हिंदी ब्लॉगिंग का साधुवाद युग अब बीत गया। समीरजी तो हो गए बेरोजगार :)
मसिजीवी के उपरोक्त आलेख में मैने पढ़ते वक्त कोशिश पूरी की कि स्माईली को ही सत्य मानूँ. प्रयास यह भी किया कि सबसे पहले टिप्पणी करके यह भी बता दूँ कि मुझे बुरा नहीं लगा. उद्देश्य मात्र यह था कि मेरे चाहने वाले एवं जानने वाले, जिसमें मसिजीवी स्वयं भी हैं, कहीं इस कथ्य को शाब्दिक अर्थों मे न ले लें. मैं आदतानुसार परोक्षरुप से आहत भी नहीं हुआ किन्तु हतप्रद जरुर था. पुनः, इसे पढ़ा. कुछ ही देर बाद छपी भाई फुरसतिया जी की ब्लॉगर मीट भी पढ़ी और उसमें उल्लेखित इस तथ्य पर उनकी विचारधारा भी. हमेशा की तरह उनका मेरे उपर अडिग विश्वास और असीम प्रेम देखकर मन भर आया. कम्प्यूटर बंद कर दिया.
पिछले २४ घंटो में कई बार पुनः कम्प्यूटर चालू करने के लिये अनायास ही हाथ बढ़ाया. मन नहीं माना, ध्यान बँटा लिया.टीवी देखा, मित्रों से फोन पर बातचीत की, परिवार के साथ समय दिया. मगर यह दूरी लगातार खलती रही. लगा कि मैं अपनी ही दुनिया से दूर क्यूँ हो रहा हूँ.
थोड़ा संवेदनशील हूँ फिर भी जल्दी बुरा नहीं मानता. आदतानुसार परोक्षरुप से जल्दी आहत भी नहीं, फिर भी हतप्रद तो हो ही सकता हूँ. ऐसी स्थितियों में मैं अक्सर त्वरित प्रतिक्रिया से बचने की कोशिश करता हूँ. अगर मुझे हतप्रद कर देने या झंकझोर देने वाले विमर्श या विवाद का विषय बिन्दु मैं स्वयं न हूँ, तब तो मैं शायद किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया भी न व्यक्त करुँ और कोशिश कर इस तरह के विमर्श या विवाद को शीघ्रातिशीघ्र मानस पटल से मिटा दूँ.
जबसे पढ़ा एक भी टिप्पणी करने का मन नहीं बना पाया. खैर, मन तो बन ही जायेगा. संस्कार तो छूटते नहीं. शायद कुछ समय लगे, मन काबू में आ जाये, फिर करेंगे टिप्पणियाँ खूब जी भर के.
रुका नहीं गया. मानस को मनाया और फिर अपनी दुनिया में आया. फिर मित्र मसीजीवी को पढ़ा. फिर भाई फुरसतिया जी को पढ़ा. सब टिप्पणियां पढ़ीं. मित्रों का प्रेम देखा. सभी की टिप्पणियों ने पुनः एक विश्वास दिया. अच्छा लगा पढ़ सुनकर सब कुछ.
ऐसा नहीं है कि चिट्ठों में होते विवाद मुझे उद्वेलित नहीं करते या फिर मैं उनके विरोध में कुछ कहने में सक्षम नहीं या एकदम ही विवेकशून्य हूँ. मगर मुझे व्यक्तिगत तौर पर विवाद पसंद नहीं वो भी कम से कम ऐसे तो कतई नहीं, जिनकी परिणिती मात्र कटुता हो, वह भले ही विचारों की हो या व्यक्तिगत.
मैं दोनों को ही उचित नहीं मानता. एक ही छत के नीचे पले बढ़े, एक ही आदर्शों का पाठ पढ़ते बड़े हुए दो भाईयों तक के विचार अलग अलग होते हैं. तब यहाँ तो सब अलग अलग घरों, अलग अलग परिस्थितियों, अलग अलग संस्कारों से आये लोग हैं. कैसे हो सकते हैं सबके एक से विचार? आप अपने विचार रखिये, वो अपने. दोनों मे जो जो जिसको अच्छा, वो वो उनको स्वीकारें वरना स्वयं के विचार तो हैं ही. कोई भी तो विचार शून्य नहीं. सभी विवेकवान हैं. फिर अपने विचार मनवाने के लिये विवाद कैसा और किस हद तक? सार्थक विमर्श की भी एक सीमा रेखा होती है. सबको आपस में सामन्जस्य बनाना होगा तभी विकास का एक सशक्त और सुहावनी राह बनेगी.
जैसा कि मैने अपनी पिछली पोस्ट में स्पष्ट किया था कि मेरी अपनी निर्धारित सीमा रेखायें हैं. प्रतीक के तौर पर मैंने अपनी कार की रफ्तार दर्ज की थी. मुझे वही अच्छा लगता है और मैं वही करता हूँ जो मुझे अच्छा लगता है, कम से कम ऐसी जगह जहाँ मुझ पर कोई जोर जबदस्ती नहीं है (नौकरी में ऐसा हमेशा नहीं कर पाते) मगर फिर भी मैं अपनी मनमानी करने में किसी मर्यादा का उल्घंन नहीं करता. मैं हर वक्त इस बात का भी ख्याल रखने का प्रयास करता हूँ कि मेरी इस स्वतंत्र अभिव्यक्ति से कोई आहत न हो. आज और आने वाले कल, दोनों ही वक्त में, न तो मुझे अपने लिखे पर शर्मिंदगी महसूस हो और न ही किसी अन्य पढ़ने वाले को. अगर यही हल्का लेखन कहलाता है तो मैं इसी में खुश हूँ और मुझे इस पर गर्व है. और मुझे स्वयं को तथाकथित विचारोत्तेजक भारी भरकम साहित्यिक लेखन की ओर ले जाने का कोई आकर्षण नहीं है. शायद वक्त, निरंतर पठन कुछ साहित्यिक वजनी शब्दों का भंडार दे जिन्हें में सहज भाव से उपयोग कर पाऊँ मगर उद्देश्य मेरा फिर भी न बदले, बस यही इश्वर से प्रार्थना करता हूँ.
