जनवरी माह की ठंड की रात के ११ तो बज ही गये होंगे. सड़क बिल्कुल सुनसान.
एक पार्टी से लौटते हुए घर के अंधेरे मोड़ पर गाड़ी मोड़ी तो देखा एक आदमी स्कूटर से गिरा पड़ा है. गाड़ी खड़ी करके नजदीक जाकर देखा तो लगा कि मर चुका है.
तुरंत वहीं से पुलिस को फोन किया.
४५ मिनट में ही तत्परता से पुलिस आ गई. जीप से उतरते ही इन्सपेक्टर ने पहले लुढ़की हुई स्कूटर और फिर उस व्यक्ति पर नजर दौड़ाई और फिर अपने सिपाही से बोला: इस गाड़ी वाले ने ही ठोका होगा. ले चलो साले को थाने. सब रात में दारु पी कर चलाते हैं और एक सीधे सादे स्कूटर चालक को मार दिया. ले चलो, अभी उतारते हैं इनकी रईसी!!
आवाज पहचानी हुई थी फिर भी एक बार को तो मैं घबराया कि यह कौन सी बला मोल ले ली. एक बार को आँख के सामने पुलिस के डंडे खाते का दृष्य भी घूम गया.
मैने ध्यान से देखा तो मेरा पूर्व से जानने वाला ही इन्सपेक्टर था.
मैने हिम्मत जुटा कर कहा- अरे तिवारी जी, आप??
वो भी पुलिसिया मिजाज के विपरीत झट से पहचान गये: अरे भाई साहब, आप यहाँ क्या कर रहे हैं?
मैने उन्हे स्थितियाँ बतलाई कि कैसे मैं दावत से लौट रहा था और यह यहाँ पडा मिला तो मैने पुलिस को फोन किया.
उसने तुरंत सिपाही से कहा: देख तो रे, ये मर गया कि जिंदा है?
फिर मेरी तरफ मुखातिब होते हुए कहने लगा: क्या बतायें भाई साहब, ये लोग भी न! बस, पी कर स्कूटर चलाते हैं. होश रहता नहीं, कहीं भी पत्थर/ खम्बे से टकराये और लगे मरने और परेशान होते हैं आप जैसे सीधे सादे लोग.
क्या बदलाव आया एक मिनट में पहचान के कारण.
सिपाही उस बेहोश आदमी के पेट में डंडा कोंच कर पूछ रहा है कि क्यूँ बे, जिन्दा है कि मर गया?
डंडे की कूचन से वो थोड़ा हिला डुला फिर क्या था! सिपाही ने उसे दो डंडे ही जड़ दिये-देख कर नहीं चलता क्या? पीकर गाड़ी चलाता है?
मैने बीच में पड़ते हुए कहा कि यार, वो मर जायेगा. इसे अस्पताल भिजवाओ.
इन्सपेक्टर ने बताया कि ये ऐसे नहीं मरते. अभी इसको थाने ले जायेंगे. एफ आई आर बनेगी. फिर अस्पताल भेजेंगे.
खैर, जीप में उसे और उसके स्कूटर को लदवाया गया. तिवारी जी अगले दिन शाम को दावत पर मिलने का वादा लेकर विदा हो गये.
मैं भौचक्का सा सोचता रहा कि अगर आज तिवारी जी की जगह कोई और इन्सपेक्टर होता तो?? मैं तो अभी पिट रहा होता थाने में और जो दारुखोरी और बेहोशी का इल्जाम उस दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति पर लगा है वो मैं झेल रहा होता.
सोचता हूँ कि यह कैसा पूर्वाग्रह है कि बिना किसी पड़ताल के अपनी तरफ से ही पूरी कहानी बना ली. अब जैसे जैसे पड़ताल और पहचान (लेन-देन शिष्टाचार भी इसी का अंग है) आगे निगलेगी, वैसा दिशा निर्धारण होगा केस का.
