मंगलवार, अक्तूबर 09, 2007
ताज्जुब न करो!!
गाँधी जयन्ती पर पढ़ता था गाँधी जी का खत, जो उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के अपने अभिन्न मित्र कालेनबाख को लिखा. उस खत में उन्होंने हवा में आ रही सनसनाहट और पेड़ों का जिक्र किया. कम ही बात की है गाँधी जी ने पर्यावरण पर अपने जीवन काल में. शायद समय न मिल पाया हो या प्रासंगिक न रहा हो, उस वक्त.
हमारे एक मित्र अनायास ही कह उठे उनका खत पढ़ कर:
पौधे लगाने होंगे ताकि पेडों की सनसनाहट सुन सकें। नहीं तो कंकरीट के जंगल ही देखने को मिलेंगे। ऐसा जारी रहा तो जीवन जीवन नहीं रहेगा।
मैं हतप्रभ सा विचार में डूब गया. उड़ चला मन पखेरु मुम्बई प्रवास के दौर में. गिरगाम रोड, मुम्बई के उस कमरे में, जहाँ मैं रहा करता था. कहाँ लगाऊँ पेड़ इस महानगर में? काश, मैं भी हवा में तैरती पेड़ों की सनसनाहट भरी संगीत लहरी सुन पाता.
सा रे गा मा..गा गा पम ..ध नी..सां...सां!!!
बिल्डिंग से सटी बिल्डिंगें. ७ वीं मंजिल से जिधर नजर दौड़ाओ, बिल्डिंगें ही बिल्डिंगें. एक सघन कांक्रीट का विशालकाय जंगल. आवाजें तो उठती हैं. कहीं से किसी के बच्चे के चिल्लाने की, रसोई मे आपस में टकराते-गिरते बर्तनों की, टीवी पर चीख चीख कर पढ़े जाते समाचारों की, कहीं पर बेढ़ब तरीके से बजते री-मिक्स की तेज कर्कश धुन और भी न जाने कितने प्रकार की अजीब अजीब आवाजें. सुप्त संवेदनाओं की तलहटी से उठती ऊँची ऊँची आवाजें, शायद चित्कार ज्यादा बेहतर शब्दावली हो इसे जाहिर करने के लिये. शहरी रिवाज़ को उजागर करती आवाजें. एक दूसरे से सटे छोटे छोटे फ्लैटों में सिवाय आवाजों के और है ही क्या?
नीचे झांकता हूँ तो लोगों की भीड़ से पटी पड़ी पतली पतली सड़कें. सड़को के दोनों ओर अतिक्रमण किये सब्जी वालों के ठेले, टेक्सी वालों की भीड़. हैरत होती है जब सड़क नजर नहीं आती. किस स्तर पर यह सब तैर रहे हैं.
न कोई पेड़, न हरियाली. कहाँ से आये हवा में पेड़ों की सनसनाहट. वो संगीत लहरी..
सा रे गा मा..गा गा पम ..ध नी..सां...सां!!!
फ्लेट के बरामदे के गमले में बोनसाई लगा लिया है. कोई सनसनाहट नहीं बस, एक पेड़ होने का अहसास मात्र. पेड़ होकर भी पेड़ नहीं. ठीक वैसे ही, जैसे संवेदनाहीन मानव..जो आज हर जगह मिल जाते हैं..मानव होकर भी मानव नहीं. संवेदना शुन्य..आत्मलिप्त..लिजलिजे मानव आकृत.
और बड़ी बड़ी हाईवे के किनारे हरे पेड़ लगा दिये गये हैं. शायद उनसे उठती होगी सनसनाहट...कोई संगीत लहरी..
सा रे गा मा..गा गा पम ..ध नी..सां...सां!!!
मगर तेज रफ्तार भागती कारें, ट्रकों की धों धों में उसकी क्या बिसात. कब उठी, कब लुप्त हो गई, कोई जान ही नहीं सका. कौन जान सका है सुप्त संवेदनाओं की करवट बदलने की प्रक्रिया को...क्षणिक..अनजान..अनकही..अहसास विहीन.
अब तो हवा में बसती पेड़ों की सनसनाहट की स्वर लहरियों को सुनने पहाड़ों पर छुट्टियों में जाना पड़ेगा, एक कोशिश करके. तभी सुनाई देगा जीवन का असली संगीत...पेड़ों से उठती..हवा में समाहित स्वर लहरी..
सा रे गा मा..गा गा पम ..ध नी..सां...सां!!!
ठीक वैसे ही जैसे हर तरफ छाये रीमिक्स संगीत के कान फोडू संगीत से हट कर कभी किसी पाँच सितारा हॉल में जाकर शास्त्रीय संगीत का आनन्द लेना. वो भी तो अब यूँ ही सहज सुनाई नहीं पड़ता.