हम हँसते और हँसाते हैं
गम के आँसूं पी जाते हैं
ढ़ेरों जख्मी राह में देखे
मरहम सा रख आते हैं.
नये आये लोगों का अभिनन्दन करना, किसी को अच्छे कार्यों के लिये प्रोत्साहित करना, किसी के अभिवादन के जबाब में अभिवादन करना, किसी के दुख में शामिल होना, किसी के खुशी मे खुश होना, लगातर प्रोत्साहन देना, शाबाशी, धन्यवाद, आभार आदि शिष्टाचारों का कोई युग नहीं होता. यह हर युग में होते हैं और यही साधुवादिता कहलाती है. यह ठीक वैसे ही है जैसे गाली बकना, निर्थक बहस करना, मारना पीटना, लूटपाट करना, आतंक फैलाना आदि शैतानियत के प्रतीक हैं और इनके भी कोई युग नहीं होते.
जिस दिन समाज से शिष्टाचार समाप्त हो जायेगा, उस दिन मुझे इस बेरोजगारी के साथ साथ बेजानी भी मंजूर होगी-खुशी खुशी. बिना आहत हुये, बिना हतप्रद हुये, बिना बुरा लगे और बिना किसी प्रतिक्रिया के.
तब तक के लिये-मैं ऐसा ही हूँ. आप मेरे मित्र हैं और आपकी मित्रता को मैं साधुवाद करता हूँ.
चलिये, आज आपको स्व.रमानाथ अवस्थी जी की मेरी पसंदीदा रचना सुनाता हूं जो कभी फुरसतिया जी ने सुनाई थी:
मैं सदा बरसने वाला मेघ बनूँ
तुम कभी न बुझने वाली प्यास बनो।
संभव है बिना बुलाए तुम तक आऊँ
हो सकता है कुछ कहे बिना फिर जाऊँ
यों तो मैं सबको बहला ही लेता हूँ
लेकिन अपना परिचय कम ही देता हूँ।
मैं बनूँ तुम्हारे मन की सुन्दरता
तुम कभी न थकने वाली साँस बनो।
तुम मुझे उठाओ अगर कहीं गिर जाऊँ
कुछ कहो न जब मैं गीतों से घिर जाऊँ
तुम मुझे जगह दो नयनों में या मन में
पर जैसे भी हो पास रहो जीवन में ।
मैं अमृत बाँटने वाला मेघ बनूँ
तुम मुझे उठाने को आकाश बनो ।
हो जहाँ स्वरों का अंत वहाँ मैं गाऊँ
हो जहाँ प्यार ही प्यार वहाँ बस जाऊँ
मैं खिलूँ वहाँ पर जहाँ मरण मुरझाये
मैं चलूँ वहाँ पर जहाँ जगत रुक जाये।
मैं जग में जीने का सामान बनूँ
तुम जीने वालों का इतिहास बनो।
-स्व.रमानाथ अवस्थी
रविवार, जुलाई 15, 2007
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37 टिप्पणियां:
यह तो जम नही रहा. मन होता है इसी लेख से ही कुछ ले कर अपनी पोस्ट पर बतौर आपकी टिप्पणी चिपका लें.
अब, एक जोश बढ़ाऊ समीर जी को हम क्या जोश दिलायें. पर जल्दी उठें, हमारी पोस्टें आपकी टिप्पणी बगैर बेकार हुई जा रही हैं.
भगवान करे आप कभी बेरोजगार न हों.
किसी एक ऐलान से कोई युग खत्म नहीं हो जाता। वैसे एक सच्चाई बता दूं-आपकी टिप्पणी ने हमेशा लोगों का हौसला बढ़ाया है। मैंने पाया है कि आप नियमित रूप से ब्लॉग पढ़ते हैं और अपनी राय देते हैं। ब्लॉग को इतनी गंभीरता से पढ़ने वाले कम ही है। सब लेखक हैं। पाठक कोई नहीं। नए ब्लॉगर्स की रचनाओं पर टिप्पणी करना तो कई लोग अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। आपने देखा होगा, कई बड़े लिक्खाड़ कभी टिप्पणी ही नहीं करते। आपने ऐसा फर्क नहीं किया। कभी भी। रचना अच्छी है तो आपने अच्छा कहा-चाहे वो बड़ा लेखक हो या छोटा। इसलिए ऊलजलूल ऐलानों से दिल छोटा न करें। मुझे तो आपकी टिप्पणी का बेसब्री से इंतज़ार है। हौसला बढ़ता है।
काय भैया जे का हो गओ । अरे जबलईपुर का नाम तो ने डुबोओ । अब उठो और तन्नक कछु टिप्पणी सी करो, के दे रए हें, तुम नईं माने तो हम रूठ जेहें । समझ गए बड्डे ।
सही है जी, समीरलाल जी..
सफाई!
जरूरत?
वो भी किसको??
