आज सुबह सुबह टहलने निकला. मन पता नहीं क्यूँ अनमना सा था. जबकि मौसम बड़ा खुशनुमा था. मगर इधर अक्सर मैं देख रहा हूँ कि जब मौसम खुशनुमा होता है तो मेरा मूड खिन्न. शायद अच्छे मौसम, पूरी बिजली और पूरी पानी स्पलाई, शुद्ध दूध आदि की आदत ही नहीं रही. शुद्ध दूध से पेचिश पड़ने लगती है और सात्विक एवं शुद्ध भोज से कब्जियत. वैसे ऐसा कहा गया है कि प्रातः भ्रमण अति आनन्दकारी होता है और अति सुख प्रदानकर्ता.
मगर मेरा मानना है कि अति सुख और आनन्द की परिभाषा समयविशेष और व्यक्तिविशेष पर आधारित है, कब्जियत के शिकार को एनिमा लगवाने के बाद जो निस्तार में सुख मिलता है और दाद के मरीज को दाद खुजलाने में, दोनों किसी भी अन्य सुख से अतुलनीय है, मगर बिना अनुभव के इस आनन्द की कल्पना करना भी संभव नही है. कुछ इसी तरह का सुख और आनन्द मैने कुछ राजनैतिक पार्टियों को सरकार गिरा कर और कुछ लोगों को पड़ोसियों पर आयी विपदा में प्राप्त करते हुये देखा है हालांकि वो भी जानते हैं, न तो सरकार गिराने से वो सरकार में आ जायेंगे और न ही पड़ोसी पर आयी विपदा से इन्हें कोई फायदा होगा, मगर फिर भी. अब यह बात तो हम भावावेश में बता गये, मगर यही एक सिद्ध सत्य है
हम तो निकले थे टहलने सो टहलने लगे. कुछ और लोग भी सुबह की टहल कदमी में व्यस्त थे, कुछ स्वास्थय के कारणों से, ज्यादा फैशन के कारण से और उससे भी ज्यादा, अधिकारियों से संबंध बनाने के चक्कर में. मगर हमारा तो पूरा कारण मात्र एक था पत्नी का दबाव, डॉक्टर की सलाह पर, वजन कम करने के लिये. सो टहल रहे थे. हालांकि टहल खतम होने पर, मै और मेरे मित्र राकेश जी, औपचारिकतावश, नुक्कड़ की दुकान से पोहा जलेबी खाते हुये घर लौटते हैं जिसका ज्ञान हमारी पत्नियों को अब तक नहीं है और वो संपूर्ण टहल का सार बराबर कर देते हैं, और हम जैसे निकले थे वैसे ही सेम टू सेम घर लौटते हैं और पत्नी हमारे वजन को अनुवांशिक दोष मान कर संतोष कर लेती है. हमें इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, जब तक कि पोहा जलेबी का नाश्ता चलता रहे.
वैसे आज की टहल में नियमित की तरह राकेश जी नहीं थे, कारण शायद उनके घर आये पत्नी पक्ष के मेहमान थे अन्यथा तो इस तरह की स्वतंत्रता उनको और हमको कहां नसीब. यमराज भी लेने आ जायें तो पत्नी कहेगी कि पहले टहल कर आओ फिर और कहीं जाना. खैर, कारण जो भी रहा हो वो आज हमारे साथ नहीं थे और हम अकेले ही गुनगुनाये चले जा रहे थे कि:
अपनी धुन में रहता हूँ, मै भी तेरे जैसा हूँ.
तभी एकाएक ठोकर लगी और साथ ही आवाज आई-"कौन है, बे! देख कर नहीं चल सकता, अंधा है क्या?
हम तो आश्चर्य में पढ़ गये. ठोकर हमें लगी, चोट हमें लगी, दर्द हमें हुआ और चिल्ला वो रहे हैं. गल्ती हमारी बता रहे हैं कि "देख कर नहीं चल सकता, अंधा है क्या?"
हमने कहा, "क्या बात करते हो, पत्थर भाई, आप मेरे रास्ते में आये हैं, न कि मै आपके रास्ते में."
पत्थर तुरंत ऐंठ गया, क्या बात करते हैं, हम तो अपनी जगह ही हैं, आप आ गये रास्ते में. क्या भारत में नये आये हो? हम तो ऐसे ही हैं, आपको सड़क पर देख कर सिर्फ़ सड़क पर चलना चाहिये.