खैर, अब मैं भी एक पूर्वाग्रह से ग्रसित सा लग रहा हूँ. आईंदा जब भी ऐसा मौका आयेगा, मैं भी अन्यों की तरह अनदेखा कर के निकल लूँ तो ही ठीक.
पता नहीं जब वक्त आयेगा तब यह पूर्वाग्रह हाबी हो पायेगा या नहीं मगर अभी तो मुझे ग्रसित किये हुए है.
वादे क मुताबिक अगले दिन तिवारी जी के साथ कुछ जाम शाम छलके. वो बता रहे थे कि सुबह अस्पताल से पट्टी वगैरह करा कर उसकी छुट्टी करा दी है. स्कूटर जब्त है. घटना की तफतीश चल रही है. शराब पीकर वाहन चलाने का आरोप है. कुछ तो रकम कटेगी.
नशे में कह रहे थे कि पता नहीं लोग क्यूँ पीते हैं और उस पर से गाड़ी चलाते हैं. बहुत गुस्सा आता है मुझे ऐसे लोगों पर.
हम सुनते रहे. हाँ में हाँ मिलाते रहे. रात ज्यादा होने लगी. तब तक तिवारी जी पी भी काफी चुके थे सो हम विदा हुए. तिवारी जी अपनी बुलेट पर झूमते हुए निकल गये अपने घर और हम आ गये अपने घर.
रविवार, मई 04, 2008
कैसे कैसे पूर्वाग्रह!!
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34 टिप्पणियां:
पुलिस के यह व्यवहारही लोगों की मदद की मानसिकता हर लेता है।
वास्तव में हमारे देश में पुलिस भी जरुरत से कम है और उसे नाना प्रकार के काम करते रहने पड़ते हैं, इस लिए वे शॉर्टकट उपयोग में लेते हैं। आप पर जो हमला हुआ था उस के बाद आप सारी रामकथा सुनाते रहते और यह अन्वेषण भी कर के पुलिस को देते कि वाकई हुआ क्या था। हो जाता न पुलिस का काम हलका।
समीर जी , आप ने तो आज की व्यवस्था की एकदम तसवीर ही बना डाली। इन्हीं पूर्वाग्रहों की वजह ही से तो हमारा यह हाल हुया हुया है। प्रसंग रोचक तो था ही और साथ में सोचने पर मजबूर करने वाला भी था।
कमबख्त ये चीज ही ऐसी है. बहुत बढिया.
कानून और व्यवस्था का ये ही तो दोष है जिसके कारण आम आदमी थाने में जाने से ही घबराता है और ये सोचता है कि कोई पहचान वाला हो तो ही थाने में जाए ।
आपकी रपट अच्छी लगी , जो पुलिसिया पूर्वाग्रहों की पोल खोलती है
ye badi hi galat baat hai,apni police vyavasta bahut kharab hai,isliye koi aam adami kisi ki bhi help nahi karta,aurjab khud par gujarti hai,chillate hai insaniyat mar gayi koi maddat nahi kar raha,vaise aapka naseeb achha tha jo wo inspector aapke pehchan ka nikla,varna:):),khair bahut rochak raha padhna.inspector ke jaise dogole logo ko duty se barkhast karna chahiye.
देखिये पुलिस को भी मामले निपटाने होते है ,जो पहला गला मिले हार वही डाल देते है,बधाई आपको कि आपकी पुलिस मे जान पहवान है, अब हम भी याद रखेगे कबी जरुरत पडी तो आपका नाम प्र्योग कर लिया केरे जी ,वैसे भगवान ना करे कभी पुलिसियो से मुलाकात हो .:)
बहुत बढ़ियाजी।
सही फोटू खींचा है आपने।
कनाडा में रहकर भी इंडिया का फोटू येसे ही खींचते रहिये।
पूर्वाग्रह....
सब जगह है.