हमारी पोस्ट भी विधवा की सूनी माँग की तरह दिख रही है :-)
साधुवादिता का युग तब तक समाप्त नहीं होगा जब तक समाज में संवेदनायें जीवित हैं और अभी मुफ़लिसी को वो दौर नहीं आया कि हमें चिन्ता हो ।
आपने एक सन्तुलित पोस्ट लिखी है अब इसके लिये आपको साधुवाद दें या न दें ? :-)
साभार,
नीरज
समीर जी
फोकट में इमोशनियाना ठीक नहीं है।
साधुवाद का बाजार हमेशा रहेगा।
हम तो आपसे प्रेरणा ले के अपनी टिप्पणीयों को धीरे धीरे बढ़ा रहे थे ..इस सोच के साथ कि एक ना एक दिन अपने मित्र को कहीं ना कहीं तो पछाड़ ही देंगे.. मोटापे,बुढ़ापे और आपे में तो नहीं ही पिछाड़ पाये...और आप सैंटीयागये या फोबियागये... :-)
अभी मंजिल बहुत दूर है मेरे मित्र
चलो किसी नये चिट्ठे पे टिपेरा जाये.
यहां तो बहुत गडबडझाला हुआ जा रहा है! हमारे अतिप्रिय समीर जी को मैं स्पष्ट करना चाहूंगी कि दिल्ली ब्लॉगर मीट में उठे जुमले --'साधुवाद युग का अंत "--केवल एक शाब्दिक प्रतीक भर था जिसका प्रचलन आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणियों में आने वाले साधुवाद शब्द मात्र से हुआ है!
समीर जी ,आपका ब्लॉग लेखन हिंदी ब्लॉग जगत में जो भूमिका रखता है उसे जाहिर करने के लिए एक टिप्पणी मात्र काफी नहीं होगी ! मैं यहां इतना ही कहना चाहती हूं कि उपरोक्त जुमले का पूरे प्रसंग में उद्देश्य यही था कि हिंदी ब्लऑगिंग जब मेच्योर हो रही है तब हम असहमतियों और विवादों को बढता देख रहे हैं ! वहां यह कहा गया था कि अब परस्पर उत्साह बढाने वाले माहौल के स्थान पर विरोधी विचारों को रखने की परंपरा की नींव पड रही है ! यह भी कहा गया कि नए ब्लॉगरों को उत्साह वर्धन की जरूरत हमेशा रहेगी लेकिन एक सीमा के बाद हर चिट्ठाकार अपने विचार रखेगा जो जाहिराना तौर पर आपस में मेल नहीं खाते होंगे और विमर्श को जन्म दॆंगे! ब्लॉग जगत के हालिया बदलावों के मद्देनजर इस बात की और भी ज्यादा पुष्टि होती है ! फुरसतिया जी के यहां सृजन जी की टिप्पणी में भी इस संबंध में बातें रखी गई हैं !
आपकी भावनाओं को ठेस पहुंचाने का इरादा वहां मैजूद किसी भी ब्लॉगर का नहीं था ! मसिजीवी ने अपने लेख में जो बात रखी वह उस मीट में पैदा हुए विमर्श से जुडी थी !यूं तो आपके पदचिन्हों पर चलकर हम सब भी साधुवाद के जुमले को बहुत इस्तेमाल करते हैं , लेकिन नए असहमतियों के दौर में इस साधुवाद करने की प्रवृत्ति के स्थान पर सार्थक विरोधी विचार रखने की प्रवृत्ति के बलवती होने की संभावनाओं पर विचार किया गया था! यहां लक्षय ----"हम सभी ब्लॉगरों की प्रवृत्ति पर था '!----आप के लेखन की सार्थकता या इस जगह पर आपकी उपस्थिति को कट्घरे में डालने का विचार कमसे कम मै जितना उक्त लेख के लेखक को जानती हूं सबसे आखिरी विचार होगा!आप से मौज की आप द्वारा ही दी हुई छूट का अगर यह अर्थ होना था तो वाकई यह एक कमजोर शैली के लेख के कारण ही हुआ होगा !
यहां तो बहुत गडबडझाला हुआ जा रहा है! हमारे अतिप्रिय समीर जी को मैं स्पष्ट करना चाहूंगी कि दिल्ली ब्लॉगर मीट में उठे जुमले --'साधुवाद युग का अंत "--केवल एक शाब्दिक प्रतीक भर था जिसका प्रचलन आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणियों में आने वाले साधुवाद शब्द मात्र से हुआ है!
समीर जी ,आपका ब्लॉग लेखन हिंदी ब्लॉग जगत में जो भूमिका रखता है उसे जाहिर करने के लिए एक टिप्पणी मात्र काफी नहीं होगी ! मैं यहां इतना ही कहना चाहती हूं कि उपरोक्त जुमले का पूरे प्रसंग में उद्देश्य यही था कि हिंदी ब्लऑगिंग जब मेच्योर हो रही है तब हम असहमतियों और विवादों को बढता देख रहे हैं ! वहां यह कहा गया था कि अब परस्पर उत्साह बढाने वाले माहौल के स्थान पर विरोधी विचारों को रखने की परंपरा की नींव पड रही है ! यह भी कहा गया कि नए ब्लॉगरों को उत्साह वर्धन की जरूरत हमेशा रहेगी लेकिन एक सीमा के बाद हर चिट्ठाकार अपने विचार रखेगा जो जाहिराना तौर पर आपस में मेल नहीं खाते होंगे और विमर्श को जन्म दॆंगे! ब्लॉग जगत के हालिया बदलावों के मद्देनजर इस बात की और भी ज्यादा पुष्टि होती है ! फुरसतिया जी के यहां सृजन जी की टिप्पणी में भी इस संबंध में बातें रखी गई हैं !
