कमरे में खड़ा खिड़की के बाहर देख रहा हूँ एकटक. वो नहीं दिखता जो बाहर है. नजर बस टिकी है लेकिन दिख वो रहा है जो मन में है. एक उड़ान मन की. विचारों की. कुछ उधेड़बुन तो कुछ धुंधली तस्वीरें हल्के भूरे रंग की. रंग भरा समय भी कैसे वक्त की मार झेल झेल कर बदरंग हो जाता है.
एक बार अपना सिर हल्के से झटकाता हूँ. खिड़की के बाहर हरियाली लिए सब स्थिर है. शायद हवा न चलती होगी. बंद खिड़की के कांच से हवा का अहसास भी पत्तियों की हलचल से होता है. वो न होती तो पता भी न चलता. सर्दियाँ आयेंगी, बर्फ़ जमीन पर कब्जा जमा कर बैठ जायेगी. पत्तियाँ बुरे वक्त में कहाँ साथ देती हैं? छोड़ कर चल देंगी फिर से बेहतर मौसम आने तक के लिए. अच्छे हालातों में ही अपने भी साथ देते हैं.
ऐसे में काँच के भीतर से झांकते हुए मैं भी भला कहाँ जान पाऊँगा कि हवा चल रही है या थमी. ठीक उन पेड़ों की सांसो की तरह-कौन जाने चलती भी होंगी या थम गई.
बिना पत्तों के ठंड की मार झेलते पेड़ों के ठिठुरते बदन खुद का अस्तित्व बचायें या मुझे हवा का पता दें. गर्दन उठाये बेहतर मौसम की आस में फिर अपनों के वापस आने का इन्तजार ही शायद उन्हें उर्जा देता होगा इस मार को झेल जाने की वरना तो हट्टा कट्टा इन्सान भी अगली सांस के इन्तजार में दम तोड़ दे और वो सांस सर्दीली मार में जमी, चाह कर भी लौट न पाये.
जब पत्ते लौटेंगे तो उनके बीच घिर खुशियाँ मनाते ये पेड़ भूल जायेंगे उस दर्द को, उस तकलीफ को जो इन्होंने इन्तजार करते झेली है और पत्तियाँ उन्हें सुखी देख कुछ समय साथ बिताएंगी, फिर विदा ले लेंगी अगली मौसम की मार अकेले झेलने को छोड़ कर.
यूँ सुनी थी एक कविता उस व्यक्ति की जो निर्वस्त्र एक सर्दीली रात काट देता है नदी के इस छोर पर उस पार जलती चिता से उगती आग की तपन सोच कर..
खिड़की से झांक
देखता हूँ वो
जो दिखता नहीं...
शायद
देखा है जमाना
कुछ इस तरह मैनें
कि
नजरों से नजर आती बातों से
यूँ भी यकीं जाता रहा
-जाने क्यूँ?
--समीर लाल ’समीर’
90 टिप्पणियां:
nice
क्या बात है इस शब्द-चित्र की.
'नजरों से नजर आती बातों से
यूँ भी यकीं जाता रहा'
बहुत ही सुंदर. वाह!
आज तो आपकी पोस्ट की पहली लाईन ने ही आईना दिखा दिया जी, हमें बाहर का दिख जाता है और अपने अंदर का नहीं दिखता।
सरजी, लगता है आज आपको नाराज करके ही मानूंगा। आगे बढ़े आपकी पोस्ट पर तो पत्तियों वाली बात पर अड़चन आ गई है। मेरी नजर में पत्तियां साथ तो छोड़ती हैं, लेकिन खुद को फ़ना करके। पेड़ तो फ़िर सर्दी गर्मी झेल लेते हैं, पुराने स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं, लेकिन जो पत्तियां चली गईं वो तो चली ही गईं। नई आयेंगी और ऐसे ही जीवन चलता रहेगा।
शायद मैं पोस्ट की मूल भावना तक नहीं पहुंच पाया। आशा है इग्नोर कर देंगे।
आज कुछ ज्यादा ही उदास करने वाली बातें लिख दी हैं आपने।
बहुत दार्शनिक चिंतन प्रस्तुत किया आज आपके आलेख में आपने ....जिंदगी का यथार्थ.
