रविवार, जुलाई 29, 2007

अहमक या असहमत

इस जागरुकता के दौर में, कोई भी बात ऐसी नहीं होती जिसकी तीन फाँक न हो जायें-सहमत, असहमत और उदासीन यानि तटस्थ. इस तृतीय तटस्थ श्रेणी से हमें कुछ लेना देना नहीं, इनका हिसाब तो समय करेगा, दिनकर जी ने बता दिया है:

"समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।"

फिर जो सहमत हैं, उनसे क्या शिकायत? कोई नहीं, वो तो हमारे साथ हैं ही. तो इनकी भी क्या बात करें. इन्हें तो बस साथ निभाने का साधुवाद दिया जा सकता. तनिक आभार टाईप.

रह गये असहमत.




असहमत बस असहमत नहीं होते हैं. इनके भी कई प्रकार होते हैं.

एक असहमत होते है अपनी विद्वता के कारण. उनका ज्ञान उन्हें आपसे सहमत होने से रोकता है. मगर ज्ञान के साथ अगर उनमें नम्रता भी हो, तो वो आप को गलत न बता कर बस अपनी बात रख देते हैं. अक्सर बात की समाप्ति इस तरह कर देते है कि यह मेरी सोच है, हो सकता है मैं गलत हूँ. मगर अपनी सोच तो बता ही जाते हैं.

इनसे कोई क्या आपत्ति करेगा. यह तो खुद ही मान रहे हैं कि हो सकता है मैं गलत हूँ. जबकि बात अर्जित ज्ञान पर आधारित है जिसकी गलत होने की संभावना भी कम है.

इसी प्रकार के असहमतों मे जिनको अपने ज्ञान पर दंभ होता है और नम्रता का बैरियर आड़े नहीं आता. वो कहते हैं कि आप गलत हैं. फलाने किताब के मुताबिक, फलानी धारा के तहत मैं कहना चाहता हूँ कि सही बात यह है. फिर अपनी ज्ञान गंगा बहाना शुरु. यह भी अक्सर सही ही होते हैं. बस, नम्रता के सुरक्षा कवच के बाहर. अति उत्साही और अति आत्म विश्वासी किस्म के ज्ञानी. इनसे बहस कुछ दूर तक की जा सकती है क्योंकि इनके पास नम्रता का कवच नहीं है मगर ज्ञान रुपी बाण इनको अच्छी सुरक्षा दे देता है.

एक असहमत ऐसे होते हैं कि आपकी हर कही बात में सिर्फ वो हिस्सा खोजते हैं जिनसे वो मानसिक और अपने संस्कारों के तहत असहमत हो सकें. इससे उन्हें अच्छा लगता है. बात बढ़ती है. वो कुछ देर बातचीत करते हैं. बात को कई भागों में बंटवा देते हैं. मुख्य मुद्दा परे हो जाता है, विवाद बाकी रह जाता है. वो थोड़ी देर तक असहमत रह कर विवाद करवा कर, गुट गठित कर अलग हो जाते हैं. इनसे थोड़ा बचना चाहिये.

अब होने को तो और भी बहुत से असहमतों के प्रकार होते है, जैसे भावनात्मक असहमत, बहुमत प्रिय असहमत यानि देखा कि बहुमत असहमती जता रहा है तो यह भी असहमत हो गये. इनका खुद का कोई स्टेंड नहीं होता. भीड़ के साथ आते हैं और उन्हीं के साथ छट जाते हैं. इनसे निश्चिंत रहें.

कुछ एक ऐसे भी देखे गये हैं जिन्हें आपके लिखे या कहे से कुछ लेना देना नहीं. उनका अपना भी कोई नज़रिया नहीं. बस नकारात्मक लिखने या कहने की आदत है तो बिना पढ़े या सुनें ही कह जाते हैं कि यह आपकी सोच हो सकती है, मेरी सोच भिन्न है. बस, इससे ज्यादा न यह कहते हैं. न ही इनकी कोई सोच है. यह किसी तरह का नुकसान नहीं पहुँचाते और न ही आपने पलट कर क्या पूछा, उससे इन्हें कोई सारोकार है. यह तो अब गये तो अगली बार ही आयेंगे, नई घटना में. यह भड़काने नहीं आये होते.

भड़काने वाले बमचक असहमत होते हैं जो बिना अपना कोई मत रखे आपके कहे को ललकारते हैं कि आप ऐसा नहीं कह सकते. आप अपने ख्याल लोगों पर लाद रहे हैं, इसके परिणाम आपको भुगतना होंगे आदि आदि. भड़काने के बाद अगर आग ठीक से लग गई. दो गुट बनकर झगड़ने लगे. तो बीच बीच में यह ऐसे ही बयान जारी करते रहेंगे कि अभी भी वक्त है, सुधर जाओ. माफी मांगो. अपना कहा वापस लो, वरना ठीक नहीं होगा आदि. फिर यह नया ठिया तलाशते है, नई आग लगाने के लिये. धीरे धीरे लोग इन्हें पहचान जाते हैं और तवज्जो के आभाव में यह तड़पते नजर आते हैं. बस, इतना ही धन्य है कि इनका अपना कोई मत नहीं होता. अपनी कोई राय नहीं आपकी बात पर कि अगर वो गलत है तो सही क्या है. इसका जिम्मा यह झगड़ने वालों पर डाले रहते हैं. इनकी परिकल्पना आप कुछ कुछ चियर गर्लस टाईप से कर सकते हैं.

अव्वल दर्जे के असहमत वो होते हैं जिन्हें अगर आप अहमक के नाम से भी पुकारें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.

इनका काम बस असहमत होना है. आप जो भी कह कर देख लें, यह असहमत हो जायेंगे. इन्हें विवाद करने से आत्म संतुष्टी मिलती है. मानो विवाद विवाद नहीं, कब्जियत के निराकरण की दवा हो.सब झगड़ते रहें, गाली गलौज करें, टी आर पी यानि हिटस बढ़ती रहें, लोग इन्हें जानने लगें, बस इनका काम हो गया. तभी यह इत्मिनान से सो पाते हैं. इन्हें इससे कोई मतलब नहीं कि आप सही कह रहें हैं या गलत. बस इन्हें यह मालूम चलना चाहिये कि आप कुछ कह रहे हैं और यह असहमत हो जायेंगे. आप जो भी कह लें, आप उनसे सहमत हो लें, वह फिर भी वो आपसे असहमत हो जायेंगे.

परसाई जी का एक उदाहरण इस तरह के लोगों के वार्तालाप का पेश करता हूँ:

वो कहता है कि , 'भ्रष्टाचार बहुत फैला है'.

मैं कहता हूं, 'हाँ, बहुत फैला है.'

वो कहता है, 'लोग हो हल्ला बहुत मचाते हैं. इतना भ्रष्टाचार नहीं है. यहां तो सब सियार हैं. एक ने कहा भ्रष्टाचार! तो सब कोरस में चिल्लाने लगे भ्रष्टाचार.'

मैं कहता हूँ,'मुझे भी लगता है, लोग भ्रष्टाचार का हल्ला ज्यादा उड़ाते हैं.'

वो कहता है कि, 'मगर बिना कारण लोग हल्ला नहीं मचाएंगे जी? होगा तभी तो हल्ला करते हैं. लोग पागल थोड़े ही हैं.'

मैने कहा, 'हां, सरकारी कर्मचारी भ्रष्ट तो हैं.'

वो कहते है कि, 'सरकारी कर्मचारी को क्यों दोष देते हो? उन्हें तो हम-तुम ही भ्रष्ट करते हैं.'

मैं बोल उठा, 'हां, जनता खुद घूस देती है तो वे लेते हैं.'

वो उखड़ पड़े, 'जनता क्या जबरदस्ती उनके गले में नोट ठूंसती है? वो भ्रष्ट न हों तो जनता क्यों दे?'


याने कि किसी तरह बस सहमत ही नहीं होना है.

यह असहमतों की जमात एकाएक बहुत तेजी से पनप रही है. सब देख रहे हैं. इनसे सावधान और सतर्क रहने की जरुरत है. इन्हें रोकने का एक मात्र साधन यह नहीं है कि इनसे सहमत हो जायें क्योंकि यह पलट जायेंगे. तब कैसे उन्हें रोका जाये?

मुझे लगता है कि इन अहमक दर्जे के असहमतों के लिये उन्हें अनदेखा करना ही इलाज है. वो कभी सहमत तो हो ही नहीं सकते. विवाद उनका शौक है और गाली गलौज उनका खुली बातचीत का नजरिया-प्रगतिशीलता.

मित्रों, आज इनसे सतर्क रहने की आवश्यक्ता है.