हम भी एक पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं कि आप जो भी लिखेंगे अच्छा ही लिखेंगे.. वैसे ये पूर्वाग्रह कभी धोखा नहीं दिया है.. :)
बिलकुल सच है, कटु यथार्थ...
***राजीव रंजन प्रसाद
ठीक बात कही आपने... अकसर यही देखा जाता है.. मदद करने के मतलब है.. आ बैल मुझे मार..
आदमी चाह कर भी ऐसे हालात मे लोगों की मदद सिर्फ़ इस डर से नही करता है की कौन इस पुलिस और कोर्ट कचहरी के चक्कर मे पड़े।
पुलिस वाले अपनी ऐसी ही हरकतों के लिए बदनाम है।
ये जो तस्वीर आपने दिखाई वो एक नजरिया था और सच में हम लोग पूर्वाग्रह ही पाल कर बैठ जाते हैं. पुलिस और नेता को लेकर हमारी सोच एक जैसी है
एक बात तो साफ है आपकी जान-पहचान बहुत अच्छे और पहुचे हुए लोगो से है, चाहे वो आपके सहपाठी हों या फिर आपके इंसपेक्टर मित्र...
हम भी कभी फँसे तो बस समीर लाल का नाम लेकर निकल जायेंगे :-)
बेहतर लिखा है आपने। मेरे साथ भी ऐसी घटना हो चुकी है। हालांकि आप तो वहीं छूट गए, मैं थाने तक भी गया था। बाद में उस इलाके के एसीपी को थाने पर आना पड़ा, जिसके साथ मैंने पी थी। तक कहीं जाकर मैं ढाई बजे रात को घर पहुंचा।
क्या कहें गुरुवर!!
सही चेताया जी आपने. आज ही से शहर के सभी तिवारीजियों से मेल जोल बढ़ाने के प्रयास शुरू करते हैं.
[QUOTE]"पता नहीं जब वक्त आयेगा तब यह पूर्वाग्रह हाबी हो पायेगा या नहीं मगर अभी तो मुझे ग्रसित किये हुए है."[/QUOTE]
मैं जानता हूँ कि वक्त आने पर इस पूर्वाग्रह के हाबी होने के बदले 'हार की जीत' के "लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुखियों पर विश्वास न करेंगे।” संवाद से उपजा हुआ पूर्वाग्रह ही हाबी होगा।
खामियां ही खामियां है सिस्टम में ....... और हम बेबस।
समीर जी...आपकी बात काफी हद तक सही है लेकिन सभी पुलिस वालों के लिए एक जैसी सोच ठीक नहीं है!अधिकतर पुलिस वाले वैसे ही हैं जैसे आपने बताये लेकिन बहुत सारे संवेदनशील भी हैं! मैंने खुद अपनी गाडी में एक्सीडेंट हुए लोगों को अस्पताल पहुंचाया है!खैर आम लोगों में पुलिस की छवि तभी बदलेगी जब अधिकांश पुलिस वाले संवेदनशील होंगे!
सही समस्या की और ध्यान खींचा है आपने हमारा.. या तो असंवेदनशील बनें या फिर इस सिस्टम से जूझें।
कथाकार चेखव की कहानी गिरगिट याद आती है. लेकिन माफ़ी चाहता हूं कि आपका किस्सा गिरगिट की उंचाई को नहीं छू पाता, पर है अच्छा. बधाई.
वर्जनाएँ और पूर्वाग्रह
आधुनिक युग की
विडम्बनाएँ हैँ -
जिनसे कुछ अँश तक,
हम सभी ग्रसित हैँ !
ये भी एक कटु सत्य है -
आपका शुक्रिया समीर भाई,
इस बारे मेँ,
ध्यान खीँचने के लिये ..
