रविवार की वो सुबहें रह रह कर याद आ ही जाती हैं. तब मैं भारत में रहा करता था.
गुलाबी ठंड का मौसम. अलसाया सूरज धीरे धीरे जाग रहा है. शनिवार की रात की खुमारी लिये मैं बाहर दलान में सुबह का अखबार, चाय की गर्मागरम प्याली के साथ पलटना शुरु करता हूँ. दलान में तखत पर गाँव तकिया से टिक कर बैठ ठंड की सुबह धूप खाना मुझे बहुत भाता है. अखबार में कुछ भी खास नहीं. बस यूँ ही रोजमर्रा के समाचार. पढ़ते पढ़ते में वहीं लेट जाता हूँ. सूरज भी तब तक पूरा जाग गया है. अखबार से मुँह ढ़ककर लेटे लेटे कब आँख लग गई, पता ही नहीं चला.
आँख खुली बीड़ी के धुँये के भभके से. देखा, पैताने रामजस नाई उकडूं मारे बैठे बीड़ी पी रहे हैं. देखते ही बीड़ी बुझा दी और दांत निकालते हुये दो ठो पान आगे बढ़ाकर-जय राम जी की, साहेब. यह उसका हर रविवार का काम था. मेरे पास आते वक्त चौक से शिवराज की दुकान से मेरे लिये दो पान लगवा कर लाना. साथ ही खुद के लिये भी एक पान लगवा लेता था.सारे पान मेरे खाते में.
रामजस को देखते ही हफ्ते भर की थकान हाथ गोड़ में उतर आती और मेरे पान दबाते ही शुरु होता उसका मालिश का सिलसिला. मैं लेटा रहता. रामजस कड़वे तेल से हाथ गोड़ पीठ रगड़ रगड़ कर मालिश करता और पूरे मुहल्ले के हफ्ते भर के खुफिया किस्से सुनाता. मैं हाँ हूँ करता रहता. उसके पास ऐसे अनगिनत खुफिया किस्से होते थे जिन पर सहजता से विश्वास करना जरा कठिन ही होता था. मगर जब वो उजागर होते और सच निकलते, तो उस पर विश्वास सा होने लगता.
एक बार कहने लगा, साहेब, वे तिवारी जी हैं न बैंक वाले. उनकी बड़की बिटिया के लछ्छन ठीक नहीं है. वो जल्दिये भाग जायेगी.
दो हफ्ते बाद किसी ने बताया कि तिवारी जी की लड़की भाग गई. अब मैं तो यह भी नहीं कह सकता था कि मुझे तो पहले से मालूम था. रामजस अगले इतवार को फिर हाजिर हुआ. चेहरे पर विजयी मुस्कान धारण किये, का कहे थे साहेब, भाग गई तिबारी जी की बिटिया. मैं हां हूं करके पड़े पड़े देह रगड़वाता रहता. वो कहता जाता, मैं सुनता रहता. मौहल्ले की खुफिया खबरों का कभी न खत्म होने वाला भंडार लिये फिरता था साथ में.
आज सोचता हूँ तो लगता है कि यहाँ की मसाज थेरेपी क्लिनिक में वो मजा कहां.
एक घंटे से ज्यादा मालिश करने के बाद कहता, साहेब, अब बैठ जाईये. फिर वो १५ मिनट चंपी करता. तब तक भीतर रसोई से कुकर की सीटी की आवाज आती और साथ लाती बेहतरीन पकते खाने की खुशबु. भूख जाग उठती. रामजस जाने की तैयारी करता और बाल्टी में बम्बे से गरम पानी भरकर बाथरुम में रख आता मेरे नहाने के लिये.
अपनी मजूरी लेने के बाद भी वो हाथ जोड़े सामने ही खड़ा रहता. मैं पूछता, अब का है? वो दाँत चियारे कहता; साहेब, दिबाली का इनाम. मै उससे कहता; अरे, अभी दो महिना ही हुआ है दिवाली गुजरी है, तब तो दिये थे. तुम्हारी यही बात अच्छी नहीं लगती. शरम नहीं आती हमेशा दिबाली का ईनाम, दिबाली का ईनाम करते हो.
वो फिर से दाँत चियार देता और नमस्ते करके चला जाता. मैं नहाने चला जाता.
उसका दिबाली ईनाम माँगना साल के ५२ रविवारों में से ५१ रविवार खाली जाता बस दिवाली वाला रविवार छोड़कर जब मैं वाकई उसे नये कपडे और मिठाई देता.
