वाह, क्या मौसम हुआ है.
इश्क के टमटम में मास्टर, मास्टरानी जैसे लोग तक घोड़े टपटपाते चले जा रहे हैं.कोई इश्क के कार्टून बना रहा है तो एक मास्साब तो इश्क के पार्ट टू में खड़े सब्र का फल सेब बता रहे हैं. अगर पता होता कि आदम हव्वा की पुराणिक कथा को एक पुराणिक मास्टर से ऐसा आघात होगा तो इसे पुराणिक कथा की जगह पहले ही ऐतिहासिक कथा का दर्जा दे देते. मगर तब क्या पता था?
ज्ञानी इसी सेब पर टिप्प्णी रुपी ज्ञान बाँट रहे हैं कि अभी उम्र ही क्या है? ४० की उम्र कोई ज्यादा नहीं होती तो कोई फुरसत में कह रहा है कि ज्ञानी जी की सलाह् पर अमल करके लौटती पोस्ट् से पुष्टि की सूचना दें. फुरसत में हैं मगर अब नई मेहनत कौन करे? इस विचार से प्रेम के विषय में अपनी पुरातनकालिन टिप्स पकडा गये. कहते हैं कि प्रेम गली अति सांकरी मतलब हमारे लिये तो बेकार. संकरी गली में हमारा क्या काम, कहीं अटक ही न जायें. इनको क्या? बात करना है बस. गली में घुसना के पहले अपनी साईज तो हमें देखना है.
वैसे तो हम इश्क-मुश्क पर कुछ लिखते नहीं. मगर युवा मन है, आसपास के माहौल से डगमग हो ही जाता है. पुरानी बाते भी ख्याल आ जाती हैं. किसी जमाने में हम भी इश्क के पीर हुआ करते थे. एक एक बार में सात सात, आठ आठ इश्क गाथायें चला करती थी. लोग कहते हैं कि इश्क छिपाये नहीं छिपता. झूठ बोलते हैं. हमारे तो बताने पर भी छिपा रह गया. जिनसे इश्क किया करते थे, उन्हें तक नहीं मालूम. रत्ती भर खबर नहीं. सारे दोस्तों को खबर मगर जिनसे इश्क कर रहे हैं. जिनके नाम उदास बैठे हैं, जिन पर कविता रच रहे हैं. उसे कोई खबर नहीं.सात हों कि आठ मगर एक को भी नहीं. सब घट एक समान. सब पर एक समान नजर. सबसे एक सा इश्क यानि भरपूर. किसी को कोई खबर नहीं.
ऐसे सम दृष्टा इंसान आजकल मिलते कहाँ हैं? कई बार तो लगता है कि एकाध म्यूजियम बना दें और उसमें सज कर बैठ जायें ताकि आप लोग ऐसे इंसान के दर्शन से वंचित ही न चले जायें. सुभीता के लिये वैसे फोटू साईड पैनल में लगा दिया है मगर फोटो और साक्षात के अंतर को न दूर कर पाने के लिये फिलहाल खेद के सिवाय और क्या व्यक्त करुँ? आपकी ललक शांत करने के लिये अपनी दर्शन न दे पाने की मजबूरी देख आँख छलक सी आई है.
मगर, एक जैसे दिन तो धूरे के भी नहीं रहते. सुख दुख आनी जानी. हमने भी भीषण प्रेक्टीस की. क्म्यूनिकेशन स्किल में लालाजी इन्सट्यूट से डिप्लोमा किया. ढ़ेर सारे प्रेम साहित्य पढ़े. ढ़ेरों कवियों की विविध प्रेम कवितायें पढ़ी व सुनी.