आपकी भावनाओं को ठेस पहुंचाने का इरादा वहां मैजूद किसी भी ब्लॉगर का नहीं था ! मसिजीवी ने अपने लेख में जो बात रखी वह उस मीट में पैदा हुए विमर्श से जुडी थी !यूं तो आपके पदचिन्हों पर चलकर हम सब भी साधुवाद के जुमले को बहुत इस्तेमाल करते हैं , लेकिन नए असहमतियों के दौर में इस साधुवाद करने की प्रवृत्ति के स्थान पर सार्थक विरोधी विचार रखने की प्रवृत्ति के बलवती होने की संभावनाओं पर विचार किया गया था! यहां लक्षय ----"हम सभी ब्लॉगरों की प्रवृत्ति पर था '!----आप के लेखन की सार्थकता या इस जगह पर आपकी उपस्थिति को कट्घरे में डालने का विचार कमसे कम मै जितना उक्त लेख के लेखक को जानती हूं सबसे आखिरी विचार होगा!आप से मौज की आप द्वारा ही दी हुई छूट का अगर यह अर्थ होना था तो वाकई यह एक कमजोर शैली के लेख के कारण ही हुआ होगा
वही मैं सोंचूं, कि परसों रात से आपकी टिप्पणियां नही दिखाई दे रही हैं...
खैर हमने अपनी बात तो वहीं मसिजीवी के लेख पर लिख दी थी...
साधुवाद...
समीर जी, आप जिस को पढ़ कर हतप्रद हुए ,उसे पढ़ कर मुझे तो ऐसा लगा मानों कोई समीर जी से नही ,मुझ से कह रहा हो। सच बताऊँ मै तो आहत हुआ था। लेकिन सोचता हूँ कि हम जो ्भी कुछ बोलते हैं उसे भावावेश मे व्यक्त कर जाते हैं। मसिजीवी जी ने भी शायद तरंग मे बहते हुए ऐसा लिख दिया होगा। वर्ना आप के प्रति कोई भी ऐसी अविवेक पूर्ण बात नही कह सकता।मुझे लगता है, मसिजीवी जी जल्दी ही अपनी लिखी बात को क्षमा याचना के साथ वापस ले लेगें। क्यूँ कि मुझे लगता है उन की मंशा भी शायद आप को आहत करने की नही रही होगी।
वैसे समीर जी सच कहें तो हमे भी ये बात कुछ समझ नही आयी थी की साधुवाद ख़त्म हुआ क्यूंकि हम जैसे लोगों को आप जैसे लोगों की टिपण्णी से बहुत प्रोत्साहन मिलता है। जो भी इस चिठ्ठा जगत मे आता है उसे इस तरह से प्रोत्साहित करने की बहुत जरूरत होती है। आज आपकी पोस्ट पढ़कर बहुत दुःख हुआ।
और हाँ हमारी और हमारे जैसे और bloggers की पोस्ट आपकी टिपण्णी का इंतज़ार कर रही है ,तो देर किस बात की!!!!
मेरे ब्लाग पर जगदीशजी नें अपनी टिप्पणी में जो कहा है वही कह देता हूं -
"कुछ लोगों की आंख में यदि मोतिया उतर आये तो सारी दुनिया में अंधेरा नहीं होता।
अब उनकी बीमार आंख से उन्हे जैसा दिखेगा वैसा ही सोचते हैं सब चीजों के बारे में अब ये डबराल जी हों या साधूवाद के खत्म होने की घोषणा करने वाले। "
वैसे ब्लाग जगत में स्पष्टवादिता/परिपक्वता/विमर्श की आड में ऐसा तेज़ाब पहली बार तो छितराया जा नहीं रहा - हमें तो मानना चाहिए हम पर नव'भदेस' बरस रहा है.
आपको याद होगा एक बार इसी टिप्पणी पुराण पर आपसे मतभेद हुआ था और हम दोनों ने अपनी -अपनी बात रखी थी।
पर मूल बात है कि हर व्यक्ति की अपनी सोच अपना तरीका, अपने मूल्य होते हैं और हम सब उन्हीं के सहारे अपने आप को अभिव्यक्त करते हैं। अगर अपने तरीके से ना चलें तो फिर चिट्ठाकारी का म़जा तो खत्म ही समझिए। इसलिए समीर जी आप जैसा कर के अच्छा महसूस करते हैं , करते रहें।
देखिए इसी बहाने एक जोक सीरिज शुरु हो गई है। हाल ही में अनूप जी की पोस्ट पर पढ़ा था कि बंदा इतनी प्यारी-प्यारी टिप्पणी करता है कि जो उसकी ५-6 टिप्पणियाँ पढ़ ले उसको डॉयबिटीज हो जाए। :) यानि ये तो अब आपकी पहचान आपकी शख़्सियत का हिस्सा बन गई है। सब लोग आपके उद्गारों की चाहे वो सिर्फ प्रोत्साहन के लिए ही हों प्रतीक्षा करते रहते हैं।
युग बदल सकते हैं पर उससे अपने मूल्य पहचान थोड़ी बदलती है।
समीर भाइ क्या बात है हमने पहला ही गद्य लिखा और आप टिप्पीयायें भी नही...अगर कोई भूल हुई तो क्षमा करें गुरूवर... मगर आपके और राकेश जी के आशीर्वाद के बिना हम गदहा लेखक कैसे बनेंगे...
सुनीता(शानू)
ह्म्म,
"आज और आने वाले कल, दोनों ही वक्त में, न तो मुझे अपने लिखे पर शर्मिंदगी महसूस हो और न ही किसी अन्य पढ़ने वाले को. अगर यही हल्का लेखन कहलाता है तो मैं इसी में खुश हूँ और मुझे इस पर गर्व है."