यह समाज के विकास में रोड़ा हैं. इनसे बचें तो विकास की बात करें.

इन्हें नजर अंदाज कर दें तो यह अपनी मौत खुद मर जाते है, तो चलो, नजर अंदाज करें न!!

हरी ओह्म!!!!

मिले नहीं जब शब्द तुम्हारे, कैसे गीत सजाऊँ मैं
तुम्हीं नहीं जब पास हमारे, कैसी गज़ल सुनाऊँ मैं
यूँ तो नादानों से कहना, कुछ भी अब बेमानी होगा
आग लगी है इस दुनिया में, कैसे चुप रह जाऊँ मैं.
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बुधवार, जुलाई 25, 2007

आम नहीं आये...

कुछ आर्थिक तंगियाँ और उस पर से बड़ा परिवार, जो कि उसकी जिम्मेदारी था. हरदम खोया खोया रहता. मगर फिर भी एक उमंग थी.

बाप बचपन में ही गुजर गये. अब तो धुँधली सी यादें हैं.

वो अपनी कहानी बताने लगा:

बाबू जी साईकिल से दफ्तर से आते. बैठक में ही रहते. वहीं दीवान पर सोया करते थे. बैठक का दरवाजा सड़क पर खुलता था. हर सडक से गुजरने वाला राहगीर जैसे उन्हें जानता. सब उन्हें राम राम कहते जाते. वो वहीं दीवान के पास अपनी टेबल कुर्सी पर पट्टीदार जाँधिया और बनियान पहने कवितायें लिखा करते थे. वो बड़े डाकघर में बाबू थे.

देर शाम रामदीन काका, बेग साहेब, अली चचा, तिवारी मास्साब और न जाने कितने यार दोस्त आ बैठते बैठक में. फिर चलता कविता का दौर. माँ चाय बनाकर देती, हम लोग बैठक में पहुँचा आते थे. कभी कभी नुक्कड़ से अनोखेराम के समोसे भी आते. हम चारों भाई बहन बहुत खुश होते. हमारे लिये भी समोसे मंगाये जाते.

एक छोटा भाई और दो छोटी बहनें. सब हंसी खुशी चल रहा था. हम इस छोटे से कस्बेनुमा शहर में बहुत खुश थे. एक रात पिता जी के सीने में दर्द उठा. डॉक्टर चाचा तुरंत भागते आये. कुछ इन्जेक्शन भी दिये. पिता जी आराम से सो गये. मगर फिर कभी न उठे. बहुत भीड़ जमा हुई थी उनकी शवयात्रा में. फिर उस भीड़ से छंट कर रह गये, मैं, माता जी, और दो छोटी बहनें और एक सबसे छोटा भाई. मैं दर्जा चार में था उस वक्त.

उस साल अली चाचा के आँगन में लगे आम के पेड में आम नहीं आये थे. हम बस इन्तजार करते रहे.

थोडे से फंड के पैसे, कुछ साहित्य संस्थानों के अनुदान में प्राप्त एक मुश्त रकम, और एक छोटी से पेंशन. बस काट कटौती में जिन्दगी चलने लगी. माँ, माँ कम और बाप ज्यादा हो गईं. हर वक्त हमें जीवन में तरक्की की सलाह, हमारी हर जरुरतों में घर और बाहर दोनों जिम्मेदारी. उम्र से पहले ही बूढ़ी हो गई और मैं तो खैर अपना बचपन खो ही चुका था. माँ की चिन्ता होती थी बस जाहिर नहीं करता था. ऐसा लगता है माँ समझती थी. जब ग्याहरवीं का बोर्ड का परीक्षा फल आया तो मैनें प्रथम श्रेणी प्राप्त की. माँ को बताया. मानो उसके सारे सपने पूरे हो गये. अगली सुबह वो नहीं रही. उसका मरने के बाद का चेहरा याद है. बिल्कुल निश्चिंत जैसे कि कह रही हो, तुम हो न!! अब मैं, मेरी दो छोटी बहनें और सबसे छोटा भाई.

उस साल भी अली चाचा के आँगन में लगे आम के पेड में आम नहीं आये थे. हम बस इन्तजार करते रहे.

अली चाचा ने सिफारिश करके मुझे पिता जी अनुकम्पा नियुक्ति वाली फाईल के हवाले से पोस्ट ऑफिस में छंटनी विभाग में नियुक्त करवा दिया.

समय बीतता गया. दोनों बहनें शादी लायक हो गईं. कोशिश मशक्त कर कर्ज तले दब दोनों को समाज में अच्छा ब्याह दिया. दोनों खुशी खुशी अपने घर चली गईं. फिर कभी नहीं लौटी. उनका परिवार समाज में हैसियत रखता था. छोटे लोगों से मिलना जुलना उन्हें पसंद नहीं था. फिर भी वो खुश था कि बहनें अच्छॆ घरों में ब्याह गई.

कर्ज बढ़ गया था. छोटे भाई को इंजिनियर बनाने का सपना था. दाखिला भी करवा दिया था. वो उसमें अपना भविष्य देखता था. इस साल फायनल इयर था. उसकी तन्ख्वाह में घर का किराया से लेकर कर्ज की किश्तों तक का फैलाव नहीं था. किसी तरह मान मन्नुअत के यहाँ तक आ गया था. बस एक साल की बात ही तो और है. फिर तो भाई इन्जिनियर बन जायेगा और वो ठाठ से जियेगा. उसने सोच रखा है कि वो तब नौकरी छोड़ देगा. छोटा कमायेगा और वो पिता जी अधुरी किताब पूरी करेगा.

इन्जिनियरिंग खत्म कर छोटे भाई ने आगे पढ़ने के लिये अमेरीका जाने की पेशकश की. इसने उसे समझाया भी कि बेटा, कुछ दिन नौकरी कर ले फिर कमा कर चले जाना. मगर उसके सब दोस्त तो अभी जा रहे हैं. न चाहते हुये भी इसने कुछ पोस्ट ऑफिस सेविग्स अकाउन्टस में कुछ घोटाले कर ही डाले और उसे अमेरीका जाने का इन्तजाम कर दिया. वह सोचता था कि अमेरीका से पैसे भेज देगा तब सब अकाउन्टस में वापस डाल दूंगा और किसी को पता भी नहीं चलेगा.

भाई अमेरीका चला गया.

ऐसी बातें कब छिपी हैं. विभागीय तहकीकात हुई. घर पर छापा पड़ा. नौकरी से हाथ धो बैठा. जेल जाने की नौबत आ गई.

अखबारों में उछल कर खबर छपी. छोटे भाई के दोस्तों ने छोटे भाई को अमेरीका फोन कर दिया.

उसका फोन आया था: सामने वाले पी सी ओ में "भईया, आपने यह सब क्या किया, मुझे तो अपने आपको आपका छोटा भाई कहते हुये शर्म आ रही है. आज से आप मेरे लिये मर गये. मैं अब कभी उस शहर नहीं लौटूँगा. आपने मुझे इस लायक नहीं छोड़ा कि मैं लोगों में मुँह दिखा पाऊँ" और उसने फोन काट दिया था.

उस पर केस चल रहा था. तीन माह जेल में रहने के बाद जमानत हो चुकी है. अली चाचा के सर्वेंट क्वाटर में रहता है. दिन भर उनके लिये बाजार जाने से ले बच्चों को स्कूल पहुँचाने आदि में व्यस्त रहता है. चाची दोनों टाईम बचा खाना खिला देती है. दिन कट जाता है. बस, रात में नींद नहीं आती, पता नहीं क्यूँ?

पिता की अधुरी किताब आज भी अधुरी है.

इस साल भी अली चाचा के आँगन में लगे आम के पेड में आम नहीं आये. उसे इन्तजार भी नहीं. उसे अब आम पसंद नहीं आते. Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, जुलाई 22, 2007

इश्क का टमटम

वाह, क्या मौसम हुआ है.

इश्क के टमटम में मास्टर, मास्टरानी जैसे लोग तक घोड़े टपटपाते चले जा रहे हैं.कोई इश्क के कार्टून बना रहा है तो एक मास्साब तो इश्क के पार्ट टू में खड़े सब्र का फल सेब बता रहे हैं. अगर पता होता कि आदम हव्वा की पुराणिक कथा को एक पुराणिक मास्टर से ऐसा आघात होगा तो इसे पुराणिक कथा की जगह पहले ही ऐतिहासिक कथा का दर्जा दे देते. मगर तब क्या पता था?

ज्ञानी इसी सेब पर टिप्प्णी रुपी ज्ञान बाँट रहे हैं कि अभी उम्र ही क्या है? ४० की उम्र कोई ज्यादा नहीं होती तो कोई फुरसत में कह रहा है कि ज्ञानी जी की सलाह् पर अमल करके लौटती पोस्ट् से पुष्टि की सूचना दें. फुरसत में हैं मगर अब नई मेहनत कौन करे? इस विचार से प्रेम के विषय में अपनी पुरातनकालिन टिप्स पकडा गये. कहते हैं कि प्रेम गली अति सांकरी मतलब हमारे लिये तो बेकार. संकरी गली में हमारा क्या काम, कहीं अटक ही न जायें. इनको क्या? बात करना है बस. गली में घुसना के पहले अपनी साईज तो हमें देखना है.

वैसे तो हम इश्क-मुश्क पर कुछ लिखते नहीं. मगर युवा मन है, आसपास के माहौल से डगमग हो ही जाता है. पुरानी बाते भी ख्याल आ जाती हैं. किसी जमाने में हम भी इश्क के पीर हुआ करते थे. एक एक बार में सात सात, आठ आठ इश्क गाथायें चला करती थी. लोग कहते हैं कि इश्क छिपाये नहीं छिपता. झूठ बोलते हैं. हमारे तो बताने पर भी छिपा रह गया. जिनसे इश्क किया करते थे, उन्हें तक नहीं मालूम. रत्ती भर खबर नहीं. सारे दोस्तों को खबर मगर जिनसे इश्क कर रहे हैं. जिनके नाम उदास बैठे हैं, जिन पर कविता रच रहे हैं. उसे कोई खबर नहीं.सात हों कि आठ मगर एक को भी नहीं. सब घट एक समान. सब पर एक समान नजर. सबसे एक सा इश्क यानि भरपूर. किसी को कोई खबर नहीं.

ऐसे सम दृष्टा इंसान आजकल मिलते कहाँ हैं? कई बार तो लगता है कि एकाध म्यूजियम बना दें और उसमें सज कर बैठ जायें ताकि आप लोग ऐसे इंसान के दर्शन से वंचित ही न चले जायें. सुभीता के लिये वैसे फोटू साईड पैनल में लगा दिया है मगर फोटो और साक्षात के अंतर को न दूर कर पाने के लिये फिलहाल खेद के सिवाय और क्या व्यक्त करुँ? आपकी ललक शांत करने के लिये अपनी दर्शन न दे पाने की मजबूरी देख आँख छलक सी आई है.

मगर, एक जैसे दिन तो धूरे के भी नहीं रहते. सुख दुख आनी जानी. हमने भी भीषण प्रेक्टीस की. क्म्यूनिकेशन स्किल में लालाजी इन्सट्यूट से डिप्लोमा किया. ढ़ेर सारे प्रेम साहित्य पढ़े. ढ़ेरों कवियों की विविध प्रेम कवितायें पढ़ी व सुनी.

इस विषय में महारत हासिल करने के लिये हमने कितनी मेहनत की, इस बात का अंदाजा आप इस बात से आसानी से लगा सकते हैं कि अगर उसका आधा समय भी हम योग अभ्यास को देते तो आज आप आस्था चैनल से लेकर लंदन तक बाबा समीर देव को देख रहे होते. हमारे कहने पर नाक से मंडी के सांड की तरह फुफकारते हुये सांस छोड़ रहे होते और कहते की प्रणायाम कर रहे हैं. अगर फिर भी अंदाज नहीं हो पा रहा है तो ऐसा समझ लें कि अगर इसका चौथाई समय भी आत्मा परमात्मा से बात चीत सीखने में लगा देते तो आज आप हमें महामहिम कह रहे होते. फिर भी नहीं समझे तो एकदम सरल भाषा में ऐसे समझो कि इसका एक बटा दस भाग भी दलितों को मूर्ख बनाने में लगाते तो अभी भारत के सबसे बड़े राज्य के मुख्य मंत्री होते हालांकि रंग रुप और साईज में अभी भी टक्कर दे सकते हैं.

अब जब इतनी आस्था और श्रृद्धा के साथ पूर्णलगनित अथक मेहनत की थी तो परिणाम मिला. वो भी ऐसा कि हम मल्टी टास्कर से सिंगल पति की स्टेटस में आ गये और आज वो हमारी पत्नी के रुप में सुचारु रुप से हमें संचालित कर रही हैं. कोई गम नहीं कि बाबा समीर देव नहीं बन पाये. इसका भी गम नहीं कि आप हमें महामहिम नहीं कह पाये. मगर यह एक बटा दस समय तो कभी भी निकाल लेंगे. शायद कभी आप मुख्य मंत्री के रुप में हमारा स्वागत कर भाव विभोरित हो पायें. प्रयास करने से प्रयास की परिकल्पना ज्यादा सुखद लग रही है अभी तो.

इसी इश्क पर लिखने के चक्कर में निम्न रचनायें तैयार हो गई हैं. पहला वाला एक नया सा प्रयोग है और दूसरा आपके लिये उसी का दूसरा रुप:

प्रयोग १:

वो भी क्या दिन थे,जब इश्क किया करते थे,
उसी बात पे जीते थे, उसी बात पे मरते थे

दुनिया ने कहा पागल, दीवानों सी हालात थी
उसी चाह पे रोते थे, उसी चाह पे हँसते थे.

देखें न अगर उसको, एक टीस से उठती थी
उसी आह में सोते थे,उसी आह में जगते थे.

हँसने में भी उसके , पायल सी खनकती थी
उसी राग में गाते थे, उसी राग में लिखते थे.

भीनी सी महक उसकी, दर उसका बताती थी
उसी राह पे रुकते थे, उसी राह पे चलते थे.

--समीर लाल 'समीर'


प्रयोग २:


वो भी क्या दिन थे,जब इश्क किया करते थे
चाहत की दुनिया में, हम साथ जिया करते थे।

दुनिया ने कहा पगला, लगता है दीवाना सा
हम जाने किस जुनूं में बस हँस दिया करते थे।

देखे न अगर उसको, एक टीस से उठती थी
रिसते हुये जख्मों को, खुद ही सिया करते थे।

हँसने में भी तो उसके, जो फूल बिखरते थे
तह में किताबों की, हम रख लिया करते थे।

भीनी सी महक उसकी, जो उसका पता देती
वो लिख के लिफाफे पे, भेज़ा किया करते थे।

--समीर लाल 'समीर' Indli - Hindi News, Blogs, Links

गुरुवार, जुलाई 19, 2007

सपना एक निराला है

इधर महफिल, शायर फैमिली, ई कविता, हिन्द कविता और अन्य मंचों से जुडे सभी मित्रों के ईमेल लगातार मिल रहे हैं कि मात्र कवित्त क्यूँ नही करते? क्यूँ डरते हो एक विधा को अपनाने में? अब क्या बतायें उन्हें. चाहते हैं कि कविता भी जस्टिफाई हो और गद्य भी. बस कोशिश जारी रहती है कि दोनों के बीच सामंजस्य बना कर चल पाये और दो नावों के सवार की तरह डूबे नहीं. तो आज कविता पेश है.

मगर वादा है कि अगर ध्यान से पढ़ा जाये और तो गद्य प्रशंसकों को भी यह निराश न करेगी. एक संदेश है इसमे सही दिशा का और क्या सपना मेरा है इस समाज से. थोड़ा गौर फरमायें और बतायें कि मैं सफल रहा कि नहीं-अपनी बात कहने में. :)

बस इतना ही कहना चाहता हूँ कि बकोल वस्ल:

अपने अंदर ही सिमट जाऊँ तो ठीक
मैं हर इक रिश्ते से कट जाऊँ तो ठीक.

थोड़ा थोड़ा चाहते हैं सब मुझे
मैं कई टुकड़ॊं में बँट जाऊं तो ठीक.

तुम ने कब वादे निभाये 'वस्ल' से
मैं भी वादों से पलट जाऊँ तो ठीक.

अब मुझे सुनिये:

सपना एक निराला है

अगर हमारे रचित काव्य से, तुमको कुछ आराम मिलेगा
यकीं जानिये इस लेखन को, तब ही कुछ आयाम मिलेगा.
भटकों को जो राह दिखाये, ऐसी इक जब डगर बनेगी
दुर्गति की इस तेज गति को, तब जाकर विराम मिलेगा.

इसी पाठ की अलख जगाने, हमने यह लिख डाला है
पूर्ण सुरक्षित हो हर इक जन, सपना एक निराला है.

भूख, गरीबी और बीमारी, कैसे सबको पकड़ रही है
हाथ पकड़ कर बेईमानी का, चोर-बजारी अकड़ रही है.
इन सब से जो मुक्त कराये, ऐसी जब कुछ हवा बहेगी
छुड़ा सकेगी भुजपाशों से, जिसमें जनता जकड़ रही है.

