बचपन, खेल खेल में जुगनू पकड़ कर शीशी में बंद कर लिए. ढक्कन में एक छेद भी बनाया कि वो सांस ले सकें. सुबह को देखता था उन जुगनुओ को. कोई चमक न दिखती तो बंद अलमारी के अंधेरे में ले जाकर देखता. रात तीन बंद किये थे, अब बस एक चमकता था धीरे धीरे. वहीं अलमारी में उनको रखकर जब देर शाम लौटा तो उनमें से कोई भी नहीं चमकता था. सुबह उठकर देखा, तीनों मर गये. आज रात फिर नये पकड़ूंगा, सोच कर उनको बोतल से निकाल कर बाहर फेंक दिया.
बचपन की नादानी. सोचता कि जाने कैसे मर गये. छेद भी किया ढक्कन में सांस के वास्ते. सिर्फ सांस लेना ही जिन्दा रहने के लिए काफी नहीं.
कुछ यादों के जुगनू तुम्हारे खतों की शक्ल में डायरी में मोड़ कर रख दिये थे. अब अंधेरा हैं. वो चमकते नहीं, अलमारी के भीतर भी नहीं. हालांकि अलमारी के भीतर हो या बाहर, क्या फरक पड़ता है. अँधेरा तो बराबर से है. ट्यूब लाईट की रोशनी कई बार चीख चुकी मगर ये जिद्दी अँधेरा, हटता ही नहीं. डटा है जस का तस.
सबने लूटा जहां मेरा
फिर भी कोई कहाँ मेरा...
-खोजता फिरता हूँ पता उसका...
अँधेरे में बस यूँ ही टटोलते. कुछ हाथ नहीं आता.
कुछ टेबल से गिर कर टूटा अभी छन्न से. वो कहती कि कांच का टूटना अशुभ होता है.
मैं सोचता गिलास टूटा है, कांच तो कभी टूटता नहीं, बस, रुप बदल जाता है. टुकड़े टुकड़े. होता फिर भी कांच ही है. वो भला कब टूटा है. फिर क्या शुभ और क्या अशुभ. मैं भी टूटा कब, बस टुकड़ो में बटा.
वस्ल कहते हैं:
अपने अंदर ही सिमट जाऊँ तो ठीक
मैं हर इक रिश्ते से कट जाऊँ तो ठीक.
तब एक शायराना ख्याल:
सभी चाहते हैं यहाँ मुझे थोड़ा थोड़ा
मैं ही कई टुकड़ों में बट जाऊँ तो ठीक...
झपट कर कुछ पकड़ा तो है. हाथ आया मुट्ठी भर और अँधेरा. एक टुकड़ा अँधेरा और जुड़ गया हिस्से में मेरे.
डायरी से निकाल कुछ मुर्दा खत उस अँधेरी आग के हवाले कर देता हूँ. कुछ नई यादें पकड़ूंगा फिर से. कुछ मरे जुगनू मिले, चमकते ही नहीं. मरे जुगनू चमका नहीं करते. एक खत हाथ लगा. लिखती हो ’खुदा ने चाहा तो फिर मिलेंगे’. एक चमक बाकी हैं कहीं. सब कुछ लुट जाने पर भी एक उम्मीद की किरण, हल्की हल्की चमकती, सांस तोड़ती. अब शाम का इन्तजार भी नहीं. सपने मर रहे हैं.
अबकी नासमझी है कि खुदा के चाहने से कुछ होगा. खुदा गिरफ्त में है पंडो की और भगवान मौलवियों के चुंगल में लाचार. सौदा हो भी जाये तो एक छेद से कब तक सांस लेकर बच रहेंगे. आज वायदा बाजारी में सौदागरों का महत्व है, उन्हीं का बोलबाला, सौदे का नहीं. आर्टिफिशियल कमोडिटी की चमक दूर तक जाती है.
अँधेरे में पतंग उड़ाने की ख्वाईश है कंदील लटका कर. कंदील नजर आती रहे, पतंग न दिखे तो भी क्या. मन बहलता है.
एक कविता लिखूँगा तेरे नाम की आज शाम और शीर्षक रखूँगा-अँधेरा.
झपट कर पकड़ता हूँ
हवा से
कुछ....
फिर
जोड़ लेता हूँ
एक मुट्ठी
अंधेरा और...
अपनी जिन्दगी के खाते में...