सच है मौसम की ही तरह यहाँ सब कुछ परिवर्तन शील है. हम अपने मन की खिड़की के कांच के भीतर से हर वक्त कहाँ इसे भांप पाते है ......पत्तियाँ बहार भर की साथी है . जीवन के पतझड़ में इन मायूस सुने पेड़ों सी ही दशा होती है .
इतना रम गई इस आलेख में कि खुद को रोकती ना तो टिपण्णी भी आलेख जीतनी लम्बी होजाती :)
आभार
नजरों से नजर आती बातों से
यूँ भी यकीं जाता रहा
...........
बाबाजी गजब है यह अहसास !
profound and beautiful like always!
aa jao chalo ban jaayen phakeer ....let's act !
लेख अच्छा लगा धन्यवाद|
सम्वेदनायें भी कागज पर उतर सकती हैं... वाकई.
पूरी तरह सूफीयाना मन:स्थिति दर्शा रही है आपकी यह पोस्ट।
हरदम हसीं कोई नज़ारा भी नहीं,
मगर इसका कोई का चारा भी नहीं,
नजरिये बदलिए और पाइए 'मजाल',
दिल इस कदर बेचारा भी नहीं !
अब उबर भी आइये जनाब, जो बहला दे दिल को, ग़ालिब हर एक ख़याल वो अच्छा है ...
अच्छा आलेख और सुन्दर भाव वाली कविता . आभार
नज़रों से नज़र आती बातों से, यूँ भी यकीं जाता रहा, न जाने क्यूँ...
ख़्वाब था जो कुछ कि देखा
जो सुना अफ़साना था.
इसलिए नज़रों के देखे पर यकीं करना बड़ा ग़लत होता है बाज मर्तबा... और शीशे की आड़ से देखा सच हमेशा सच हो आवश्यक नहीं. कहते हैं कि शीह्से से गुज़रकर सादी किरन भी सात रंगों की धनक बन जाती है. दरख़्तों का दुःख, पत्तों का फ़ना होना और फ़्लैश बैक में सेपिया के रंग रंग्लिए ज़िंदगी... क्या शब्द चित्र खींचा है समीर भाई!
बेहतरीन उम्दा पोस्ट
आने वाले सर्दी के मौसम के बारे में सोचकर अभी से सर्दी लग रही है ।
बहुत अच्छी तरह से आपने मन के विचारों को प्रकृति से जोड़कर पेश किया है ।
पोस्ट का पहला पैरा इतना अर्थपूर्ण है कि इस पर भारी दांव लगानें का ख्याल आया...भले ही मैं जुआ नहीं खेलता !
साधुवाद स्वीकारें !
उम्दा पोस्ट. लगता है आपके यहाँ बर्फ पड़नी शुरू हो गयी है.
अच्छा लगा दार्शनिक चिंतन !
aapke post ke saath udasi janchti nahi........aap to sada bahar hi rahan karen.........:)
गद्य और पद्य दोनों का चित्रण बहुत ही उम्दा है .........
शीतकाल में अकेलापन और उदासी और भविष्य की आशाओं का चित्र बखूबी खींचा है आपने इन पंक्तियों में।
शुभकामनाए
जी विश्वनाथ
आपने तो बहुत अच्छा लिखा अंकल जी...
आपका यकीन बरकरार रहे!
पोस्ट के साथ रचना का जवाब नही!
bahut bariya hai
bahut bariya hai
दरअसल मैं आपकी "बहुत खूब" के लिए "अइसा क्या" और शुक्रिया के लिए आया था.. यहाँ आकर देखा हम सब आदमी लोग उदासी के अलग अलग स्तरों पर जी रहे हैं और कुछ और उदास हो गया ... हम आदमी लोग सबके सब इतने उदास क्यों हैं ? उदास होने की एक सतत प्रक्रिया क्यों चलती रहती है हमारे भीतर हर समय.. ? इस यक्ष प्रश्न का समाधान तकनीक के इस दौर में भी नहीं मिला तो फिर कभी न मिल पायेगा ...मित्र अग्नि शेखर की यह पंक्ति उद्दृत कर रहा हूँ
"अरे! अरे! आप तो रुकने लगे
सांस तो फूलती ही है पहाड चढते
पहाड चढना
शाश्वत सौंदर्य की रचना प्रक्रिया में
किसी युद्धाहत आकांक्षा का
किसी ठूँठ में अंकुरित हो आना है"
नजरों से नजर आती बातों से
यूँ भी यकीं जाता रहा
-जाने क्यूँ?
