दफ्तर आते जाते अक्सर ही ट्रेन की उपरी मंजिल में बैठ जाता हूं. घोषित ’शांत क्षेत्र’ है अर्थात आपसी बातचीत, फोन आदि की अनुमति नहीं है. अक्सर मरघट की सी शांति की बात याद आती है इस जगह. मगर जब आप किसी से बात नहीं कर रहे होते तो मन के भीतर ही भीतर कितनी सारी बातचीत कर रहे होते हैं यह देखने वाले जान ही नहीं सकते. ऐसी बातें जो यूँ तो शायद ही कर पायें कभी मगर दोनों पात्र खुद ही के भीतर आपस में प्रश्न उत्तर करते, झगड़ते, विवाद करते, जबाब माँगते, उलझन सुलझाते, हँसते और जाने क्या क्या और एकाएक आप खुद को डपट देते हैं कि ये क्या पागलपन है, खुद ही उलझे हो अपने भीतर ही भीतर बातचीत में खुद को भ्रमित करते उसी स्वनिर्मित भ्रम की दुनिया में जो तुमने खुद ही गढ़ ली है बिना कुछ देखे, बिना कुछ जाने.
खुद की झिड़की सुन सकपकाया सा देखने लगता हूँ खिड़की से बाहर. भागती इमारतें, पेड़, सड़के और ठहरा हुआ मैं. भागती ट्रेन के भीतर बैठे यही अहसास कि सब कुछ भाग रहा है और थिर हूँ मैं और थमा हुआ है वक्त मेरा कि एकाएक नजरों की सामने से भागती इमारतें, पेड़ सब बदल जाते हैं कुछ चेहरों में, कुछ ऐसे स्थानों में जो यादों में कहीं दफन हैं और फिर बातचीत का सिलसिला शुरु- वही प्रश्न उत्तर, वही झगड़े, वही विवाद, वही उलझाव सुलझाव, हँसी ठहाके, क्रुदन, खुशबू का अहसास, साथ गुजारे पल और फिर वही खुद को खुद की झिड़की. चेहरे के बदलते भाव और फिर वही खिड़की के बाहर दिखते बदलते अदृश्य दृश्य.
कोई भीड़ में तन्हा और कोई अकेला ही भीड़..समय वही..वक्त का तकाजा जुदा जुदा..
डंडी से ढोल पीटता बाप
और दो बाँसों के बीच
बँधी रस्सी पर
संभल संभल पर खुद को संभालती
डगमग डगमग करतब दिखाती
परिवार के पेट की खातिर
मैली कुचैली फ्राक में छोटी नटनी गुड़िया..
तालियाँ बजाते तमाशबीन...
याद करता हूँ नजारा
और
उतर पड़ता हूँ मन के भीतर
यादों की डोर पर
संभल संभल कर कदम जमाते
कुछ दूर चलने की नाकाम कोशिश
सुनाई देती है खुद की झिड़क
और लौट आता हूँ फिर अपनी
आज की दुनिया में..
कल फिर इन्हीं राहों से गुजरने के लिए...
-समीर लाल ’समीर’
चित्र साभार मित्र प्रशांत के ब्लॉग से
30 टिप्पणियां:
भीड़ व शोर के जंगल में मन घुटता है। भटकता है। एक संवाद के लिए तरसता है। ख़ामोशी में यह संवाद संम्भव हो पाता है। यही वह समय होता है जब अंदर की दुनिया का दृश्य स्पष्ट दिखता है।
सच तो यह है कि यदि एक दिन में कुछ घंटे ख़ामोशी का साथ न मिले तो मैं मानसिक संतुलन ही खो बैठूँ।
सफर करते-करते, जब भी लिखा है, ग़ज़ब किया है. अंतर्द्वंद और अदृश्य को ख़ूब चित्रित किया है.
जब मन होता है शान्त,
सरोवर की तलहटी में
विश्राम करते
कच्छप की तरह
दिखने लगती हैं
स्मृतियाँ,
बहुत बढ़िया लिखा है आपने ,
वाकई एकांत में खुद से संवाद होता है ।
देर तक इस माहोल में रहना मुश्किल होता है ... कुछ संवेदनाएं कुछ पल को ही ठीक लगती हैं ... पर ईटा महसूस कर पाना भी अस्सं नहीं होता हर इंसान को ...