बाकी ५१ रविवार वो दाँत चियारे कहता; साहेब, दिबाली का इनाम.मैं कह्ता;तुम्हारी यही बात अच्छी नहीं लगती. शरम नहीं आती हमेशा दिबाली का ईनाम, दिबाली का ईनाम करते हो.
वो फिर से दाँत चियार देता मानो पूछ रहा हो; चलो हम तो आभाव में है किसी आशा में मांग लेते हैं मगर आपको बार बार मना करते शरम नहीं आती क्या?
पता नहीं क्यूँ, यह संस्मरण लिखते हुये शायर कैफ़ी आज़मी की एक गजल के दो शेर अनायास ही याद आ गया:
वो भी सराहने लगे अरबाबे-फ़न के बाद
दादे-सुख़न मिली मुझे तर्के-वतन के बाद
ग़ुरबत की ठंडी छाँव में याद आई उसकी धूप
क़द्रे-वतन हुई हमें तर्के-वतन के बाद
*अरबाब= मित्रों, दादे-सुख़न= कविता की प्रशंसा, ग़ुरबत= परदेस, तर्के-वतन=वतन छोड़ना,
बुधवार, अगस्त 01, 2007
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38 टिप्पणियां:
वंदे मातरम ! आज भी गांव कस्बे के नाई असली सीआईडी खबरची हैं । आपकी सादगी को जानकर अच्छा लगा ।
वैसे आचार्य जी वो तिवारी जी की बेटी को हमही भगाये थे ना, ई देखो बलाग को निटोर रही है और आपको परनाम कह रही है ।
“आरंभ”
सही है। अपने खूबसूरत वदन की मालिश करवाते हुये फोटो डालते और अच्छा लगता!:)
हम तो आपके जमाने के और अपने जमाने के मसाज क्लिनिकों से दूर ही रहे हैं लेकिन आपके वर्णन को देख कर लगता है कि दोनों मे मजा ही आता होगा.
साहेब परनाम! अरे पहिचाना नाही का? हम रामजस, बैंकाक से। अरे आप कनाडा निकले ओकर बाद हमका एक अजेंटवा बोला दद्दा तुम मालिस बढ़िया करते हो ऐसी जगह चलो जहाँ इस कला को इज्जत मिलता है। तो बछुवा के खातिर हम इहां चले आये। और अच्छा ही हुआ साहेब, आज बछुवा का अपना बड़ा दुकान है, सब तरह का मालिस का व्यवसस्था किये हैं। और हम अब पूरा आराम करते हैं और सुबहा शाम कराते हैं मालिस...अच्छा अब चलता हूं, टीना तौलिया लिये दरवाजे पर खड़ी है। जाते जाते एकही बात साहेब...हमरा दीवाली का ईनाम बचा कर रक्खे हैं न...हीहीहीही।
वाह! वाह! दिल ढ़ूंढ़ता है, फिर वही, फुर्सत के रात दिन!!!
वो दिन वापस आ जायें तो हम 52 रविवारों में से 53 में दिवाली के ईनाम बांट दें.
ये अनूप की फरमाइश भी पूरी कर दें. फोटो चिपका दें शाम तक (सॉरी; अपने सवेरे तक! उत्थे तो सो रहे होंगे अभी!).
दिल फिर से उन्ही सुनहरी यादों में डूब जाना चाहता है ..:)
कभी कभी फ़ुरसत में यूँ मीठे पलो को दोहराना अच्छा लगता है
बीते लम्हे ख़ुद के साथ बिताना सच में अच्छा लगता है !!!:)
"बम्बा"
कहाँ सुनने को मिलते हैं अब ये सब शब्द !! मजा आ गया - बम्बा!!
एक दम से बहुत सारी पुरानी बातें याद आ गईं -- शास्त्री जे सी फिलिप
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
इस दुनिया मे हर किसी का वजूद दास्ता के लिये ही होता है..हर हासिल बहुत छोटी और जिक्र ना करने काबिल लगती है ..पर जब वो हासिल हासिल नही रहती..तब हम उसका वजूद दास्तानो मे ही ढूढाकिये रहते है..गजल किसकी है ध्यान नही..पर दो मतले पेशे खिदमत है .मुझ एबहुत पसंद है,पंकज उदास ने आवाज दी है..
"वक्त सारी जिंदगी मे दो ही गुजरे है कठिन,
एक तेरे आने से पहले एक तेरे जाने के बाद.
ला पिला दे साकिया पैमाना,पैमाने के बाद
होश की बाते करुगा होश के जाने के बाद"
समीरजी,
अनूपजी के इरादे नेक नहीं अनेक लग रहे हैं :-)सावधान!!!