जाने क्यों ? इसी उधेड़बुन में निकल गए इत्ते साल.... पर जाने क्यों अभी भी यकीं नहीं आता.
बहुत ही भावपूर्ण लेख!
" वो नहीं दिखता जो बाहर है. नजर बस टिकी है लेकिन दिख वो रहा है जो मन में है."
इस लाइन ने तो मन मोह लिया.
वाह बहुत खूब..
क्या बात कही है...
नज़रों से नज़र आती बातें कई बार झोठ भी तो होती हैं क्यों कि हम सामने सच देख कर ही मर्म तक नही पहुंच सकते। सही मे यकीं तो जायेगा ही। अच्छी लगी्रचना। शुभकामनायें।
विचारों में डूब कर वह नजर आता है जो आप सोच रहे होते हैं और तभी कई बार की चीज या प्रतिकृति हमने देखी नईं होती और लगती है की इसको पहले भी कहीं देखा है.
कुछ ज्यादा ही गहरे में डूब कर लिखा आलेख और कविता.
शुफियाना अंदाज़ में आपका कहना कुछ अलग रंग दिखाता है, आज की पोस्ट वाकई बेहतरीन है !
देखा है जमाना
कुछ इस तरह मैनें
कि
नजरों से नजर आती बातों से
यूँ भी यकीं जाता रहा
-जाने क्यूँ?
Najren bhi dhoka de hi jatee hain kabhi kabhi ..behtareen kavita hamesha kee tarah.
6.5/10
बहुत उम्दा पोस्ट
लेखन जानदार है
बेशकीमती लगीं ये पंक्ति :
"नजरों से नजर आती बातों से
यूँ भी यकीं जाता रहा"
गहरी बात कह दी आपने। नज़र आती हुये पर भी यकीं नहीं आता।
nazar nazar ki baat hai... jo jaisa dekhta hai vaisa sochta hai. vaise badi kamal ki baat hai ..andar ka dekhna hi bahar ka dikhna hai... bhasa ghumavdar ho gayi lekin umeed hai aap samajh jayenge... bahut achchi nazar hai..bahut khoob .. .
"पत्तियाँ बुरे वक्त में कहाँ साथ देती हैं? छोड़ कर चल देंगी फिर से बेहतर मौसम आने तक के लिए. "
बहुत ही गहन चिंतन वाली पोस्ट...
गद्य को पूर्णता देती कविता भी सोचने को विवश करती है.
नजरों से नजर आती बातों से
यूँ भी यकीं जाता रहा
-जाने क्यूँ?
bahut sundar!!! kabhi sochne ko majboor ho gaya, kabhi saraahne ko...
http://draashu.blogspot.com/2010/10/blog-post_20.html
इस पोस्ट में ज़िंदगी के सरोकारो के संघर्ष को नए अर्थों में बयान करने की कोशिश की गई है।
समीर जी, कैसे खींच लेते हैं आप इतने मनमोहक शब्द चित्र?
जीवन में आशावादी होना भी सही मायने में अधिकतर फायदेमंद होता है. आपने बुत सही और सटीक ही लिखा ही -
"जब पत्ते लौटेंगे तो उनके बीच घिर खुशियाँ मनाते ये पेड़ भूल जायेंगे उस दर्द को, उस तकलीफ को जो इन्होंने इन्तजार करते झेली है "
ज्ञान वर्धक आलेख के लिए आभार.
- विजय
हिन्दी साहित्य संगम जबलपुर:
हिप्पोक्रेसों की दुनिया में बहुत मुश्किल है कानों और आंखो पर आज भरोसा किये रखना...
ज़माने को देख कर कई बार यकीन डगमगाता तो है ...!
ज़िन्दगी को नये अर्थ देती रचना।
इधर आपकी कवितायें दुःख निराशा संवेदित कर रही हैं -यह अच्छी बात नहीं है -आपके अनुगामी बिचारे अब क्या करें ?
शायद
देखा है जमाना
कुछ इस तरह मैनें
कि
नजरों से नजर आती बातों से
यूँ भी यकीं जाता रहा
-जाने क्यूँ?