-मैं, अंधेरों का आदमी!!!
-समीर लाल ’समीर’
123 टिप्पणियां:
अँधेरे का आदमी , उजाला फैलेगा आर्य , धैर्य धारण करे .. अति सुन्दर आलेख .
रोशनी की खोज बहुत ज़रूरी है,
अबकी बार कलम हँसी की किरणें बिखेर दे !
अँधेरे में पतंग उड़ाने की ख्वाईश है कंदील लटका कर. कंदील नजर आती रहे, पतंग न दिखे तो भी क्या. मन बहलता है.
उम्दा कथन है आपका,
शुभकामनाएं।
हमने सीखा अंधेरों में जीना,
आप घबरा गए रौशनी से,
आप घबरा गए रौशनी से,
क्या मिलेगा किसी को किसी से,
आदमी है जुदा आदमी से,
क्या मिलेगा किसी को किसी से....
जय हिंद...
लगा जैसे कोई गहरे जख्म को धीरे धीरे सहला रहा हो और दर्द अंगडाईयाँ लेने लगा हो .....
शुरुआत से लेकर अंत तक आपने बाँध कर रखा... कविता बहत अच्छी लगी....
अँधेरे में पतंग उड़ाने की ख्वाईश है कंदील लटका कर. कंदील नजर आती रहे, पतंग न दिखे तो भी क्या. मन बहलता है.
कंदील फिर भी कंदील है. वह अन्धेरे में ही दिखता है. उजाले में तो पतंग दिखेगा, कंदील नहीं.
अन्धेरे का आदमी गर उजाला फैलाये तो ....
खुदा गिरफ्त में है पंडो की और भगवान मौलवियों के चुंगल में लाचार. सौदा हो भी जाये तो एक छेद से कब तक सांस लेकर बच रहेंगे.
अब खुदा और भगवान को इन पंडो और मौलवियों के चंगुल से आजाद होना ही पड़ेगा। तभी समाज को एक नई दिशा मिल पाएगी।
सांस लेने के लिए अब खुले वातावरण की जरुरत है, न की सिर्फ़ एक छेद की। दिल और दिमाग को खोल कर सकारात्मक नजरिया अपनाना पड़ेगा।
आभार
मैं आदमी अंधेरे का बिखेरता प्रकाश रहूं
टुकड़े टुकड़े होकर बस रुप बदलता रहूं
खुदा ने चाहा तो फिर मिलेंगे...
उम्मीद की एक किरण- चमक बाकी हैं कहीं...
हमारी नदानियाँ हमसे जुगनू की रोशनी भी छीन लेती है।
कमाल की लेखनी है आपकी लेखनी को नमन बधाई
जिनको जीने के लिए पूरी साँसों की जरुरत , कैद होकर एक बूँद सांस से जीते कैसे ...आजाद कर देना था ना ...ना अँधेरा होता ...ना जुगनू मरते ...बचपन का भोलापन यह सब कहाँ समझने देता है ...मुसीबत तब है जब यह समझ उम्र बढ़ने के साथ बढे नहीं ...
उजाला कायम रहे ...कविताओं में भी ...
शुभकामनयें ..!
घाव गहरे हैं !!
दर्द काफी गहरा है !!
खूबसूरत अभिव्यक्ति!
अँधियाली घाटी में सहसा
हरित स्फुलिंग सदृश फूटा वह!
वह उड़ता दीपक निशीथ का,--
तारा-सा आकर टूटा वह!
जीवन के इस अन्धकार में
मानव-आत्मा का प्रकाश-कण
जग सहसा, ज्योतित कर देता
मानस के चिर गुह्य कुंज-वन!
बहुत अच्छी प्रस्तुति। भारतीय एकता के लक्ष्य का साधन हिंदी भाषा का प्रचार है!
मध्यकालीन भारत धार्मिक सहनशीलता का काल, मनोज कुमार,द्वारा राजभाषा पर पधारें
सभी चाहते हैं यहाँ मुझे थोड़ा थोड़ा
मैं ही कई टुकड़ों में बट जाऊँ तो ठीक...