बढिया संस्मरण लिखा है, हम भी १०वीं से १२वीं की पढाई के दौरान खूब छतियाते थे, उन दिनों की तो केवल अब याद ही बाकी है ।
your post reminded me of time that I spent at my parents place. It is catch 22...fursat ka aanand lo bharat sarvshanktimaan nahi banega....aur agar sarvshaktimaan hua to, pata nahi kitna bharat bachega.
बढ़िया !!आपका लिखा पढ़कर हमे अपने भैया और पतिदेव की मालिश करवाने की बातें याद आ गयी। भैया तो आज भी हर इतवार मालिश करवाते ह
पर गोवा मे ऐसे नाई नही मिलते है।
सही कहा नाई तब खुफियागीरी का काम करते, इस घर की उस घर में बताते. शादी ब्याह भी भीड़ा दिये करते. अब सब बजार हो गया है.
सुन्दर संस्मरण.
शुक्र है, देह दबवाने के बहाने ही सही, उड़नतश्तरी एक बार हिंदुस्तान पर भी मंडराई!
वाह!!
का बात है स्मृतियों मे डूबकियां लगा रहे हैं लगता है।
ये तो सत्य है कि नाई आज भी असली खबरी है, आसपास की खबरें जानना है तो नाई से सेटिंग कर लो बस!!
समीर जी,पढ कर अच्छा लगा। याद तो बनी हुई है भारत की।चलो मालिश वाले के बहाने ही सही।
याद ना जाए बीते दिनों की....
बहुत अच्छी कहानी. शायद संस्मरण हो लेकिन अब कहानी कहना ही ठीक होगा.
क्या अभी भी गांव जाते हैं? या पूरी तरह छोड़ दिया है.
मुझे तो तरस आता है रामजस पर. बेचारा बदन दबाने बैठता होगा तो सुबह से शाम हो जाती होगी. :) हे हे हे.
बाकि बात आपने ठीक कही.. सुना करता था हमारे गाँव में यह रोल नाई निभाते थे. अब तो पता नहीं.. अब वो बात कहाँ..
बिल्कुल मस्त पोस्ट की है, आपने । गाँव की मिट्टी की सोधीं-२ महक देती हुयी ।
ये भी खूब रही बहुत-बहुत बधाई।
ये भी खूब रही बहुत-बहुत बधाई।
शरम की दोहरी तलवार वाली बात आपने खूब कही ! ऍसी मालिश का सुख अब तक प्राप्त नहीं कर सके हैं, आपकी इस पोस्ट से ही आनंदित हो लेते हैं
पिछले दिनो हम गाँव गये तो ज़िला के रेल्वे स्टेशन मास्टर जी ने घर पे बुलाया. वे कवि भी है . हम एक दो कवि मित्रो के साथ पहुचे. वे पाँच मिनत बाद अन्दर गये. तो शरबत , चाय, बिस्किट सब बाहर निकला पर वे बाहर नहीं निकले. निकले एक घंन्टे बाद जब हमने कई बार आवाज लगाई. आये तो बोले ससुराल से एक आदमी आया था . मालिश बहुत अच्छे से करता है. सो मालिश करा रहा था. कही आप दोनों बचपन के बिछरे भाई तो नहीं.
पिछले दिनो हम गाँव गये तो ज़िला के रेल्वे स्टेशन मास्टर जी ने घर पे बुलाया. वे कवि भी है . हम एक दो कवि मित्रो के साथ पहुचे. वे पाँच मिनत बाद अन्दर गये. तो शरबत , चाय, बिस्किट सब बाहर निकला पर वे बाहर नहीं निकले. निकले एक घंन्टे बाद जब हमने कई बार आवाज लगाई. आये तो बोले ससुराल से एक आदमी आया था . मालिश बहुत अच्छे से करता है. सो मालिश करा रहा था. कही आप दोनों बचपन के बिछरे भाई तो नहीं.
खूब, इसलिए शायद इधर की उधर लगाने वाले को 'नाई' कहा जाने लगा!! ;) आपकी भी सही मौज थी, पूरे इलाके की खुफ़िया खबरें घर बैठे ही, मालिश करवाते हुए, वाह वाह!! :D
वाह इतनी बढिया अभिव्यक्ति ! पोस्ट ही नहीं टिप्पणियां भी आह्लादकारी !!
भई वाह!
पढकर मजा आ गया! - शान्तनु
" दादे-सुख़न मिली मुझे तर्के-वतन के बाद "
कैफ़ी साहब की तरह मुनीर नियाजी ने भी लिखा है :
" वहां रहे तो किसी ने भी हंस के बात न की
चले वतन से तो सब यार हाथ मलने लगे "
इधर ऐसा ही चलन है . क्या करें .