- लावण्या
बेहद मजेदार वाह परिचित थे सो पीकर झूमते हुए बुलेट मे बैठकर निकल लिए . गोरखपुर के तिवारी जी है पढ़कर मुझे बड़ा आनंद आया है .बहुत बढ़िया
समस्या की सच्ची तस्वीर समीर जी ने खींच दी, तो हम सबको वाह-वाह करना ही पड़ेगा। क्योंकि जो लिखा है सच्चा लिखा है।
पर मुझे यह जानना है कि क्या पुलिस वालों का कोई अलग दुष्ट गाँव होता है जहाँ पैदा होने वाला हर बच्चा अनुवांशिक रूप से वैसे ही चरित्र का मालिक होता है? या ये लोग भी हमारे बीच से ही चुनकर लोकसेवा की नौकरी करने जाते हैं? हमारी सुरक्षा की जिम्मेदारियों से अलग भी इन्हे अपने बारे में बहुत कुछ सोचना-देखना पड़ता है?
भारत या तृतीय विश्व की पुलिस जिन परिस्थितियों में काम कर रही है उससे मानवीय संवेदना का स्रोत धीरे-धीरे सूखने लगता है। अपराधी प्रवृत्ति के लोगों के बीच काम करने की मजबूरी उन्हे संत-महात्मा बनने के रास्ते पर तो ले नहीं जायेगी।इसके बावजूद अनेक संवेदनशील पुलिस अधिकारी हमारे बीच अच्छा काम कर रहे हैं। यदि हमारे समाज में ऐसी ही पुलिस पनप रही है तो इसके लिये हम भी निर्दोष नहीं कहलायेंगे।
एक आम नागरिक की संवेदना भी अपराध पर अफ़सोस जताने और व्यवस्था को कोसने से आगे नहीं बढ़ पाती। अपराध की रोकथाम में हम पुलिस की कितनी मदद करने को तैयार हैं।समीर जी की तरह थोड़ा कष्ट तो उठाना ही पड़ेगा।
समीर जी
जो हुआ अच्छा हुआ भली करे भगवान
वरना पुलिस के सामने बेबस है इन्सान
खासतौर पर
जब पुलिस और इन्सान दोनो इधर के हों
--योगेन्द्र मौदगिल
इंस्पेक्टर मातादीन के सारे चेले ही हैं पुलिस में।
समीर जी, पूर्वाग्रह ने ही तो देश का...,आप ने तो सोचने पर मजबुर कर दिया, लेकिन यह सब पुलिस वाले कया ऎसे ही होते होगे? लेकिन लोगो की मदद ना करना भी तो एक जुर्म हे, हो सकता हे हमारे कारण ही किसी की जिन्दगी बच जाये.
लेकिन आप का प्रसंग बहुत ही अच्छा लगा हंसी तो आई ही लेकिन सोचने पर भी मजबुर हो गये .
हमारे एक दोस्त की आपबीती बता दी आपने फर्क सिर्फ़ इतना है की वो गाड़ी मे थे ओर दिन मे कही से आ रहे थे ओर बीच सड़क मे किसी को गिरा देख जब रुके तो पीछे से आते लोगो ने उन्हें ही पकड़ लिया वो तो एक बन्दे को होश आ गया वरना भीड़ उन्हें ही थाम लेती.......
यही वजह है कि लोग घायल को देखकर भी अनदेखा किये निकल जाते हैं ।
पुलिसया अंदाज से तो लग रहा था कि यू.पी. की पुलिस थी । :)
अरे यह तो हमारे भारत की शान है...या तो आपकी पहचान हो या फ़िर पैसा हो कुछ तो हो भाई...वैसे आप बच गये...:)
यही हाल है श्रीमन जिसके कारण कोई किसी की मदद को आगे नही आना चाहता....अगर भूल से कोई दुर्घटना हो जाए तो पीछे मुड़ के सहारा देना की बजाय भागना ज्यादा उचित समझा जाता है।
खूब लिखा है - इसीलिए नेकी कर दरिया में डाल कहते होंगे - manish
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