इसी आस के भाव जगा कर, गीत नया लिख डाला है
पूर्ण प्रफुल्लित हो हर इक जन, सपना एक निराला है.

शिक्षित और साक्षर होने में, जो है भेद बता जाती हो
नैतिकता का सबक सिखा कर, जो इंसान बना पाती हो
भेदभाव मिट जाये जिससे, ऐसी एक किताब बनेगी
मानवता की क्या परिभाषा, ये सबको सिखला जाती हो.

ऐसी सुन्दर कृति सजाने, यह छंद नया लिख डाला है
पूर्ण सुशिक्षित हो हर इक जन, सपना एक निराला है.

मेहनत करने से जो भागे, उनका बिल्कुल नाम नहीं है
डर कर जिनको जनता पूजे , वो कोई भगवान नहीं है
कर्म धर्म है सिखला दे जो, ऐसी अब कुछ बात बनेगी
जात पात में भेद कराना, इन्सानों का काम नहीं है.

धर्म के अंतर्भाव दिखाता, इक मुक्तक लिख डाला है
पूर्ण सु्संस्कृत हो हर इक जन, सपना एक निराला है.

--समीर लाल 'समीर' Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, जुलाई 15, 2007

क्या साधुवाद का युग होता है?

हिंदी ब्‍लॉगिंग का साधुवाद युग अब बीत गया। समीरजी तो हो गए बेरोजगार :)

मसिजीवी के उपरोक्त आलेख में मैने पढ़ते वक्त कोशिश पूरी की कि स्माईली को ही सत्य मानूँ. प्रयास यह भी किया कि सबसे पहले टिप्पणी करके यह भी बता दूँ कि मुझे बुरा नहीं लगा. उद्देश्य मात्र यह था कि मेरे चाहने वाले एवं जानने वाले, जिसमें मसिजीवी स्वयं भी हैं, कहीं इस कथ्य को शाब्दिक अर्थों मे न ले लें. मैं आदतानुसार परोक्षरुप से आहत भी नहीं हुआ किन्तु हतप्रद जरुर था. पुनः, इसे पढ़ा. कुछ ही देर बाद छपी भाई फुरसतिया जी की ब्लॉगर मीट भी पढ़ी और उसमें उल्लेखित इस तथ्य पर उनकी विचारधारा भी. हमेशा की तरह उनका मेरे उपर अडिग विश्वास और असीम प्रेम देखकर मन भर आया. कम्प्यूटर बंद कर दिया.

पिछले २४ घंटो में कई बार पुनः कम्प्यूटर चालू करने के लिये अनायास ही हाथ बढ़ाया. मन नहीं माना, ध्यान बँटा लिया.टीवी देखा, मित्रों से फोन पर बातचीत की, परिवार के साथ समय दिया. मगर यह दूरी लगातार खलती रही. लगा कि मैं अपनी ही दुनिया से दूर क्यूँ हो रहा हूँ.

थोड़ा संवेदनशील हूँ फिर भी जल्दी बुरा नहीं मानता. आदतानुसार परोक्षरुप से जल्दी आहत भी नहीं, फिर भी हतप्रद तो हो ही सकता हूँ. ऐसी स्थितियों में मैं अक्सर त्वरित प्रतिक्रिया से बचने की कोशिश करता हूँ. अगर मुझे हतप्रद कर देने या झंकझोर देने वाले विमर्श या विवाद का विषय बिन्दु मैं स्वयं न हूँ, तब तो मैं शायद किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया भी न व्यक्त करुँ और कोशिश कर इस तरह के विमर्श या विवाद को शीघ्रातिशीघ्र मानस पटल से मिटा दूँ.

जबसे पढ़ा एक भी टिप्पणी करने का मन नहीं बना पाया. खैर, मन तो बन ही जायेगा. संस्कार तो छूटते नहीं. शायद कुछ समय लगे, मन काबू में आ जाये, फिर करेंगे टिप्पणियाँ खूब जी भर के.

रुका नहीं गया. मानस को मनाया और फिर अपनी दुनिया में आया. फिर मित्र मसीजीवी को पढ़ा. फिर भाई फुरसतिया जी को पढ़ा. सब टिप्पणियां पढ़ीं. मित्रों का प्रेम देखा. सभी की टिप्पणियों ने पुनः एक विश्वास दिया. अच्छा लगा पढ़ सुनकर सब कुछ.

ऐसा नहीं है कि चिट्ठों में होते विवाद मुझे उद्वेलित नहीं करते या फिर मैं उनके विरोध में कुछ कहने में सक्षम नहीं या एकदम ही विवेकशून्य हूँ. मगर मुझे व्यक्तिगत तौर पर विवाद पसंद नहीं वो भी कम से कम ऐसे तो कतई नहीं, जिनकी परिणिती मात्र कटुता हो, वह भले ही विचारों की हो या व्यक्तिगत.

मैं दोनों को ही उचित नहीं मानता. एक ही छत के नीचे पले बढ़े, एक ही आदर्शों का पाठ पढ़ते बड़े हुए दो भाईयों तक के विचार अलग अलग होते हैं. तब यहाँ तो सब अलग अलग घरों, अलग अलग परिस्थितियों, अलग अलग संस्कारों से आये लोग हैं. कैसे हो सकते हैं सबके एक से विचार? आप अपने विचार रखिये, वो अपने. दोनों मे जो जो जिसको अच्छा, वो वो उनको स्वीकारें वरना स्वयं के विचार तो हैं ही. कोई भी तो विचार शून्य नहीं. सभी विवेकवान हैं. फिर अपने विचार मनवाने के लिये विवाद कैसा और किस हद तक? सार्थक विमर्श की भी एक सीमा रेखा होती है. सबको आपस में सामन्जस्य बनाना होगा तभी विकास का एक सशक्त और सुहावनी राह बनेगी.

जैसा कि मैने अपनी पिछली पोस्ट में स्पष्ट किया था कि मेरी अपनी निर्धारित सीमा रेखायें हैं. प्रतीक के तौर पर मैंने अपनी कार की रफ्तार दर्ज की थी. मुझे वही अच्छा लगता है और मैं वही करता हूँ जो मुझे अच्छा लगता है, कम से कम ऐसी जगह जहाँ मुझ पर कोई जोर जबदस्ती नहीं है (नौकरी में ऐसा हमेशा नहीं कर पाते) मगर फिर भी मैं अपनी मनमानी करने में किसी मर्यादा का उल्घंन नहीं करता. मैं हर वक्त इस बात का भी ख्याल रखने का प्रयास करता हूँ कि मेरी इस स्वतंत्र अभिव्यक्ति से कोई आहत न हो. आज और आने वाले कल, दोनों ही वक्त में, न तो मुझे अपने लिखे पर शर्मिंदगी महसूस हो और न ही किसी अन्य पढ़ने वाले को. अगर यही हल्का लेखन कहलाता है तो मैं इसी में खुश हूँ और मुझे इस पर गर्व है. और मुझे स्वयं को तथाकथित विचारोत्तेजक भारी भरकम साहित्यिक लेखन की ओर ले जाने का कोई आकर्षण नहीं है. शायद वक्त, निरंतर पठन कुछ साहित्यिक वजनी शब्दों का भंडार दे जिन्हें में सहज भाव से उपयोग कर पाऊँ मगर उद्देश्य मेरा फिर भी न बदले, बस यही इश्वर से प्रार्थना करता हूँ.


हम हँसते और हँसाते हैं
गम के आँसूं पी जाते हैं
ढ़ेरों जख्मी राह में देखे
मरहम सा रख आते हैं.


नये आये लोगों का अभिनन्दन करना, किसी को अच्छे कार्यों के लिये प्रोत्साहित करना, किसी के अभिवादन के जबाब में अभिवादन करना, किसी के दुख में शामिल होना, किसी के खुशी मे खुश होना, लगातर प्रोत्साहन देना, शाबाशी, धन्यवाद, आभार आदि शिष्टाचारों का कोई युग नहीं होता. यह हर युग में होते हैं और यही साधुवादिता कहलाती है. यह ठीक वैसे ही है जैसे गाली बकना, निर्थक बहस करना, मारना पीटना, लूटपाट करना, आतंक फैलाना आदि शैतानियत के प्रतीक हैं और इनके भी कोई युग नहीं होते.

जिस दिन समाज से शिष्टाचार समाप्त हो जायेगा, उस दिन मुझे इस बेरोजगारी के साथ साथ बेजानी भी मंजूर होगी-खुशी खुशी. बिना आहत हुये, बिना हतप्रद हुये, बिना बुरा लगे और बिना किसी प्रतिक्रिया के.

