शायद इन्सानी फितरत है. हर इन्सान मुक्ति चाहता है. हर इन्सान शांति चाहता है और इसी तलाश में और अधिक उलझता चला जाता है.
क्या हमें सही मार्ग ज्ञात नहीं? हो सकता है कि सही मार्गदर्शक न मिल पाता हो.
अव्वल तो हम ठीक ठीक परिभाषित ही नहीं कर पाते कि हम चाहते क्या हैं. हमारे लिए मुक्ति के मायने क्या हैं? ऐसा क्या मिल जाये कि सिर्फ शान्ति ही शान्ति हो?
खुद से प्रश्न करता हूँ. कभी किताबों में खोजता हूँ तो फिर कभी बौराया हुआ विकल्प के आभाव में टी वी खोल कर बैठ जाता हूँ.
महाकुम्भ के समाचार आ रहे हैं. हरिद्वार का मुक्ति घाट हॉट स्पॉट बना है. रिपोर्टर्स सब कैमरा और माईक थामे खड़े हैं. पुलिस प्रशासन मुस्तैद है. महाशिवरात्रि है. श्रृद्धालुओं से घाट खाली कराया जा रहा है, पूरा घाट सफाईकर्मियों ने पाट लिया है. सफाई पूरी हो तो सन्यासी आयें और प्रारंभ हो शाही स्नान, अखाड़ा दर अखाड़ा.
कुछ विचार उद्वेलित करते हैं:
मन करता है
वस्त्र उतार फेंकूँ..
मल लूँ
पूरे तन में
भभूत
चुरा कर नजरें
अपने कर्तव्य से
जा बैठूँ
अपनी
नकारी हुई
जिम्मेदारियों की
शिला पर..
मूँद लूँ
आँखें
और
पूजा जाऊँ!!
अखाड़ों मे
तलाशूँ
अनन्त शांति को!
सर्वस्व त्याग कर
शिवरात्रि को
हरिद्वार में
शाही स्नान!!
क्या यह
विडंबना है
या
कायरता?
क्या यही है
मुक्ति का मार्ग
और
शांति का तलाश?
बस! सोचता हूँ मैं!
-समीर लाल ’समीर’
नोट: महाशिवरात्रि अर्थात १२ फरवरी, २०१० को रची गई!
92 टिप्पणियां:
Ye kavita naga baba logon ko jaroor padhai jani chahiye... aaj to ruka nahin ja raha kayal, koyal sab ho gaya.. :)
ab kayal hone par dobara post mat likhiyega plzzzz.. ha ha ha
चुरा कर नजरें
अपने कर्तव्य से
जा बैठूँ
अपनी
नकारी हुई
जिम्मेदारियों की
शिला पर..
मूँद लूँ
आँखें
और
पूजा जाऊँ!!
बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति ! साधूओं के बारे में मेरे भी विचार कुछ ऐसे ही है |
शायद साधु जिम्मेदारी से मूह छिपाकर नही बन्ते .बैराग्य और कर्तव्य से भागना अलग अलग बात है
वाऊ आप की उडन तश्तरी मुझ जॆसे गरीब के घर हमारे तो भाग्य उदय हो गये बहुत-बहुत धन्यवाद
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए और टिपण्णी देने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत बढ़िया लिखा है उम्दा रचना
मुक्ति...
बहुत बड़ा सवाल है.
यही है सच अपने समाज की, आचार्य रजनीश ने कहा था कि सन्यास सच्च गृहस्थ जीवन है। जीवन के विभिन्न आयामों को जीना ही जीवन है। अपकी अभिव्यक्ति सटीक है। दुZभग्य की अपने देश में आज भी भगोड़ों की पूजा होती है-गृहस्थों की नहीं।
चुरा कर नजरें
अपने कर्तव्य से
जा बैठूँ
अपनी
नकारी हुई
जिम्मेदारियों की
शिला पर..
मूँद लूँ
आँखें
और
पूजा जाऊँ!!