गुरुवर, कौन कहता है कि यह हल्का लेखन है, मेरी नज़र में वह लेखन एक सच्चा लेखन है जो किसी इंसान को मुस्कुराने , हंसने पर मजबूर कर दे चाहे वह कैसे भी मूड में हो, और आप यह आसानी कर जाते है बस कुछ लिखकर, चाहे वह आपकी टिप्पणी ही क्यों न हो।
यह मैने आपसे ही सीखा है यहां कि कैसे यहां के विवादों में पड़े बिना ही सक्रिय रहा जाए!!आज ही ज्ञानदद्दा के चिट्ठे पे अपन ने साधुवाद कहा भले ही लोग साधुवाद युग को जाता हुआ कह रहे हैं।
चिट्ठे अधूरे से लगते हैं आपकी टिप्पणियों के बिना!
अपने गुरु सेंटियाए हुए अपन को पसंद नही!
सुन लो ध्यान से धमकी दे रेला हूं, टिप्पणियां देनी बंद की तो अपन यहीं फ़ुल्ली खा-पी कर भूख हड़ताल पे बैठ जाएंगा और कनाडा में बैठे बैठे आप पे ब्रम्हहत्या का दोष लग जाएगा।
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बहुत सही भाव उकेरे हैं, बधाई.
बड़े उलझन भरे भाव किन्तु गहरे. :)
भाव अच्छे लगे उलझन सुलझन के...:) बधाई!!
:)))))
समीर जी, उस मीटिंग में मैं भी था और अपनी उपरोक्त प्रतिक्रिया मैंने आपका लेख लिखने से पहले इस्वामी जी के चिट्ठे पर दी थी।
आप जैसे नये लेखकों को बच्चों की तरह प्रोत्साहित करते रहते हैं उसी प्रकार इन शरारती बच्चों की शरारतों को भी इग्नोर करें क्योंकि ये स्वंय नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।
कॉलेज का पहला दिन था...बड़े नए लोगों की रेगिंग न करें, इसकी चौकीदारी कर घर लौटा तो यहॉं तो दुनिया ही बदली हुई जान पड़ती है...चलिए जितना मंथन होगा..कुछ भला ही होगा।
अगर इसे व्यक्तित्व का झमेला माना जाए तो बिना किसी सफाई के कहे देते हैं और बिना किसी दूसरे विचार के मान लेते हैं कि अगर कोई बात समीरजी को ही बुरा लग गई तो ..जरूर बुरी रही होगा...कोई सफाई नहीं शुद्ध क्षमा।
पर अगर गंभीरता से विचार की बात है और समीरजी ने इसे मसिजीवी द्वारा उन्हें कहा गया नहीं माना गया वरन वे इसलिए दु:खी हैं कि साधुवाद येग की समाप्ति दु:खद है तो फिर एक टिप्पणी से भला होगा क्या हमें पूरी पोस्ट लिखनी चाहिए पर कल रविजी ने सिखा दिया कि पोस्ट पर लिखी पोस्ट दो कौड़ी की नहीं होती मत करो..नहीं करेंगे, जो थोड़ा बहुत कहना है यहीं कह देंगे-
ईस्वामी और सृजन बात को व्यंग्य में ही सही सही पकड़ रहे हैं- नए लोगों को हमेशा ही साधुवाद की आवश्यकता होती है...पर जब प्रमोद, रवीश, अनामदास, अविनाश, जैसे लेखक क्षितिज पर उभर आएं तो इन्हें क्या साधु साधु कह कर हम इनका उत्साह वर्धन कर पाएंगे- इनसे तो टकराएं तो भले ही कुछ भला हो...पर ये उभरे सूर्यों की बात है...कुल मिलाकर भी ब्लॉगिंग में माहौल बदल रहा है इसपर चर्चा हुई थी- परिचर्चा केलोगों को मीठे मीठे तरीके से कहा गया कि भई अच्छा अच्छा के लिए चर्चा मत जारी रखो कड़वे कसैले के लिए गुजाइश रखो- समय बदला है।
अब बिना रूसे मान जाओ...हमारी पोस्टें भले ही छोड़ देना...अरे भई हम असाधु हैं...चाहते हैं कि साधुवाद खत्म हो जाए...आप को लगता है कि नहीं भाई ऐसे कैसे खत्म होगा..तो इसका क्या ईलाज हो...एक ही हो सकता है कि हम जैसे कुसाधु कितना ही कोशिश करें असाधुत्व, असहमति, नव-भदेसपन लाने की पर आप न मानो...साधुपन ही फैलाए जाओं..सही तरीका तो यह ही है।
अब हाथ पर हाथ धर बैठ जाओगे तो ई मसिजीवी कल का असाधुवाद लाता आज ही ले आएगा। इसलिए बकने दो। यूं भी बिना वर्तमान युग से लड़े कोई आगामी युग नही आता- इस मसले में वाक ओवर नहीं चलता।
पर एक बात से तो सहमत होंगे ही कि स्माईली युग तो बीत ही गया वरना आप तो बिना स्माईली के ही खुद स्माइली लगाकर बुरा मानने के कष्ट से बचने का बहाना ढूंढते रहे हैं, यहॉं इतना साफ नोटिस करने पर भी बुरा मान गए :)
मैं अमृत बाँटने वाला मेघ बनूँ
तुम मुझे उठाने को आकाश बनो
हो जहाँ स्वरों का अंत वहाँ मैं गाऊँ
हो जहाँ प्यार ही प्यार वहाँ बस जाऊँ
वाह समीर भाई. ब्लॉगर मीट की चर्चा से बेहतर ऎसी ही रचनाएँ पोस्तियाते रहे. पढ़ कर तबीयत को आराम आ गया.