तब तक के लिये-मैं ऐसा ही हूँ. आप मेरे मित्र हैं और आपकी मित्रता को मैं साधुवाद करता हूँ.

चलिये, आज आपको स्व.रमानाथ अवस्थी जी की मेरी पसंदीदा रचना सुनाता हूं जो कभी फुरसतिया जी ने सुनाई थी:

मैं सदा बरसने वाला मेघ बनूँ
तुम कभी न बुझने वाली प्यास बनो।
संभव है बिना बुलाए तुम तक आऊँ
हो सकता है कुछ कहे बिना फिर जाऊँ

यों तो मैं सबको बहला ही लेता हूँ
लेकिन अपना परिचय कम ही देता हूँ।
मैं बनूँ तुम्हारे मन की सुन्दरता
तुम कभी न थकने वाली साँस बनो।

तुम मुझे उठाओ अगर कहीं गिर जाऊँ
कुछ कहो न जब मैं गीतों से घिर जाऊँ
तुम मुझे जगह दो नयनों में या मन में
पर जैसे भी हो पास रहो जीवन में ।

मैं अमृत बाँटने वाला मेघ बनूँ
तुम मुझे उठाने को आकाश बनो ।
हो जहाँ स्वरों का अंत वहाँ मैं गाऊँ
हो जहाँ प्यार ही प्यार वहाँ बस जाऊँ

मैं खिलूँ वहाँ पर जहाँ मरण मुरझाये
मैं चलूँ वहाँ पर जहाँ जगत रुक जाये।
मैं जग में जीने का सामान बनूँ
तुम जीने वालों का इतिहास बनो।
-स्व.रमानाथ अवस्थी




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गुरुवार, जुलाई 12, 2007

मैं ही थोड़ा सा सिमट जाऊँ



कार अपनी गति से भाग रही है. माईलोमीटर पर नजर जाती है. १२० किमी प्रति घंटा. ठीक ही तो है. मैं आगे हूँ. रियर मिरर में देखता हूँ. वो पीली कार बहुत देर से मेरे पीछे पीछे चली आ रही है. दूरी उतनी ही बनी है. शायद वो भी १२० किमी प्रति घंटे पर ही चल रही है. मैं आगे हूँ, वो पीछे है. शायद वो जीतने की कोशिश ही नहीं कर रहा. अगर वो अपनी रफ्तार १२५ किमी प्रति घंटा कर ले, तो तुरंत जीत जायेगा. मगर उसे नहीं जीतना. वो खुश है अपनी स्थितियों से. मुझसे हार रहा है, यह मेरी सोच है शायद. उसके पीछे आ रही सफेद कार से वो जीत रहा है, यह उसकी सोच होगी. ऐसे मैं सोचता हूँ. पता नहीं, वो क्या सोचता होगा?

अभी तो घर आने में बहुत समय है. अभी मैं जहाँ हूँ, हमेशा वहाँ से घर उतनी ही दूर रहता है रोज. कभी पास नहीं होता. कभी दूर नहीं होता. मैं भी रोज एक ही रफ्तार से गाड़ी चलाता हूँ. आदत ही नहीं कि रफ्तार बदलूँ. क्या जरुरत है? सब ठीक तो चल रहा है. कभी किसी से जीत जाता हूँ. हारने वाले को पता ही नहीं चलता कि मैने उसे हरा दिया है. वो शायद अपने पीछे वाली कार वाले को हराने के जश्न में मगन होगा. ऐसा मैं सोचता हूँ. पता नहीं वो क्या सोचता होगा?

रोज अमूमन यंत्रवत यही होता है. मैं तो खेल में हूँ. यह मेरी दिनचर्या का हिस्सा है. रोज किसी से हारता हूँ, उस पर मैं ध्यान नहीं देता. मैं उसका बुरा नहीं मानता. मैं चाहूँ तो रफ्तार बढ़ाकर १२५ किमी प्रति घंटा कर लूँ. मैं जिससे हार रहा हूँ, उससे जीत जाऊँगा. मगर क्या, सच में जीतूँगा? तब मैं किसी और से हारुँगा. या फिर अगर मेरे आगे वाला भी उस समय मेरे जैसा ही सोचने लगे तो वो अपनी रफ्तार बढ़ा कर १३० किमी प्रति घंटा कर देगा. कोई अंत नहीं ऐसी सोच का और फायदा भी क्या? हासिल क्या होगा सिवाय अफरा तफरी के. फिर मैं अपना शांत स्वभाव क्यूँ बदलूँ? क्यूँ करुँ उसकी परवाह? क्यूँ मचलूँ? मुझे १२० किमी प्रति घंटे की रफ्तार से चलना अच्छा लगता है. मैं सुरक्षित महसूस करता हूँ. कार मेरे नियंत्रण में रहती है. मुझे मेरी स्वतः होती जीत पसंद है. मैं संतुष्ट हो जाता हूँ. रोज किसी से जीत जाता हूँ वो मुझे अच्छा लगता है.

अब मैने हाईवे छोड़ दिया है. घर ८०० मीटर की दूरी पर है. हमेशा यहाँ से घर इतनी ही दूर रहता है रोज. कभी पास नहीं होता. कभी दूर नहीं होता. आज मैं पीली कार वाले से जीता हूँ. वो हारा है. क्या वो दुखी होगा? शायद नहीं, वो भी तो सफेद कार से जीता होगा, जो उसके पीछे आ रही थी. वो भी अपनी जीत से खुश होगा. ऐसी दुनिया मुझे अच्छी लगती है. सब जीत रहे हैं. सब खुश हैं. ऐसा मैं सोचता हूँ. पता नहीं, वो पीली कार वाला क्या सोच रहा होगा?

कल तारीख बदलेगी. दौड़ फिर होगी. फिर नया लेकिन ऐसा ही खेल होगा. फिर सब जीतेंगे. शायद प्रतिभागी कुछ बदल जायें मगर खेल तो यही रहेगा.

क्या यह मेरी आभासी दुनिया कहलायेगी और वह आभासी जीत? लेकिन मैं तो सच में जीता हूँ, उस पीली कार वाले से.

आप क्या सोच रहे हैं?

अपने मामा जी प्रशान्त 'वस्ल', जिनका लिखा सा रे गा मा का टाईटिल सांग पूरे भारत की जुबान पर है, की गजल के दो शेर सुनाता हूँ मेरी पसंद में:

अपने अंदर ही सिमट जाऊँ तो ठीक
मैं हर इक रिश्ते से कट जाऊँ तो ठीक.

मेरी चादर बढ़ सके मुमकिन नहीं
मैं ही थोड़ा सा सिमट जाऊँ तो ठीक. Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, जुलाई 08, 2007

गुणों की खान-मोटों के नाम

"जीवन में सकारात्मक सोच का स्थान बहुत अहम है. अगर आप सकारात्मक सोच नहीं रखते तो यकीन जानिये आप जल्द डिप्रेशन का शिकार हो जायेंगे और यह एक प्रकार का धीमा जहर है जिससे आप मर भी सकते हैं." जब एक महाज्ञानी के यह शब्द सुने तो हम एकदम सतर्क हो गये-एकदम सकारात्मक सोचधारक. अब हम अपने मोटापे के प्रति भी अपनी समस्त पूर्व धारणाओं को तिलांजली दे सकारात्मक सोच रखने लगे हैं.

मोटापे की प्रवृति दुबलापे से बिल्कुल भिन्न होती है. दुबला व्यक्ति यदि कोई प्रयास न भी करे तो वो दुबला ही बना रहता है एवं और दुबला नहीं हो जाता. मगर अगर मोटा व्यक्ति कोई प्रयास न करे तो उसका मोटापा दिन दूना रात चौगुना बढ़ता ही जाता है. इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिये. इसे स्वीकारने में आपको कोई परेशानी भी नहीं होगी क्योंकि ऐसी बातें स्वीकार कर लेना आपकी फितरत में है जैसे कि आपने भ्रष्टाचार, अराजकता, जातिवाद को कितनी आसानी से स्वीकारा ही हुआ है, तभी तो निष्क्रियता के परिणाम स्वरुप मोटापे के तरह यह दिन रात अपनी बढ़त बनाये हुये है.




मेहनत तो हो नहीं पायेगी, तब दुबले होने से रहे फिर काहे चिन्ता करना. स्वीकार करो इसे खुले मन से, स्वागत करो इसका. नहीं भी करोगे तो भी यह तो बढ़ता ही जाना है. तो फायदे देखकर ही खुश हो लो बाकि कार्य तो यह खुद कर लेगा. मुझे वैसे भी मोटे व्यक्ति पतले दुबले व्यक्तियों से ज्यादा गुणी नजर आते हैं, देखें न कितनी खासियतें होती हैं इनमें. मानों कि गुणों की खान.