....सुन्दर अभिव्यक्ति! शुभकामनाएं।
रोशनी के लिए जुगनुओं को बन्द करने की जिद और छूट केवल एक साँस की? पूरा देश जब एकसाथ खडा होगा तभी हम मुल्ला और पण्डों से बच पाएंगे नहीं तो हम स्वयं भी एक और मुल्ला या पण्डित बन जाएंगे। केवल दूसरों को उपदेश देते हुए।
बचपन में सबने कुछ न कुछ शरारतें की हैं उन यादों को शब्दों की माला में पिरोकर आपने बचपन में वापस भेज ही नहीं वरन दिल को भी छू दिया अँधेरे के साथ रचना को जोड़कर। बहुत भावपूर्ण रचना पढ़ने को मिली बहुत-बहुत आभार।
हमारे खेल और जुगनुओं की पीड़ा, खतों में दम तोड़ता प्यार का एहसास, मन के ऊजाले में अँधेरों को अपने व्यक्तित्व से तौलता एक चिन्तनपूर्ण इन्सान। किसी पटकथा की तरह सिमट गयी सारी दास्तां।
आपके हसीन रुख पे आज नया नूर है...
सबका दिल मचल गया तो सबका क्या कसूर है.. :)
आपकी लेखनी को नमन बधाई
आदरणीय समीर लाल जी
नमस्कार !
क्या खूब लिखा है
"सिर्फ सांस लेना ही जिन्दा रहने के लिए काफी नहीं"सुन्दर प्रस्तुति.
माजी की अपनी कोई शकल नहीं होती,
न ही होती कोई जबान उसकी
यं तो हम ही हैं
जो सुनते हैं,
रह-रह कर बातें अपनी ही,
देखते हैं
मनचाही तस्वीरें उसमें,
क्योंकि
माजी की अपनी कोई शकल नहीं होती,
न ही होती कोई जबान उसकी
सबने लूटा जहां मेरा
फिर भी कोई कहाँ मेरा.
बहुत खूब | यह लेख अंतरात्मा को स्पर्श कर रही है | आभार
अँधेरा रौशनी की याद दिलाए तब तो ठीक,
फिर भी ज्यादा अन्धेरें में न ही जाएं तो ठीक ..
लिखते रहिये ...
bahut hi behtareen post hai sir....
yatharth ke patal par likhi huyi...
waah ....
बेहतरीन सन्देश छिपा कर बहुत ही गहरी बातें की हैं आपने, पढ़ते समय लगा जैसे खुद जी रहा हूँ.
सच कहा आपने सिर्फ सांस लेना ही जिन्दा रहने के लिए काफी नहीं है!
सभी चाहते हैं यहाँ मुझे थोड़ा थोड़ा
मैं ही कई टुकड़ों में बट जाऊँ तो ठीक!
हर बात बहुत ही सुन्दर लिखी है!
बचपन की नादानी. सोचता कि जाने कैसे मर गये.
नादानी तो जीवनभर बनीं ही रहती है .. प्रकृति अगणित नियमों से काम करती है .. सबको समझ पाना आसान नहीं !!
कुछ यादों के जुगनू तुम्हारे खतों की शक्ल में डायरी में मोड़ कर रख दिये थे. अब अंधेरा हैं. वो चमकते नहीं,
यहाँ भी नादानी हो गयी ...
सभी चाहते हैं यहाँ मुझे थोड़ा थोड़ा
मैं ही कई टुकड़ों में बट जाऊँ तो ठीक
सच है बांटना पड़ता है टुकड़ों में ...और फिर अपना वजूद ही खत्म होने लगता है ...
आपका लेखन हमेशा प्रवाहमयी होता है ..उजाले की ख्वाहिश जैसी पोस्ट
सुन्दर अभिव्यक्ति.
WOW,SAMEER JEE, THIS WAS EVEN THOUGHT BY ME .KUDOS, AND WHAT AN EXPESSIONIST UR, A REQUEST- U,VE MOTIVATED ME EARLIER. PLZ FIND TIME TO VISIT MY BLOG...........
शायराना अंदाज में लिखी दिलचस्प पोस्ट...साधुवाद.
bahut khoob .. acha laga pad kar ...