आइये शक़ करें कि कही ना कहीं कुछ गड्बड है.
लगता है बात का बतंगड सा कुछ कुछ.
बात तो बडी साफ्गोई से कही गयी थी ब्लौगर मीट में .एसा तो कुछ भी नही था कि बात दूर तक निकल जाये और खाम खां समीर भाई तक एमोशनलात्मक होने लगें.
में समझता हूं कि असली साधुवाद का युग तो अब शुरु हुआ है.
सिर्फ कडवा कडवा बोलने से तो पाठक वर्ग नही ना बढेगा हिन्दी का. हमें तो ब्लौगरों को पुचकारना भी पडेगा, (पप्पी भी लेनी पडेगी) ,साधुवाद तो अलग बात है.
जो इस नामुराद टिप्पणी को पढ कर झेल गये ,उन्हे साधुवाद.
if one gets dissauded by what others comment then one is not firm and you have an remarkable capacity to read and also comment do kee
अरे ऐसा भी क्या 'सेंटियाना'। हमें हंसी आ रही है मालिक आपको सफ़ाई देते देखते हुये। हमने अपनी बात अपनी पोस्ट में कह दी।हिंदी ब्लागिंग का न अभी साधुयुग समाप्त हुआ है, न समीरलाल अप्रसांगिक हुये है। बल्कि अब उनकी प्रासंगिकता और बढ़ गयी है कि इस तरह के आदतन खुराफ़ात मना साथियों को अपनी उड़नतश्तरी में थोड़ा-मोड़ा घुमाकर मन बहलाव करा दिया करें। ताजी हवा से मन हल्का हो जायेगा।
समीर भाई,
वर्तमान परिस्थिती पर आपका यह लेख भी साधुवाद ही है…।
वैसे मैं भी इन विवादों में रहना नहीं चाहता या तो हो सकता है कि मेरे पास इतना वक्त नही है या मैं सहेजता हूँ अपने संस्कार…जब पहली बार ब्लाग पर आया जो मन स्वाभाविक रुप में ज्यादा उत्सुक और लेख को प्रचारित करने के लिए उन्मुख होता है तो कुछ ऐसी बाते हो जाती हैं जो शायद नहीं होनी चाहिए…मगर उस वक्त जो मुझे अनुभव हुआ वह बहुत ही निंदात्मक है… चूँकि मेरा संबंध कई मामलों में औरों से भी है, वहाँ मैंने सीखा था कि अभी हिंदी को भी सिखना है और इसके बोलने बालों को सबसे पहले जो चीज आनी चाहिए वह "शीलता" है, जो अंग्रेजी में वैसे ही दिखता है…कहते हैं न आदरसूचक!!!
जीवन स्तरीकृत है और जैसे-2 विकास की आंधी आयेगी ये और भी प्रज्जवलित होकर फैलेगा…लेकिन ये आप जैसे लोगों के लिए भी उतना ही सार्थक है जो साधुवाद के अंत(जैसा माना जा रहा है)को मानने वालों के लिए… मुझे अबतक ब्लाग पर सबसे बड़ी चीज जो दिखी है वह है "आलोचना सहन करने की कमी" अगर सर्वप्रथम यही आ जाए तो अभी हिंदी ब्लाग इतना नहीं वृहत हुआ है कि इसका विभाजन इस तरह के शब्दों के माध्यम के द्वारा किया जाए…
स्वतंत्रता किस अर्थ में यह मुझे अपने पुरे जीते जीवन में समझ नहीं आया शायद ब्लागर मित्र इसका उत्तर सिखा दें :)
हमें यह सोंचना चाहिए कि क्या हम तैयार है इतनी बड़ी सीमा को लांघने के लिए जो हमें पास बुला रहा है…मेरे लिहाज से तो अभी बहुत तैयारी करनी है… लक्ष्य साधना आसान है पर उसपर अमल करना बहुत मुश्किल…।
यूं तो दुनियाँ के समंदर में
मोतियों की कमी होती नहीं
मगर जिस आब का मोती है ये
उस आब का मोती नहीं
कभी बरसात में शादाब बेलें सूख जाती हैं,
हरे पेड़ों के गिरने का मौसम नही होता॥
आप इतना संवेदनशील और गंभीर भी लिखते हैं मालूम न था। आज से सालों बाद जब पुरानी सामग्री पढ़ी जाएगी तो उसमें आप जैसे लेखकों की ही रचनाएँ होगीं, कथित प्रगतिशीलों की नहीं।
ढेरों साधुवाद! कौन कहता है साधुवाद का कोई युग होता है?
हाय राम, असलीवाली चिट्ठाचर्चा तो यहां हो रही है. तभी मैं कहूं कोई शेम-शेम करने वहां क्यों नहीं आया.
समीर भाई, आपकी बात से सौ फीसद सहमत हूं।
जिन शिष्टाचारों का आप उल्लेख कर रहे हैं, दरअसल उनका सही-सही निर्वाह हो जाए तो ही हमारी सामाजिकता सार्थक होती है। शैलेन्द्र जी की ये पंक्तियां-किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार....जीना इसी का नाम है.....भी तो यही संदेश देती हैं।
मैं इस क्षेत्र में हाल ही में आया। एकाध जली-कटी को छोड़कर सभी प्रतिक्रियाएं उत्साहवर्धन करने वाली थीं। इस क्षेत्र के प्रति मन में आश्वस्ति का भाव आया। मित्रों सरीखे चेहरे दिखे। कहने का मतलब ये कि ज्यादातर सकारात्मक भाव ही मन में उभरा, वजह ? यही शिष्टाचार ।
यूं तो ब्लागर्स पार्क में ऐसा बहुत कुछ लिखा जा रहा है जो कोई नया व्यक्ति पढ़े तो समझ ही न पाए। तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी पीठ खुजाऊं के अंदाज में भी पोस्टिंग हो रही है:-)
...तो समीरभाई साधुवाद का युग कभी समाप्त नहीं होगा। यूं पूरी दुनिया मे हम हिन्दुस्तानी कम मुस्कुराने , कम सराहना करने और कम प्रतिक्रिया देने वालों के तौर पर बदनाम हैं। फिर भी....