शांति तो सब पाना चाहते हैं पर मुक्ति ! और इस तरह तो न मुक्ति मिलती है न शांति ।
मन करता है
वस्त्र उतार फेंकूँ.. aysa mat karna.nice
आपकी पीड़ा समझते हैं समीर जी।
मेरीआवाज ब्लॉगस्पॉट से उठाई पंक्तियाँ
यही चाहत
मन मे पाले
इक दिन दुनिया छूटी
केवल एक
मृग-तृष्णा ने
सारी ही जिन्दगी लूटी
निरंतर चला आ रहा चिन्तन है यह, हर वक्त, हर काल-विशेष में इस चिन्तन से उलझता रहा है मनुष्य ।
कविता में मन का द्वंद्व सहजता से उतार दिया है आपने । आभार ।
गुरुदेव बस दो बात...
चल दे वहां, तुझको मिले प्यार जहां...
जात न पूछो साधू की...
जय हिंद...
सौ टके का सवाल है पर अगर यही रचना किसी नागा को पढ़वा दी तो तलवार लेकर पीछे दौड़ पड़ेगा, पता नहीं ये श्रद्धा से बनते हैं, मजबूरी से बनते हैं, मैंने इन नागा बाबाओं को भी बहुत करीब से देखा है पिछले सिंहस्थ में उज्जैन में।
पर हाँ जब मन ठीक नहीं होता दिल बैठा जाता है तब इस स्थिती को प्राप्त होने का विचार आता है, पर जब वापस मनोस्थिती ठीक हो जाती है, तब यही सब काटने को दौड़ता है, इसलिये अपनी तो यही मान्यता है कि जैसे हैं वैसे ही ठीक हैं।
शीर्षक में धाट को घाट करिए पहले -सारा मजा किरकिरा हो गया
और हाँ वैसा करके भी तो देखें ,शायद कोई और अनुभूति कविता बन बह निकले ...
भंते!
गृहस्थ मार्ग सर्वोत्तम है।
चिलम और चषक भिन्न प्रकृति के होते हैं।
.
. जोगीरानन्द वाणी (अध्याय 76, कारिका 69)
बस एक आग्रह
नोट न दिखाया करें
agar hum bhagwadgeeta par drishti dalen to ye mukti ka marg to nahin, khair(munde munde mati bhinna)
har vyakti ki soch alag alag hoti hai. aapne vazib likha hai.
इस बार संगम का माघ-मेला नागा आतंक से बचा रह गया। ये हरिद्वार जो चले गये थे।
मैने सुना है कि कुछ ‘सीजनल नागा’ भी बनाये जाते हैं बड़ी संख्या दिखाने के लिए।
इनका गृहस्थों के मेले में क्या काम?
कविता बहुत अच्छी है... मारक टाइप :D
धन्यवाद।
अपने मन के भावों को सुदर अभिव्यक्ति दी आपने .. पर मनुष्य को मन की शांति तो अपने मनोनुकूल काम करने से ही मिल सकती है .. चाहे वह जैसा भी काम हो !!
वाकई में मुक्ति एक बहुत बड़ा सवाल है......
महाशिवरात्रि अर्थात १२ फरवरी, २०१० को रची गई! शुकर मनाओ कोई अखाड़े वाला देखता नहीं है वर्ना दौड़ा लेता अलख निरंजन करते हुये।
शाही स्नान पर मैं भी रोज न्यूज देखती हूँ, यह तो मुझे तमाशा ज्यादा लगता है.
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति।
सोचिए ही नहीं
कुछ कर डालिए। कर्म से ही तो महक्ति मिलती है।
भलौ भलाईहि पै लहर लहर निचाइहि नीचु ।
सुधा सराहिअ अमरता गरल सराहिअ मीचु
aap kee baat sahee hai prantu jo sadiyon se chali aarahi hain us astha ko badalane me samay lagega
मुक्ति भी चाहिए और मुक्त होने को कायरता भी कहते हो.... :)
क्या यही है
मुक्ति का मार्ग
और
शांति का तलाश?
बस! सोचता हूँ मैं!
मुक्ति? किसकी और किससे? सब म्रूगतृष्णा है.
