रविवार, फ़रवरी 26, 2012

जागा हूँ फक्त चैन से सोने के लिए

आज शनिवार की रात है तारीख: फरवरी २५, सन २०१२.

अच्छी नींद लेना मूल अधिकारों में से एक- सुप्रीम कोर्ट

 

यही खबर थी जो आजतक के आज के ट्रिकर पर चल रही थी. तुरंत ही आज के इन्टरनेट पर भी देखी यही खबर. देख-सुन कर लगा कि मानो हनुमान जी को समुन्दर की किनारे खड़ा करके याद दिलाया जा रहा हो कि तुम उड़ सकते हो. उड़ो मित्र, उड़ो.

बहुत अच्छा किया जो आज सुप्रीम कोर्ट ने बतला दिया वरना हम तो अपने और बहुत से अधिकारों की तरह इसे भी भुला बैठे थे. अच्छी नींद- यह क्या होता है? हम जानते ही नहीं थे.

गरमी की उमस भरी रात- और रात भर बिजली गुम और पास के बजबजाते नाले में जन्में नुकीले डंक वाले मच्छरों का आतंकी हमला. ओह!! मेरे मूल अधिकार पर हमला. केस दर्ज करना ही पड़ेगा. ऐसे कैसे भला एक मच्छर मेरे मूल अधिकारों का हनन कर सकता है, कैसे बिजली विभाग इसका हनन कर सकता है. गरमी की इतनी जुर्रत कि सुप्रीम कोर्ट से प्राप्त मेरे मूल अधिकार पर हमला करे.

अब भुगतेंगे यह सब. रिपोर्ट लिखाये बिना तो मैं मानूँगा नहीं. जेल की चक्की पीसेंगे यह तीनों, तब अक्ल ठिकाने आयेगी. पचास बार सोचेंगी इनकी पुश्तें भी मेरी नींद खराब करने के पहले.

वैसे मूल अधिकार तो और भी कई सारे लगते हैं जैसे खुल कर अपने विचार रखना (चाहे फेसबुक पर ही क्यूँ न हो), बिना भय के घूमना, शांति से रहना, स्वच्छ हवा में सांस लेना, शुद्ध खाद्य सामग्री प्राप्त करना, अपनी योग्यता के आधार पर मेरिट से नौकरी प्राप्त करना आदि मगर ये सब अभी पेंडिंग भी रख दूँ तो भी अच्छी नींद लेने को तो सुपर मान्यता मिल गई है. इसके लिए तो अब मैं जाग गया हूँ. सोच लेना कि मेरी नींद डिस्टर्ब हुई तो मैं जागा हूँ. फट से शिकायत दर्ज करुँगा. जेल भिजवाये बिना मानूँगा नहीं. पता नहीं पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराना मूल अधिकार है कि नहीं? खैर, वो तो मैं चैक कर लूँगा वरना ले देकर तो दर्ज तो हो ही जायेगी रिपोर्ट.

और सबकी भी लिस्ट बना रहा हूँ- सबकी शिकायत लगाऊँगा.

नगर निगम सुबह ५ से ५:३० बजे तक बस पानी देते हो, मेरी नींद खराब करते हो. संभल जाओ, बक्शने वाला नहीं हूँ अब मैं तुम्हें.

और आयकर वालों- कितना टेंशन देते हो यार. जरा सा कमाया नहीं कि बस तुम सपने में आकर नींद तोड़ देते हो. तुमसे तो मैं बहुत समय से नाराज हूँ- तुम तो बचोगे नहीं अब. बस, अब गिनती के दिन बचे हैं तुम्हारे. सुन रहे हो- अब मैं आ रहा हूँ. तुम तो भला क्या आओगे अब- मैं ही आ जाता हूँ.

और हाँ, तुम- बहुत बड़े स्कूल के प्रिंसपल बनते हो. मेरे बच्चे के एडमीशन को अटका दिया मेरा टेस्ट लेकर. मेरी बेईज्जती करवाई मेरी ही बीबी, बच्चों की नजर में- कितनी रात करवट बदलते गुजरी. नोट हैं मेरे पास सारी तारीखें. अब जागो तुम-जेल में. बस, तैयारी में जुट जाओ जेल जाने की.