इस विषय में महारत हासिल करने के लिये हमने कितनी मेहनत की, इस बात का अंदाजा आप इस बात से आसानी से लगा सकते हैं कि अगर उसका आधा समय भी हम योग अभ्यास को देते तो आज आप आस्था चैनल से लेकर लंदन तक बाबा समीर देव को देख रहे होते. हमारे कहने पर नाक से मंडी के सांड की तरह फुफकारते हुये सांस छोड़ रहे होते और कहते की प्रणायाम कर रहे हैं. अगर फिर भी अंदाज नहीं हो पा रहा है तो ऐसा समझ लें कि अगर इसका चौथाई समय भी आत्मा परमात्मा से बात चीत सीखने में लगा देते तो आज आप हमें महामहिम कह रहे होते. फिर भी नहीं समझे तो एकदम सरल भाषा में ऐसे समझो कि इसका एक बटा दस भाग भी दलितों को मूर्ख बनाने में लगाते तो अभी भारत के सबसे बड़े राज्य के मुख्य मंत्री होते हालांकि रंग रुप और साईज में अभी भी टक्कर दे सकते हैं.
अब जब इतनी आस्था और श्रृद्धा के साथ पूर्णलगनित अथक मेहनत की थी तो परिणाम मिला. वो भी ऐसा कि हम मल्टी टास्कर से सिंगल पति की स्टेटस में आ गये और आज वो हमारी पत्नी के रुप में सुचारु रुप से हमें संचालित कर रही हैं. कोई गम नहीं कि बाबा समीर देव नहीं बन पाये. इसका भी गम नहीं कि आप हमें महामहिम नहीं कह पाये. मगर यह एक बटा दस समय तो कभी भी निकाल लेंगे. शायद कभी आप मुख्य मंत्री के रुप में हमारा स्वागत कर भाव विभोरित हो पायें. प्रयास करने से प्रयास की परिकल्पना ज्यादा सुखद लग रही है अभी तो.
इसी इश्क पर लिखने के चक्कर में निम्न रचनायें तैयार हो गई हैं. पहला वाला एक नया सा प्रयोग है और दूसरा आपके लिये उसी का दूसरा रुप:
प्रयोग १:
वो भी क्या दिन थे,जब इश्क किया करते थे,
उसी बात पे जीते थे, उसी बात पे मरते थे
दुनिया ने कहा पागल, दीवानों सी हालात थी
उसी चाह पे रोते थे, उसी चाह पे हँसते थे.
देखें न अगर उसको, एक टीस से उठती थी
उसी आह में सोते थे,उसी आह में जगते थे.
हँसने में भी उसके , पायल सी खनकती थी
उसी राग में गाते थे, उसी राग में लिखते थे.
भीनी सी महक उसकी, दर उसका बताती थी
उसी राह पे रुकते थे, उसी राह पे चलते थे.
--समीर लाल 'समीर'
प्रयोग २:
वो भी क्या दिन थे,जब इश्क किया करते थे
चाहत की दुनिया में, हम साथ जिया करते थे।
दुनिया ने कहा पगला, लगता है दीवाना सा
हम जाने किस जुनूं में बस हँस दिया करते थे।
देखे न अगर उसको, एक टीस से उठती थी
रिसते हुये जख्मों को, खुद ही सिया करते थे।
हँसने में भी तो उसके, जो फूल बिखरते थे
तह में किताबों की, हम रख लिया करते थे।
भीनी सी महक उसकी, जो उसका पता देती
वो लिख के लिफाफे पे, भेज़ा किया करते थे।
--समीर लाल 'समीर'
रविवार, जुलाई 22, 2007
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27 टिप्पणियां:
ये पुराणिक मास्साब के लपेटे में ना रहा कीजिये। आप जैसे नौजवानों का कैरेक्टर बिगाड़ने में लगा हुआ है। आप जैसे नयी उम्र के बच्चों को उनके ब्लाग पर नहीं जाना चाहिए। आपकी बीबी से आपकी शिकायत कर दी जायेगी, हां।
बेनाम
ऐसा लगता है कि आपकी इश्किया असफलता का राज् आपमें आत्मविश्वास् की कमी रही। जैसे यहां आपने कविता झेलाने के लिये इश्क का जीना इस्तेमाल किया उसी तरह आपने इजहारे इश्क की पुर्चियां समोसे के लिफ़ाफ़े में भेजी होंगी जो जाहिर है कि समोसे के चटपटेपन से मार खा गयीं होंगी। आप फिर से लगिये- मन लगा के। दुनिया में कोई बेवकूफ़ी असंभव नहीं :)
एकदम सरल भाषा में ऐसे समझो कि इसका एक बटा दस भाग भी दलितों को मूर्ख बनाने में लगाते तो अभी भारत के सबसे बड़े राज्य के मुख्य मंत्री होते हालांकि रंग रुप और साईज में अभी भी टक्कर दे सकते हैं.