कांच तो कभी टूटता नहीं, बस, रुप बदल जाता है
ये टुकडे टुकडे यादें और शायरी दिल को छू गयी। कैसे लिखते हैं इतनी गहरी संवेदनाओं को। अंधेरोंमे भी रोशनी की किरणो की तलाश शुरू होती है। बहुत अच्छी लगी पोस्ट। बधाई।
बहुत सुंदर भाव |आपका सोच सराहनीय है |बधाई
मेरे ब्लॉग पर आ कर प्रोत्साहित करने के लिए आभार
आशा
"बचपन की नादानी. सोचता कि जाने कैसे मर गये. छेद भी किया ढक्कन में सांस के वास्ते. सिर्फ सांस लेना ही जिन्दा रहने के लिए काफी नहीं"... बहुत मार्मिक्ता के साथ लिख गया आलेख
अपने अंदर ही सिमट जाऊँ तो ठीक
मैं हर इक रिश्ते से कट जाऊँ तो ठीक
भावनाओं का खुबसूरत कोलाज आपने व्यक्त किया.
पढ़ते-पढ़ते कई बार शब्दों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया.
आपकी लेखनी का तिलस्म बहुत जबरदस्त है
हमेशा खुश रहें ...आबाद रहें
शुभ कामनाएं
मंदिर-मस्जिद के खेल से जी ऊब जाने पर
कृपया यहाँ अपना स्नेह देने अवश्य आयें :
मिलिए ब्लॉग सितारों से
समीर जी आज तो गज़ब कर दिया……………शुरु से आखिर तक जैसे बहुत कुछ अनकहा कह दिया…………………बडी गहरी विवेचना की है।
यीशु ने फिर लोगों से कहा, जगत की ज्योति मैं हू; जो मेरे पीछे हो लेगा, वह अन्धकार में न चलेगा, परन्तु जीवन की ज्योति पाएगा।
बहुत ही खूबसूरत रचना समीर जी ! हमेशा की तरह बहुत सशक्त और असरदार ! लेकिन आज कुछ अधिक ही विचलित कर गयी !
अपने अंदर ही सिमट जाऊँ तो ठीक
मैं हर इक रिश्ते से कट जाऊँ तो ठीक.
तब एक शायराना ख्याल:
सभी चाहते हैं यहाँ मुझे थोड़ा थोड़ा
मैं ही कई टुकड़ों में बट जाऊँ तो ठीक.
आपकी यह प्रस्तुति बहुत बहुत पसंद आयी ! आभार एवं शुभकामनाएं !
आप अंधेरों के आदमी नहीं हैं...बिल्कुल नहीं. आप तो उजाला हैं. सबके चेहरों पर मुस्कान बिखेरने वाले...
बचपन में जुगनू को शीशी में बंद करने का काम हमने भी किया है, पर थोड़ी देर में छोड़ देते थे... शायद समझते थे कि किसी भी चीज़ को बहुत देर तक बंद नहीं रखा जा सकता.
आपकी ये पोस्ट बहुत अच्छी लगी.
सुन्दर आलेख
खूबसूरत अभिव्यक्ति!
... aadhyaatmik bhaav jhalak rahe hain ... sundar post !!!
bahut hi prabhawshali
जबर्दस्त्त प्रावाह ..एक सांस में पढ़ गई .गहरे अहसास ...बहुत खूबसूरत.
पद्य सा अपने प्रवाह संग बहा ले जाने वाला गद्य...
सचमुच मन बहा गयी....
समीर जी
झपट कर पकड़ता हूँ /हवा से /कुछ.... ./फिर /जोड़ लेता हूँ /एक मुट्ठी /अंधेरा और... /अपनी जिन्दगी के खाते में... /-मैं, अंधेरों का आदमी!!!
अच्छा चिंतन है.
- विजय
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
चक्रव्यूह से आगे, आंच पर अनुपमा पाठक की कविता की समीक्षा, आचार्य परशुराम राय, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!
"खुदा गिरफ्त में है पंडो की और भगवान मौलवियों के चुंगल में लाचार."
सामायिक गतिविधियों पर तीक्ष्ण प्रहार....
"झपट कर पकड़ता हूँ हवा से कुछ.... फिर जोड़ लेता हूँ एक मुट्ठी अंधेरा और... अपनी जिन्दगी के खाते में... -मैं, अंधेरों का आदमी!!!"
बहुत गहरी पंक्तियाँ....
शुभकामनाये...