बाकी लोग भी संभल जाओ- जरा भी मेरी नींद में विध्न पड़ा और बस समझ लेना कि बचोगे नहीं.

बहुतेरे हैं मेरी नजर की रडार पर. एक वो नालायक चौकीदार- जिसे मैने ही रखा है कि इत्मिनान से सो पाऊँ. वो रात भर सीटी बजा बजा कर चिल्लाता घुमता है- जागते रहो, जागते रहो. अरे, अगर हमें जागते ही रहना होता तो क्या मुझे पागल कुत्ता काटे है जो तुम्हें पगार दे रहा हूँ. तुम कोई मंत्री या धर्म गुरु तो हो नहीं कि बेवजह तुमको चढ़ावा चढ़ायें और अपने मूल अधिकार वाले अधिकार प्राप्त कर प्रसन्न हो लें. चौकीदार हो चौकीदार की तरह रहो- यह अधिकार मूल अधिकारों से उपर सिर्फ मंत्रियों और धर्म गुरुओं को प्राप्त है.

आज कुछ संविधान की पुस्तकें निकालता हूँ. सारे मूल अधिकारों की लिस्ट बनाता हूँ. फिर देखो कैसी बारह बजाता हूँ सब की.

अब मैं पूरी तरह से जाग गया हूँ इत्मिनान से सोने के लिए.

आज जागा हूँ मैं, फक्त चैन से सोने के लिए

कुछ अधिकार मिले हैं फिर उन्हें खोने के लिए.

-समीर लाल ’समीर’

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मंगलवार, फ़रवरी 21, 2012

साहित्य में संतई की राह...

मेरे मनोभावों का अनवरत अथक प्रवाह बना रहता है. और फ़िर शुरू हो जाती है एक खोज - एक प्रयास - उन्हें बेहतरीन शब्दों का जामा पहनाने की. उन्हें कुछ इस तरह कागज पर उतार देने की चाहत कि पढ़ने वाला हर पाठक खो जाये उसमें- डूब जाये उसमें.

शब्दों की तलाश में एक भटकन, शुद्ध व्याकरण देने की एक चाह और कुछ ऐसा गढ़ जाने की उत्कंठा कि मानो एक ऐसा कुछ लिख और रच जाये, जिसे लोग उत्कृष्ट साहित्य का दर्जा दें.

अंतहीन तलाश-शत-प्रतिशत दे देने की चाह में एक अजीब सी एक कसमसाहट और उठा लेता हूँ एक बीड़ा कि कुछ और पढ़ूँ- कुछ नया पढ़ूँ तो शायद राह मिले.

इसी मशक्कत में कुछ आलेखों से गुजरता हूँ, कुछ गज़लें पढ़ता हूँ, कुछ कवितायें गुनगुनाते हुए बाँचता हूँ, कुछ कहानियों में डूब जाता हूँ और पाता हूँ- अरे, ऐसा ही तो कुछ मैं कहना चाहता था, जिनके लिए मुझे शब्दों की तलाश थी. वही सब तो है यह. शायद मेरी सोच ही विचार तरंगों में बदल हवा में बह निकली होगी और न जाने कितनों ने उसे पकड़ा होगा. कुछ उसे शब्द रुप दे गये और मैं- भटकता रहा उस शत प्रतिशत उम्दा दे जाने की मृगतृष्णा को गले लगाये.

इस दौर में समझ पाया कि जरुरत है कह जाने की. जरुरत है पढ़ जाने की. जरुरत है अपने शब्द कोष को इतना समृद्ध बनाने की कि भटकन सीमित हो. कुछ बेहतर रचा जा सके. कोई जरुरी नहीं कि दुनिया की नजरों में शत प्रतिशत हो. मेरी अपनी नजरों में अपनी काबिलियत के अनुसार जरुर शत प्रतिशत खरा उतरे. कम से कम अपनी काबिलियत का इस्तेमाल करने में काहिलियत को कोई स्थान न दूँ. आलस्य को अपने आस पास न फटकने दूँ.