रामराम.
सर्वस्व त्याग कर
शिवरात्रि को
हरिद्वार में
शाही स्नान!!
क्या यह
विडंबना है
या
कायरता?
क्या यही है
मुक्ति का मार्ग
और
शांति का तलाश?
वाह वाह क्या न कह दिया आपने इन चंद पंक्तियों में.......बहुत खूब
मन की शांति ही मुक्ति है .... अजी कुम्भ अप्रेल तक है आ जाइए कुम्भ में स्नान करने ....आभार
apke blog par pahli bar ayaa hoo kai dino se soch rahaa hoo aapkaa blog kha hai ab mila achha likha
dipak jee
sadhuo se hi bhart hai nagaa sadhu bhle ise padhe bhle n padhe unhe bhotiktawad se door rahnaaa achha lagtaa hai to isme buraai kyaa hai hame to unka samman karnaa chahiye kyo ki aaj ke samy me kuch bhi tyagnaa kafi kathin hai
jindagi aur jimmedaariyon se muh modataa nahi saadhu
bichaktaa jeevan jeetaa hai jo grahasth hi to hai
rakh nahi tel lagaataa
bevajah hee hee kartaa dusro ki dekhaa dekhi
ab saadhu bhi man me kyo?
mahaul ke praangan ka prabhaav hi to hai maanav jeevan par
chaahe jo ban jaao
talaash pahle gar khud ki kar lo to sarvatr shaanti hai
शीर्षक में धाट को घाट करिए पहले -सारा मजा किरकिरा हो गया
और हाँ वैसा करके भी तो देखें ,शायद कोई और अनुभूति कविता बन बह निकले ...
शांति का तो पता नहीं पर मुक्ति का यह शायद सबसे कठिन मार्ग हो गया है आज के घोर भौतिकवादी युग में. फिर भी ये इसे अपनाए हुए हैं - कुछ अपनी इच्छा और कुछ ऊपर वाले की कृपा. पर शाही स्नान का ऐतिहासिक सन्दर्भों में और मुगलों से स्वतंत्रता का अपना महत्त्व है. इसे नजरअंदाज कर राय कायम करना ठीक नहीं है.
आपने बिलकुल सही लिखा है | क्या सचमुच इन्हें शान्ति की तलाश है ? क्या इनका यह स्वांग अपने अहम की प्रतिस्थापना का अक्षम्य दुस्साहस नहीं है ? जगत में सर्वाधिक अशांति फैलाने के लिए और आडंबरपूर्ण वक्तव्यों और प्रवचनों से लोगों को दिग्भ्रमित करने के लिए मेरे ख्याल से ये बाबा लोग ही उत्तरदायी हैं |
बड़ा सार्थक कमेन्ट किया इस पोस्ट के माध्यम से..साधुवाद.
आपके ब्लॉग का लिंक मैंने आपने ब्लॉग "शब्द-शिखर" पर लगा दिया है.
bahut sahi sawaal uthaya hai sir aapne..par ye mukti jo jindagi se mukti ke brabar hai.. :)
आप वस्त्र त्याग मत करना क्यूँ की आप भगौड़े नहीं हो...आप उनमें से नहीं हो जो अपनी जिम्मेदारियां दूसरों पर डाल कर, समाज से कट कर अपनी दुनिया में धूनी रमाये रहते हैं...ऐसे लोग महा निकम्मे और जाहिल हैं और समाज का कोई भला नहीं करते...बात बात में क्रुद्ध होना और अपने आप को विशेष कहलाना दिखाना छोटी छोटी बातों पर मरना मारना जैसे बातें भला इन्हें मोक्ष कैसे दिलवा सकती हैं...ये कहीं स्नान करें या न करें ऐसे ही रहेंगे...अंग्रेजी में कहूँ तो यूज लैस...
नीरज
समीर जी,बढिया विचारणीय पोस्ट लिखी है...यदि सब भोगने के बाद मन उस ओर जाए तो यह कायरता नही है....लेकिन अभावों और जिम्मेदारीयां छोड़ के यदि उस ओर जाए तो कायरता ही है....