स्मृति के गलियारे में विचरण आपसे बहुत अच्छा गद्य लिखवा रहा है . काबिल-ए-तारीफ़ .
बहुत मजा आया!!! गांव घूम आये... मालिश भी करा आए... अच्छे से... रब करे आप की ख़ूब मालिश हो...
चलिए, अंतत: पता चला.. मैं आजतक असमंजस में था कि तिवारी जी की बिटिया एक्चुअली में भागी थी या नहीं!.. वैसे अनूप के सुझाव पर बीच-बीच में आपको कान देना चाहिए. आपके उत्साहवर्द्धन से हो सकता है, हम भी हौसला पाकर अपनी डील की मालिशी धजवाली फोटो चढ़ा दें..
तस्वीर जरुरी थी तब जाकर और मजा आता…
ज्याद मसाज न करें पता नही क्यूँ मगर आप तो नहीं ही…। :)
संजीव भाई
उसका तो सुनें थे कौनो कहार के संग भागी थी. अब आप कह रहे हो तो झूठ थोड़े न कहोगे. मैं न कहता था कि रामजस सब सच सच नहीं बताता है. इनाम भी ले गया और खबर भी गलत टिका गया.
बकिया, बहुत आभार रचना पसंद करने का.
अनूप भाई
काहे सारे ब्लॉग मंडल को डरवाने में लगे हो. बिना मालिश करते फोटू से तो लोग बच्चों को डरा कर सुला रहे हैं. मालिश वाली देख ले तो का होगा और फिर हमें लाज भी तो आ रही है. :)
बहुत आभार रचना पसंद करने का.
काकेश भाई
अरे, कभी करवाईये तबियत से मालिश. आप तो आधा जिन्दगी का लुत्फ छोडे हुये हैं अगर यह अनुभव नहीं है तो. :) कैइसे मित्र हो भाई.
बेनामी प्रभु
चिहन तो लिये थे तोका महाराज. मगर बैंकाक कब भाग लिये हो भाई. इस दिबाली पर आओ. हमौ पहुंच जायेंगे-इनाम तो ले जाना आकर. बढ़िया है खूब चकाचक ऐश करो जिन्दगी मे.
और हाँ, हमारी नई आदात के अनुसार, चिट्ठे पर पधारने का साधुवाद.
ज्ञान जी
सही कह रहे हैं. काश, वो दिन लौट आयें.
भाई जी, फोटो के बारे में अनूप भाई की डिमांड पर उन्हें जो लिखे हैं वो ही दोहरा देते हैं:
काहे सारे ब्लॉग मंडल को डरवाने में लगे हो. बिना मालिश करते फोटू से तो लोग बच्चों को डरा कर सुला रहे हैं. मालिश वाली देख ले तो का होगा और फिर हमें लाज भी तो आ रही है. :)
रंजू जी
सच में, सब बीते पलों की यादें ही तो हैं. बहुत अच्छा लगा आप आई. आभार.
अनुराग भाई
लुप्त होते शब्द कभी कभी सुनना बहुत भाता है मुझे भी. :) आभार.
शास्त्री जी
कभी अच्छा लगता है ऐसे बीते दिनों में खोना. है न!! बहुत आभार आपने आकर हौसला बढ़ाया.
अरुण भाई
बिल्कुल अक्षरशः सही-जब बीत जाती है तो याद आती है. उस वक्त कोई कद्र न थी.
बहुत आभार विचारों के साथ बहने का.
नीरज भाई
अच्छा चेता दिये अनूप जी के इरादे के बारे. बस्स, इसी से मना कर दिये हैं उनको कोई और कारण बता कर. तुम्हारा नाम नहीं लिये हैं. ताकि उनको पता न चल जाये कि तुम्हारे कहने से हम चेत गये. :)
सुनाओ कभी अपने संस्मरण भी. पुरानी बातों में खोना भी कभी कभी तरोताजा कर देता है.
तेजस जी
सच तो है मगर हम तो लुत्फ उसी भारत का उठाये हैं और वही भारत हमारी यादों में रचा बसा है. आभार आप के पधारने का. ऐसे ही आते रहें. :)
ममता जी
हाँ, हर जगह का अपना अलग रंग होता है. यह तो कस्बेनुमा जगहों का दृश्य है. दिल्ली का नाई तो क्या खबर देगा मुहल्ले की.
आभार रचना पसंद करने का.