जैसा मैने देखा है कि मोटे लोग आम तौर पर हमेशा हँसते मुस्कराते रहते हैं जबकि दुबले पता नहीं क्यूँ गंभीर से दिखते हैं. हो सकता है मोटों का अवचेतन मन अपने आप पर, अपनी हालत देख, हँसी न रोक पाता हो और मुस्कराता हो, मगर जो भी हो हँसते, मुस्काराते ही मिलते हैं मोटे. अर्थात वे हँसमुख होते हैं.

फिर उन्हें देखने वाला भी तो हँस ही देता है. इतने टेंशन की जिन्दगी में कोई किसी के चेहरे पर हँसी बिखेर जाये तो इससे बड़ा साधुवादी कार्य क्या हो सकता है. वैसे किसी दुबले को कह कर देखिये कि भाई, हँसाओ. वो तरह तरह के चुटकुले सुनायेगा, हास्य कविता पढ़ेगा, फूहड़ सी मुख मुद्रा बनायेगा तब भी कोई गारंटी नहीं कि हँसी आ ही जाये, लॉफ्टर चैलेंज देखकर देख लो जबकि किसी मोटे से कह कर देखो. बस जरा सा हिल डुल दे. एक दो नाच के लटके झटके लगा दे, पूरा माहौल हास्यमय हो जायेगा. अर्थात वे मनोरंजक होते हैं.

अच्छा, आप किसी मोटे को मोटा कह कर भाग जाईये. वो सह जायेगा. आपको कुछ नहीं कहेगा. जो भी वजह हो, चाहे उसे पता हो कि वो पीछा नहीं कर पायेगा या थक जायेगा, मगर वो कहेगा कुछ नहीं. अर्थात वे सहनशील होते हैं.

पतलों को मैने देखा है कि चेहरा मोहरा कैसा भी हो जब भी घर से निकलेंगे, पूरा सज धज कर कि शायद सुन्दर दिखने लगें. मोटा व्यक्ति बिना सजेधजे, जिस हाल में है, वैसे ही निकल पड़ता है. वो जानता है कि वो हर हाल में भद्दा ही दिखेगा. वो यथार्थ को समझता है. तो वो स्थितियों से समझौता कर लेता है. अर्थात वे न सिर्फ यथार्थवादी होते हैं बल्कि समझौतावदी भी होते हैं.

मोटे व्यक्ति वैसे भी घूमने फिरने और खेल कूद से पहरेज करते है तो अधिकतर बैठा रहते है. अब बैठे बैठे क्या करे तो किताब पढ़ते है, कम्प्यूटर पर पढ़ते है तब ज्ञानार्जन कर ही लेते है. अर्थात वे ज्ञानी होते हैं.

जब मोटा व्यक्ति अन्य लोगों के साथ कभी पैदल कहीं निकल जाता है तो जगह जगह रुक कर भिखारियों और दुखियों का हाल पूछता है (भले ही इसकी वजह उसकी थकान हो और इस बहाने बिना शर्म के थोड़ा आराम मिल जाता है-क्योंकि मोटा व्यक्ति थोड़ा शर्मीला होता है) और उन्हें भीख में कुछ पैसे भी देता है.अर्थात वो दानी होता है.

आपको शायद ही पता हो मगर मोटा व्यक्ति पराई स्त्रियों पर खराब नजर नहीं रखता. जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि वो यथार्थवादी होता है तो यह भली भाँति जानता है कि चाहे जैसी भी खराब नजर रखे, कुछ फायदा नहीं. कोई स्त्री उसे पूछने वाली नहीं. अतः अपने समझौतावादी स्वभाव के तहत विकल्प के आभाव मे, वो हमेशा अच्छी नजर रखता है अर्थात वो चरित्रवान होता है. साथ ही उनकी पत्नी भी इस सत्य से परिचित होती हैं कि उनके पति पर कोई भी डोरे नहीं डालेगा अर्थात वो एक सुरक्षित पति होते हैं.

वैसे कभी कोई दुबला ट्रेन में या बस यात्रा में सीट पर बैठा हो तो उसे कोई भी खिसका कर जगह ले लेता है कि खिसकना जरा भईया मगर मोटों के साथ यह समस्या नहीं होती. वो तो पडोसी की भी आधी सीट घेरे होता है अर्थात वो विराजमान होता है.

मोटा व्यक्ति कभी विवादों और लफड़े में नहीं पड़ता. (शायद वो जानता है कि कहीं बात बढ़ गई तो भाग भी न पायेंगे. पिटने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचेगा) अर्थात वो विवादों में तटस्थ और स्वभाव से शांतिप्रिय होता है.

मैने तो यह भी देखा है कि मोटे व्यक्ति के पास पैंट शर्ट तक नये नये खूब ज्यादा होते हैं. अभी अभी सिलवाया और दो बार पहना नहीं कि मोटापा तो मंहगाई की गति से बढ़ता गया और कपडे आम जनता की जेब की तरह छोटे. अब फैंक तो सकते नहीं कि शायद कल को दुबले हो ही जाये तो पहनेंगे. (अर्थात मोटा व्यक्ति आशावादी होता है) अभी नया ही तो है. तो धर देते हैं. फिर न कभी दुबले हुये, न कभी मंहगाई कम हुई और न कभी उनका इस्तेमाल तो नये नये कपडे जमा होते रहे. गिनती बढ़ती गई जो कि दुबले के नसीब मे कहाँ. उसकी तो पैन्ट शर्ट फट ही जाये तभी छूटे. अर्थात वे (इस मामले में) समृद्ध होते हैं.

मोटा जब कहीं ज्यादा खाना खाता है तो उसे उसकी सेहतानुरुप माना जाता है और कोई बुरा नहीं मानता बल्कि लोग कहते पाये गये हैं कि भाई साहब, क्या भूखे ही उठने का इरादा है वरना कोई दुबला उतना खाये तो लोग कहने लगते हैं कि न जाने कितने दिन का भूखा है या आगे लगता है खाना नहीं मिलेगा. अर्थात वे सम्मानित होते हैं.

अब चूँकि मोटा व्यक्ति ज्यादा कहीं आता जाता नहीं और अक्सर घर पर ही सोफे में बैठा होता है तो बच्चों पर लगातार नजर बनीं रहती है अर्थात वो एक अच्छा अभिभावक होता है.

कभी स्कूटर या सायकिल से गिर जाओ तो दुबले की तो हड्डी गई ही समझो मगर मोटे की चरबी से होते हुए हड्डी तक झटका पहुँचने के लिये जोर का झटका चाहिये इसलिये अक्सर हड्डी बच जाती है अर्थात वो दुर्घटनाप्रूफ होता है.

अनेकों गुणों की खान का क्या क्या बखान करुँ मगर अगर कोई दुबला मर जाये तो कारण खोजना पड़ता है कि क्यूँ मरा..शायद शुगर बढ़ गई होगी, हार्ट फेल हो गया होगा मगर मोटा मरे तो बस एक कारण सबके मुँह से कि मोटापा ले डूबा. अर्थात उसका कारण बिल्कुल साफ और पारदर्शी होता है. नो कन्फ्यूजन. बस एक कारण और मात्र एक: मोटापा.

काश, मेरे देश के विकास की गति भी मोटी हो जाये बिना किसी प्रतिरोध के. सब सकारत्मक सोच रखें और फिर देखिये कैसी दिन दूनी रात चौगुनी विकास की दर बढ़ती है. मगर यह भ्रष्टाचार, अराजकता, गुंडागिरी की ट्रेड मिल तो हटाओ!! जरुर मोटी हो जायेगी. आमीन!!!


(यह विलम्बित आलेख शिष्य गिरिराज के विशेष अनुरोध पर प्रेषित किया जा रहा है) Indli - Hindi News, Blogs, Links

बुधवार, जुलाई 04, 2007

मरघट से....राजू भाई

राजू भाई यूँ तो कवि थे और इसी वजह से माईक के शौकीन. क्या मजाल कि माईक थामने का कोई भी मौका उनके हाथ से निकल जाये. साथ ही वो समाज सेवा जैसा एक बेहद जरुरी कार्य किया करते थे.पूरे मोहल्ले में बल्कि आजू बाजू के अन्य मोहल्ले में भी कोई मर जाये और राजू भईया को खबर पहुँच बस जाये, कि वो हाजिर. सबसे आगे आगे. जान पहचान मृत व्यक्ति या उसके परिवार से कतई आवश्यक नहीं. आवश्यक है राजू भाई तक खबर पहुँचना और वो आपको हाजिर दिखेंगे.