धन्यवाद गुरुदेव,ज्ञान देने के लिये,माफ़ कीजीयेगा अब मै यहा टिपियाने मे और मेहनत और वक्त बरबाद नही कर सकता .आप गुड रह गये तो क्या मै चला चीनी (मुखिया मंत्रीयो का) बनने..:)
दोनों प्रयोग बेहतरीन हैं मगर पहला ज्यादा सराहनीय है भाई समीर.
दद्दा ,इस उभ्र मे भी इशक का भूत नही उतरा ; कुछ तो छोडिये नयी पीढी के लिये :)
"...हालांकि रंग रुप और साईज में अभी भी टक्कर दे सकते हैं.
बहिन जी के हवाले से बोल रहा हूँ. पूछ रही थीं कि क्या कामदेव खुद ही मानव रूप में अवतरित हो गये हैं जो हमको टक्कर दे सकते हैं.
सुना है 'कनेडा' जा रही हैं.
बहुत बढिया लिखा है. - साधुवाद!
हम कुछ कहेंगे नहीं एक गाना गायेंगे—बड़े मियां दीवाने..............
ये टमटम तो खूब तेज़ दौड गया :-)
लालाजी अब मुँह खुलवाओगे क्या आप? खी खी खी :)
गली अति सांकरी यामे नाहि समायो
बाहर बैठे खुद रहे औरन को उकसायो
उंचे उंचे स्वरन में प्रेम भजन अति गायो
खुद तो साबुत बची रहे गैरन को मरवायो
गदहा व पदहा दोनो मस्त है मगर गदहा बाजी मार रहा है.
दलितों को मुर्ख बनाने वाली बात बहुत पसन्द आयी. :)
आत्माओं से बाते करने का प्रयास जारी है सफल हुए तो प्रथम नागरीक बन ही जाएंगे.
प्रयोग २ शानदार लगा ! बधाई.
भैय्या युवा मन वाले, हम जैसे किशोरमना को तो इश्क के दांव-पेंच लड़ाने के गुर आप जैसन को देख कर ही मिलते हैं इसलिए आप तो जारी ही रखो, ये पुराणिक मास्साब जैसन को को तो एकाध दिन स्कूल से वापसी में धर के समझा लेंगे!
बाकी प्रयोग पढ़ने से तो दिल खुस हुई गवा!
चलो हम जाते है, छमिया नंबर चार का बुलावा आई गवा है ना!
सांड़ की फुफकार को प्राणायाम से जोड़कर अच्छा काम किया है आपने. साड़ों का कुछ भला हो जाए शायद.
बाकी तो आप बुजुर्ग हैं. प्रेम का जो अनुभव बताएंगे उसके मद्देनजर ही हम आगे चलने की कोशिश करेंगे.
समीर जी, आप के लेख ने बहुत अच्छा ज्ञान दिया है ।धन्यवाद।रचना तो बेहतरीन है ही।
यह कामदेव का बाण है ही बौराने वाला - अब देखें, पुराणिक मास्साब न जाने किस बेनाम को अपना पासवर्ड लुटा बैठे! :)
बाकी, मौका लगते ही कविता ठेलने की बीमारी आपकी अभी की है या किशोरावस्था की! :)
समीर जी, आज का पोस्ट पढ कर तो मजा आ गया. कुछ लोग तो लगता है सुबह उठ कर दातुन वगैरह बाद में करते है और आपका चिट्ठा पहले पढते है और टिप्पणी उससे भी पहले कर डालते हैं आपने अपने उपर हंसते हुए दूसरो पर बड़ा बढिया व्यंग्य किया. उत्तम. अति उत्तम.
