत में! …आपका नुस्खा मैने अपने घर में आज ही आजमाया … काफी दिनों से दवा की तलाश थी। असर तो अच्छा ही हुआ दिख रहा था।
…लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि श्रीमती जी की नज़र आपकी पोस्ट पर पड़ गयी। तबसे ‘नकलची’ और ‘फ़रेबी’ का तमगा लिये घूम रहा हूँ। कहती हैं कि ऐसी ही कविता खुद लिख कर दिखाइये तो जानूँ और मानूँ। हो गया न बंटाधार?

Priyesh ने कहा…

बहुत अच्छी कविता और उससे भी अच्छी कविता की prishthabhUmI!!!
मज़ा आ गया!!!

बेनामी ने कहा…

समीर जी, नमस्कार,

बेहतरीन कविता के लिए धन्यवाद्,
मुझे आप का ब्लॉग बहुत ही पसंद है और दुसरे ब्लोग्स पर आपकी टिप्पणिया भी. हलाकि मैं कोई लेखक नही हूँ और न ही मेरा कोई ब्लॉग है, पर मैं नियमित पाठक जरूर हूँ.

वैसे मध्यप्रदेश में भी में उतनी ही दुरी पे था जितना की इधर, भारत में मैं इंदौर में रहता हूँ, और यहाँ Detroit, Michigan में.

धन्यवाद्,
अविनाश

रज़िया "राज़" ने कहा…

...
"चंदा को ले के आता है।
जब सुरज युं छुप जाता है।
फिज़ाओं में खामोशी-सी।
कुछ एसे जग पे छाती है।
वो ख़्वाब में युं आ जाते है।
क्या ईसको में आराम कहुं?

Doobe ji ने कहा…

sameer lal ji namaskar aap ki is kavita ke liye bhabhiji ko badhai. maine ek naya blog banaya hai RANG PARSAI kripya ise blogwani mein register kar den dhanyawad

महेन ने कहा…

हा हा हा… आफ़िस में बैठा हूँ नहीं तो हँसते-हँसते दोहरा होकर गिरने को हो रहा हूँ। अरे कविता पर नहीं सरकार, वाकये पर। अपने ब्लोग पर तीसरी कविता मैंने अपनी देवी जी के लिये ही लिखी थी… हज़ारों मील दूर बैठीं वे जब पढ़ चुकीं तो रोते-रोते फ़ोन किया मुझे। शुरुआत तो अच्छी रही मगर अब कोई भी कविता लिखो उसमें अपने चिन्ह ढूँढने लगती हैं… मैं तो इस उम्मीद में था कि देवियाँ कुछ सालों में सुधर जाती होंगी मगर आपके अनुभव से ऐसा होता नहीं दिख रहा। देखें अपनी किस्मत में क्या लिखा है।
और हाँ कविता लिखते हुए पूर जगत का ध्यान रखने के लिये आभार।
शुभम।

बिक्रम प्रताप सिंह ने कहा…

अभी अपनी प्राण प्रिया पत्नी को यह कविता सुनाता हूँ. कहूँगा मैंने लिखी खास तुम्हारे लिए.

sudhakar soni,cartoonist ने कहा…

शृंगार रस की यह कविता बहुत बढ़िया है!

मोहन वशिष्‍ठ ने कहा…

समीर जी आपको तो चिट़ठों का बाप भी मान गया है धुरंधर लिक्खाड़
फिर कोई और क्‍यों ना माने आपको धुरंधर लिक्खाड़

सच में आपकी लेखनी ऐसे जैसे प्‍यासे को पानी की इच्‍छा होती है तो पानी पीता है ऐसे ही पढने वालों को जिस चीज की लालसा होती है वह आप बखूबी पेश करते हैं बधाई हो आपको और धन्‍यवाद

विजय तिवारी " किसलय " ने कहा…

भाई समीर जी
नमस्कार
जबलपुर , भारत में आपसे परिचय हुआ , लेकिन अल्पकालिक// लेकिन शुक्र है इन ब्लागों का जिनके मध्यम से हम एक दूसरे की भावनाओं और अभिव्यक्तियों को आपस में बाँट रहे हैं. देखिए ना "तुमको मैं अपनी जान कहूँ" कविता में आपने कितने सलीके से भाभी जी को अपनी भावनाएँ संप्रेषित कर डालीं . समीर जी अक्सर हम में से कुछ लोग वाकई अपनी पत्नियों को, उनके विचारों को हल्के अंदाज़ में लेते हैं, जबकि इससे उल्टा ये है की हमारी पत्नियाँ हमारे असहज व्यवहारों को भी अपने धैर्य/ समझ और दूरदर्शिता से नज़र अंदाज़ करतीं रहतीं हैं.
ऐसे में हमारा परम कर्तव्य बनता है की हम हृदय की गहराइयों से उन्हें अपनत्व दें.
आपने तो वाकई ये लिख कर अपने आप को एक सच्चा जीवन साथी निरूपित कर दिया है,, हमारी भी ऐसी ही भावनाएँ हैं.......>>>तेरे आने की आहट ही
जीने का कारण होती है
मेरे इस मन के मंदिर में
तू मूरत पावन होती है
पथ निर्वाणों के दे मुझको
तुमको मैं तीरथ धाम कहूँ
आपका
डॉ. विजय तिवारी "किसलय"
जबलपुर एम पी. इंडिया
http://www.hindisahityasangam.blogspot.com