समीर जी, आप ब्लागिग की दुनिया में वाकई एक समीर का झोंका हो. वही हम दिल दे चुके सनम वाले. लेकिन आदमी हो कि कम्प्यूटर. इतनी सारी टिप्पणियाँ, इतना सारा अध्ययन और इतना सारा लेखन . और तो और चार दिन के मेरे जैसे ब्लोगिया के चिट्ठो पर आपकी टिप्पणी पढ कर सुखद आश्चर्य होता है. आपको नमन.
समीर जी, आप ब्लागिग की दुनिया में वाकई एक समीर का झोंका हो. वही हम दिल दे चुके सनम वाले. लेकिन आदमी हो कि कम्प्यूटर. इतनी सारी टिप्पणियाँ, इतना सारा अध्ययन और इतना सारा लेखन . और तो और चार दिन के मेरे जैसे ब्लोगिया के चिट्ठो पर आपकी टिप्पणी पढ कर सुखद आश्चर्य होता है. आपको नमन.
ज्ञानदत्त जी
जमा तो हमें भी नहीं, भाई साहब. कहाँ हम भी मौज मजे के हिसाब को सिरियस बना बैठे. जब गल्ती का अहसास हुआ, रब तक देर हो गई थी. बहुत टिप्पणियों के साथ की पोस्ट मिटाना भी तो ठीक नहीं. अब तो टिप्पणी की शिकायत नहीं होगी...एक स्माईली. :)
आभार आपका कि मेरी टिप्पणी को आप इतनी तव्वजो देते हैं. :)
मैथली जी
आपकी शुभकामनाओं के रहते ऐसा कभी नहीं होगा. बस, स्नेह बनाये रखें.
सत्येन्द्र भाई
बहुत आभार. आपके इतने स्नेह से ही हम हैं वरना तो कौन पूछे. बस, प्यार बनाये रहें. मैं तो हूँ ही अपनी टिप्पणियों के साथ हाजिर. :)
युनुस भाई
अरे, कछ्छू नई आये...बस जबरन ही सेंटिया गये थे, बड्डे. नाम न डुबेगा, चाहे कोई कछु कल ले. चिंता न करो. तुमई रुठ जाहो तो कौन पूछेगा, महाराज!! :)
प्रमोद जी
आपने कह दिया सही है, तो सही ही होगा. मगर फिर भी ऐसे लेखन के लिये आपसे क्षमा मांगता हूँ. मुझे इस तरह नहीं लिखना चाहिये था. जब आप जैसे लोग हमारे साथ है तो फिर डर काहे का!! आभार हौसला देने का.
पंकज
कम से कम तुमको तो कभी सफाई न दूँ. फिर भी गल्ती तो हो ही गई.
नीरज
अब साधुवाद दे ही दो. रख लेते हैं बस यही स्नेह बनाये रहो. आभार.
आलोक जी
गल्ती हो गई भाई. जबरदस्ती नौटंकी खडी करना मकसद नहीं था मगर हो ही गई. अब पोस्ट वापस लें, तो आपकी टिप्पणी भी जाये. उससे बेहतर हम गाली खा लेंगे. :)
मित्र काकेश
मेरी शुभकामना और साथ हमेशा है हर क्षेत्र में पछाडो मित्र. मुझसे ज्यादा कोई खुश नही होगा. जारी रहो..हौसला देने के लिये आभार हमेशा की तरह. आओ, चोंच सोने में मढ़ दूं. :)
नीलिमा जी
हम कुछ नहीं कहेंगे. बस, यह पोस्ट हमारी गल्ती है और हम माफी मांगते हैं. इस पोस्ट की वजह से अगर हमारे और आपके और परिवार के संबंध में जरा भी दरार आई तो हम लिखना छोड़ देंगे, यह वादा है. अरे, हम साधुवाद के विषय में सिर्फ अपनी सोच रख रहे थे और भूमिका बांधने में मेरे अजीज महिजीवी की पोस्ट का सहारा ले लिया, बस यही गल्ती हो गई. अब इस विषय को छोडो. हम गल्ती कर ही चुके हैं और माफी भी मांग चुके हैं. सब भूल जाओ और हमारी अगली पोस्ट पर तारीफी पूल बांधों...यानि कि आपने जाने दिया. तही माना जायेगा. :)
नितिन जी
बहुत आभार. हमने पढ़ ली है. :)
परमजीत जी
आप सही कह रहे हैम कि मसीजिवि की ऐसी कोई मंशा नहीं थी, यह मेरी बेवकूफी थी जो ऐसा लेख लिख बैठा. आपका बहुत आभार सही दिशा दिखाने को. मैं क्षमापार्थी हूं इस लेख के लिये.
ममता जी
शुरु कर दिया है टिप्पणी करना अपनी गल्ती का आभास होते ही. बहुत आभार हम पर विश्वास रखने का. लिखते रहें, हम हैं.