शब्द कोष भी नित समृद्ध होता जाये ऐसा प्रयास करुँ- यह कोई वस्तु तो है नहीं कि एक दिन में क्रय कर खजाना भर जाए... प्रयास, पठन, कुछ नया सीख लेने की ललक इस दौलत को शनैः शनैः जमा करने की कुँजी है. फिर जितना उपयोग करुँगा, उतना ही समृद्ध होती चलेगी यह दौलत और उतना ही भरता जायेगा यह खजाना.

शायद यही इस खजाने को अर्थ (रुपये-पैसे) से अलग भलाई और मानवता के समकक्ष लाकर खड़ा करता है. जानना होगा मुझे. उठानी होगी पुनः अपनी कलम. थामनी ही होगी कुछ नई पुस्तकें पठन हेतु और नित नया कुछ जोड़ना होगा इस खजाने में. सिर्फ जोड़ देना ही काफी न होकर उसे जाहिर भी करते रहना होगा अपने लेखन के माध्यम से. फिर वो कथा हो, कहानी हो, गज़ल हो या काव्य. विधा कोई सी भी हो, होती तो भावों की अभिव्यक्ति ही.

ऐसा नहीं कि मेरे पास शब्द न थे मगर बेहतर शब्दों की तलाश में भटकता रहा और लोग रचते चले गये. मेरे भाव किसी और की कलम से शब्द पा गये. मेरे विचार, मेरे भाव मेरे न होकर उस कलमकार के हो गये, जो उन्हें शब्द दे गया. वही मौलिक रचयिता कहलायेगा. भाव किसी की जागीर नहीं. एक से भाव एक ही समय में कई दिलों में उगते है. अब कौन उसे उकेर दे- कौन उन्हें अमल में ले आये- बस, उसी की कीमत है. और फिर एक से ही भाव जब अलग अलग तरफ, अलग अलग दिलों में एक साथ उठते और शब्द पाते हैं तब भी जुदा शैलियाँ उन्हें जुदा रखने में सफल रहती है. उनकी मौलिकता बनाये रखती हैं.

मैं डरता हूँ शायद अपनी काबिलियत पर मुझे भरोसा नहीं- ठीक उन्हीं साधु सन्तों सा जो जिन्दगी क्या है-इसकी तलाश में जिन्दगी को सही तरीके से जीने को छोड़- उससे जूझने की कला को तिलांजली दे जंगल जंगल भटकते हैं इस प्रश्न की तलाश में- जिन्दगी क्या है? ये आत्म हत्या जैसा ही प्रयास है- डर कर भाग जाने का. इस बीच न जाने कितनी जिन्दगियाँ अपनी अपनी तरह जिन्दगी जी कर गुजर जाती हैं. शायद पुनर्जन्म में विश्वास करें तो पुनः जीने चली आती हैं और उन साधु सन्तों की भटकन जारी रहती है- एक उथली सी समझाईश भी देने को तत्पर कि जिन्दगी क्या है? कैसे उचित जीवन जिएँ? क्या वो उचित जीवन जी पाये या अंततः वो भी उसी मोह माया के चुँगल में आ जकड़े.

बस रुप बदला- बन गये सन्त बनिस्बत कि एक आम जिन्दगी से जूझता आदमी. क्या अन्तर रह गया उनमें और एक भ्रष्ट्राचारी नेता, एक व्यापारी, और जाने कितने ऐसे आश्रमों में-एक निकृष्ट व्याभिचारी में.

साहित्य के क्षेत्र में भी जाने कितने ही ऐसे सन्त हैं जो अपना अपना मठ खोले बैठे हैं. उनके भीतर के लेखक को तो जाने कब का मार दिया है उन्होंने खुद ही. अब मात्र प्रवचन बच रहा है कि ऐसा लिखा जा रहा है, वैसा लिखा जा रहा है. साहित्य का स्तर गिरता जा रहा है आदि आदि. सन्त का दर्जा जो न बुलवा दे सो कम. बस, लिखना त्याग दिया है कि कोई उनका आंकलन न कर डाले.

ऐसे सन्त तो कायर कहलाये, एक भयभीत व्यक्तित्व, एक भगोड़ा.

नहीं, मैं ऐसा सन्त होना नहीं चाहता. मेरे भीतर का लेखक आत्म हत्या नहीं कर सकता- यह कायरता है. बदलना होगा मुझे. भटकन और तलाश की बजाय एक सजग प्रयास करना होगा अपने शब्दकोष को समृद्ध करने का- अपनी लेखनी को मजबूत करने का- समय रहते.

