कल कुछ पंक्तियां लिखी थीं, देश लगे शमशान अब थोड़ा आगे बढते हैं, इन्हें देखें. कहीं कुछ जुड़ा जुडा सा लगता है :
अपने दिल में ही तलाशो,
तह में सच को पाओगे.
खुद की नज़रों से भला,
तुम कब तलक बच पाओगे.
तख़्त फांसी से उतर के,
किस तरह जी पाओगे.
डूब कर निज ग्लानि में,
तुम खुद -ब-खुद मर जाओगे.
//१//
इस जहां मे अब नहीं, कोई खुदा रह पायेगा
वहशती चालों को तेरी, अब नहीं सह पायेगा.
बांध ले सामां तू अपना, गर खुदा से वास्ता
शातिराना बात अपनी कब तलक कह पायेगा.
//२//
हो खुदा ,भगवान हो या, एक ही तो बात है
चाहे घर कोई हो तोड़ा, सिर्फ़ उसकी मात है
तोड़ कर के एक घर को, दूसरा बनवाओगे
मानता हूँ मै निहायत, बेतुका जज्बात है.
सादर
समीर लाल 'समीर'
शुक्रवार, अक्तूबर 13, 2006
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10 टिप्पणियां:
तख़्त फांसी से उतर के,
किस तरह जी पाओगे.
डूब कर निज ग्लानि में,
तुम खुद -ब-खुद मर जाओगे....
....एक कडवा सच कहा है आपने समीर जी..
सटीक और यथार्थ मे डूबे शब्द ...
कविता अछछी लगी.
शुभकामनाये.
नहीं लगता अपनी नज़रों में,
वो कभी शर्मिन्दा होगा ॰॰॰
कितना ही चला जाए तह में,
सच उससे दूर ही होगा ॰॰॰
तख़्त फांसी से उतरना फिर,
दहशत का ना सर्वनाश होगा ॰॰॰
रोएगी पलक देख झुलता इंसान, पर
चैन-ओ-अमन का आगाज़ होगा ॰॰॰
मिलना होता है तो मिलता है खुदा भी योंही
नकाब उलटते रहिये,माहजबीं नहीं मिलता
खोजते खोजते उम्र गुजर जाती है
आदमी को अंदर का आदमी नहीं मिलता
vah.....
समीर जी,
ग्लानि नहीं होती अफ़ज़ल जैसे लोगों को
काम पुण्य का है यह उनकी नज़रों में
मर के जायेंगे बहिश्त वे है उनको विश्वास
जहां ७२ हूरों के संग होगा भोग विलास
समीर जी,बहुत बेहतरीन।
तख़्त फांसी से उतर के,
किस तरह जी पाओगे.
डूब कर निज ग्लानि में,
तुम खुद -ब-खुद मर जाओगे.
हो खुदा ,भगवान हो या, एक ही तो बात है
चाहे घर कोई हो तोड़ा, सिर्फ़ उसकी मात है
तोड़ कर के एक घर को, दूसरा बनवाओगे
मानता हूँ मै निहायत, बेतुका जज्बात है.
har baar ki tarah dil se nikal dil ko chhoo gyi
यहाँ क्लिक करके आज ज़रूर डालें एक नज़र
उड़नतश्तरी का भी जवाब नहीं
कभी कभी सोचता हूं
ब्लॉगर के पास कमेंट के रूप में क्
यूं सुर्ख गुलाब नहीं
iss jahan me ab koi khuda nahi rah payega.. sau fisadi satya:)
behtareen to aap ho hi :)
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