कमरे में वापस आ गया हूँ. दिन थकान भरा रहा हमेशा की तरह.
गगनचुंबी इमारत की गगन के पास वाली फ्लोर.
यह है टोरंटो की 'क्वीन्स के' नामक सड़क पर..ओन्टारियो लेक से सटी हुई अभिजात्य रहवासी कॉलोनी.
कल रात यहीं तो इसी कमरे में
मैं और लिंडा बैठे थे वाईन सुड़कते हुए, एक दूसरे से सटे हुए भारत की हालत पर बात कर रहे थे. एक निहायत थकी हुई बात.
यहाँ के हिसाब से बेबात की बात.हाँ, पिछले साल ही तो मैं और लिंडा भारत गये थे. लिंडा पहली बार भारत गई थी कितनी ही किताबें पढ़कर, मुझसे सुन कर और तस्वीरें देखकर ख्वाब सजाये. उन्हें सच होता देखने.
यहाँ से दिल्ली तक का थकाऊ २२ घंटे का हवाई सफर-बैठे बैठे. बीच में पेरिस के ४ घंटे का अल्प विराम कैसे गुजरा टर्मिनल बदलते कि पता ही नहीं चला कि कहीं रुके भी.
एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही गर्म हवा का भभका और
साथ घुली पसीने की खुशबू-(लिंडा उसे बदबू की संज्ञा दे गई-बेवकूफ!!)
फिर रेल में जबलपुर और आगे सिवनी के पास गांव तक की रोडवेज की यात्रा. लगा कि कहाँ आ गये. सब तरफ उड़ती धूल..उधड़ी सड़कों पर चलते..
हवा में गोबर की महक. लिंडा की गोरी चमड़ी देख ग्रमिणों की अचरज भरी आंखें और
अपनी ओर ध्यानाकर्षण करवाने विचित्र भाव भंगिमा बनाते लोग.मैं भी बिना ज्यादा चले थका हुआ साथ चलता रहा
एक खीज, एक घृणा का दायरा अपने आसपास साधते..कैसे लोग हैं बिल्कुल अनपढ़...एकदम लिंडा जैसी सोच हो गई मेरी भी. २१ दिन की यात्रा..तालाब के किनारे मंदिर. बरगद के नीचे सिंदूरी पत्थर याने हनुमान जी-बुझी हुई अगरबत्तियो की जलती खुशबू. कोई सार्थकता नहीं बस एक निष्ठ भाव. भूली हुई पुरानी यादों का साक्षी, जो मुझे न जाने क्या क्या याद दिला जाता है और
लिंडा नाक पर रुमाल रखे पास से आती पैशाब और पैखाने की बदबू से एक हारी लड़ाई लड़ती हुई और मैं उस हवा की महक में अपना बचपन अहसासता.
बस, एक दिन में ही २१ दिन की यात्रा १५ दिन में बदल गई.
मै भी भारत की स्थितियों की बुराई करते हुए उसी के साथ वापस आ गया. उसी शाश्वत झिड़कन के साथ कि यह हालात कभी नहीं सुधरेंगे जबकि भीतर से मैं ही जानता था कि कितना कुछ बदल चुका है.
मगर लिंडा तो अपने जेहन में बसे किताब वाला भारत, दूध दही की नदियों वाला भारत, सोने की चिड़िया वाला भारत, दुनिया के माथे की बिंदिया वाला भारत, जान से प्यारा मेहमान को मानने वाला भारत और न जाने कौन कौन सा भारत खोज रही थी.
वो नाक पर रुमाल रखे तलाशती थी उस भारत को जिसके दामन से आने वाली हवाओं को सलाम करने का जी चाहता है वो उसे कहाँ दिखाता? उसे कैसे बताता कि यही वो दामन से उठने वाली हवा है, यही वो माहौल है जो मुझे वापस बुलाता है..मुझे मेरा अतीत याद दिलाता है. मुझे मेरा अपना लगता है. मेरा दिल इन्हें ही सलाम करने को मचलता है.
वो नहीं समझेगी.आज खिड़की के नजदीक जाता हूँ..इतने उपर..सामने आकाश..सामने तैरता ओन्टारियो लेक..मानो जैसे लेक नहीं महासागर हो. खिडकी से सट कर सड़क देखता हूँ तो लगता है कि सड़कों पर कारें नहीं हजारों चिटिंया कतार बनाये घूम रही हैं.