ईस्वामी जी
आपकी बात सत्य है. वैसे भी बदलाव तो जमाने का नियम है. आभार आपने हौसला दिया.
मनीष भाई
मैं उसे मतभेद मानता ही नहीं. आप भी मत मानें. वो मेरी मूर्खता थी जो आप जैसे प्रिय मित्र को विवादित किया. मैं पहले भी माफी मांग चुका हूं और अब फिर मांगता हूं उस घटना के लिये. कृप्या आगे से उसे मतभेद न कह कर मेरी गल्ती पुकारा करें अगर आवश्यक हो तो.
बाकि आपकी सारी बात से सहमत हूं..और हौसला मिल रहा है. बहुत आभार.
सुनीता जी
हा हा, चलो टिपिया आये...लिखा भी बेबाक और सुन्दर है.बीच बीच में गद्य भी आजमाती रहो फिर कोई नहीं रोक सकता गदहा लेखक बनने से. हम हैं न प्रमाणित करने को :: हा हा..आभार, हमें जगाने के लिये.
संजीत
यही प्यार तो है तुम्हारा कि हम लुटे लुटे जाते हैं. बस, यूं ही हौसला बढ़ाये रहो, तुम्हारे गुरुवर कमाल दिखाते रहेंगे. और तुम तो दिन पर दिन निखर कर हमारा नाम तौशन किये ही हो. बस, यूं ही प्यार लुटाते रहो.
बेजी जी
आपने जान लिया, काफी हुआ. देखो, हिम्मत देने तुरंत चली आई जबकि आजकल कम ही आती हो. बहुत आभार तुम्हारे स्नेह का आभारी हूं. बनाये रखो.
जगदीश भाई
आपका स्नेह भाव विभोर कर देता है. बहुत आहारी हूं आप मेरा हौसला बढ़ाते है. स्नेह जारी रखिये.
भाई मेरे मसीजिवि
जो निलिमा को कहा फिर दोहराता हूं:
हम कुछ नहीं कहेंगे. बस, यह पोस्ट हमारी गल्ती है और हम माफी मांगते हैं. इस पोस्ट की वजह से अगर हमारे और आपके और परिवार के संबंध में जरा भी दरार आई तो हम लिखना छोड़ देंगे, यह वादा है. अरे, हम साधुवाद के विषय में सिर्फ अपनी सोच रख रहे थे और भूमिका बांधने में मेरे अजीज महिजीवी की पोस्ट का सहारा ले लिया, बस यही गल्ती हो गई. अब इस विषय को छोडो. हम गल्ती कर ही चुके हैं और माफी भी मांग चुके हैं. सब भूल जाओ और हमारी अगली पोस्ट पर तारीफी पूल बांधों...यानि कि आपने जाने दिया. तही माना जायेगा. :)
--चलो, जरा टिपियाओ तुरंत...वरना आप रुसे माने जायेंगे. :)
इष्ट देव जी
आपके आदेश को टालने की हमारी हिम्मत नहीं. जरुर करते रहेंगे. साथ देते रहने का आभार. स्नेह बनाये रहें.
अरविन्द जी
सव में खाम खां पोस्ट हो गई. आपसे भी माफी मांगे लेता हूं. आगे से जबरदस्ती न एमोशनलात्मक न होऊं, यह कोशिश रहेगी, वादा रहा. बहुत आभार आपने कंधे पर हाथ धरा.
रचना जी
बहुत आभार आपकी बातों का और साथ देने का. वैसे गल्ती मेरी ही है.
अनूप भाई
आप सही कह रहे हैं कि अरे ऐसा भी क्या 'सेंटियाना'। अब हमें खुद हंसी आ रही है. मैं आपसे भी खास माफी चाहता हूं कि आपको नाहक बेबात परेशान किया. अब सब चकाचक. मसीजिवि भी हमें माफ कर चुके हैं चैट पर, निलिमा जी तो कर ही देंगी. एक विश्वास है हमें.. :)
दिव्याभ भाई
यकीं जानिये मैं इसे पोस्ट कर गल्ती कर बैठा. आपको पढ़्कर हमेशा की तरह अच्छा लगा. हिम्मत बढ़ी , हौसला मिल, ज्ञान अर्जित किया..बस यूँ ही स्नेह वर्षा जारी रखिये. :) बहुत अच्छा लगता है.
मेरे भाई श्रीश
तुम तो मुझ पर बिना आंख खोले विश्वास किये जाते हो.इस बर गल्ती मेरी ही है भाई. मसीजिवि सामान्य वार्तालाप कर रहे थे और हम जबरदस्ती कूद पडे. तुम्हारा भाई भी तो गल्ती कर सकता है...उसे माफ करना और ऐसा ही स्नेह बनाये रखना है...तुम्हे दिल्ली की अगली मीट में देख अच्छा लगा..हम आअयेंगे तो उस मीट में तो याद दिला दिला कर बुला लेंगे..अब आदत जो मालूम पड़ गई है. हा हा, बहुत भूलते हो...गीक हो क्या?
भाई संजय
ऐसा को उद्देश्य न था. बस , यूँ ही हल्ला मवा बैठे जिसके लिए शर्मिंदा हूँ. बहुत आभार कि हौसला दिया.
अजित भई
बहुत आभारी हूँ आपका कि आप आये मेरा औसला बढ़ाने .....लिखा शर्मिंदगी का अहसास देता है और आपकी टिप्पणी हौसला..बस पशुपेश मे हूं...प्यार बनाये रहें,, हम पेश करते रहेंगे.
बसंत भाई
आनन्द आ गया आपके उदगार देख कर. ऐसा स्नेह बनाये रखना भाई...इन्तजार रहेगा.
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