इसी भटकन में, पंकज सुबीर जी के तरही मुशायरे के लिए लिखी गज़ल जब तक तैयार हुई- मुशायरा खत्म हो चुका था और मैं भटकता हुआ जब तक अपना कलाम हाजिर करता- कुछ शेष न बचा था. अतः सोचा, आज यहीं से सुनाता चलूँ.

old tree

तरही मुशायरे का मिसरा था:

“इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में”

इसी मिसरे को लेकर इस बहर में पूरी गज़ल लिखना था. शायद, अब तैयार है. आदरणीय प्राण शर्मा जी का विशिष्ट आशीष इस गज़ल को प्राप्त हुआ है- अब आप तय करें:

शुक्र है के वो निशानी है अभी तक गाँव में

इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में

गाड़ी,बंगला,शान-ओ-शौकत माना के हासिल नहीं

पर बड़ों की हर निशानी है अभी तक गाँव में

भोर,संध्या,सांझ हो, या हो वो रातों का सफ़र

खुल हवायें गुनगुनाती हैं अभी तक गाँव में

हर जवानी भाग निकली है नगर की राह पर

राह तकती माँ अभागी है अभी तक गाँव में

सादगी ही सादगी है जिस तरफ भी देखिए

सादगी की आबदारी* है अभी तक गाँव में

साथ मेरे जाता तो ए काश तू भी देखता

निष्कपट सी जिंदगानी है अभी तक गाँव में

छोड़ कर तू जा रहा है ए ` समीर ` इतना तो जान

रोटी - सब्ज़ी , दाना - पानी है अभी तक गाँव में

 

*आबदारी – चमक

-समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, फ़रवरी 13, 2012

बुरा हाल है ये मेरी जिन्दगी का...

इधर कुछ दिनों से खाली समय में किताबों में डूबा हूँ. न लिख पाने के लिए एक बेहतरीन आड़ कि अभी पढ़ने में व्यस्त हूँ.

हाथ में आई पैड है और उस पर खुली है “शान्ताराम”. नाम से तो शुद्ध हिन्दी तो क्या, मराठी की किताब लगती है मगर है अंग्रेजी में. ईबुक के हिसाब से १७०० पन्नों की है और पढ़ते हुए अबतक लगभग २५० पन्नों के पार आ पाया हूँ मैं.

शायद २५० पन्ने शुरुआत ही है. अभी अभी नामकरण हुआ है न्यूजीलैण्ड के लिन का (जो मुंबई में आकर लिनबाबा हुआ), लिनबाबा से “शान्ताराम”. बहुत चाव से लिन अपने नये नाम शान्ताराम को महाराष्ट्र के एक गांव में आत्मसात कर रहा है जिसका अर्थ है शान्ति का प्रतीक और मैं अब जब शान्ताराम के मुंबई प्रवास और फिर रेल और राज्य परिवहन की बस में सुन्दर गांव की यात्रा को पढ़ रहा हूँ तो अपने मुंबई के ५ वर्षीय प्रवास और अनेक बस और रेल यात्राओं की याद में डूब पुस्तक से इतर न जाने किस दुनिया में खो जाता हूँ. पठन रुक रुक कर चलता है मगर रुकन में भी जीवंतता है. एकदम जिन्दा ठहराव...लहराता हुआ- बल खाता हुआ एक इठलाती नदी के प्रवाह सा- जिसके बहाव में भी नजरों का ठहराव है.

ऐसे लेखकों को पढ़कर लगता है कि कितना थमकर लिखते हैं हर मौके पर- हर दृष्य और वृतांत को इतना जिन्दा करते हुए कि अगर फूल का महकना लिखेंगे तो ऐसा कि आप तक उस फूल की महक आने लगती हैं. माहौल महक उठता है.

नित पढ़ते हुए कुछ गाना सुनते रहने की आदत भी लगी हुई है. अक्सर तो यह कमान फरीदा खानम, आबीदा परवीन, नूरजहां, मुन्नी बेगम, मेंहदी हसन, बड़े गुलाम अली खां साहब आदि संभाले रहते हैं- एक अपनेपन सा अहसासते हुए जी भर कर सुनाते हैं अपने कलाम..पिछले दिनों रेशमा नें भी खूब सुर साधे- जी भर कर जी बहलाया- शुक्रिया रेशमा.