कवि की हैसियत से भी उनका यही हाल था. कवि सम्मेलन का न्यौता उतना आवश्यक नहीं जितना उन्हें यह पता लगना कि फलां जगह कवि सम्मेलन है. फिर तो वो मेनेजमेन्ट एकस्पर्ट थे. आपको निश्चित मंच से कविता पढ़ते नजर आयेंगे और आयोजक उनके आगे पीछे, न बुलाने के लिये क्षमायाचना की मुस्कराहट चेहरे पर चिपकाये हुये. खैर, यह उनकी शक्सियत ही थी और उनका मैनेज करने का अंदाज.

हाँ, तो बात चल रही थी हर शव यात्रा में राजू भाई की शिरकत होती थी. वही धुला हुआ सफेद कुर्ता पैजामा, आँखों पर काला चश्मा, हाथ में पान पराग और तुलसी का ड्ब्बा. चेहरे से सबसे ज्यादा गमगीन. सुबह से जुटे हर इन्तजाम में. पूरे प्रोजेक्ट मैनेजर की तरह. खुद एक काम नहीं करना और दिखे ऐसा कि सब भार उन्हीं के कंधों पर आ गिरा है. आप उन्हें देखते ही पायेंगे, 'पप्पू बेटा, सुन वो बांस आ गये क्या. जरा यहाँ ले आओ. छोटू सुन, जरा वो रस्सी ले आ. मुन्ना, उधर से बाँधना शुरु कर. रामू, जा ३ किलो घी खरीद ला. भईया से पैसे ले ले और आ कर हिसाब देना. लौट कर हिसाब खुद लेते और पैसे अपनी जेब में. खुद कुछ नहीं करना, बस हल्ला गुल्ला और पैसे वापस लेना. सुबह से सारा सामान अलग अलग लोग ला रहे हैं. कभी भईया से पैसे ले लो कभी चाचा से और लौटकर हिसाब ये लें.अब मरे जिये में उनसे तो कोई हिसाब मांगने से रहा. और न ही ओरिजनल पैसे उन्होंने लिये थे परिवार वालों से, तो अगर कभी शक जाकर कोई बुरा भी मान गया तो छोटू, मुन्ना लोग बदनाम हों. राजू भाई का क्या. यही तो होता है सही प्रोजेक्ट मैनेजर-सब वाह वाही हमारी बाकि गल्तियाँ टीम मेम्बरर्स की. काम एक नहीं आता और न करना है और सबसे ज्यादा व्यस्त.

कुछ खास जानकार बताते हैं कि उनकी आजिविका का साधन भी यही था. एक बार एक मय्यत में मैने छिप कर गिने थे, लगभग २५०० से ३००० हिसाब वापस लेते लेते अंदर गये थे. तभी मैं समझा एक एक सामान के लिये यह लोगों को क्यूँ दौड़ाते हैं, इकट्ठे काहे नहीं मंगा लेते.

कवि सम्मेलन तो शायद इसी ब्लैक को व्हाईट करने का तरीका रहा होगा. जैसे सरकारी अधिकारियों और दो नम्बर की आय वालों के पास कृषि भूमि. कवि सम्मेलन का मंच उनके लिये साहित्य भूमि न हो कृषि भूमि ही थी. जो उनकी इस दो नम्बर की आय को एक नम्बर का जामा पहनाने का कार्य बड़ी मुस्तैदी से करती. चलिये, जाने दिजिये, इस पचड़े में क्या पड़ना.

तो राजू भाई,शुरु से अंत तक हाजिर रहते और जब सारे कर्मकांड हो जाते तो जो मरघट में आखिर में आत्मा की शांति के लिये भाषण दिया जाता है, वो भी राजू भाई तुरंत पेड के चबूतरे वाले मंच पर चढ़कर शुरु हो जाते. अब सुबह से साथ साथ रहते इतना तो जान ही जाते कि कौन मरा है, क्या नाम था, क्या उम्र रही होगी. परिवार में कौन कौन पीछे छूट गया आदि आदि भाषण के आवश्यक तत्व. हर उम्र के लिये एक सधा हुआ भाषण और आप जानकर आश्चर्य करेंगे उनकी काव्य प्रतिभा पर कि ऐसे में भी वो एकाध मुक्तक तो झिलवा ही देते. मैं उनकी भाषण कला से बहुत प्रभावित रहता और एक बार रिकार्ड करके नोट किया. आप सब की सुविधा के लिये पेश कर रहा हूँ. क्या मालूम किस जगह जरुरत पड़ जाये पढ़ने की, अन्य वक्त्ताओं के आभाव में. काम ही आयेगा, तो सुनिये मोहल्ले के बुजुर्ग के मरने पर उन्होंने जो भाषण पढ़ा वो हूबहू यहाँ पेश किया जा रहा है. ज्ञात रहे कि राजू भाई इनसे पहले कभी नहीं मिले और यकिन मानिये, वहाँ उपस्थित सभी लोगों को मृत व्यक्ति के पुत्र से भी ज्यादा करीब और गमगीन राजू भाई ही लगे.

भाषण:





श्रद्धेय रामेश्वर प्रसाद जी जिन्हें हम प्यार से बाबू जी बुलाया करते थे, आज हमारे बीच नहीं रहे. कल तक जो वाणी हमें जीवन की राह दिखाती थी, आज हमेशा के लिये चुप हो गई.

बाबू जी को अब याद करता हूँ तो याद आता है वो मुस्कराता हुआ चेहरा, जो हर दुख और विपत्ति के क्षणों में सदैव एक अजब सा विश्वास जगाता था. जब भी मैं इस जीवन की आपा धापी की धूप में झुलसते हुये परेशान हो जाता था, बाबू जी के पास जाकर उनके श्री चरणों में बैठ जाया करता था. वो एक वट वृक्ष थे, जिसकी छाया की शीतलता में कुछ पल विश्राम करके मैं एक नई शक्ति और उर्जा का अनुभव करता था. जब भी मैं बाबू जी के घर के सामने से निकलता, वो मुस्कराते रहते. उनकी मुस्कान से दैविक उर्जा मिलती थी. (यहाँ राजू भाई क गला भर आता, थोड़ी खरखराहट भरी आवाज हो जाती)

बाबू जी एक व्यक्ति नहीं, एक युग थे. बाबू जी जाने से एक युग की समाप्ति हुई है. उनके जाने से हमारे जीवन में एक अपूर्णिय क्षति हुई है. बाबू जी के बताये आदर्श मात्र कथन नहीं, एक जीवन शैली है. अगर हम अपने जीवन में उस शैली का थोड़ा भी मिश्रण कर पाये तो यही बाबू जी की आत्मा को सच्ची श्रृद्धांजली होगी. (यहाँ पर वो थोड़ा रुककर जेब से रुमाल निकालते, चश्मा हटाते और आँसू पोछते से नजर आते) (फिर खंखारते और उनका कवि हृदय जाग उठता-मौका मिला है तो कैसे छोड़ते)

आज इस अवसर पर मेरी लिखे एक मुक्तक की चार पंक्तियाँ सुनाना चाहता हूँ जो बाबू जी बहुत पसंद किया करते थे:


आसमां अमृत गिराता, आज अपनी आँख से
पुष्प खुद गिर समर्पित, आज अपनी शाख से
आप सा व्यक्तित्व नहीं, कोई भी दूजा है यहाँ
आपका आना हुआ था, इस धरा के भाग* से

* भाग=भाग्य

और अंत में वो दो पंक्तियाँ जो बाबू जी हमेशा गुनगुनाया करते थे और जो इस जीवन का दर्शन कहती हैं:


जिन्दगी मानिंद बुलबुल शाख की,
दो पल बैठी, चहचहाई और उड चली.


मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि बाबू जी की आत्मा को शान्ति दे और उनके परिवार को इस गहन दुख को वहन करने की शक्ति प्रदान करे.

कल बाबू जी घर ३ बजे से शांति पाठ है. अब हम सब दो मिनट बाबू जी आत्मा की शांति के लिये मौन रख कर यहाँ से विदा लेंगे.

दो मिनट बाद-राजू भाई खँखारे-फिर कहे- ओम शांति..बाकि सबने कहा--शांति शांति.


अंत मे एक बात और, आखिरी दम भाषण और शव जलाने के जस्ट पहले जब सब शांति से इन्हें देख रहे हों, तैयारी चल रही हो, तब ये जरुर किसी को दौड़ाते थे कि जा बेटा, एक अगर बत्ती का पूड़ा खरीद ला. लड़का बोलता, पैसे तो सबके सामने अपनी जेब से २० का नोट निकाल कर देते और फिर थोड़ी दूर जाने पर वापस आवाज देते कि यह और पैसे ले जा और पानी की एक बोतल भी लेते आना चाचाजी के लिये और पुनः १० का नोट. उनको यह रुपये देते मृतक का पूरा परिवार भी देखता और उपस्थित लोग भी.