संजय भाई
बाजारवाद तो हावी होना ही है मगर कुछ क्षेत्र अभी भी अछूते है मगर जल्द ही वो भी चपेट में आ जायेंगे. जब तक हैं तब तक ही आन्न्द उठाया जाये.
चंदू भाई
बस बहाने ही रह गये हैं अब कि किसी तरह वतन पर मंडराने का और याद करने का कुछ साधन बनता रहे. आपका आभार आप पधारे.
संजीत
मजा आता हैं न ऐसी डूबकियों में.
नाई से जो खबर मिले वो कहीं और से नहीं मिल सकती. यह शास्वत सत्य है. :)
परमजीत भाई
भाई मेरे, भारत में ही है हर वक्त मन से. बस, तन यहाँ डोल रहा है, इसी से तो ख्याल नहीं रख पा रहे उसका और वो मुटाता जा रहा है. :)
आभार रचना पसंद करने का.
संजय भाई
काफी हद तक संस्मरण है. अरे जनाब, हर डेढ़-दो साल में जाते हैं. महिना महिना रहते हैं इत्मिनान से. फिर भी कम ही लगता है. वो कैसे छूट सकता है. वहाँ की तो सड़के भी हमारी बचपन की साथी हैं.
आपने पसंद किया, लिखना सफल रहा. आभार.
पंकज
मैं जानता था तुम रामजस की तरफ हो जाओगे. तुम्हारा हृदय बहुत संवेदनशील और भावुक है. रो तो नहीं दिये उसकी हालत पर? इसीलिये ऐसी भयावह कहानियाँ लिखने से कतराता हूँ. :)
सही है, नाई का रोल हमेशा से जबरदस्त और अहम रहा है समाज में. धन्यवाद रचना पसंद करने का.
टंडन साहेब
बस वही महक तो है जो दीवाना कर देती है और हम लिखने बैठ जाते हैं. आभार.
भावना जी
आपने पसंद की रचना, धन्य हुये. बहुत आभार.
मनीष भाई
हम तो समझ रहे थे कि बिहार और झारखण्ड में रह कर आप आज भी लुत्फ उठा रहे होंगे. बड़ा अचरज है. :)
रचना पसंद करने का आभार.
बसंत भाई
यही है हाल मालिश के दीवानों का. :)
गांव और जिला तो बताया जाये तब न पता करें कि वो भाई तो नहीं. :)
बकिया, बहुत आभार.
अमित भाई
सही कह रह हैं. हाँ, अब तो मौज के दिन बिदा हुये, यादें ही यादें है ऐसी ढ़ेर सी संदुक में बंद. कभी कभी संदुक खोल दिल बहला लेते हैं. आभार,
निलिमा जी
बहुत बहुत आभार. आपके आने से हौसला बढ़ जाता है. आते रहें.
शान्तनु जी
बहुत आभार भाई. और आईयेगा.
प्रियंकर भाई
नियाजी साहब का शेर बहुत सटीक रहा. आपका स्नेह और हौसला अफजाई है. अच्छा लगा आपने पढ़ा. आते रहिये. प्रयास करुँगा कि कुछ बेहतर लिख पाऊँ. बहुत आभार.
अनिल भाई
चलो, यह खूब रही. सब एक ही पोस्ट से काम हो गया. अब अगली पोस्ट पढ़ने की तैयारी करें. :)
बहुत आभार पसंदगी के लिये.
प्रमोद जी
देखिये न, ऐसे ही तो राज खुलते हैं. किताअ जरुरी है आपस में बात करते रहना. :)
रही फोटू की बात तो आप तो अनूप जी को जानते ही हैं.(वो साजिशन कहे थे, बताईयेगा मत) हम उनको लिख दिये हैं:
काहे सारे ब्लॉग मंडल को डरवाने में लगे हो. बिना मालिश करते फोटू से तो लोग बच्चों को डरा कर सुला रहे हैं. मालिश वाली देख ले तो का होगा और फिर हमें लाज भी तो आ रही है. :)
आप बतायें, ठीक कहे हैं न!! :)
बहुत आभार आपने पढ़ा और हौसला बढ़ाया.
दिव्याभ भाई
:) आप भी दिव्याभ भाई. अनूप भाई के फोटो वाले बहकावे में आ गये. हा हा!!
बहुत आभार आप पधारे. आते रहें.
बढिया समीर जी..अच्छा लिख रहे है आजकल...काफी कुछ नया पढने को मिला.सभी तरह के शब्द है आपके पास...जो हँसा सकते है...और हमे अतीत मे भी ले जा सकते है..
धन्यवाद.
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