बेनामी ने कहा…

समीर जी , क्या खूब लिखा । अपनी जवानी के दिन याद आ गये ।

:)

जवान तो अब हूँ लेकिन खयालात कुछ अलग हो गये ।

कविता पढ़ कर ऐसा लगा कि उसकी खिड़की तोड़ कर अन्दर घुस जाउं और उससे कहूँ …

"तेरे आने की आहट ही
जीने का कारण होती है
मेरे इस मन के मंदिर में
तू मूरत पावन होती है।

बस ये खिड़की हटा दे तो तेरी इस मूरत को अपने घर मे बसा लूं "

लेकिन अब उम्र ढल गयी ।
और आपकी कविता बस हृदय को छू कर निकल गयी ।

आप तो बेवजह डरते हैं ।

अच्छा ये बताइए …

भाभी जी कैसे मिली थी आपको ?

खिड़की के रास्ते , दरवाजे के रास्ते या दिल के रास्ते …

Anil Pusadkar ने कहा…

tujhko main bemisal kahun ya akhshron ka dham kahun

rakhshanda ने कहा…

कलियों के घूँघट खुल जाते
जब बागों में तुम जाती हो
घटा भी श्यामल हो जाये
जब जुल्फों को लहराती हो
शर्मसार सूरज को करती
क्या मैं सुरमई शाम कहूँ

तुमको मैं अपनी जान कहूँ
या नील गगन का चाँद कहूँ..

बहुत बहुत खूबसूरत समीर जी,जज़्बात का सारा समंदर उंदेल दिया है आपने....बहुत सुंदर....

Shastri JC Philip ने कहा…

"अब बताईये लिखो तो बदनाम और न लिखो तो नौकरी ही छूट जाने का शक"

इस कारण मैं ने कमसेकम चिट्ठाजगत से अपनी पत्नी को दूर रखा है. कल को कोई मेरे बारें में कुछ लिख दे तो मानसिक शांति तो भंग होगी, वे पढ लें तो पता नहीं क्या होगा.

Kirtish Bhatt ने कहा…

कविता तो बहुत ही बढ़िया है. वैसे सब लोग ट्रेन में महिला से मुलाकात वाली कथाएँ पढ़ना चाहते हैं. आप तुंरत लिखना शुरू करें. और हाँ पहले इस प्रकार के ८-१० कविताये भाभीजी के लिये लिख लीजियेगा. बीच - बीच में काम आती रहेगी. :D

Chhindwara chhavi ने कहा…

तुमको मैं अपनी जान कहूँ
या नील गगन का चाँद कहूँ..

समीर साहब बहुत खूब लिखा है आपने ...

माफ़ कीजियेगा ... कुछ कहने और लिखने की जुर्रत कर रहा हूँ ...

मैंने शायद पहली कविता लिखी थी ...
मेरी हो तुम ....

मुझे बरबस उस कविता की याद हो आई ...
आपकी कविता पढकर...

भाभी जरुर खूब होंगी ...

बधाई अच्छी पोस्ट के लिए ....

रामकृष्ण डोंगरे
dongretrishna.blogspot.com

Rajesh Tripathi ने कहा…

सर आपके लेखन से और आपके प्रोत्साहन से मुझे बहुत संबल मिलता रहता है, धन्यवाद सर।

shama ने कहा…

Sameerji,aapke blogpe jab bhi aati hun,lautneka man nahi hota...apna lekhan aur doosra kaam sab multavi ho jaata hai!!
Shama

Neeraj Nayyar ने कहा…

gud one sir

Smart Indian ने कहा…

समीर जी,

आपकी कविता अपनी देवी जी को सुना दी. बहुत डांट पडी आधुनिक कविता के गिरते हुए स्तर पर.

धन्यवाद, पढ़कर मज़ा आया.

rajesh singh kshatri ने कहा…

बहुत सुन्‍दर समीर जी;
युवाओं के दिल की बात को बहुत खूबसुरती से आपने शब्‍दों में उकेरा है

rajesh singh kshatri ने कहा…

बहुत सुन्‍दर समीर जी;
युवाओं के दिल की बात को बहुत खूबसुरती से आपने शब्‍दों में उकेरा है

Unknown ने कहा…

कया ख़ूब है अंदाज़े बयाँ आपका समीर
नज़्म और नस्र आपकी दोनोँ हैँ बेनज़ीर

आज की ग़ज़ल ब्लागस्पाट पर मेरी ग़ज़लोँ पर विचार व्यक्त कर के हौसला अफ़ज़ाई के लिए धन्यवाद डा. अहमद अली बर्क़ी आज़मी
नई दिल्ली-110025 (aabarqi.blogspot.com)

Ahmad Ali Barqi Azmi ने कहा…

जैसे ही अहमद अली लिखता हूँ मैँ कोई ब्लाग
उस पे फ़ौरन तबसरा करते हैँ नीरज और समीर
वह बढाते हैँ हमेशा लेखकोँ का हौसला
उनका साहित्यिक जगत मेँ काम है यह बेनज़ीर
अहमद अली बर्क़ी आज़मी
नई दिल्ली-110025

Satish Saxena ने कहा…

बेहद खुबसूरत कविता !

प्रशांत मलिक ने कहा…

गुड