जिम्मेदारियों का निर्वहन ही शान्ति और मुक्ति के पथ पर ले जायेगा ।
वास्तविक सन्यासी बनने के लिये भी बहुत बड़ा त्याग करना पड़ता है. भौतिकता से भागना भी बहुत दुष्कर और श्रमसाध्य है, हालांकि ऐसे साधुओं की भी कमी नहीं जो महज अपने कर्तव्यों से डरकर या अपराध करने के बाद ये बाना धारण कर लेते हैं.
क्या यही है
मुक्ति का मार्ग
और
शांति का तलाश?
yahi rashn mere mann me bhi uthta raha hai
कैसी शांति , कौन सी शांति . सब कुछ जिम्मेदारियों से बच निकलने का उपाय है जी , और इन हिप्पियों को यहां नागा बाबा कहा जाता है । विडंबना तो देखिए कि गंगा मईया भी इन्हें कभी गंगा लाभ नहीं करवा देती
अजय कुमार झा
very thoughtfull sameer ji ...
प्राणिमात्र अपने जीवन में समस्त उपक्रम,सुख और शांति पाने के निमित्त ही करता है ...यह अलग बात है कि उसके द्वारा चुने मार्ग पर चल वह अंततोगत्वा लक्ष्य को पहुँचता है या नहीं.....
शांति और मुक्ति ...यह प्रश्न इतना सरल नहीं....
गृहस्थ हो संन्यास हो या वानप्रस्थ हो...किसी भी आश्रम में रह यदि व्यक्ति अपने कर्तब्यों /दायित्वों का भली प्रकार निर्वाह करे,तभी उसका अभीष्ट उसे प्राप्त हो सकता है...
शायद अपना अपना दृष्टिकोण है ..... हर किसी को अपना मार्ग स्वयं ही तय करना है ... जीवन की रीत खुद ही निभानी है ... अपनी अपनी साँसे लेनी हैं और अपनी अपनी साँसों में ही गुज़र करना है ..... आपके मन का द्वंद हर इंसान के मन का द्वंद है .... बहुत ही अच्छा लिखा है समीर भाई ...........
समीर जी, यह सत्य है कि इनमें से अधिकांश मक्कार हैं लेकिन बस यही संतोष है कि आज देश में तकरीबन 80 लाख से अधिक साधु हैं और वे इन अखाड़ों में रोटी तोड़ रहे हैं। कल्पना करो कि ये निकम्मे लोग यदि हिंसा या लूटपाट का मार्ग अपना लेते तो क्या होता? जब तक इस देश में फोकट में रोटी खिलाने की परम्परा बन्द नहीं होगी तब तक ऐसे मक्कार लोग जन्म लेते रहेंगे। जहाँ देखो वहाँ लंगर लगे हैं, खाने के। क्या आवश्यकता है इन सबकी? यदि किसी को धार्मिक यात्रा करनी है तो भोजन की भी व्यवस्था स्वयं करेगा। लेकिन हम भोजन खिला-खिलाकर पुण्य कमा रहे हैं और अनावश्यक भीड़ एकत्र कर रहे हैं। अच्छा बिन्दु उठाया है आपने, बधाई।
mukti........bada sawal
prabhavshali abhivyakti
तो आपको मुक्ति चाहिये.....
क्यों ?
क्या घर में क्या कुछ झंझट वगैरह हो गई क्या ? नमक ज्यादा पड गया था या तेल कम पडा था।
भई, झंझट की वजह से अगर मुक्ति चाहते हैं आप तो फिर भूल जाईये, आपको चित्रलेखा फिल्म का पैरोडी गीत याद रखना चाहिये -
संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे
इस लोक में मुझसे निपट ही लो, नहीं तो उस लोक में भी मुझे ही पाओगे
संसार से भागे फिरते हो :)
बस! सोचता हूँ मैं!!
मैं भी..
क्या यही है
मुक्ति का मार्ग
और
शांति का तलाश?...