कभी तो आइये अपने ही ब्लॉग पर ...
(मतलब जल्दी जल्दी पोस्ट लगानी चाहिए ... फेसबुक से बहार ही दुनिया है )
खुद की झिड़की सुन सकपकाया सा देखने लगता हूँ खिड़की से बाहर....barbas hansi aa gai...ki jaise sochte hue bhi pakde gaye hon ..badhiya likha hai ji...
यादें भी अजीब होतीं हैं...कुछ जब चढ़ जातीं हैं तो हफ़्तों नहीं उतरतीं...जब भी खाली हो दिल-दिमाग पर छायी रहतीं हैं और...सफर भले ही कितना मौन हो...अंदर फ़्लैश बैक सा चलता रहता है...सुन्दर रचना...
झक्कास....
ख़ामोशी एक सतह बन जाती है जब उभरने लगते हैं तमाम दृष्य जो डूबे होते हैं स्मृतियों के तल में - और आपकी लेखनी का कमाल चल-चित्र उकेरता चला जाता है.
Gadya Ho Yaa Padya Aapkee Lekhni
Khoob Chalti Hai . Bahut Khoob !
भीड़ में भी रहता हूं, वीराने के सहारे।
जैसे कोई मन्दिर किसी गांव के किनारे।
- रमानाथ अवस्थी।
बात एकदम सही है....अकेले में इंसान ज्यादा बात करता है....ये अलग बात है कई चिंतन करते हैं..कई बात करते-करते चिंता करने लगते हैं
यह भाव मेरे भीतर भी जगे हैं। ट्रेन से आते जाते। भले हमारे सफर में कोई सन्नाटा नहीं। सिर्फ शोर है मगर मन उसी सन्नाटे में भटक जाता है।
आन्तरिक संवाद स्वात्ममन्थन की ओर ले जाता है।
प्रक्रिया सतत चलती रहती है।
आपको बताते हुए हार्दिक प्रसन्नता हो रही है कि हिन्दी चिट्ठाजगत में चिट्ठा फीड्स एग्रीगेटर की शुरुआत आज से हुई है। जिसमें आपके ब्लॉग और चिट्ठे को भी फीड किया गया है। सादर … धन्यवाद।।
खामोश संवाद का सुंदर चित्रण।
Bahut dino baad aayi aur wakai aapki likhi kavita sahi sabit hoti nazar aayeee... phir usi raah per laut ayeee mein :) accha laga aapko padhkar...
daad kabool karein
Fiza
बहुत बढ़िया, आपका ब्लॉग बहुत पसंद आया. बहुत अच्छे अच्छे लेख है आपके ब्लॉग मैं मनपूर्वक धन्यवाद!
bahut badhiya likha hai!
ये सफ़र अक्सर बहुत कुछ याद दिला जाते हैं
ye blog mujhe apke bite jivan ki yad dilata he !!!!ye post mene apne kuch dost ke sath bhi share kiya unhe bhi bhi bohot pasand aya thankss for the posting
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apka blog mujhe apne bite hue kal ki yaad dilata he or ap ke post ko mene apne kuch dosto ke sath bhi share kiya un sabhi ne bohot enjoy kiya thanks for the posting
Bohat khoob..
Bahut khub! bahut bahut badhai...
समीर जी,
बहुत बढ़िया लिखा आपने,keep it up,
धन्यवाद
गज्ज़ब लिखा....वाह..
बहुत बढ़िया लिखा है आपने
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मन को सुकून देने वाली एक ताज़ी हवा के झोंके की तरह हैं आपके ये संवाद कृपया जारी रखिये...
Esa kaha gaya hai ki kabhi kabhi apne liye bhi samay nikal lijie, khud se baate karna bahut achcha lagta hai. Apke ye Random thougts kafi Interesting Lage. Nice Sir. Keep it up.
कठिन परिश्रम
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