आज मन था सुनने का तो सोचा कि औरों को मौका न देने से कहीं जालिम न कहलाया जाऊँ. तो आज इन पहुँचे हुए नामों को आराम देने की ठानी और मौका दिया सबा बलरामपुरी को. सबा ने भी उसी तरह अपनेपन से मुस्कराते हुए अपने दिलकश अन्दाज में सुनाया:

अजब हाल है मेरे दिल की खुशी का

हुआ है करम मुझ पे जब से किसी का

मुहब्बत मेरी ये दुआ मांगती है

कि तेरे साथ तय हो सफर जिन्दगी का...

सबा की आवाज की खनक, अजीब से एक बेचैनी, एक कसक और कसमसाहट के साथ ही उसकी लेखनी मुझे खींच कर ले गई उस अपनी जिन्दगी की खुशनुमा वादी में..जहाँ शायद भाव यूँ ही गुनगुनाये थे मगर शब्द कहाँ थे तब मेरे पास.न ही सबा की लेखनी की बेसाखियाँ हासिल थी उस वक्त....जिसकी मल्लिका सबा निकली. वो यादें तो मेरी थीं और हैं भी. उन पर सबा का कोई अधिकार नहीं तो उनमें डूबा मैं तैरता रहा मैं हरपल तुम्हें याद करता...गुनगुनाता:

मुहब्बत मेरी ये दुआ मांगती है

कि तेरे साथ तय हो सफर जिन्दगी का...

दुआएँ यूँ कहाँ सब की पूरी होती हैं. मेरी न हुई तो कोई अजूबा नहीं. अजूबा तो दुआओं के पूरा होने पर होता है अबकी दुनिया में. मानों खुशी के पल खुशनसीबी हो और दुख तो लाजिमी हैं.

मैं सोचता ही रहा और फिर डूब गया शान्ताराम की कहानी में जो भाग रहा था डर कर कि सुन्दर गांव में नदी का स्तर मानसून में एकाएक बढ़ रहा है और शायद गांव डूब ही न जाये. वो गांव के निवासियों को जब सचेत करता है तो सारे गांव वाले हँसते हैं उसकी सोच पर. सब निश्चिंत हैं कि आजतक वो नदी इतना बढ़ी ही नहीं कि गांव डूब जाये. उन्हें वो स्तर भी मालूम था कि जहाँ तक नदी ज्यादा से ज्यादा बढ़ सकती है.

न्यूजीलैण्ड में रहते भी शान्ताराम को ऐसे किसी विज्ञान का ज्ञान ही नहीं हो सका जो ऐतिहासिक आधार पर ऐसा कुछ निर्णय निकाल पाये. भारत की स्थापित न जाने कितनी मान्यताओं के आगे विज्ञान यूँ भी हमेशा बौना और पानी ही भरता नजर आया है और इस बार भी पानी उस स्तर के उपर न जा पाया. लिनबाबा उर्फ शान्ताराम नतमस्तक है उन भारतीय मान्यताओं के आगे. मैं तो खुद ही नतमस्तक था. उसी भूमि पर पैदा हुआ था तो मुझे कोई विशेष आश्चर्य नहीं हुआ...

सबा है कि छोटे छोटे मिसरे सरल शब्दों मे बहर में गाये जा रही है:

मेरा दिल न तोड़ो जरा इतना सोचो

मुनासिब नहीं तोड़ना दिल किसी का...

तुम्हें अब तरस मुझपे आया तो क्या है

भरोसा नहीं अब कोई जिन्दगी का..

छा गई सबा और उसकी आवाज दिलो दिमाग पर...याद आ गया बरसों बाद उस दिन तुम्हारा मुझको अपने फेस बुक की मित्रों की सूची में शामिल करना इस संदेश के साथ: “हे बड्डी, ग्रेट टू सी यू हियर..रीयली लाँग टाईम..काइन्ड ऑफ पॉज़.... वाह्टस अप- हाउज़ लाईफ ट्रीटिंग यू-होप आल ईज़ वेल”

हूँ ह...पॉज कि रीस्टार्ट आफ्टर ए फुल स्टॉप? नो आईडिया!!!