देखिए साफ साफ बता रहे हैं बोल्ड में लिखे डिस्क्लेमर की तरह पढें- बात वही जो पुराणिक मास्साब ने कही...
....देखिए यहॉं दिल्ली में हम मास्टरों को तो बालक बरगलाने के पइसे मिलते हैं इसलिए हमारा क्या जाता है पर इनपर अमल ऊमल न ही करें तो अच्छा, करें तो अपने बूते करें और खुद भूगतें।
तुम नए लौंडे लपाटे मामले की सीरियसनेस तो समझते नहीं हो...जाओ मिंया।
Hansne mein bhi to uske jo phool bikharte the,
Tah ke kitaabon mein hum rakh liya karte the...
Bahut 'copy book' style ka ishq tha..Warna bikhre phoolon ko kitaabon mein tah karke nahin rakhte (waise agar ye kitaab ishq karne ka manual thi, to baat alag)...
Abhi ka ishq hota to phoolon ko ikattha karke kisi mandir ke saamne waali dukaan par becnh aate...
Aap ke dono prayog bahut achche lage..Maine sahityakunj par aapkee rachnaayein dekhi, bahut achchha laga...Agle prayog ka intezaar rahega.
आचार्य समीर जी बहुतै बढिया लगा पढ कर आपकी कविता भी तन को छू गई । अब ज्यादा का लिखैं सबै बात तो हमार बढे भाई लोगन नें कह ही दिया है । धन्यवाद
समीर जी, आज का पोस्ट पढ कर तो मजा आ गया. कुछ लोग तो लगता है सुबह उठ कर दातुन वगैरह बाद में करते है और आपका चिट्ठा पहले पढते है और टिप्पणी उससे भी पहले कर डालते हैं आपने अपने उपर हंसते हुए दूसरो पर बड़ा बढिया व्यंग्य किया. उत्तम. अति उत्तम.
समीर जी, आज का पोस्ट पढ़ कर तो मजा आ गया. कुछ लोग तो लगता है सुबह उठ कर दातुन वगैरह बाद में करते है और आपका चिट्ठा पहले पढ़ते है और टिप्पणी उससे भी पहले कर डालते हैं आपने अपने उपर हँसते हुए दूसरों पर बड़ा बढ़िया व्यंग्य किया. उत्तम. अति उत्तम.
इश्क में भी प्रयोग! आप वंदनीय हैं। वैसे प्रयोग जबर्दस्त भी। और वो पीड़ा भी कि जिससे इश्क किया, उसे तक पता नहीं चल पाया।
वैसे तो दोनों ही प्रयोग बहुत उम्दा हैं .....लकिन पहला वाला अधिक पसंद आया...
लालाजी को बधाई
kamaal hai aapke paryog sameer ji
khaastour par yah lines ....
देखे न अगर उसको, एक टीस से उठती थी
रिसते हुये जख्मों को, खुद ही सिया करते थे।
aur yah ..
भीनी सी महक उसकी, जो उसका पता देती
वो लिख के लिफाफे पे, भेज़ा किया करते थे।
ati sundar ...:)
देरी के लिये माफी चाहूँगी...
एक खूबसूरत रचना के लिये और खूबसूरत लेख के लिये बहुत-बहुत बधाई...
हँसने में भी उसके , पायल सी खनकती थी
उसी राग में गाते थे, उसी राग में लिखते थे.
अब भी तो उसी राग में ही जीं रहे हैं... यह राग न होँ तो जीवन कैसा
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