मेरे व्यक्तिगत राय में वर्तमान में शांति का शायद यही उपाय है,चिंतनशील पोस्ट.
कर्तव्यपथ से किनारे हो चुके हैं इनमें अधिकतर..
समीर जी ! आपने नागाओं के नग्न चित्र के साथ जो यथार्थ की नंगी तस्वीर कविता के जरिये रची है वह लाजवाब कर रही है , सचमुच मुक्ति की चाह ने हमें बिलकुल नंगा कर डाला और न घर के रहे न घाट के . क्या पलायन ही मुक्ति का मार्ग है ?
बहुत ही विचारपूर्ण आलेख और हमेशा की तरह उसे compliment करती हुई बढ़िया कविता...
क्या यह
विडंबना है
या
कायरता?
क्या यही है
मुक्ति का मार्ग
और
शांति का तलाश?
यही बातें वो बाबा लोग भी अपन लोगों के लिए बोलते हैं भाई साहब।
अब हटाइए भी। हा हा। हर हर गंगे।
jo aapko videsh me baithe-baithe dikh gya,yhan ke logon ko ab aap ne dikh diya ..bade bhai great hai aap ...sunder samayik rchna...
विडंबना है
या
कायरता? क्या यही है
मुक्ति का मार्ग
और
शांति का तलाश?
आपने सही सवाल उठाया है।
हमारी धर्मभीरुता देखिये , हम तो ये सवाल उठा भी नहीं पाते।
हम क्या , हिंदुस्तान में कोई भी नहीं।
जाने इन बेड़ियों से कब मुक्ति मिलेगी।
क्या यह
विडंबना है
या
कायरता?
ये उनके जीने का अपना तरीका है. कोई किसी में खुश तो कोई किसी में.
बहुत सही सोचते हैं - आप!
--
कह रहीं बालियाँ गेहूँ की - "वसंत फिर आता है - मेरे लिए,
नवसुर में कोयल गाता है - मीठा-मीठा-मीठा! "
--
संपादक : सरस पायस
भैया जी हम कहेंगे तो छोटा मुंह बड़ी बात,
एक ने कर्त्तव्य से मुंह मोड़ा तो तथागत कहलाये दूसरे ने मुंह मोड़ा तो नागा कहलाया.
कर्त्तव्य से मुंह नहीं मोड़ना है ये बस जिंदगी जीने का तरीका है. कोई कैसे जीता है कोई कैसे.
धर्म के नाम पर यहीं क्यों सभी को दर्शन आने लगता है?????
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
यह भी एक अलग सा नज़रिया है. आपकी सोच कब किस दिशा में चली जायेगी, जानना बड़ा मिश्किल काम होता है.
अपने आप को सबके सामने नंगा करना इतना भी आसान नही है साहब ।
वैसे अधिकता झूठठो की हो गयी है इसलिये शक करना लाजमी है।
दिगम्बर जैन भी ऐसे ही नंगे होते शायद।
कोइ गलती हो तो क्षमा प्रार्थी हूं।
नतमस्तक, आपके इस सोंच पर
निठल्लों की जमात,
शिवभक्तों की कायनात,
गंगा जी की धार,
बंटाधार-बंटाधार,
आप तो बहुत अच्छे कवि भी हैं!
सनातन धर्म में गृहस्थ, संन्यास, वानाप्रस्त सबके के अलग-अलग कार्य-दायित्व बताये गए हैं | जैसे एक गृहस्थ सन्यासियों के दायित्व को नहीं निभा सकता वैसे ही सन्यासी भी गृहस्थ का कार्य नहीं कर सकता | दोनों के अलग अलग कार्य क्षेत्र हैं और दोनों ही अपने जगह पे सही है |
ऐसा मान लेना ठीक नहीं है की सारे सन्यासि अपने दायित्वों से भागे हुए लोग हैं | वैसे देखें तो आज के आम जन (गृहस्थ) लोग ही अपने सामाजिक दायित्व से पीछे भागा हुआ है | हमारे सामने कितनी ऐसी घटनाएंघट जाती हैं जिसमें हम मुह चुराकर बस मैं और मेरा परिवार मैं ही व्यस्त हो जाते हैं | आज यदि गृहस्थ अपने सामाजिक सरोकारों-दायित्वों को सही ढंग से निभाये तो भारत की ये दुर्दशा ना रही होगी जो आज है |
आदरणीय समीरलाल जी, आदाब
चुरा कर नजरें..अपने कर्तव्य से..जा बैठूँ
अपनी..नकारी हुई..जिम्मेदारियों की.शिला पर..