हमने कहा-नहीं भाई, हम तो पैदाईश से निरंतर यहीं रहते आये हैं, मगर सड़क पर चलने का यह नियम तो पहली बार सुन रहे हैं
वो जारी रहे- बेटा, सड़कें, हमारे बाजू से नीचे नीचे चलती हैं और हम जहां हैं वहीं है, इसीलिये हम उच्च वर्गीय कहलाते हैं, सब हमसे दामन बचा कर चलते हैं, खास कर सड़क पर चलने वाले आम वर्गीय लोग, जो न आरक्षित हैं और न उच्च वर्गीय, वरना तो वो अपना खमजियाना अपने आप भुगतते हैं और बड़ों के मुँह लगने का परिणाम झेलते हैं.
हमने तुरंत अपनी आम वर्गीय औकात पहचानी और घटना स्थल से क्षमा मांग कर गमित हुये और एक भारतीय आम वर्गीय के पास रास्ता भी क्या हो सकता है. हमने भी वही किया जो हमारे सम वर्गीय करते हैं.
अब हमें टहलते समय ध्यान था कि उच्च वर्गीय पत्थर से बच के चलना है. बस चलते गये, बचते गये. इसी आपाधापी में गड्डे में पांव धर बैठे, फिर असहनिय दर्द और असहनिय गर्राहट: कौन है बे! देख कर नहीं चलता, अंधा है क्या?
हम तो बस भौचक रह गये, किससे बचें, किसको छोड़ें.
हमने कहा, भाई साहब, हम आम वर्गीय, उच्च वर्गीय पत्थर बचा कर सड़क पर चल रहे थे कि सड़क के आभाव में आप पर पैर पड़ गया और आपने अपने को हमारे द्वारा रौंदा महसूस किया, उसके लिये हम अति क्षमापार्थी हैं.
गड्डा कहने लगा हमने यह ढकोसले बाजी खुब देखी है, हमें न सिखाओ. मध्य प्रदेश के रहने वाले हो, जगह जगह हरिजन थाने खुले हैं और हमारे उद्धारक मंत्री जी भी यहीं के हैं, इतना भी नहीं जानते. अरे, तुमने तो हमें रौंद कर वाकई जुर्म किया है, वरना तो हमारा इल्जाम लगाना ही काफी है, सात साल को गैर जमानती अंदर हो जाने को. तुम नये और सज्जन दिखते हो तो तुम्हे बताये देते हैं कि तुम्हारे लिये सड़क हमारे आस पास उपर से जाती है, देख कर चला करो और अभी की गल्ती के लिये कुछ ढीला कर जाओ नहीं तो जिंदगी चक्की पीसते बीतेगी दलितों पर अत्याचार के मामले में. हम पर भी जो सक्षमता थी उस आधार पर ढीला होकर आगे बढ़ गये. अब हम आम वर्गीय भारतीय की तरह गड्डे और पत्थरों के बीच सड़क खोजते टहलते रहे और अंत में हार मान करअपने घर की छत को अपने टहलने का अखाड़ा बना कर सड़क को कम से कम इस हेतु अलविदा कह आये.
फिर समाचार में माननीय मंत्री जी को सुनते हैं. सरकार इन गड्डों को स्थिती से चिंतित है और प्रयासरत है. प्रयास इनको पत्थर बनाने का नहीं है और न ही इन्हें समतल कर सड़क बनाने का है बल्कि जहाँ हैं जैसे हैं, के आधार को सुरक्षित कर बची हुई समतल सड़को पर और अधिक स्थान प्रदान करने का है. अब सड़कों पर और गड्डे होंगे और उनकी स्थिती आरक्षित होगी. मगर समाचार आगे जारी था एक आम नागरीक को चिन्ता की आवश्यक्ता नहीं है, सड़को पर इन गड्डों के लिये अधिक आरक्षण से आई कमी की भरपाई के लिये सड़क का दोनो बाजू थोड़ा थोड़ा चौड़ीकरण किया जायेगा ताकि चलने का जो स्थान आपको आज उपल्ब्ध है, गणना के आधार पर लगभग उतना ही उपलब्ध रहेगा बस उचकना और कुदना ज्यादा पड़ेगा ताकि इन गड्डों को अपने अस्तित्व के होने और अपने विस्तार में किसी भी प्रकार की समस्या का सामना न करने पड़े.
