बुधवार, दिसंबर 27, 2006

हजारों ख्वाहिशें ऐसी….

मिर्ज़ा असदुल्ला बेग खान यानि गालिब का आज २७ दिसम्बर को जन्मदिन है. ज्ञात सूत्रों के अनुसार गालिब का जन्म २७ दिसम्बर, १७९७ में आगरा में हुआ था.




चित्र साभार: बोलोजी.कॉम

इसी मौके पर गालिब को याद करते हुये उनके चन्द शेर और गज़ल पेश कर रहा हूँ:

उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है


देखिये पाते हैं, उश्शाक बुतों से क्या फ़ैज़
इक बराह्मन ने कहा है कि ये साल अच्छा है


हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये खयाल अच्छा है!


मंज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते
अर्श के परे होता काश के मकां अपना
हम कहां के दाना थे, किस हुनर में याक्ता थे
बेसबब हुआ "ग़ालिब" दुश्मन आसमां अपना

अर्श: आकाश ; मकां: घर ; दाना: अमीर ; याक्ता: माहिर ; बेसबब: बिना कारण


ये जो हम हिज्र में दीवारो-दर को देखते हैं
कभी सबा को कभी नामाबर को देखते हैं
वो आये घर में हमारे खुदा की कुदरत है
कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं

हिज्र : वियोग , जुदाई ; सबा : हवा ; नामाबर : संदेश पहुंचाने वाला


फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं
फिर वो ही ज़िन्दगी हमारी है
बेखुदी बेसबब नहीं ग़ालिब
कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है

बेसबब : बिना कारण ; पर्दादारी : छुपाया जाना


रग़ो में दौडते फिरने के हम नहीं कायल
जब आँख ही से ना टपका तो फिर लहू क्या है
जला है जिस्म जहां दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो अब राख जुस्तजु क्या है.

रग़ो में : नसो में ; कायल होना : किसी बात को चाहना ; जुस्तजु :इच्छा

ये इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजे
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है



और अब गालिब की एक गज़ल:-

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यों मेरा कातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो खून जो चश्म-ऐ-तर से उम्र भर यूं दम-ब-दम निकले

निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले

भ्रम खुल जाये जालीम तेरे कामत कि दराजी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुरपेच-ओ-खम का पेच-ओ-खम निकले

मगर लिखवाये कोई उसको खत तो हमसे लिखवाये
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर कलम निकले

हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा-आशामी
फिर आया वो जमाना जो जहाँ से जाम-ए-जम निकले

हुई जिनसे तव्वको खस्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज्यादा खस्ता-ए-तेग-ए-सितम निकले

मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले

जरा कर जोर सिने पर कि तीर-ऐ-पुरसितम निकले
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले

खुदा के बासते पर्दा ना काबे से उठा जालिम
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफिर सनम निकले

कहाँ मयखाने का दरवाजा 'गालिब' और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था के हम निकले .

-समीर लाल ‘समीर’ Indli - Hindi News, Blogs, Links

14 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे कहते हैं कि गा़लिब का है अंदाजे बयां और।

गुलजार और जगजीत की गालिब पर बनी एलबम इतनी बार सुनी कि एक एक गजल दिमाग पर छप गई। गालिब के शब्द दिमाग को ही नहीं आत्मा को भी छूते हैं
प्रस्तुती के लिये धन्यवाद।

Manish Kumar ने कहा…

अच्छा संकलन ले के आए हैं आप गालिब के शेरों का !

राकेश खंडेलवाल ने कहा…

गालिब का ज़िक्र हो और यह लाइनें न हों

सब रकीबों से हों नाखुश पर ज़नाने मिस्र से
है जुलेखा खुश के महवे माहो कनाअँ हो गईं

राकेश खंडेलवाल ने कहा…

हुज़ूरे अनवर सलाम तुमको, कि याद गालिब की लेके आये
बिना चचा के है कौन शायर, है किसकी जुर्रत कि गज़लें गाये
लगा है कुछ इन दिनों असर सा तुम्हारे ऊपर भी छा गया है
तभी तो चिट्ठे पर रोज ही कुछ नई कहानी को लेके आये


:-)

पंकज बेंगाणी ने कहा…

यह वाला समझ नही आया

देखिये पाते हैं, उश्शाक बुतों से क्या फ़ैज़
इक बराह्मन ने कहा है कि ये साल अच्छा है


बाकि गालिब की गज़ले पढना या जगजीत सिंह की जबानी सुनना आह्लादक है।

बेनामी ने कहा…

गालिब की रचनाएं हमारी अमुल्य धरोहर है.