मूँद लूँ..आँखें..और...पूजा जाऊँ..
आपका अपना अलग अंदाज और शैली पेश करती रचना.
कमंडल की जगह लैपटाप धारण करियेगा सर ! और बाकी सब चलेगा । और उधर से ही ब्लॉग पोस्ट ठेलते रहियेगा :)
चुरा कर नजरें
अपने कर्तव्य से
जा बैठूँ
अपनी.....
अजी यहां भी मुक्ति कहां शांति कहा.... यह सब तो हमारे भीतर है, ना पुजा मै है ना मंदिर मै, चलिये जब बाबा बन जाये तो बता कर बने, आज कल साधु बाबा भी खुब मजे मै है.
संसार से भागे फ़िरते हो भगवान को तुम क्या पाओगे, यह गीत जरुर सुने.
बहुत सुंदर लेख लिखा,भारत जाते समय या आते समय बाबा दर्शन जरुर देवे, गला ठीक हो जाये तो फ़ोन करुंगा, अभी तो बोलती बन्द है
Very Well Said!
चुरा कर नजरें
अपने कर्तव्य से
जा बैठूँ
अपनी
नकारी हुई
जिम्मेदारियों की
शिला पर..
मूँद लूँ
आँखें
और
पूजा जाऊँ!
बहुत बडा सच लिख दिया आपने. मुझे भी इन साधुं या असमय लिये जाने वाले सन्यास के प्रति ऐसी ही अनुभूति होती है. साधुवाद.
mukti hum paribhashit karte hain lekin hamein lagta hai ki mukti ghat. ek dum sahi baat uthayi aapne.
फोटू देख के मन में यही आता है कि आज के कलियुग में भी इतने साधु-सन्यासी हैं! :)
With due respects, absolutely no comments
Ye unki jeevan shaili hai....wo nahi aate hamare samaj mein... sivay kumbh ke...sahi maayne mein ek majboot stambh hai....dharm, sanskriti aur samaj ke santulan ke liye unka astitva aur upasthiti awashyak hai....Mukti ki chinta unko nahi hai....hamko hai kyonki dogle wo nahi ham hai
समीर भईया
जो आपके मनोभाव है, वो हमारे सहित जाने कितने मन में उठते हैं मगर शब्द रुप देना सबके बस में कहाँ. बहुत बधाई.
dharm ke naam par loot hai, jo loot sake to loot...
rachna achhi hai... par fayda kya?
बहुत ही चिंतन प्रधान पोस्ट है !
सदियों से मानव मस्तिष्क में यह द्वन्द चला आ रहा है
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ये शांति और मुक्ति का मार्ग नहीं हो सकता
हाँ
ये अकर्मण्यता का मार्ग हो सकता है
चुनौतियों से पलायन का मार्ग हो सकता है
ये जीवन को नकारने का मार्ग हो सकता है
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भभूत मलने और कपडे त्यागने से ही शान्ति और मुक्ति मिल जाती
तो कितना सहज और सरल उपाय था
शुभ भाव
हम भी मुक्ति की ही तलाश में हैं पर दिशा नहीं मिल रही थी. अब समझ में आया की हमारा रास्ता तो इन्ही लोगों ने अवरुद्ध कर रखा है.
मन करता है
वस्त्र उतार फेंकूँ..
