बचपन मे कभी एक कविता पढी थी, अब प्रथम दो पंक्तियों के सिवा कुछ याद ही नही आ रहा है.
प्रथम दो पंक्तियों कुछ इस प्रकार थीं (बच्चा अपनी माँ से कह रहा है):
माँ मुझको एक लाठी दे दो
मै गांधी बन जाऊँ.........
बस, इतना ही याद आ रहा है. आप मे से किसी को याद हो तो कृप्या लिखें और यदि किसने लिखी थी पता चल जाये तो और भी अच्छा.
वैसे वर्तमान परिपेक्ष मे इस तरह की पंक्तियों का याद रह पाना भी संभव नही है.जब जब दिमाग पर जोर अजमाया, चंद नई पंक्तियाँ कागज पर उतरती गईं.पेश है, गौर फ़रमायें:
मै नेता बन जाऊँ
बाबू मुझको बम दिलवा दो
मै नेता बन जाऊँ
बूथ लुट कर सारे वोट
अपने नाम कराऊँ
संसद मे जब पहचुँ मै
तब बोली अपनी लगाऊँ
साथ निभाने का वादा कर
लाखों रुपये कमाऊँ
बाबू मुझको बम दिलवा दो
मै नेता बन जाऊँ
प्रश्न उठाने को संसद मे
मोटी रकम बनाऊँ
अबला की इज्जत मै लूटूँ
दंगे खूब कराऊँ
गुंडे मुझसे थर थर काँपें
जेलों मे पूजा जाऊँ
बाबू मुझको बम दिलवा दो
मै नेता बन जाऊँ
विपदा और त्रासदी पर मै
मंद मंद मुस्काऊँ
हर्जाने का माल हज़म कर
घडियाली आँसू बहाऊँ
जन सभाओं मे जब पहचुँ
युग पुरुष कहलाऊँ
बाबू मुझको बम दिलवा दो
मै नेता बन जाऊँ
शनिवार, मार्च 04, 2006
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
5 टिप्पणियां:
पुरानी बाल भारती की कविता होती थी (शायद) - "मां खादी की चादर दे दे, मैं गांधी बन जाऊं / सब मित्रों के बीच बैठकर रघुपति राघव गाऊं " (हैं न ?) - अगर रीवा गया और मिल गई तो साल भर में लिखूंगा
क्या बात है समीर जी ,आनन्द आ गया .....
डर सिर्फ़ इतना है कि कहीं आज के नेता इसको अपनी guideline न बना लें :))))))
वाह सर!
मुंबई तो दहल ही गयी बम से ... अच्छा कटाक्ष है
प्रश्न उठाने को संसद मे
मोटी रकम बनाऊँ
अबला की इज्जत मै लूटूँ
दंगे खूब कराऊँ
गुंडे मुझसे थर थर काँपें
जेलों मे पूजा जाऊँ
वाकई गांधी जी सिर पकड़ लेंगे....
एक टिप्पणी भेजें