भूल ही चुका था मैं यूँ तो अपनी दैनिक साधारण सी बहती हुई जिन्दगी में..कभी ज्वार आये भी तो उससे उबर जाना सीख ही गया था स्वतः ही..जिन्दगी सब सिखा देती है..यही तो खूबी है जिन्दगी में...जिसके कारण दुनिया पूजती है इसे..कायल है इसकी. मन कर रहा है कि फेस बुक में तुम्हारी वाल पर जाकर सबा की ही पंक्तियाँ लिख दूँ और थैंक्यू कह दूँ सबा को मुझे रेस्क्यू करने के लिए...बचाने के लिए:

तुम्हें अब तरस मुझपे आया तो क्या है

भरोसा नहीं अब कोई जिन्दगी का..

जाने क्या सोच रुक जाता हूँ और बिना कोशिश हाथ आँख पोंछने बढ़ जाते हैं. आँख और हाथ का भी यह अजब रिश्ता आज भी समझ के बाहर है मगर है तो एक रिश्ता. ...अनजाना सा..अबूझा सा,,,हाथ आँखों को नम पाता है..शायद सबा को सुन रहा होगा वो भी मेरे साथ:

अभी आप वाकिफ नहीं दोस्ती से

न इजहार फरमाईये दोस्ती का...

शायद आप तो क्या, हम भी कभी अब वाकिफ न हो पायेंगे. वक्त जो गुजरना था...गुजर गया. बेहतर है मिट्टी डालें उस पर. मगर हमेशा बेहतर ही हो तो जिन्दगी सरल न हो जाये? जिन्दगी तो जूझने का नाम है ऐसा बुजुर्गवार कह गये हैं. गालिब भी कहते थे तो हम क्या और किस खेत की मूली हैं...

शान्ताराम जूझ रहा है..एक भगोड़ा..जिसकी तलाश है न्यूजीलैण्ड की पुलिस को. जमीन छूट जाने की कसक उसे भी है और मजबूरी यह है की कि कैद उसे मंजूर नहीं. कैद की यातना से भागा है..एक आजाद सांस लेने..वो किसे नसीब है भला जीते जी..जमीन की खुशबू से कौन मुक्त हुआ है भला...रिश्तों की गर्माहट को कैसे छोड़ सकता है कोई...बुलाते हैं वो रिश्ते और महक के थपेड़े....खींचते है वो...

सोचता हूँ हालात तो मेरे भी वो ही हैं...मुझे तो कैद का भी डर नहीं...फिर क्यूँ नहीं लौट पाता हूँ मैं..उस मिट्टी की सौंधी खुशबू के पास..अपने रिश्तों की गरमाहट के बीच...उस मधुवन में...क्या मजबूरी है...जाने क्या...सोच के परे रुका हूँ इस पार....एक अनसुलझ उधेड़बून में...अबूझ पहेली को सुलझाता....

सबा कह रही है:

बुरा हाल है ये तेरी जिन्दगी का...

-समीर लाल “समीर”

आप भी सुनें सबा बलरामपुरी को, शायद मुझ सा ही कुछ अहसास कर पायें:

 

सबा बलरामपुरी
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रविवार, फ़रवरी 05, 2012

आलस्य का साम्राज्य और उसके बाशिन्दे

शनिवार की अलसाई सुबह.

सोचा था आज सुबह उठकर कुछ लिखूँगा. ऐसा लिखूँगा, वैसा लिखूँगा. जाने क्या क्या विचार आते रहे थे रात सोने से पूर्व. शायद पूरी सोच को कागज पर उतारने लग जाऊँ तो एक रोचक उपन्यास से कम तो क्या वृतांत होगा.

मगर इधर कुछ समय से वक्त की कमी ने ऐसा हाथ थामा है कि मौका ही नहीं लगता कुछ लिखने के लिए. सोच, भाव, विचार सब भीतर ही ठहरे रह जाते हैं, शब्द रुप लेने को तड़पते. इसी तड़पन में न जाने कितने विचार दम तोड़ देते हैं और न जाने कितने खो जाते हैं इस उमड़ती घुमड़ती भीड़ में.