बचपन में गांव के खेत में लाल चीटीं की बांबि पर पैर रख दिया था अनजाने में. सब पैर पर चढ़ गईं थी और जी भर के काटा. मैं रोने लगा था तब माँ ने पुचकारते हुए उस पर घी और नमक मिला कर लगाया था तब जाकर जलन कम हुई थी... मन में सिरसिरी सी चढ़ जाती हैं. अचकचा कर खिड़की से दूरी बना लेता हूँ. गोड़ झटक लेता हूँ, तब थोड़ा ठीक लगता है. आँख पोंछ कर देखता हूँ,
न जाने कहाँ से आज फिर एक नमी सी है बस पुचकारने वाला कोई नहीं. घी नमक लगाने वाला कोई नहीं. मैं और बस मैं-निपट अकेला.
सब मन की उड़ान है.
आज से मुझे, न जाने क्यूँ, लिंडा अच्छी नहीं लगती.
अब नहीं मिलूँगा उसे.लगता है कि अभी मर जाऊँ इतने उपर की मंजिल में..तो जितना समय इस फ्लोर से जमीन तक जाने में लगेगा..उतने ही समय में ही उपर पहूँच जाऊँगा..
आधा रास्ता तय कर लिया है अपनी जड़ों को छोड़ कर.मन नहीं मानता..दराज खोल लेता हूँ..१३ साल पहले भारत छोड़ते समय टीका लगाते हुए माँ ने लिफाफा दिया था....उसे आज खोलता हूँ...१०१ रुपये हैं - १०० का नोट और १ का सिक्का. यह कह कर कि रास्ते के लिए रख ले. क्या पता कब काम आ जाये. सच, अभी रास्ते में ही हूँ..देखो, आज आ ही गया.
माँ की फिर से याद हो आई. लिफाफे ने उनके होने का अहसास दिया. पैर में जलन कुछ राहत पा गई.
आँख भर आई है. उठ कर बाथरुम में आ गया हूँ..आईना देखता हूँ ..मैं दिखता हूँ उसमें. आँख मे नमी लिए. मगर खुद से आँख मिलाने की हिम्मत कहाँ....सर झटक देता हूँ...यथार्थ में लौटने के लिए.
कमरे में वापस आ जाता हूँ.
मैं तो अब भारतीय ही नहीं रहा...मगर यहाँ का भी तो नहीं हो पाया.
ब्राउन स्किन्ड, हाऊ कैन यू बिकम व्हाईट स्किन्ड गाय!!!ए सी कमरे में मैं घबरा कर अदबदाया सा पसीने में भीग जाता हूँ.. पसीने की बू..काँख से उठती हुई.. वही..गांव वाली....
कमबख्त..पसीने की बू नहीं बदलती...क्या करुँ? क्यूँ नहीं जाती यह..कोलोन और महक वाले साबुन..सब इस्तेमल कर लिए...!! और फिर मैं तो भारत में रहता भी नहीं. इतने साल हो गये यहाँ रहते..शायद ये मेरे खून में रची बसी है. मेरे साथ ही जायेगी.
नाईट सूट गड़ने लगता है. न जाने क्यूँ..
आज लूँगी न होने की कमी खली. वरना घुटने तक उसे खींचें अधलेटा सा मसनद टिकाये पड़ा रहता, पिता जी की तरह जब वो टूर से थक कर लौटते थे. मैं भी तो बहुत थक गया हूँ. कितना दूर चला आया हूँ.
वाईन का गिलास!! इसे बदल देता हूँ स्कॉच से. वो ज्यादा स्ट्रांग होती है. शायद कुछ बेहतर अहसास दे. एक भ्रम ही सही मगर और रास्ता भी क्या है?
मैं फिर स्कॉच का गिलास लिये खिड़की पर खड़े उस आईलेन्ड को निहारने लगता हूँ
जिसे लोग सेन्ट्रल आईलेण्ड कहते हैं.टोरंटो का मुख्य आकर्षण केन्द्र. दिन भर सेलानियों का फेरी से आने जाने का तांता लगा रहता है.
चारों तरफ सिर्फ पानी मगर फिर भी अपना जमीनी अस्तित्व बरकरार रखे हुये लोगों को आकर्षित करता!!
लेकिन मेरा अस्तित्व, उसे मैं बरकरार नहीं रख पाया और न ही मुझमें अब कोई आकर्षण शेष रहा!!!
यही हाल होता है अपनी जड़ों से दूर-उपर से महकती क्लोन की खुशबू और भीतर से उठती पसीने की वही गांव वाली बू!!
दोनों की मिली जुली गंध-
तेजाब से तीखी गंध का भीतरी अहसास-जो सिर्फ मैं महसूस कर सकता हूँ. उस गंध की जलन से मेरी आँखें जलने लगती हैं और बह निकलती है एक अविरल अश्रुधारा.
ऐसे आँसू, जो किसी को नहीं दिखते. दिखती है तो सिर्फ मेरी वो मुस्कराहट और आती है सिर्फ मेरे उस कोलोन की खुशबू, जिसमें दफन किये फिरता हूँ अपने इन आँसूओं को और
उस गांव वाली पसीने की बू को.