गुरुवार, दिसंबर 28, 2006

हमेशा देर कर देता हूँ मैं..





उर्दु और पंजाबी के मशहूर शायर मुनीर नियाज़ी. कौन जानता था कि मंच से गुंजती यह आवाज़ २६ दिसम्बर, २००६ की रात में दिल का दौरा पड़ने से हमेशा के लिये चुप हो जायेगी. वैसे नियाज़ी साहब साँस की बीमारी से एक अर्से से परेशान थे.


जिंदा रहे तो क्या हैं जो मर जायें हम तो क्या
दुनिया में खामोशी से गुजर जायें हम तो क्या.


उर्दु और पंजाबी की शायरी को मुनीर नियाज़ साहब, जिनका असली नाम मुनीर अहमद था, के निराले अंदाज को सुनकर मुशायरों में आये श्रोता मंत्र मुग्ध हो जाया करते थे. आपका जन्म १९ अप्रेल, १९२८ को होशियारपुर, पंजाब, भारत में हुआ. आपकी प्रारंभिक शिक्षा साहिवाल जिले में और फिर उच्च शिक्षा के लिये आपने दियाल सिंग कॉलेज, लाहौर मे दाखिला लिया.

नियाज़ी साहब बंटवारे के बाद साहिवाल में बस गये थे और सन १९४९ में ‘सात रंग’ नाम मासिक का प्रकाशन शुरु किया. बाद में आप फिल्म जगत से जुड़े और अनेकों फिल्मों में मधुर गीत लिखे. आपका लिखा मशहूर गीत ‘उस बेवफा का शहर है’ फिल्म ‘शहीद ‘ के लिये स्व. नसीम बेगम ने १९६२ में गाया. बकौल शायर इफ़्तिकार आरिफ़, मुनीर साहब उन पांच उर्दु शायरों में से एक हैं, जिनका कई यूरोपियन भाषाओं में खुब अनुवाद किया गया है.

आपको मार्च २००५ में ‘सितार-ए-इम्तियाज’ के सम्मान से नवाज़ा गया.

मुनीर नियाज़ी साहब के ११ उर्दु और ४ पंजाबी संकलन प्रकाशित हैं, जिनमें ‘तेज हवा और फूल’, ‘पहली बात ही आखिरी थी’ और ‘एक दुआ जो मैं भूल गया था’ जैसे मशहूर नाम शामिल हैं.

मुनीर नियाज़ी साहब को श्रृद्धांजली अर्पित करते हुए, उनकी मशहूर रचना पेश करता हूँ:


हमेशा देर कर देता हूँ मैं, हर काम करने में.

जरुरी बात कहनी हो, कोई वादा निभाना हो,
उसे आवाज देनी हो, उसे वापस बुलाना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..

मदद करनी हो उसकी, यार की ढ़ाढ़स बंधाना हो,
बहुत देहरीना रस्तों पर, किसी से मिलने जाना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..

बदलते मौसमों की सैर में, दिल को लगाना हो,
किसी को याद रखना हो, किसी को भूल जाना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..

किसी को मौत से पहले, किसी गम से बचाना हो,
हकीकत और थी कुछ, उसको जाके ये बताना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..


और मुनीर साहब को आगे सुनें:



फूल थे बादल भी था और वो हंसीं सूरत भी थी
दिल में लेकिन और ही एक शक्ल की हसरत भी थी.

क्या कयामत है मुनीर अब याद भी आते नहीं
वो पुराने आसनां जिनसे हमें उल्फत भी थी.



मैं तो मुनीर आईने में खुद को ताक कर हैरां हुआ
ये चेहरा कुछ और तरह था पहले किसी जमाने में


डर के किसी से छुप जाता है जैसे सांप खजाने में,
ज़र के जोर जिंदा हैं सब खाक के इस वीराने में.
जैसे रस्म अदा करते हों, शहरों की आबादी में,
सुबह को घर से दूर निकल कर, शाम को वापस आने में.



और यह गज़ल देखें:



जिंदा रहे तो क्या हैं जो मर जायें हम तो क्या
दुनिया में खामोशी से गुजर जायें हम तो क्या.

अब कौन मुंतजीर है हमारे लिये वहां,
शाम आ गई है, लौट के हम घर जायें तो क्या.

दिल की खलिश तो साथ रहेगी तमाम उम्र
दरिया-ए-गम के पार उतर जायें हम तो क्या.


मुनीर साहब को पुनः एक बार नमन और भावभीनी श्रृद्धांजली.

--समीर लाल ‘समीर’ Indli - Hindi News, Blogs, Links

10 टिप्‍पणियां:

अभिनव ने कहा…

ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे, आप उनका अंदाज़-ए-बयाँ यहाँ देख सकते हैं।

http://www.youtube.com/watch?v=2tX4w3TP_kA

बेनामी ने कहा…

Aapn.Ne Manch loot liya, Samir Bhai.

-Humari Duaaye.N unki Ruh ko Allah Jannat Nasseb kare.N.

-Khalid K.

Udan Tashtari ने कहा…

अभिनव

सुना मैने, मज़ा आ गया, वैसे मुशायरा.ओ आर जी पर पूरी रचना है. :)

धन्यवाद पधारने के लिये और इस अचानक आई सक्रियता के लिये पूरे ब्लागजगत की तरफ से, कोई खास वजह तो नहीं?? :) अन्यथा न लें.. हा हा

Udan Tashtari ने कहा…

अरे खालिद भाई
हम क्या लूटेंगे, हम तो पहले से ही लूटे लुटाये हैं, समय आपका है, बस आप हमारा ध्यान रखियेगा..समझ गये कि नही??

पंकज बेंगाणी ने कहा…

ओह ... कितने अच्छे शायर हैं... अ.. मेरा मतलब है थे।

वैसे ठीक भी तो है ना लालाजी ऐसे उम्दा व्यक्ति अमर होते हैं।

रंजू भाटिया ने कहा…

समीर जी आपने जो उनका जो शायरी का अंदाज़ यहाँ पेश किया वो तारीफ़ के काबिल है ..पढ़ के बहुत अच्छा लगा ..

शुक्रिया ...

Manish Kumar ने कहा…

हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..

बहुत जबरदस्त गजल पेश की आपने नियाजी साहब की ! भगवान उनकी आत्मा को शांति दे !

राकेश खंडेलवाल ने कहा…

खलिश-ए-हिज़्रे-दायामी न गई
तेरे रुख से ये बेरुखी न गई

पूछते हैं कि क्या हुआ दिल को
हुस्न वालों की सादगी न गई

सर से सौदा गया मुहब्बत का
दिल से पर इसकी बेकली न गई

और सब की हिकायतें कह दीं
बात अपनी कभी कही न गई

हम भी घर से 'मुनीर' तब निकले
बात अपनों की जब सही न गई

मुनीर साब की यादें सद्द उनके अशेआरों से छलकती हुई होंठों पर जवाम रहेंगी. समीर भाई आपको धन्यवाद

Udan Tashtari ने कहा…

पंकज

सही कह रहे हो.

रंजू जी

बहुत धन्यवाद, आपके पधारने का और पसंद करने का.

मनीष जी

बहुत शुक्रिया.

राकेश भाई

एक और खुबसूरत गज़ल जोड़ने के लिये बहुत शुक्रिया.

Poonam Misra ने कहा…

किसी को याद रखना हो, किसी को भूल जाना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..
मुनीर साहब से रूबरू कराने का शुक्रिया. आपके चिट्ठे के माध्यम से उनको श्रद्धांजली.