सर सिक्स पैक हैं क्या....वरना उतारिएगा मत....रही बात मुक्ति की .. आप खुद गुरु हैं..क्या कहें हम अकिंचन....जो कर्त्तव्य छोड़ कर जा सकते नहीं....देश समाज किसे छोडें...विवेकानंद की माने तो देश का, समाज का कर्त्तवय हमें संन्यास लेने नहीं देगा...अगर शुकदेव महाराज(महर्षि अगस्तय के बेटे जो जन्म लेते ही तप के लिए चले गए..वो भी मायापति कुष्ण के समय में ...12 वर्ष तक गर्भ में रहे..कहते हैं कि गर्भ में शिशु को हर जन्म ज्ञात रहता है.) की सुने तो सारा संसार ही माया है...इसलिए माया से दुर रहो...आखिर किसकी बात माने,,,सो जो दिल को अच्छा लगा कर लिया, हंसना चाहा हंस लिए..रोने का मन किया, रो लिए....
भाई समीर जी
क्या बात है ...इतना वैराग्य ...मनोभावों की शक्ल में कविता अच्छी बन पड़ी है
बाबा शिव आपकी मनोकामनाए पूरी करें ...बधाई
साधुओं के बारे में कई गलत धारणाएं हैं , हाँ बुरे साधु भी होते हैं लेकिन हम केवल बुरे को क्यों देखते हैं? अपनी संस्कृति की बुराई देखने का एजुकेशन हमे मैकाले और अंग्रेजों से मिला है, दुनिया के किसी देश मे इतना swa-संस्कृति विरोध नहीं है. जिन देशों की सस्कृति घटिया है वे भी उस पर गर्व करते हैं। लेकिन हमारी बात कुछ और है।
आज जिम्मेदारियों से कौन नहीं भाग रहा है, क्या जिम्मेदारियों से भागने के लिए साधु बनना जरूरी है? सरकार से लेकर इस देश में कितने लोग हैं जो अपनी जिम्मेदारियों से भाग रहें हैं। दोष केवल साधुओं को क्यों दिया जाए?
सुन्दर अभिव्यक्ति, जो एक विचारणीय प्रश्न भी खडा करती है ----
क्या यही है
मुक्ति का मार्ग
और
शांति की तलाश?
अभिवादन के साथ शुभकामनाएं...
क्या यह
विडंबना है
या
कायरता?
क्या यही है
मुक्ति का मार्ग
और
शांति का तलाश?
बस! सोचता हूँ मैं!
बहुत सही सवाल उठता है आपके मन मे। अकसर ही ऐसे सवाल मन को वय्थित कर देते हैं मुझे तो ये अपनी जिम्मेदारियों से पलायन लगता है। बहुत अच्छी रचना शुभकामनायें
सही कहा आपने!!
कभी शांति को तलाशा ही नहीं तो क्या कहें :)
क्या यह विडंबना है या कायरता? बहुत कमाल लिखते हैं आप.....! बहुत बहुत आभार ....!
शुकि्या! बहुत ही उम्दा रचना!
आपके ब्लाग पर अक्सर आना होता है, हर बार
कुछ समृद्ध होती हंू।
क्या यह
विडंबना है
या
कायरता?
Bahut achha sawal...
Bahut achhe vichar...
Bahut badhai
बहुत ही सुन्दर, भावपूर्ण और विचारपूर्ण आलेख! बढ़िया लगा! इस उम्दा पोस्ट के लिए बधाइयाँ!
समीर भाई कभी कभी मेरे दिल में भी ये ख़याल उठता है, की इसमें पूजे जाने लायक क्या है !
मुक्ति का सवाल अच्छा उठाया है आपने
क्या यह
विडंबना है
या
कायरता?
क्या यही है
मुक्ति का मार्ग
और
शांति का तलाश?
बस! सोचता हूँ मैं!
नहीं भैया...यह नहीं है मुक्ति का मार्ग.
ज्वलित देख पंचाग्नि जगत से निकल भागता योगी
धुनी बनाकर उसे तापता अनाशक्त रसभोगी
---दिनकर जी
अभी तो आप सिर्फ " बम बम भोले ही बोलिएगा "
सौ. साधना भाभी जी क्या कहेंगीं अगर आप सच में बैरागी बाबा बन गये तब ? न न ....
स स्नेह,
- लावण्या
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