सिर्फ सांस लेना ही जिंदा रहने के लिए काफी नहीं...आलेख की यह एक पंक्ति एक लम्बी कविता के बराबर है...भावपूर्ण आनेख।
सिर्फ सांस लेना ही जिंदा रहने के लिए काफी नहीं...आलेख की यह एक पंक्ति एक लम्बी कविता के बराबर है...भावपूर्ण आनेख।
बहुत ही सही प्रभु ..क्या ब्लैक एंड व्हाईट पोस्ट निकल कर आई है ..आनंद आ गया ..आपका जीवन दर्शन अब गूढ् होता जा रहा है ..आप बुद्धत्व की ओर अग्रसर हैं....
सभी चाहते हैं यहाँ मुझे थोड़ा थोड़ा
मैं ही कई टुकड़ों में बट जाऊँ तो ठीक..
टुकड़ों में तो बाँट जाओगे पर ... पर उसकोकोई सम्भहाल कर नही रखेगा ... किसी एक का ही होना अच्छा है ...
और मुट्ठी के अंधेरोन को भी संभाल कर रखना ... अकेलेपन में काम आते हैं ... कभी कभी मुँह छिपाने के भी काम आते हैं ... कमाल का लिखा है समीर भाई ...
सुन्दर रचना! बधाई हो! बधाई हो!
.
.
.
अद्भुत !
देव ,
'उजालों का आदमी' आज फुल फॉर्म में है।
...
बहुत सी पंक्तियाँ मन को छू गयी..... जैसे कि.....
सिर्फ सांस लेना ही जिन्दा रहने के लिए काफी नहीं,
मैं सोचता गिलास टूटा है, कांच तो कभी टूटता नहीं,
सभी चाहते हैं यहाँ मुझे थोड़ा थोड़ा
मैं ही कई टुकड़ों में बट जाऊँ तो ठीक. और भी कई....
बहुत ही खूबसूरती से आपने यादों के जुगनुओं को शब्दों में ढाला है....
बचपन की मासूमियत से युवावस्था का गंभीर लेखन (मन जवान तो सब जवान) बहुत सुन्दर.
तारीफ क्या करें.....
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड, जय श्री राम (आज तो कह ही सकते हैं?)
कहीं पढ़ा था ,
अगर सांस लेने का नाम ही है ज़िन्दगी
तो सांस लेने के अंदाज़ बदलते रहिये.
यहाँ तो बहुत सारे अंदाज़ दिखे...पर आपकी लेखनी के...
अंधेरे का आदमी उजाले की खोज में
` सिर्फ सांस लेना ही जिन्दा रहने के लिए काफी नहीं'
हां साहब, पैसे भी चाहिए :)
बहुत सुंदर प्रस्तुति, हम सब ही अंधेरे मै ही हाथ पेर मार रहे है, ओर जो इस अंधेरे से उजाले मै पहुच जाता है, वोही पर्म ग्यानी कहलाता है
परम ग्याणी... गलती सुधार
क्या खूब..
ब्लॉगर मित्रों से सुना था आप अच्छा लिखतें हैं.. में कहता हूँ अद्वित्य.. जीवन का दर्शन जुगनुओं ने दिखा दिया.. नया प्रकाश..
मनोज खत्री
गज़ब का लिखते हैं जी आप। उजालों में रहकर अंधेरों के लिये तरसना, बहुत अपीलिंग है।
झपट कर पकड़ता हूँ
हवा से
कुछ....
फिर
जोड़ लेता हूँ
एक मुट्ठी
अंधेरा और...
अपनी जिन्दगी के खाते में...
-मैं, अंधेरों का आदमी!!!
बहुत गजब की रचना, सुंदर अति सुंदर.
रामराम
अरे ये क्या,
मैं हमेशा आपकों रोशन आदमी समझती रही, इधर उधर हर ब्लॉग पर चमकते हुये....
ये कुछ गलत कहा आपने.....
आप उजाले में बने रहे...
सिर्फ सांस लेना ही जिन्दा रहने के लिए काफी नहीं
बहुत ही गहरी बात कही समीर जी , बेहद खूबसूरत और जीवन की सच्चाइयों को बयाँ करती पोस्ट
सुन्दर लेखनी! बहत अच्छी कविता! आभार
बढ़िया प्रस्तुति .......
अच्छी पंक्तिया लिखी है ........
इसे पढ़े और अपने विचार दे :-
क्यों बना रहे है नकली लोग समाज को फ्रोड ?.
समीर भाई,
एतना कोमल भाव कहाँ से लाते हैं आप!! एक साथ केतना सवाल उठाता है यह पोस्ट, मगर फिर भी अंधेरा छोड़ जाता है सवाल... सब धुंधला है, लेकिन कौन दूर करेगा यह अंधेरा!
बहुत सुंदर!!
फिल्म "फिर तेरी कहानी याद आई" का कैफी आज़मी का लिखा एक गीत याद आ गया....
आने वाला कल इक सपना है
गुजरा हुआ कल बस अपना है...
हम गुजरे हुए कल में रहते हैं
यादों के सब जुगुनू जंगल में रहते हैं...
और ये जंगल भी कभी कभी अपने ही अंदर होता है सतपुड़ा के घने जंगलों की तरह।
सुन्दर!!!!
अंधेरा महत्वपूर्ण है। प्रकाश की आराधना भी अंधकार में ही की जाती है।
आदमी को जीने के लिये सांस के अलावा और भी कुछ चाहिए ..सही कहा है |
सिर्फ सांस लेना ही जिन्दा रहने के लिए काफी नहीं... sahi kaha aapne... sundar rachna...
अंकल जी, बचपन में आप भी शरारती थे..हा..हा..हा..
सभी चाहते हैं यहाँ मुझे थोड़ा थोड़ा
मैं ही कई टुकड़ों में बट जाऊँ तो ठीक...
सुन्दर आलेख है आपका........शुभकामनाएं।
AAPMEIN EK SANVEDANSHEEL KAVI CHHUPA HAI . EK AUR SANVEDANAAON
SE BHARAA LEKH . SHUBH KAMNAAYEN .
सभी चाहते हैं यहाँ मुझे थोड़ा थोड़ा
मैं ही कई टुकड़ों में बट जाऊँ तो ठीक...
यानि जिन्दगी बाकी है , बढ़िया . इतने कमेंट्स के नीचे जा के लिखने में देर लगती है , वैसे भी जिसके इतने चाहने वाले हों , मेरे ख्याल से वहां जिन्दगी भी भरपूर है और एक मेरे कम्मेंट देने न देने से कोइ फर्क नहीं पड़ता . फिर भी ...
सहजता से बात शुरू कर खोल दिया विस्तार
जुगनूं ने नया अर्थ लिया,आकर उम्र के इस पार
क्या शेष रह पाता है
क्या शेष हो जाता है
जिसे थामना चाहें
वो भी खो जाता है
संवेदनशील, स्वादिष्ट लेख और कविता
बधाई
very nice...accha use karte hai aap shabdo ko..."tutta to glass hai..kach nai"...acche lage
सिर्फ सांस लेना ही जिन्दा रहने के लिए काफी नहीं
मैं भी टूटा कब, बस टुकड़ो में बटा.
आज वायदा बाजारी में सौदागरों का महत्व है, उन्हीं का बोलबाला, सौदे का नहीं. आर्टिफिशियल कमोडिटी की चमक दूर तक जाती है.
बहुत मार्कें कि बातें उद्धरणों के साथ
हार्दिक बधाई.........
चन्द्र मोहन गुप्त
कवि महाराज की जय। बहुत सुन्दर गद्य और उससे भी सुन्दर है पद्य। हे कविवर आप तो सचमुच टू इन वन ही नही थ्री इन वन भी हैं। फ़ोटो खींचने मे भी माहिर। धन्यवाद समीर भाई।
आप तो उजाला फैला रहे है अंधेरा तो सब ोक अपने हिस्से का लेना ही होता है । सुंदर लेख ।
कितना भी खोजना चाहूँ मैं, पर ढूंढ नहीं मैं पाता हूँ!
इन्श'अल्लाह रोशनी होगी!
आशीष
Bahut hi accha likha aapne...sadharan see bat bahut hi acche andaz mein likhi gayi hain yaha iss lekh mein.padhkar accha laga
wah. adbhud.
बहुत सुन्दर........
कभी मैं आपकी पोस्ट पढ़ने आऊ और एक ब्लेन्क कमेन्ट आजाए तो आप आश्चर्य न कीजियेगा ....हमेशा ही आपका लेखन इतना प्रभावित करता है की शब्दों के साथ बह जाती हूँ ...और रह जाती हूँ निशब्द हो कर .....ये बस कहने की बात नहीं " निशब्द हूँ " महसूस किया है मैंने इसे कई बार आपको पढ़ कर ....आभार
Thought Provoking and touching !