बहुत सुंदर !
देखा है जमाना
कुछ इस तरह मैनें
कि
नजरों से नजर आती बातों से
यूँ भी यकीं जाता रहा
-जाने क्यूँ?
क्योंकि लोग जरूरत से ज्यादा चालबाज हो गये हैं.
रामराम.
देखा है जमाना
कुछ इस तरह मैनें
कि
नजरों से नजर आती बातों से
यूँ भी यकीं जाता रहा
-जाने क्यूँ?
क्योंकि लोग जरूरत से ज्यादा चालबाज हो गये हैं.
रामराम.
मैं भी सोच रहा हूं क्या कहूं।
सुंदर लेखन..उम्दा पोस्ट..
..तन की आँखों से मन की आँखें तेज होती हैं या कहें कि मन बिना तन की आखें अंधी होती हैं.
` गर्दन उठाये बेहतर मौसम की आस में फिर अपनों के वापस आने का इन्तजार ही शायद उन्हें उर्जा देता होगा'
सही है, इंतेज़ार ही तो है भारत आने का :)
nice post
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लेकिन दिख वो रहा है जो मन में है. एक उड़ान मन की. विचारों की. कुछ उधेड़बुन तो कुछ धुंधली तस्वीरें हल्के भूरे रंग की. रंग भरा समय भी कैसे वक्त की मार झेल झेल कर बदरंग हो जाता है.
पसंद आया यह अंदाज़ ए बयान आपका. बहुत गहरी सोंच है
देखा है जमाना
कुछ इस तरह मैनें
कि
नजरों से नजर आती बातों से
यूँ भी यकीं जाता रहा
-जाने क्यूँ?
Awesome !
.
दार्शनिक चिंतन बहुत ही सुंदर
बड़ी प्रेरणादायी बातें ,बधाई !
ग्राम -चौपाल में पधारने के लिए आभार .
... gahan bhaav ... behatreen post !!!
oh Sameer darling, dont worry main hoon na darling. love you.
further you written very nice post darling. Take care. love you darling.
जब भी ये दिल उदास होता है... जाने कौन आस-पास होता है...
खिड़की से झांक
देखता हूँ वो
जो दिखता नहीं...
देखने और दिखने में सिर्फ और सिर्फ मनोस्थिति की ही भूमिका है.
आज जो दिख नहीं रहा है शायद कल दिखने लगे.
bharam khulna yahi to hota hai ...badhiya
'नजरों से नजर आती बातों से
यूँ भी यकीं जाता रहा'
गहन चिंतन और अकेलापन लिए एक रचना....
बहुत ही सुंदर.
बहुत ही सुंदर.
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सचमुच ...आस ही तो जीने का विश्वास और सहारा देती है...
यूँ सुनी थी एक कविता उस व्यक्ति की जो निर्वस्त्र एक सर्दीली रात काट देता है नदी के इस छोर पर उस पार जलती चिता से उगती आग की तपन सोच कर....
nih:shabd::
pranam
sir ye break mein kahan kho jate hai aap.....panktiyaan jabardast hain..
परिवर्तन सृष्टि का नियम है। इसका सहज स्वीकार जीवन को अनेक चिंताओं से मुक्त रखता है।
Hi Sameer darling. Again I come to read this post. love you darling take care
शानदार लेखन, दमदार प्रस्तुति।
सर...सही कहा आपने
सब कुदरत का करिश्मा है
खिडकी पर बैठ के तो मैं पूरा वीकेंड निकाल देता हूँ आजकल. खिडकी और किताब. फील हुई ये पोस्ट.
ऐसे में काँच के भीतर से झांकते हुए मैं भी भला कहाँ जान पाऊँगा कि हवा चल रही है या थमी. ठीक उन पेड़ों की सांसो की तरह-कौन जाने चलती भी होंगी या थम गई....
बहुत ही भावपूर्ण समीर जी ... आँखें तो सब की एक सा देखतीं हैं लेकिन फर्क नज़र का होता है ... बेहतरीन पोस्ट ... शुभकामनाएं
सुन्दर कविता........
उम्दा पोस्ट !!
ह्रदय-चीरती हुई..!!
समीर जी भूमिका की पंक्तियाँ पढ़ते पढ़ते सोच रही थी कि किसी कहानी की शुरुआत है .....
