तब माँ जिंदा थी. हम भाई घर से दूर अपनी अपनी दुनियाँ में आजिविका के लिये जूझा करते थे. हमारे अपने परिवार थे. मगर हर होली और दिवाली को हम सबको घर पहुँचना होता था. पूरा परिवार इकठ्ठा होता. मामा मामी, चाचा चाची, मौसा मौसी, बुआ फूफा और उनके बच्चे. घर में एक जश्न सा माहौल होता. पकवान बनते, हँसी मजाक होता. ताश खेले जाते और न जाने क्या क्या. उन चार पाँच दिनों का हर वक्त इंतजार होता. माँ कभी एक भाई के पास रहती, कभी दूसरे के पास मगर अधिकतर वो अपने घर ही रहती. वो उसके सपनों का महल था. उसे उसने अपने पसंद से बनाया और संजोया था. वहाँ वो अपने आपको को रानी महसूस करती थी, उस सामराज्य की सत्ता उसके हाथों थी. उस तीन कमरे के मकान में उसका संसार था, उसका महल था वो, उसका आत्म सम्मान था. हम सब भी उसी महल के इर्द गिर्द अपनी जिंदगी तलाशते.
अधिकतर वो अपने घर ही रहती. वो उसके सपनों का महल था. उसे उसने अपने पसंद से बनाया और संजोया था. वहाँ वो अपने आपको को रानी महसूस करती थी, उस सामराज्य की सत्ता उसके हाथों थी. उस तीन कमरे के मकान में उसका संसार था, उसका महल था, उसका आत्म सम्मान था. हम सब भी उसी महल के इर्द गिर्द अपनी जिंदगी तलाशते.
सारे बचपन के साथी उसी महल की वजह से थे. न वो रहे- न साथी रहे. अजब खिंचाव था. फिर एक दिन खबर आती है कि माँ नहीं रही (इतना अंश मेरे अंतरंग मित्र रामेश्वर सहाय 'नितांत' की कहानी "माँ" से, जो मैने उसे लिखकर दिया था और उसने इसका आभार लिखा था नवभारत दैनिक में).....................अब इस कविता को देखें:
दो भाई: दो भाई, दोनों अलबेले
एक ही आँगन में वो खेले
एक सा माँ ने उनको पाला
एक ही सांचे में था ढाला
साथ साथ बढ़ते जाते हैं
फिर जीवन में फंस जाते हैं
राह अलग सी हो लेती है
माँ याद करे-फिर रो लेती है.
दोनों की वो सुध लेती है
उनके सुख से सुख लेती है
फिर देखा संदेशा आता
दोनों को वो साथ रुलाता.
माँ इस जग को छोड़ चली है
दोनों से मुख मोड़ चली है
दोनों का दिल जोड़ रहा था
वो सेतु ही तोड़ चली है.
शांत हुई जो चिता जली थी
यादों की बस एक गली थी
पूजा पाठ औ' सब काम हो गये
अब जाने की बात चली थी.
दोनों फिर निकले-जाते हैं,
फिर जीवन में फंस जाते हैं.
रहा नहीं अब रोने वाला
देखो, कब फिर मिल पाते हैं.
--समीर लाल 'समीर'
24 टिप्पणियां:
ऐसे ही हमारे मन-पुल टूटते चले जाते हैं।
ऐसे ही हमारे मन-पुल टूटते चले जाते हैं। शायद यही जीवन है।
समीर जी, ऐसी सेंटी टाईप पोस्ट मत लिखा कीजिये। आपकी ये पोस्ट बिल्कुल यादें के उस गाने की तरह है.... "यादें याद आती हैं"
जीवन के सत्य को दर्शाती एक सुन्दर कविता।
बड़ी मार्मिक कविता है, सुन्दर लेख
आपने तो सुबह सुबह ही रुला दिया समीर जी.....मां तो मां ही होती है... मुझे भी अपनी स्वर्गवासी मां की याद आ गयी..दिल को छूने वाली रचना
बहुत अच्छा, हृदयस्पर्शी,
और बहुत सी बातों की ओर ध्यान दिलाने वाला भी।
very real
बहुत खूब अभिव्यक्ति है सर.
दोनों की वो सुध लेती है
उनके सुख से सुख लेती है
फिर देखा संदेशा आता
दोनों को वो साथ रुलाता.
भावभीनी रचना !
दिल को छू लिया.
samir ji aap ka yah roop bhi bahut hi dil ko chu lene waala hai ..
bahut hi sahi laga isko padh ke bahut kuch yaad aa gaya ..
दिल को छू जाने वाली मार्मिक कविता.
कुछ ज्यादा ही 'सेंटी' नहीं हो गई?
ज़िन्दगी
जो है
एक नदी के
किनारों को जोड़ते
पुल की तरह
और हम लोग
मह्ज गुजर जाने के लिये हैं
इस पर से.
मध्य में
अगर रुक
मिला दिये जायें
प्रावाह में कुछ मोती
तो पड़ता है फ़र्क
सिर्फ़
अपनी ही अनुभूतियों में.
माँ का स्थान संसार में कोई नहीं ले सकता। माँ अपने बच्चों का मन पढ लेती है, बिना कहे ही सब समझ जाती है माँ का साथ न हो तो मन की बातें मन में ही रहती हैं कुछ बातें होती हैं जो हम माँ के साथ ही बाँट सकते हैं काश हममें से किसी का, कभी भी, माँ का साथ न छूटा करता पर संसार का नियम हम नहीं बदल सकते, पर काश ऐसा हो पाता!!! आँखे भर आयीं आपकी ये रचना पढकर।
आप सबका बहुत आभार, धन्यवाद.
किसी को दुख पहुँचाना या रुलाना मेरा कतई उद्देश्य नहीं था, यह तो जीवन के यथार्थ की अभिव्यक्ति मात्र था. मगर साथ मैं बहुत खुश भी हूँ कि आपने रचना को ध्यान से पढ़ा और उसके मर्म को महसूस किया.
आप सबका बहुत धन्यवाद.
तरुण भाई
मैं इस तरह की पोस्ट कम ही पोस्ट करता हूँ, लिखता जरुर हूँ और आगे से प्रयास करुँगा कि और कम कर दूँ, अब तो मुस्करा दे भाई.. :)
संजय भाई,
सच कह रहे हैं. अब लग रहा है ज्यादा ही सेंटी हो गई है.
सबके दिल को दुखा कर बड़ी ग्लानी हो रही है.
कहीं मन के कोने में ये अहसास अभी भी है, आपका लेख पढ़ा तो याद आ गया.बहुत खूब.
नहीं समीर जी ग्लानि या दिल दुखाने वाली बात क्यों करते हैं ये तो वो हकीकत है जो हम सब जानते हैं यही सृष्टि का नियम है और जब दिल दुखता है तो शब्द भी रोते हैं मैंने भी इस दर्द का महसूस किया है चाहे वो मेरी दादी माँ के या बुआ माँ के जाने हो अन्तिम दर्शन तक नहीं कर पायी दूर रहने के कारण, मैंने भी अपने ब्लॉग में अपना दर्द उकेरा है। आप लिखते रहिये इस बार वादा है आँसू नहीं आयेगे, आये भी तो आपको पता नहीं चलेगा खुश :) :)
दिल को दुखाने वाली कोई बात नही है समीर जी... रचना वही जो दिल को छू जाये... और कवि वही बनते हैं जो दर्द को महसूस कर सकते है और इस का दूसरों को एहसास भी करा सकते हैं
समीर भाई,
आप के व भाई साहब के साथ मेरे श्र्ध्धा विगलित आँसू,
....." माँ जी " के चरणोँ पे ......
माँ को बनाया परम कृपालु ईश्वर ने जब उसने सोचा कि " वे हर किसी के पास, किस रुप मेँ रह पाये ? "
तब " माँ " का रुप ईश्वर की प्रतिच्छाया बन कर,
उद्`भासित हो गया !
......श्च्ध्धा सुमन अँजुरि समेटे,
-- लावण्या
बहुत भावपूर्ण लिखा है लालाजी....बधाई
अंत्यत मर्मस्पर्शी कविता , बिल्कुल इस दौर की सच्चाई को दिखाती हुयी।
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