भाई समीर जी कविता तो सुंदर है ही कविता से पहले भी पता लगाना मुश्किल हो रहा था कि गद्य है या पद्य :)(उतना ही सुंदर)
आप अंधेरों के आदमी नहीं हैं बल्कि उजालों को उजाला देने वाले अच्छे इंसान है। आपके विचार तो आपके बारे में कुछ ऐसा ही कहते हैं।
क्या बात है समीर जी आज तो मूड में लगते है .....
अकेले ही मूड बनाने बैठे थे या .....
दुआ है ये 'उम्मीद' कभी जगमगाने लगे .....सांस लेने लगे .....
और इस अंधेरों के आदमी ने तो गज़ब कर दिया ....
लाजवाब पोस्ट .....
बहुत शानदार पोस्ट लगाई है आपने!
--
दो अक्टूबर को जन्मे,
दो भारत भाग्य विधाता।
लालबहादुर-गांधी जी से,
था जन-गण का नाता।।
इनके चरणों में श्रद्धा से,
मेरा मस्तक झुक जाता।।
अँधेरे में कंदील लटका कर पतंग उड़ाने की ख्वाहिश लाजवाब है .
अंधेरों के आदमी!!
लिखा हुआ बहुत जमा लेकिन ये हज़म नहीं हुआ...
मास्टर साहेब अक्सर कहा करते थे... चिराग तले अंधेरा.. फिर डांट कर बोलते.. मतलब बताओ..
हम तब कहा करते थे... दीपक जलता है..चारों तरफ रोशनी फैलती है.... लेकिन दीपक की खुद की परछाई से कुछ अंधेरा उसके नीचे होता है.. वही.. होता है चिराग तले अंधेरा...
डांट के साथ दो डंडे मिलते थे.. दोनों हाथों पे एक एक जम के...
आप भी चाहो तो आप भी अपनी टीस निकाल लो.. लेकिन अब भी हम यही कहेंगे..
लेकिन जो कुछ भी हो.. अंधेरे की बात ही कुछ और है.. आँखें चुधियाती नहीं..
आपके लिए स्पेशल गीत.. आप जैसे अंधेरों के आदमी के लिए अंधेरा भरा गीत..
http://sound.mp3pk.com/indian/parineeta/parineeta7(songs.pk).mp3
खूबसूरत शब्दचित्र के साथ एक जोरदार कविता पढ़ कर अच्छा लगा--बापू एवम शास्त्री जी की जयन्ती पर हार्दिक मंगल कामनायें।
Udan Tashtari ने कहा… Majak apni jagah he lekin ek popular paheli ko is tarah ujagar kar aap kya sabit karna chahte he. Yah swartha galat he.
Mazak ko mazak hi rahne de, kripya kisi ke mehnat par paani fer kar vivad kaa karan na banaye,
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बंटी चोर ने कहा… उड़न तस्तरी जी की बात अपनी जगह सही है ... चलिए ....इसका भी हल कर देते है ...
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इसे देखे : - http://chorikablog.blogspot.com/2010/10/94.html
बढ़िया आलेख |
समीर जी असम मे हमारे रिशतेदार के घर जाते थे तो वहाँ खूब जुगनु पकडा है बचपन मे मैने, याद आ गया वो लम्हा .... आभार
रोशनी की खोज बहुत ज़रूरी है,
अति सुन्दर आलेख .
डायरी से निकाल कुछ मुर्दा खत उस अँधेरी आग के हवाले कर देता हूँ. कुछ नई यादें पकड़ूंगा फिर से. कुछ मरे जुगनू मिले, चमकते ही नहीं. मरे जुगनू चमका नहीं करते. एक खत हाथ लगा. लिखती हो ’खुदा ने चाहा तो फिर मिलेंगे’. एक चमक बाकी हैं कहीं. सब कुछ लुट जाने पर भी एक उम्मीद की किरण, हल्की हल्की चमकती, सांस तोड़ती. अब शाम का इन्तजार भी नहीं. सपने मर रहे हैं
आप तो गणित और कविता का अजीब सा, लाजवाब संगम हैं ..कहीं तो दिल दरिया कहीं घूँट भर पानी भी नहीं ..कंदील नजर आती है सबको पर अँधेरे से झूझती वह पतंग.. उसका क्या ?
Kisi ne kuchh kehne k lie shayad chhoda nahi..bas yehi k bahut pasand aayi ye rachna
सौदा हो भी जाये तो एक छेद से कब तक सांस लेकर बच रहेंगे.