बेनामी ने कहा…

ग़लिब पर टी सीरीज़ वालों ने गुलज़ार के निर्देशन में एक फिल्म बनाई थी- मिर्जा गालिब़ । इसमें नसिरूद्दीन शाह ने गालिब़ का रोल अदा किया था। कभी मौका मिले तो अवश्य देखिएगा। शायरी पसंद करने वालों के लिए यह फिल्म एक बेहतरीन तोहफ़ा है।

बेनामी ने कहा…

हुई मुद्दत कि गालिब मर गया, पर याद आता है वो हर इक बात पर कहना कि यों होता, तो क्या होता...

इश्क ने गालिब को निकम्मा किया...
अगर इश्क गालिब चचा को न हुआ होता तो न होते उनके ये शेर, गजलें, दीवान और न पढ़ रहे होते हम ये पोस्ट। :)

Neeraj Rohilla ने कहा…

समीरजी,
गालिब चचा के जन्मदिन पर अतिउत्तम लेख परोसने पर साधुवाद स्वीकार करें |

वैसे आजकल काफी भागदौड की जा रही है, सभी चिट्ठों पर आपकी टिप्पणियां दूर से ही चमक जाती हैं | लगता है चुनावी सरगर्मियां तेज हो चुकीं हैं |

वैसे चुनाव तो आप ही जीतेंगे, हमनें तो अपनी जानपहचान वालों से आप ही को वोट करनें का आश्वासन भी ले लिया है |

आप बेफिक्र रहें,

साभार,
नीरज

Udan Tashtari ने कहा…

जगदीश भाई, मनीष जी, संजय भाई,

आप सबका लगातार हौसला हफजाई के लिये बहुत बहुत शुक्रिया. ऐसे ही स्नेह बनाये रखें. :)


राकेश भाई,


अरे, आप तो सब समझते हैं. ;) बस, रोज कहानियाँ करने का सिलसिला चल पड़ा है. थोड़ा सब्र करें, जल्दी ही कुछ लगाम दी जायेगी. स्नेह बनाये रखें.


पंकज मास्साब,

ये वाला शेर तो हम समझा देंगे आपको कि क्या मतलब है इसका. बाकि तो सब आप समझ ही गये हैं.
अन्यथा न लिजियेगा. :)

और हाँ, एक कहीं पढ़ा था: शेर देखो:

दरख्त के पैमाने पे चिलमन ए हुस्न का फ़ुरकत से शरमाना…. (इसे ३ बार पढ़ा जाये)
ये लाइन समझ मे आये तो मुझे जरुर बताना!!


रत्ना जी

बहुत शुक्रिया. काफी पहले यह फिल्म देख चुका हूँ, अब आपके कहने से एक बार और देखूँगा. :)आजकल जो भी कुछ कहता है, मै जरुर करता हूँ, क्या करुँ, आप तो सब समझती हैं..खैर, आज नामिनेशन का सिलसिला थम गया :)

पंडित जी,

अरे गालिब चाचा न होते तो आज तो हमारी एक पोस्ट ही रह जाती. क्या लिखते?? :) धन्यवाद मित्र, पधारने के लिये. :)

नीरज भाई
आपका स्नेह देख आँखें भर आईं, बड़ी मुश्किल से धुँधला धुँधला आसूंओं के बीच से झांक झांक कर लिख रहा हूँ. बस, आप जैसे मित्रों का ही सहारा है, वरना हम क्या और हमारा लिखा क्या. :) बहुत शुक्रिया आपका.

पुनः सबका धन्यवाद.

अभिनव ने कहा…

हैप्पी बर्थ डे टू चचा, लेख बढ़िया लगा।

रंजू भाटिया ने कहा…

ये जो हम हिज्र में दीवारो-दर को देखते हैं
कभी सबा को कभी नामाबर को देखते हैं
वो आये घर में हमारे खुदा की कुदरत है
कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं

ग़ालिब पर आपके दवारा लिखा यह लेख दिल को छू गया


शुक्रिया समीर जी

Unknown ने कहा…

उश्शाक - प्रेमी । फैज़ - इनाम
देखें बुत क्या क्या इनाम देते हैं प्रेमियों को
एक ब्राह्मण ने साल अच्छा बताया तो है

Unknown ने कहा…

अगर लिखवाए कोई उसको ख़त, तो हमसे लिखवाए
हुई सुबह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले,