अनुभूति ग्रुप मे इस सप्ताह का शीर्षक "तुम ना आये" बडा भारी सा है, इसे ह्ल्का करने के नज़रिये से कुछ पंक्तियां पेश हैं:
तुम ना आये
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इज़हार-ए-मुहब्बत करने को
हमने क्या क्या किये उपाय
प्रेम संदेशे लिखकर भेजे
वो भी तुझको मिल ना पाये.
हरकारे खत ले करके पहूँचे
भाई से तेरे पिटकर आये
फ़ोन उठा कर तेरे बापू
शेर की धुन मे दये गुर्राये.
घर से कालेज के रस्ते मे
निकलो हमसे नज़र बचाये
काली कार के काले शीशे
हरदम रहते चढे चढाये.
जब भी फ़ूल खरीदे हमने
धरे धरे हरदम मुरझाये
तेरे गम मे बनी कविता
संपादक ने दई लौटाय.
छत से कुदे हम तो मरने
बैठे अपनी टाँग तुडाये
सारे लोग देखने पहूँचे
ना आये तो तुम ना आये.
--समीर लाल 'समीर'
गुरुवार, मई 04, 2006
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13 टिप्पणियां:
बहुत अच्छा लगा,
लिखते रहिये।
समीर लाल जी,
एक छोटी सी गलती निकालने की गुस्ताखी कर रहा हुँ; क्यों कि एक मात्रा इधर उधर होने से सारा अर्थ बदल गया है.
"हरकारे खत लेकर पहुँचे
भाई से तेरे पीटकर आये, "
कि बजाय
"भाई से तेरे पिटकर आये" होना चाहिये.
धन्यवाद, मिश्र जी.
सागर भाई,
आभारी हूँ, अभी ठीक कर देता हूँ.
धन्यवाद
समीर लाल
वाह समीर जी ! क्या बात है ....
अर्ज़ किया है :
व्यथा तुम्हारी सुन कर भैया
आँखों मे आँसू भर आये
ऐसे जालिम की बहना से
काहे तुम ये इश्क लड़ाये ?
वाह, अनूप जी,
क्या खूब कहा है, पहले सलाह मिल जाती तो ठीक रहता..:)
समीर लाल
कोई चाहे कुछ भी कहे
हमको आपके कवित्त का अँदाज
बहुत भाये, आनँद आ जाये
धन्यवाद, अतुल भाई.
समीर लाल
:-)
समीर जी की कविता और अनूप जी की टिपण्णी दोनों ही लाजवाब है
और--
शब्दों के मौजूद हो जब ऐसे तीरन्दाज़
कुछ भी कहना यूँ लगे ज्यों बजे बेसुरा साज़
समीर जी, आप तो ब्लौगिंग को एकदम नोंक पर रखते हैं
प्रत्यक्षा जी, रत्ना जी, रजनीश भाई
बहुत धन्यवाद, आपकी सराहना से उत्साह बढ जाता है.
समीर लाल
बहुत बढियां, लिखते रहें
जी, लिखते रहूँगा मगर आप पढते रहें. :)
समीर लाल
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