किसी ने प्रश्न उठाया था तो बताना भी फर्ज समझता हूँ कि ऐसा नहीं है कि विचार या भाव चुक गये हों. उनका तो व्यस्तता के संग चोली दामन का साथ है. लबलबा कर भावों का समुन्द्र भरा है मगर उन्हें सहेज कर करीने से शब्दों का जामा पहनाना- एकांत मांगता है. एक स्थिरता मांगता है. समय मांगता है. एकाग्रता मांगता है. इनमें से एक की भी कमी बर्दाश्त नहीं कर पाता एक सधा आलेख या कहानी या फिर कविता.

लेटे लेटे गाना सुन रहा हूँ. फरीदा गा रही है:

सारी दुनिया के रंज और गम देकर

मुस्कराने की बात करते हो...

दिल जलाने की बात करते हो

आशियाने की बात करते हो!!!

और ईमेल में पत्रों का अंबार लगा याद आता है- चाहने वाले, यार, दोस्त पूछ रहे है नित- क्या बात है आजकल कुछ नया नहीं लिख रहे हो? सब ठीक तो है?

pen-paper

क्या जबाब दूँ?

समय की कमी का बहाना कब तक दोहराऊँ?

खाना खाना, नहाना, सोना तो बंद नहीं हुआ. सांस लेना और छोड़ना भी पूर्ववत जारी है तो क्या वक्त की कमी की मार खाने को सिर्फ लेखन ही मिला. वक्त की कमी या फिर इसे आलस्य कहूँ. मौसमी आलस्य. बदली बन कर बीच बीच में छाता रहता है. कभी भावों का अंधड़ आयेगा. आलस्य के बादल छटेंगे और शायद तब लेखन उतर आये कागज पर सज संवर कर.

यानि एक अनुरुप मौसम का इन्तजार कलम उठाने से पहले. मानो इन्तजार हो कि एक टेबल लग जाये, एक टेबल लैम्प जल जाये, कुछ खाली सफेद पन्ने जमा दिये जायें तो लेखन शुरु हो. बस सब कुछ स्वतः हो जाये और स्वयं कोई प्रयास न करना पड़े. स्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए. यह तो एक लेखक का धर्म न हुआ. यह अनुचित है.

निश्चित ही खुद को व्यवस्थित करना होगा. समय का प्रबंधन नये परिवेश में पुनः एक नये ढांचे के अनुरुप करना होगा. कुछ सप्रयास बदलना होगा खुद को. एक धर्म अपनाया है तो उसका पालन करना होगा. यूँ ही अव्यवथित, बिना किसी मनोयोग के, बिना किसी उचित प्रयोजन के कब तक चला जा सकता है.

यूँ तो पठन कार्य भी टला हुआ था किन्तु इधर कुछ विश्व प्रसिद्ध लेखकों की किताबें उठा ली हैं बहुत उम्मीद से. शायद उनका पठन पुनः कुछ उकसाये नया रच डालने को. यूँ भी लेखन के पठन की अनिवार्यता को मैं शुरु से अहम दर्जा देता रहा हूँ.

मेरा सदा ही मानना रहा है कि एक पंक्ति लेखन की पात्रता ही तब हासिल होती है, जब आप १०० पढ़ चुके हों. वरना तो हमेशा एकरस और उथला सा ही लेखन शेष रहेगा. कोई सार न होगा उस लेखन का.

व्यस्त जीवन शैली के बीच वृहद पठन, संवेदनशीलता, खुली मानसिकता, जागरुक नजरें और सचेत कान- ये ही आवश्यक अंग हैं बेहतर लेखन के. शैली तो आपकी खुद की ही होती है और भाषा- सभी भाषाओं की अपनी अहमियत है. तो पठन को भी संकीर्णता से परे विभिन्न भाषाओं के लेखकों के पास तक ले जाना होगा.

एक निर्देशन है खुद को स्वयं के लिए- सप्रयास इसमें ढलना होगा. देखें, कहाँ तक पहुँचते हैं.

फरीदा का गायन अब भी जारी है:

हमको अपनी खबर नहीं यारों

तुम जमाने की बात करते हो...

दिल जलाने की बात करते हो

आशियाने की बात करते हो!!!

-समीर लाल ’समीर’

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