क्यूँ ऐसा सोचते हो कि फिर जीवन जीवन नहीं रहेगा, मित्र!! जरुर रहेगा-अंतर बस स्वर्ग और नरक के जीवन का होगा और फिर दोनों ही तो जीवन हैं.
जीना तो पड़ेगा-चाहे वो कितना भी अभिशप्त क्यूँ न हो. सब जी ही रहे हैं न!!
बस भूल जाओ, हवा में बसती पेड़ों की सनसनाहट की स्वर लहरियाँ...
सा रे गा मा..गा गा पम ..ध नी..सां...सां!!!
लगा लो मन रीमिक्स में!! उसके अपने सुर हैं. जैसे ट्रक और कारों की धों धों!
ताज्जुब न करो!!
(नोट: अभी भी वक्त है कि जितना बच सके उतना पर्यावरण और पहाड़ बचा लिये जायें. पाँच सितारा ही सही, कभी जा तो पायेंगे. :) वरना तो गुलाम अली को सुनते ही रह जायेंगे:
-दिल में इक लहर सी उठी है अभी,
कोई ताजा हवा चली है अभी.)
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40 टिप्पणियां:
आपकी पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता वाक़ई जायज है। आज तथाकथित विकास के नाम पर भारत में कंक्रीटयुक्त जंगल फैल गये हैं। विश्व्प्रसिध पर्यटन स्थल नैनीताल(उत्तराखन्ड)भारत आज कंक्रीट के जंगल का ताजा उदाहरण है। लेकिन आज जरूरत है कि लोगों के जागरूक होने की।
सा रे गा मा..गा गा पम ..ध नी..सां...सां!!!
अब भी वक्त है चीजें संभाली जा सकती हैं। वैसे, इधर कोर्ट और एनजीओ भी अच्छे-खासे सक्रिय हो गए हैं। ये भी हो रहा है कि पहले गांवों के लोग शहरों में बस कमाने भर के लिए आते थे, अब रहने के लिए आ रहे हैं तो अपने साथ पेड़ और उसकी आबोहवा भी ला रहे हैं।
आपका चिन्तन जायज है..क्रियान्वयन ज्यादा जरूरी है..
अरे सर मैं भी तीन साल से मुंबई में हूं। ये तो, आपने दर्द वाली जगह पर हाथ रख दिया।
आपने इस में जिस आज के सच को लिखा है समीर जी वो आज कल सच में चिन्ता का विषय है अभी हम सब जागरूक नही हुए तो बहुत बड़ा नुकसान भविष्य में उठाएंगे !!आक्सीजन के सिलेंडर लगाए बच्चो को शायद यह कहानी सुनाये कि ... एक समय की बात है तब ताज़ा हवा खुले आम मिलती थी :)
जबरदस्त अंदाज़ेबयां
बात में दम है आपकी। सरजी कुछ करना होगा। वरना बच्चे पेड़ों को सिर्फ किताबों में देखेंगे।
मानवीय विकट कॉम्प्रोमाइज का प्रतीक है बोनसाई। प्रकृति की जड़ें कतर कर उतनी बना दी जायें कि स्वार्थ भी सिद्ध हो और प्रकृति प्रेम का ठप्पा भी लग जाये। यह न तो प्रकृति है, न संस्कृति। यह शुद्ध विकृति है।
BHai Sahab Mai Hindi kaa NAusikhuaa Bloger Hu...
Yadi Aap mera margdarshan karate rahe to ...
ho sakata hai apanee giantee bhee acche bloger kee shreni me hi
सही कहा आपने।
सही कहा आपने, आखिर सब जी ही रहे है ना !!!
अपनी अगली भारत यात्रा में गुवाहाटी जरूर आइयेगा.....गारंटी देती हु आपको हमारे आई आई टी कैम्पस भरपूर.... सा रे गा माँ प ध नि स ~~~~~~~~~~~~~ का आनंद मिलेगा !
साधु साधु!!
सामयिक चिंतन!!
अब भी न चेते हम तो कब चेतेंगे!
समीर जी,
वक्त बदल गया है... आजकल लोगों ने ड्राईंग रूम में एक दीवार पर जंगल सीन लगा रखें हैं साथ ही टेवल टाप झरने भी मिलने लगे हैं एक किनारे पर रखे हुये मन की शान्ति के लिये काफ़ी...हा हा
आबादी का दबाव प्राक्रतिक स्त्रोतों पर साफ़ दिखाई दे रहा है साथ ही मानव की कमनजरी भी
देखें, हम अपनी संतानो को कैसी दुनिया दे कर जाते है?
बाकि तो सा रे गा मा..गा गा पम ..ध नी..सां...सां!!!
सत्य वचन, शोचनीय विषय
समीर जी ,
हमेशा की तरह इस बार भी आप की सराहना सर्वप्रथम थी . बहुत बहुत धन्यवाद .
बम्बई की लोकल ट्रेन मुझे न सिर्फ़ सहनशीलता सिखा रही है बल्कि बैठने की जगह मिलने पर कवि भी बाना देती है :)
- आशुतोष
पर्यावरण पर सुंदर अभिव्यक्ति लिखी है…
इसे की पर्यावरण पत्रिका को भेजें कुछ और
लोगों तक उसकी पहुंच होगी…
अंदाज तो निराला है ही आपका चिंतन भी बढ़िया है…
गांधी जी तो भविष्य को बहुत दूर से ही देख लिया करते थे… उनकी बात ही अनोखी थी…॥
अब पहाड़ भी वैसे नही रहे जो पहले हरे-भरे पेड़ो की बाँहो को फैला कर और झरनो के संगीत से हमारा मन मोहते थे.. कुल्लू मनाली के पहाड़ो को तो मैने अपने सामने ही धीरे धीरे अपनी सुन्दरता खोते देखा है.
अपनी विरासत को संभालना हमारा भी तो फर्ज बनता है....एक सार्थक पोस्ट के लि बधाई..
बहुत अच्छे लिखे लेख के लिए बहुत सारी बधाईयां.
नीरज
पर्यावरण की इस चिंता में हम सब शरीक हैं..वक्त तो यह कहता है, जितना बचा सको-बचा लो। नहीं तो फिर लोगों को अपनी चिंताएँ कवि एंकात श्रीवास्तव के शब्दों को उधार लेकर व्यक्त करना होगा----
अब किसके कूकने से लोटेगा बसंत
किसके बोलने से आएंगे पाहुन।
sameer, mujhe to wahi jagah acchi lagti hain, jahan ped hon, aur paudhe hon ankhon ko sukoon dene ke liye. par, aajkal ke 'fast forward development' mein hariyali hamari 'priority' nahi reh gayi hai. bus ek daud hai, jyada se jyada paisa kamane ki, suvidhayein ekatra karne ki, paryavaran, prakriti, dharti ma, ye sab to 'ou-of-fashion' ho gaye hain na :(
क्या बात है, अब तो जोर्दार लिख्ने लगे हैं।
दीपक भारत्दीप
क्या बात है, अब तो जोर्दार लिख्ने लगे हैं।
दीपक भारत्दीप
समीर लाल जी
आपने बहुत जोरदार लिखा है
दीपक भारतदीप
समीर लाल जी
आपने बहुत जोरदार लिखा है
दीपक भारतदीप
...अक्सर अब बहुत डर लगता है. हर चीज छोटी होती जा रही है चाहे वह बोंसाई हो चाहे रहने जगह हो चाहे इस्तेमाल में आने वाली और ना आने वाली कोई तक्नीक हो चाहे कोई विचार हो. समीर भाई शायद यह छोटी चीजों का दौर है. बडा अगर कुछ बडा हो रहा है तो शायद वह लालच है. असल में जब तक कुछ बडा नही होता तब इंतज़ार तो हो ही सकता है. आम आदमी और क्या कर सकता है वो चाहे कितना भी चाहे अपनी बालकनी पर एक आम का पेड नहीं लगा सकता है. बस कुछ कजरियों, ठुमरियों और लोकगीतों को अपने भीतर दफ्नाते हुए इस इंतज़ार में जी सकता है कि एक दिन किसी इक दिन उसकी बालकनी पर हरियाने कोई पेड चला आएगा.
दिल दुखाने के लिये आपको माफ नहीं किया जाएगा. आपकी सज़ा यह है कि मै आपका ब्लाग लगातार पढूँगा.
http://avanishgautam.com/
समीर जी
मैं आज पहली बार आप के बलोग पर आई हूँ , पता न था कि इतना सश्क्त, संवेदनशील लेख पढ़ने को मिलेगा। आप की बात एकदम सौलह आने सच है।
आप तो संगीत की बात कर रहे हैं , हमें तो यह डर हैं कि हमारे पोते पोतियाँ खाएगें कया, तब तक तो सारे खेत शॉपिग मॉल में या बिल्डिगों में बदल जाएगें और शायद कोई गोली खा कर गुजारा करना पढ़ेगा खाने के नाम पर
ऐसा नही है कि गांधीजी ने पर्यावरण के बारे में ज्यादा नही कहा है। गांधीजी ने हर उस मुद्दे को अपने कलम से छुआ है जो उन्हे लगता था कि जरुरी है। घर-बार मे होने वाली छोटी-छोटी चीजो से लेकर देश कि स्वतंत्रता तक। पर्यावरण पर गांधीजी का सुनने को इसलिये नही मिलता है क्योकि उस वक्त ये इतना ज्वलनशील और प्रसांगिक मुद्दा नही था। लेकिन इस भागती-दौडती दुनिया में आपने जरा से भी अगर अपने पर्यावरण को बचाने का सोचा है वो काबिले-तारीफ है।
हमारे दादा-परदादा ने जो पेड लगाये उनसे पूरा लिपट नही सकते पर हमारी पीढी ऐसे पतले-पतले पेड लगा रही है कि एक हवा का झोका उसे गिरा दे। पता नही आगे के दिनो मे क्या होगा।
समय-समय पर इस पर लिखना होगा इसी तरह। बजाय इसके कि सिर्फ पर्यावरण दिवस के दिन यह सब याद करे।
तो आप मुम्बई का दर्द बखूबी समझते हैं…पर्यावरण पर आपका ये लेख बहुत सशक्त है।
सच्च को प्रतिशत में नहीं आंका जा सकता न ....
एक दम सही लिखा, जंगल तो जंगल है। कंक्रीट के जंगल में भी मन रमाया जाना चाहिए । आपके जैसी संवेदनशीलता हो तो ......
बहुत कुछ भूलना पडेगा हमें.पेडों की सनसनाहट,उनपर टंगे झूले,शाम को घर लौटती चिडिया ,घोंसले ...और न जाने क्या क्या.
समीर जी,
''पौधे लगाने होंगे ताकि पेडों की सनसनाहट सुन सकें। नहीं तो कंकरीट के जंगल ही देखने को मिलेंगे। ऐसा जारी रहा तो जीवन जीवन नहीं रहेगा।''
प्रकृति प्रेम के प्रति आपकी बात में जबरदस्त दम है,सचमुच आपने बहुत गंभीर बातें की है, यही सच है, पर्यावरण पर वाक़ई आपकी संवेदनशीलता शोचनीय है।
हमेशा की तरह बहुत सुंदर लेख ...आनंद आ गया
सच्चाई को कहने का आपका अंदाज निराला है
आपकी कविता बड़ी जबरदस्त है। यह पेड़ मात्र की बात नहीं बल्कि हर प्रकार के संवेदनाओं को अपने सामने दम तोड़ता हुए देखने की आखिरी छटपटाहट है। मुझे तो यह कविता लगी। ग्रेट सर। - आनंद
छोटे शहरों में अब भी इन कंक्रीट के जंगलों के आलावा कुछ हरियाली देखने को मिलती है। शायद ये विकास में पिछड़े रहने का एकमात्र सुख है। सही मुद्दा उठाया है आपने।
समीर जी आज के भौतिक वादी युग मे मनुष्य सब कुछ भूल गया, अब वो प्रकृति के विपरीत भी चलने मे हिचकिचाता नही, भौतिक सुखौं की ओर भागते हुऐ वह अपना कल को भूल गया. वो केवल अपने वर्तमान को सोचने तक ही सीमित हो गया, कल क्या होगा उसको उसकी कोई प्रभाव नही. आज हमारा वातावरण इतना प्रदूषित हो गया है की आने वाले समय मे, इस पृथिवी पर जीवन सम्भव हो पायेगा या नही ये कहना बड़ा मुश्किल है. दिन प्रतिदिन हमारे जंगल कटते जा रहे है, पेड़ पौधू की संख्या निरंतर घटती जा रही है, पानी के स्रोत सूखते जा रहे है, ग्लाशियर पिघलते जा रहे है, लेकिन इसका विकल्प क्या होगा, इसके बारे मे हम लोगो के पास समय नही है क्यौकी हम तो केवल आज पर जीते है कल क्या होगा .........
पर्यायवरन को बचाने मे आजकल उतराखंड मे एक संस्था काम कर रही है, उसका नाम है मैती संस्था कार्यक्रम, मैंने अपने ब्लॉग मे इसके बारे मे कुछ लिखने की कोशिश की है और मैं अपने इस ब्लॉग के मध्यम से आप सभी लोगों से कर्वध प्राथना करता हू की मैती कार्यक्रम को अपने घरौं, गौवौं और शाहरौं मे अपनइये और पर्याय वरन को बचाने मे अपना अमूल्य सहयोग दे. शुरुआत सबसे पहले हमी को करनी होगी तब हम अन्य लोगो को कहने का अधिकार रखते है.
कृपया इस लेख को जरूर पढ :
http://kandpalsubhash.blogspot.com/2007/10/blog-post_2696.html
Bahut acha likha ha aapne vastv men ye samasya to to aajkal bahut badh gayi ha ham sabko milkar kuch na kuch sochna chahiye .aapne bahut acha vishya chuna or bahut acha likha aapko bahut-bahut badhai...
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