??
अपने अंदर ही सिमट जाऊँ तो ठीक
मैं हर इक रिश्ते से कट जाऊँ तो ठीक.
वस्ल की ये पंक्तियाँ बहुत बढ़िया लगी. ...जुगनुओं की चर्चा बचपना याद दिला दिया ... प्रस्तुई हमेशा की तरह बहुत सुन्दर....आभार
samir bhaai ji 84 lakh stashan hai kisi n kisi par to ujala hoga andhere wale steshan ko chhod ujale wale steshan par pahunch jayenge !
andhera hi to asl jiwan hai ujala to sirf ummid hai
arganik bhagyoday.blogspot.com
क्या बात करते हैं समीर भाई, ब्लॉग जगत में तो आप जहाँ जाते हैं उजाला ही उजाला नजर आता है। वैसे आमने सामने कभी मुक्कालात आई मीन मुलाकात नहीं हुई, इसलिए हकीकत की बात नहीं बता सकता।
................
…ब्लॉग चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
bahut hee khoobsurat post ..khasakar kavita bahut hee achchhee lagi
kehene ko shabd nahi hai...bahut hi umdha prastuti :)
http://liberalflorence.blogspot.com/
साहिब ,जो बात है दिल से लिख रहा हूँ जाने आपको बुरी लगे .आपका पूरा पोस्ट ही कविता होती है फिर यह पोस्ट तो इतनी सुंदर कविता की शब्द नहीं मिल रहे लिखने को .यह नहीं कविता में आनंद नहीं आया वोह अपनी जगह सुंदर है पर जो कैफ जुगनूँ की मोत का था उतरा नहीं .बतोर नजराना रात का जाने के लिखा था अर्ज कर रहा हूँ.
कई बार यूंहीं/
ज़हन में बनते है संवाद /
कैसे हो /
तुम्हारे सामने हूँ/
क्या हालत बना रखी है/
अच्छा हूँ /
फिर पी रखी है /
तुम्हे भुलाने के लिए /
क्या भूल गये/
खुद को भूल गया हूँ /
पागल हो /
वह छिप जाती है /
आकाश परे जाकर /
और मैं /
मैं अब भी जिंदा हूँ .
आपकी तो हर पोस्ट पसंद आती है तो ये कैसे कह दूं कि ये बाकियों से ज्यादा पसंद आई !
बहुत बढ़िया आलेख और कविता।
कहीं कुछ ऐसा है जो मन के भीतर कसमसा रहा है। बस! एक दीपक की जरूरत है।ये अंधेरे का आदमी उजाले मे आ जायेगा।हम तो सिर्फ कोशिश ही कर सकते हैं।
सिर्फ सांस लेना ही जिन्दा रहने के लिए काफी नहीं.
बेहतरीन !
zyada kehne ki haisiyat nahi aapke saamne itna hi kahungi ....
har lafz se aisi taaseer ki aankhon ke zariye lahu mein ghul gayi ... seedha dil mein utar gayi...
behtareen post ... badhai sweekarein
कही कभी अंधेरों में इंसान अपने को ढूंड लेता है , अच्छी लगी ,पूरी अभिव्यक्ति ।
'सिर्फ सांस लेना ही जिन्दा रहने के लिए काफी नहीं'
'झपट कर कुछ पकड़ा तो है. हाथ आया मुट्ठी भर और अँधेरा.
'झपट कर पकड़ता हूँ
हवा से
कुछ....
फिर
जोड़ लेता हूँ
एक मुट्ठी
अंधेरा और...
अपनी जिन्दगी के खाते में...'
बहुत ख़ूब! बहुत ही ख़ूब!
कविता का तो जवाब ही नहीं.
ब्रॉडबैंड की गड़बड़ी के कारण प्रतिक्रया देने में देरी हुई है. क्षमा चाहूँगा.
बहुत खूब, जुगनुओं की कहानी बचपन की याद दिला गई... भाषा का पैनापन अच्छा लगा...
Woh jo kaha nahin ja sakta, aapne kah diya. Bahut khub Samir ji. Likhte rahiye.
bahut acchhi lagi aapki ye post...kuch shabd, vakya aise lage maano hamne likhe ho....wo khad ko jalane waali baat thodi si nagawaar guzri :-) Umda
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