रविवार, दिसंबर 24, 2006

आज का आह्वान

मित्रों, गुजरे जमाने में जब शहरों मे दंगे घिर आया करते थे, तब जन नायक शांति के लिये आह्वान किया करते थे. गाँधी जी ने दंगे रोकने के लिये व्रत रखा. आज के नेता, इसके ठीक विपरीत, जब बहुत दिनों तक शहर में दंगे नहीं होते तो अनमने से हो जाते हैं. उनका आह्वान देखिये और कृप्या यह जरुर नोट किया जाये कि इसका आगामी सरगर्म चुनाव से कुछ लेना देना नहीं है, हम तो उस बारे में चुप हैं और न ही कुछ बोलेंगे:

आज का आह्वान

बहुत दिनों से शहर में, कोई दंगा नहीं हुआ
छुपा हुआ इंसानी चेहरा, फिर नंगा नहीं हुआ
अखबारों की सुर्खियों का रंग लगता उड़ गया
कफन की दुकानों में कुछ धंधा नहीं हुआ .

खो रहा है यह शहर, अपनी जमीं पहचान को
जुट रहा हर आदमी बस आज अपने काम को
इस तरह मिट जायेगी जो दहशती फितरत तो फिर
ढूंढता रह जायेगा तू, खुद ही के खोये नाम को.

मंदिर में आरती गूंजें, तो मस्जिद में अजानें
अपने अपने धर्म की राहें सभी यदि आज जानें
मौलवी पंडित को पूछेगा भला फिर कौन बोलो
भाईयों में शेष हों गर अंश भी रिश्ते पुराने.

चल उठा तलवार फिर से,ढूंढ फिर से कुछ वजह
धर्म का फिर नाम ले तोड़ो इमारत बेवजह
फिर मचे कोहराम और फिर आग उठे हर गली
डूबने पाये शहर का, नाम फिर न इस तरह.

-समीर लाल 'समीर' Indli - Hindi News, Blogs, Links

5 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

बहुत सही दे डाले हैं, भईया-राजिव

बेनामी ने कहा…

बात सही कही. लड़ने की कई वजहे हैं, धर्म, जाति, देश, रंग, लिंग...जो मुद्दा चल जाये.
ये राजिव कौन है?

रंजू भाटिया ने कहा…

मंदिर में आरती गूंजें, तो मस्जिद में अजानें
अपने अपने धर्म की राहें सभी यदि आज जानें
मौलवी पंडित को पूछेगा भला फिर कौन बोलो
भाईयों में शेष हों गर अंश भी रिश्ते पुराने.


बहुत ख़ूब ...और सही लिखा है आपने ..

रंजना

Pratik Pandey ने कहा…

राजनेताओं की असंवेदनशीलता को आपने कविता के ज़रिए बखूबी उघाड़ा है।

पंकज बेंगाणी ने कहा…

उडती धूल,
लहराती तलवारें,
बढता हुजूम,
टुटती दिवारें,

कटते लोग,
बँटते रास्ते
धर्म की आड,
पर गद्दी के वास्ते,

गिराते लाशें,
और आंसु बेचते,
लोगों की बदहाली में,
अपनी खुशहाली देखते,

है नेता तु महान है,
देश की शान है,
मूढ तो प्रजा है,
जानकर भी हैरान है।

:)