कुछ आर्थिक तंगियाँ और उस पर से बड़ा परिवार, जो कि उसकी जिम्मेदारी था. हरदम खोया खोया रहता. मगर फिर भी एक उमंग थी.
बाप बचपन में ही गुजर गये. अब तो धुँधली सी यादें हैं.
वो अपनी कहानी बताने लगा:
बाबू जी साईकिल से दफ्तर से आते. बैठक में ही रहते. वहीं दीवान पर सोया करते थे. बैठक का दरवाजा सड़क पर खुलता था. हर सडक से गुजरने वाला राहगीर जैसे उन्हें जानता. सब उन्हें राम राम कहते जाते. वो वहीं दीवान के पास अपनी टेबल कुर्सी पर पट्टीदार जाँधिया और बनियान पहने कवितायें लिखा करते थे. वो बड़े डाकघर में बाबू थे.
देर शाम रामदीन काका, बेग साहेब, अली चचा, तिवारी मास्साब और न जाने कितने यार दोस्त आ बैठते बैठक में. फिर चलता कविता का दौर. माँ चाय बनाकर देती, हम लोग बैठक में पहुँचा आते थे. कभी कभी नुक्कड़ से अनोखेराम के समोसे भी आते. हम चारों भाई बहन बहुत खुश होते. हमारे लिये भी समोसे मंगाये जाते.
एक छोटा भाई और दो छोटी बहनें. सब हंसी खुशी चल रहा था. हम इस छोटे से कस्बेनुमा शहर में बहुत खुश थे. एक रात पिता जी के सीने में दर्द उठा. डॉक्टर चाचा तुरंत भागते आये. कुछ इन्जेक्शन भी दिये. पिता जी आराम से सो गये. मगर फिर कभी न उठे. बहुत भीड़ जमा हुई थी उनकी शवयात्रा में. फिर उस भीड़ से छंट कर रह गये, मैं, माता जी, और दो छोटी बहनें और एक सबसे छोटा भाई. मैं दर्जा चार में था उस वक्त.
उस साल अली चाचा के आँगन में लगे आम के पेड में आम नहीं आये थे. हम बस इन्तजार करते रहे.
थोडे से फंड के पैसे, कुछ साहित्य संस्थानों के अनुदान में प्राप्त एक मुश्त रकम, और एक छोटी से पेंशन. बस काट कटौती में जिन्दगी चलने लगी. माँ, माँ कम और बाप ज्यादा हो गईं. हर वक्त हमें जीवन में तरक्की की सलाह, हमारी हर जरुरतों में घर और बाहर दोनों जिम्मेदारी. उम्र से पहले ही बूढ़ी हो गई और मैं तो खैर अपना बचपन खो ही चुका था. माँ की चिन्ता होती थी बस जाहिर नहीं करता था. ऐसा लगता है माँ समझती थी. जब ग्याहरवीं का बोर्ड का परीक्षा फल आया तो मैनें प्रथम श्रेणी प्राप्त की. माँ को बताया. मानो उसके सारे सपने पूरे हो गये. अगली सुबह वो नहीं रही. उसका मरने के बाद का चेहरा याद है. बिल्कुल निश्चिंत जैसे कि कह रही हो, तुम हो न!! अब मैं, मेरी दो छोटी बहनें और सबसे छोटा भाई.
उस साल भी अली चाचा के आँगन में लगे आम के पेड में आम नहीं आये थे. हम बस इन्तजार करते रहे.
अली चाचा ने सिफारिश करके मुझे पिता जी अनुकम्पा नियुक्ति वाली फाईल के हवाले से पोस्ट ऑफिस में छंटनी विभाग में नियुक्त करवा दिया.
समय बीतता गया. दोनों बहनें शादी लायक हो गईं. कोशिश मशक्त कर कर्ज तले दब दोनों को समाज में अच्छा ब्याह दिया. दोनों खुशी खुशी अपने घर चली गईं. फिर कभी नहीं लौटी. उनका परिवार समाज में हैसियत रखता था. छोटे लोगों से मिलना जुलना उन्हें पसंद नहीं था. फिर भी वो खुश था कि बहनें अच्छॆ घरों में ब्याह गई.
कर्ज बढ़ गया था. छोटे भाई को इंजिनियर बनाने का सपना था. दाखिला भी करवा दिया था. वो उसमें अपना भविष्य देखता था. इस साल फायनल इयर था. उसकी तन्ख्वाह में घर का किराया से लेकर कर्ज की किश्तों तक का फैलाव नहीं था. किसी तरह मान मन्नुअत के यहाँ तक आ गया था. बस एक साल की बात ही तो और है. फिर तो भाई इन्जिनियर बन जायेगा और वो ठाठ से जियेगा. उसने सोच रखा है कि वो तब नौकरी छोड़ देगा. छोटा कमायेगा और वो पिता जी अधुरी किताब पूरी करेगा.
इन्जिनियरिंग खत्म कर छोटे भाई ने आगे पढ़ने के लिये अमेरीका जाने की पेशकश की. इसने उसे समझाया भी कि बेटा, कुछ दिन नौकरी कर ले फिर कमा कर चले जाना. मगर उसके सब दोस्त तो अभी जा रहे हैं. न चाहते हुये भी इसने कुछ पोस्ट ऑफिस सेविग्स अकाउन्टस में कुछ घोटाले कर ही डाले और उसे अमेरीका जाने का इन्तजाम कर दिया. वह सोचता था कि अमेरीका से पैसे भेज देगा तब सब अकाउन्टस में वापस डाल दूंगा और किसी को पता भी नहीं चलेगा.
भाई अमेरीका चला गया.
ऐसी बातें कब छिपी हैं. विभागीय तहकीकात हुई. घर पर छापा पड़ा. नौकरी से हाथ धो बैठा. जेल जाने की नौबत आ गई.
अखबारों में उछल कर खबर छपी. छोटे भाई के दोस्तों ने छोटे भाई को अमेरीका फोन कर दिया.
उसका फोन आया था: सामने वाले पी सी ओ में "भईया, आपने यह सब क्या किया, मुझे तो अपने आपको आपका छोटा भाई कहते हुये शर्म आ रही है. आज से आप मेरे लिये मर गये. मैं अब कभी उस शहर नहीं लौटूँगा. आपने मुझे इस लायक नहीं छोड़ा कि मैं लोगों में मुँह दिखा पाऊँ" और उसने फोन काट दिया था.
उस पर केस चल रहा था. तीन माह जेल में रहने के बाद जमानत हो चुकी है. अली चाचा के सर्वेंट क्वाटर में रहता है. दिन भर उनके लिये बाजार जाने से ले बच्चों को स्कूल पहुँचाने आदि में व्यस्त रहता है. चाची दोनों टाईम बचा खाना खिला देती है. दिन कट जाता है. बस, रात में नींद नहीं आती, पता नहीं क्यूँ?
पिता की अधुरी किताब आज भी अधुरी है.
इस साल भी अली चाचा के आँगन में लगे आम के पेड में आम नहीं आये. उसे इन्तजार भी नहीं. उसे अब आम पसंद नहीं आते.
बुधवार, जुलाई 25, 2007
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33 टिप्पणियां:
अच्छी मार्मिक प्रस्तुति. आजकल आप नये नयें रंग दिखा रहे हैं क्या रंगबाजी है भाई.
पढ़ लिया। कामना है आम के पेड़ में फ़ल आना फिर शुरू हो।
आम पर खास बात
मैं विभागीय विजिलेंस की फाइलें देखता हूं तो कई फाइलों में यह सत्य/मजबूरी/त्याग दीखता है. पर उस समय आप अधिकारी होते हैं - एक अन्य धर्म से बन्धे.
आम तो पेड़ पर आयेंगे ही. किसके हिस्से होंगे, पता नहीं.
अच्छी रचना के लिये अतिशय धन्यवाद.
हृदयस्पर्शी ।
समीर भाई
लगता है कि बहुत व्यस्त हैं आप. और लेख लिखने का जिम्मा किसी और को दे दिया गया है. आपका नहीं लगता यह लेख. आप ऐसे कहां थे? क्या हुआ आखिर?
-खालिद
बहुत सुंदर । बहुत ही सुंदर ।
विदेश यात्राओं की महत्वाकांक्षा ने न जाने कितने परिवारों को आर्थिक संकटों में डाला है..प्रतिभा के बूते पर ख़ुद कुछ करने का जज़्बा हो तो ठीक है लेकिन लोन या दीगर साधन जुटा कर हवा में उड़ना ख़तरनाक खेल है..लेकिन सब चल रहा है.आई.टी और अन्य पढा़इयों और जाँब्स के लालच मे ज़िन्दगी दाँव पर लगाई जा रही है...कोई चित्रकार नहीं बनना चाहता,शिल्पकार नहीं बनना चाहता,गायक नहीं बनना चाहता ...एक भेड़ चाल है जिसमें सब धँस रहे हैं.लेकिन उम्मीद है मुझे कि समय चक्र बलवान है हमें उसी जाफ़री वाले बरामदे में बैठ कर भजिये खाने चाय पीने और दरवाज़े पर अल्पना सजाने की ओर लौटना ही पडे़गा...जेब और बैंक अकाउंट की ठीक है...रिश्तों कि सुध क्या लेंगे ये विदेशी दौरे और अति-महत्वाकांक्षाएँ ?
आम से क्या नाराज़गी!!
वहुत सुंदर! बधाई।
मार्मिक कथा.
कविता की मार्मिकता वाली कहानी, इस बार भी आम नहीं आए। अब आएं भी तो क्या फर्क पड़ता है!
समीर जी,कहानी बहुत ही मार्मिक है।बहुत पसंद आई।बधाई।
बहुत मार्मिक कथा ! उसकी जिंदगी से रूबरू होना उसकी पीडा को जानना - और वह भी अनुभव की सत्यता से मांजी हुई लेखनी के द्वारा !
बहुत अच्छा समीर भाई। कनाडा में आपको एक आम हिंदुस्तानी की मजबूरियां याद हैं, खुद में यह काफी बड़ी बात है। गंगा-यमुना फिल्म की जैसी इस तरह की अनगिनत कहानियां अपने यहां पहले से मौजूद रही हैं लेकिन इन दिनों जहाज का अगला हिस्सा कुछ ज्यादा ही तेज चलने लगा है- पिछले हिस्से की करुणा को अधिक दारुण, अधिक अबोली और अधिक विकृत, विद्रूपयुक्त बनाता हुआ। दुर्भाग्यवश, इस तकलीफ को पकड़ती हुई एक भी फिल्म, एक भी बड़ी कहानी दुनिया के इस हिस्से में अब देखने-सुनने को नहीं मिलती...
आम पर खास बात
वो इसलिए कि आजकल आम का मौसम चल रहा है, तो समीर जी सम-समयिक रचना पेश करने में विश्वास करते हैं!! :)
एक हास्य-व्यंग्य वाले मन की संवेदनशील छवि की झलक दिखाने के लिए आभार!
बहुत अच्छा लिखा !
अरे भाई, तबीयत तो ठीक है न?
ये हंसाते-हंसाते रूलाने लगे हो अब आप...
बेहद मार्मिक...
आम अब आम लोगों के लिए नहीं सिर्फ खास लोगो के लिए है. इतने महँगे हो गये है कि दुकानदार सिर्फ हाथ में उठा कर सूंघने के भी पैसे मांगते है. तभी तो जो खास आदमी है वह आम आदमी को आम समझ कर चूस रहा . फिर उनमे गुठलियाँ भी नहीं होती न.
चौराहे के बुत का दिन बस होता केवल एक, बरस में
झाड़ पौंछ कर, तिलक लगाकर, पुष्प माल पहनाई जाती
बाकी के दिन एक सहारे का पत्थर है, जैसे देखो
इसीलिये यह गाथा घर घर में फिर फिर दोहराई जाती
अच्छे दिन नहीं रहे तो बुरे दिन भी नहीं रहेंगे।
रही आम की बात तो प्रकृति कभी भेदभाव नहीं करती! यह तो निराशा है कि आम नहीं दिखे।
जरा दूसरों के दुखों पर नजर डालिये आपको आम तो नजर आयेंगे ही; दुनिया की हर चीज सुंदर सी लगने लगेगी।
SAMEERJ JI BAHUT HI BHAVNATMAK GHATNA HAE...
ROSHNI KE LIYE DEEPAK KAA NAAM AATA HAE
MAGAR JULTI TO BAATI HI HAE
ये हुई ना बात ! दिल को छूती निकल गई ये रचना ।
रचना बहुत अच्छी लगी.
+ पोइंट :
1. सुन्दर चित्रण
2. मार्मिक
3. सुन्दर फ्लो और स्क्रीप्ट
- पोइंट :
1. अंत वही पुराने जमाने से चला आ रहा
:)
हो गया एनालिसीस..
वैसे आप सब करने लगोगे तो हम क्या करेंगे. कविताएँ आपकी फ्लैगशिप कम्पनी है. यह सब तो साइड बिज़नेस है. ठीक है ना! :)
मर्मस्पर्शी
bahut hi dil ko chu lene waali rachna hai ..waise aap sirf hansaate hue acche lagata hain sameer ji :) par tareef karni padegi aapki lekhani ki ...bahut sundar likha hai ...
दिल को छू देने वाली इस कहानी के लिये आपको बहुत-बहुत बधाई...
मान्यवर, आप इतने संजीदा कैसे हो गये अचानक से।
आप जैसे हास्य कवि, व्यंगकार को ऐसा संजीदा लिखना शोभा नहीं देता।
भाई लौट आईये अपनी पुरानी अवस्था में :)
कहानी दिल को छू गयी।
बहुत ही मार्मिक
हिन्दी में इतना अच्छा अब पढने को यदा कदा ही मिलता है. इस कहानी के लिये धन्यवाद!
मित्रों
रचना पसंद करने, हमेशा की तरह हौसला बढ़ाते रहने और शुभकामनाओं के लिये बहुत बहुत आभार.
ऐसे ही स्नेह बनाये रखें.
सादर
समीर लाल
दिल के कोने को छूती हुयी निकल गयी !
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