सच्च आप बहुत अच्छी कहानी लिख सकते हैं .....कहानी क्या आप में तो उपन्यास लिखने की क्षमता है ....
बस आप शुरुआत भर कीजिये ......
bahut hi badhiyaa...
Sir thanks for nice comment.behtareen bhavnatmak kavita ke liye badhai
Bahut gahra lekh, rachna bhi bahut hrdaya sparshi...bahut-bahut badhai
वक्त इनसान पे ऐसा भी कभी आता है,
राह में छोड़कर साया भी चला जाता है,
दिन भी निकलेगा कभी, तू रात के आने पे ना जा,
मेरी नज़रों की तरफ़, ज़माने पे ना जा...
दिल की आवाज़ भी सुन...
जय हिंद...
हाँ जी ऐसा भी होता है .... देखकर भी यकीन मुश्किल हो जाता है अपनी ही नज़रों का ......
गहरा विचार जो सादगी से रखा आपने.....
इन नकली उस्ताद जी से पूछा जाये कि ये कौन बडा साहित्य लिखे बैठे हैं जो लोगों को नंबर बांटते फ़िर रहे हैं? अगर इतने ही बडे गुणी मास्टर हैं तो सामने आकर मूल्यांकन करें।
स्वयं इनके ब्लाग पर कैसा साहित्य लिखा है? यही इनके गुणी होने की पहचान है। क्या अब यही लोग छदम आवरण ओढे हुये लोग हिंदी की सेवा करेंगे?
इन नकली उस्ताद जी से पूछा जाये कि ये कौन बडा साहित्य लिखे बैठे हैं जो लोगों को नंबर बांटते फ़िर रहे हैं? अगर इतने ही बडे गुणी मास्टर हैं तो सामने आकर मूल्यांकन करें।
स्वयं इनके ब्लाग पर कैसा साहित्य लिखा है? यही इनके गुणी होने की पहचान है। क्या अब यही लोग छदम आवरण ओढे हुये लोग हिंदी की सेवा करेंगे?
इन नकली उस्ताद जी से पूछा जाये कि ये कौन बडा साहित्य लिखे बैठे हैं जो लोगों को नंबर बांटते फ़िर रहे हैं? अगर इतने ही बडे गुणी मास्टर हैं तो सामने आकर मूल्यांकन करें।
स्वयं इनके ब्लाग पर कैसा साहित्य लिखा है? यही इनके गुणी होने की पहचान है। क्या अब यही लोग छदम आवरण ओढे हुये लोग हिंदी की सेवा करेंगे?
ज़माने के अनुभव ने बहुत कुछ सीखा दिया है समीर भाई ....
बहुत लाजवाब और उम्दा लिखा है .... गहरी बात आसानी से कह दी आपने ...
जनाब समीर साब,बेहतरीन मंजरकशी है पूरे लेख में .....बुरे वक्त में कहाँ साथ देती हैं? छोड़ कर चल देंगी फिर से बेहतर मौसम आने तक के लिए. अच्छे हालातों में ही अपने भी साथ देते हैं.....किसी का शेर है -सुबह का भूल शाम हुई तो घर को लोटा /लोगों को मालूम हुआ तो आये मन बहलाने लोग .समय का बदलाव कड़वा सच है जिसे आपने आपने ही अंदाज़ में पेश किया है .शुक्रिया
क्या कहें ऐसी अद्भुत पोस्ट पर टिपण्णी करना बहुत मुश्किल काम है भाई...
नीरज
aapka ye blog mujhe bahut pasand aaya...aapne jo sacchai baya ki hai usne mere dil ko chhu liya...
भाई समीर जी ! जिन्दगी के इस फलसफे को जिसने शिद्दत से जिया है वही लिख सकेगा ऐसा .
हम तो यही कहेंगे कि अमूर्त को मूर्त बनाने की जादूगरी है आपकी कलम में .....
यदि मैं गलत नहीं हूँ तो आज की रचना कालजयी रचनाओं में से एक है /
भाई मेरे ! एक जादू की झप्पी इधर भी /
उड़न तश्तरी के भीतर एक जादूगर भी है .......काला-जादूवाला /
बच के रहना दुनियावालो !ये दिल तो ऐसे चुराता है जैसे कोई आँखों से काजल /
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