हम तो सब कुछ झेल जाने के आदी हैं, बस चिन्ता और इंतजार उस वक्त का है, जब यह सरकार हमारी खुद की बनाई खुद के घर की छत पर अपनी नीतियां थोपेगी और हमारे घर की छत भी इन पत्थरों और गड्डों से भरी नजर आयेगी और हमें इतना अधिकार भी न होगा कि हम इन्हें हटा सकें. तब हम कहां टहलेंगे. कबीर दास जी को सुनें, न जाने कबका कह गये थे:
चलती चक्की देखकर, दिया कबीरा रोए
दुई पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए.
वाह रे, ये खादीधारी और वाह रे, इनकी सोच. कहां ले जा रहे हैं यह इस देश को.
मेरी पसंद: (ये फुरसतिया जी की स्टाईल टीप दी)
टोपियों में छिपे चेहरे,सब सुख दुख से बेअसर
लगते तो आदमी हैं, कोई कुकुरमुत्ते नहीं हैं
वफादारी पर डालते रहे, ये तिरछी इक नजर
ये नेता लगते देशभक्त हैं, कोई कुत्ते नहीं हैं
खादीधारी ये सभी, आदमी हैं गधे नहीं हैं
ध्यान से तो देखिये, खुंटी में बंधे नहीं हैं
मार कर ज़मीर अपना, जिंदा हैं किस तरह
अंतिम सफ़र को मयस्सर, चार कंधे नहीं हैं
लगती रहीं ठोकरें, फिर भी रहते हैं बेखबर
आंखों पर हैं काले चश्मे, कोई अंधे नहीं हैं.
खादीधारी ये सभी, आदमी हैं गधे नहीं हैं
ध्यान से तो देखिये, खुंटी में बंधे नहीं हैं
मंगलवार, अक्तूबर 31, 2006
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10 टिप्पणियां:
लालाजी,
इन खादीधारीयों और खाकीधारीयों के उपर ना जाने कितने व्यंग्य और लेख लिखे जा चुके हैं और लिखे जा रहें हैं।
कईओं ने तो नेताओं और खाकी योद्धाओं के विषय में पी.एच.डी. भी कर रखी है। पर वस्तुतः हम यह भूलने लग जाते हैं कि आखिर हम खुद अपने कर्तव्यों का कितना पालन करते हैं?
राह चलते समय सामने पडे पत्थर को उठाकर किनारे कर देने की जहमत कितने उठाते हैं?
अद्भुत. इस विषय पर इस प्रकार का व्यंग्य! बहुत खुब लिखा हैं. उत्तम रचना. इसे अधिक से अधिक लोगो को पढना (पढ़वाना) चाहिए.
बढिया व्यंग !
दुई पाटन के बीच में
बाकी बचा न कोय
घुन सारे तो अब बच निकले
गेहूँ पिस चटनी होय
गेहूँ पिस चटनी होय
यही है व्यथा हमारी
आम इक भारतवासी की
कुल कथा यह सारी।
वाह कुंडली नरेश आपने तो फ़ुरसतियाजी की दुकान पर ताला लगवाने का पूरा इंतजाम कर दिया।
हरिजन एक्ट के दुरुपयोग पर आपने अच्छा व्यंग्य लिखा मैं भी म.प्र. से हूं यहाँ सब ये आम है।
बढिया व्यन्गय ! आपने जबलपुर के पोहे जलेबी की याद दिला कर मेरे दुध-सिरियल सन्तोषी पेट की ईच्छाऍ जगा दीं.
साथ जलेबी के क्यों भूले उड़द दाल की गर्म कचौड़ी
साथ साथ आलू की स्ब्जी बेसन वाली जो खाते हैं
बीबी के संग संग मित्रों को भी अब इस श्रेणी में रक्खा
आधी बात बता देते हैं, आधी बात छिपा जाते हैं
राम के पांव
पत्थर बनी अहल्या से
बच कर निकल भी जाते
मगर
कुछ पत्थर ऐसे होते हैं
जो खुद आगे बढ़ कर
कदम चूम लेते हैं
बहुत खूब!!!
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