सारा काम खत्म होने पर जब मृतक के परिवार वाले इनसे पूछते कि भाई साहब, आपके भी सुबह से काफी पैसे खर्च हो गये होंगे, कृप्या बता देते तो हम दे दें. बस फिर क्या, राजू भाई आंसू से रो देते कि बाबू जी के जाते ही क्या मैं इतना पराया हो गया कि १०००- ५०० भी न खर्च कर सकूँ उन पर?

हम तो सकपका ही गये कि कुल ३० रुपये खर्च करके अहसान १०००-५०० का और वो भी २५००-३००० अंदर करने के बाद. पूरा परिवार कृत्यज्ञता से इनकी ओर ताक रहा होता. आज की दुनिया में भला ऐसा आदमी कहाँ मिलता है जो पराया होकर भी अपनों से ज्यादा अपना है.

तो ऐसे थे हमारे कवि महोदय, ओजस्वी वक्ता, मैनेजमेंट गुरु, प्रोजेक्ट मैनेजर, शिक्षा-बी.ए. (हिन्दी)(यह भी विवादित है), बेरोजगार और इतने व्यस्त कि रोजगार खोजने तक का समय नहीं- इन्तजाम अली श्री श्री राजू भाई. Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, जुलाई 01, 2007

हे स्वयंभू चिट्ठा साहित्यकार!!



गुगल चैट पर लाल बत्ती जला कर बैठे हैं. कुछ जरुरी काम निपटाना है साथ ही किसी से कुछ जरुरी बात करनी है तो इन्तजार भी है उनके गुगल चैट पर आने का. इसी लिये व्यस्त का बोर्ड टांग दिया है.


एकाएक सामने से मैसेज आता है, 'क्या भाई साहब, बिजी हैं?' .


अब क्या कहें? जब लाल बत्ती और उसके नीचे लिखा 'व्यस्त' कुछ नहीं कह पाया तो हमारी क्या औकात. कैसे मना करते?

कहना पड़ा, 'नहीं, कोई खास नहीं, बतायें.'

अभी लिख कर एन्टर मारा ही था, तो वहाँ तो मैसेज पहले से ही तैयार था, 'इसे देखा.' और साथ में अपनी नई ब्लॉग पोस्ट का लिंक. अभी कुछ सोचे समझें, एक स्माईली :).

कह दिये, 'अभी देखते हैं'

३ मिनट भी नहीं बीते, अभी लिंक खुलने की तैयारी में है. एक और मैसेज, 'कैसा लगा?'.

अब क्या बतायें कि कैसा लगा? पहले दिखे तो. खैर, पोस्ट खुल खुला गई. बी एस एन एल की महा कृपा का परिणाम. (खैर खुलना तो था ही जैसा की नाम से उजागर है कि बी एस एन एल-बहुत समय नहीं लगेगा-उसने अपना वादा निभा दिया) अब इतने दिन से आँख फोड़ फोड़ कर और ब्लॉगिंग में टिपियाते इतना तो अनुभव प्राप्त हो ही गया कि सरसरिया के पहचान जायें कि कविता है कि कहानी. व्यंग्य है कि यात्रा संस्मरण. विवाद होगा या नहीं. अरे, यही अनुभव तो है जो फट से टिप्पणी कर लेते हैं. और बता दूँ, यह ज्ञान बांटना संभव भी नहीं. बस, इतना बताये दे रहे हैं कि करत करत अभ्यास ते वाली कहावत याद रखो और यह भी कि कड़ी मेहनत का कोई विकल्प नहीं. आपको भी यह ज्ञान अनुभव से प्राप्त हो जायेगा. यह ठीक वैसा ही है जैसे कि अपने नेता घाघपंती सिखा नहीं सकते बस अनुभव की बात है, जिसका जितना लंबा अनुभव वो उतना बड़ा घाघ.

खैर, जल्दी से सरसरिया दिये. देखा कविता है और वो भी प्रेम गीत टाईप, कह दिये कि 'बड़ी अनूठी कविता कही है. शब्द चित्र बहुत पसंद आया. दिल की गहराई से भाव उकेरे हैं, खास कर यह लाईन और चार लाईन उसी में से कट पेस्ट कर दी' .

वे बोले, 'यह वहीं टिप्पणी में कहिये.'.

लो, कर लो बात, तुम कह रहे हो चैट में. सामने बैठे टाईप में ही हो. सामने के सामने तारीफ कर रहे हैं. तारीफ और दाद चाहिये कि टिप्पणियों की संख्या? समझ नहीं आ पाया.

अब वो तो टिप्पणी का कह कर गायब हो गये. कहीं और कटिया फंसा रहे होंगे. एक जन से उनका काम थोड़ी चलेगा और हम लगे हैं, उनके ब्लॉग पर टिप्पणी करने में. टाईप करो. वो रंग बिरंगे टेढ़े मेढ़े अक्षर भरो वेरिफिकेशन वाले. अपना नाम, पासवर्ड और झुंझलाहट में अक्षर गलत भरा गये तो फिर भरो. खैर, एक लोभ सा रहता है कि कल को हम भी कुछ लिखेंगे तो बंदा अहसान चुकायेगा. बस शायद इसी लिये बुजुर्ग कह गये हैं कि लालच अच्छी बात नहीं. मगर समझ आये जब न!! वो तो बुढ़ापे में हम भी अपने नाती पोतों को समझायेंगे, ब्लॉगिंग अच्छी बात नहीं-कौन मानेगा. हम ही कहाँ मान रहे हैं.

सब फुरसत पाकर ईमेल चेक करने बैठे तो उन्हीं का ईमेल चैट के पहले का आया हुआ था. यहाँ देखिये मेरी नई रचना और लिंक एवं अंत में स्माईली. नाश हो इन स्माईली बनाने वालों का. कोई सी भी हरकत कर लो और स्माईली के पैकिंग रैपर में लपेट कर थमा दो. अरे, पैकेजिंग का जमाना है. अब जो बुरा माने वो बेवकूफ, उसे अन्तर्जाल के तरीके नहीं मालूम. तब यह बेवकूफी कैसे जाहिर होने दें तो स्माईली लगी बात का बुरा नहीं मानते.

यहाँ से छूटे तो नारद पर पहुँचे, वहाँ भी सबसे उपर वो ही चमक रहे हैं उसी पोस्ट के साथ. भईये, नारद का काम ही यही है. थोड़ा तो धीरज धरो. हम तो खुद ही बिना नारद की पूजा अर्चना के खाना नहीं खाते, नहाते नहीं, सोते नहीं, जागते नहीं...देख ही लेंगे. बस कुछ मिनटों का फरक पड़ सकता है. हम नारद के थ्रू आयेंगे, तब भी टिपियायेंगे और शायद वाकई पढ़कर बेहतरीन टिप्पणी कर जायें कभी कभी पढ़कर भी तो करते हैं टिप्पणी :)) न विश्वास हो तो मसीजिवी से पूछ लो, उन्होंने अभी रिसेन्टली देखा था एक जगह. :)

नारद पर नहीं भी आते हो तो हिन्दी ब्लॉग भी देखते हैं, चिट्ठा चर्चा भी पढ़ते हैं और अब तो चिट्ठाजगत डॉट इन भी. बहुत अच्छा या बहुत बूरा लिखोगे तो सारथी पर भी दिख सकते हो.कहीं न कहीं तो तुम दिख ही जाओगे और तुम्हारे जैसा मुखर व्यक्तित्व नहीं दिखेगा तो फिर कौन दिखेगा??

तो हे स्वयंभू चिट्ठा साहित्यकार, तुम्हारी पोस्ट का अस्तित्व कोई लोकशाही में उपस्थित ईमानदारी सा तो है नहीं, जो लाख ढूंढने पर भी न मिले. वो तो बेईमानी की तरह सर्वव्यापी एवं स्व-उजागर है, जिसे चाह कर भी अनदेखा नहीं किया जा सकता और उससे हाथ मिलाये बिना इस जगत में तो गुजारा संभव भी नहीं. हमें भी गुजारा करना है, जरुर हाथ मिलायेंगे.जरुर टिपियायेंगे फिर काहे अधीर हुये जा रहे हो. तनिक ठहरो, हम चाहें भी तो बचकर नहीं जा सकते. बस निवेदन और विनती है कि भईया, जरा सा धैर्य रख लो. कुछ हमारी भी जरुरते हैं-खाना खाते हैं, नहाते हैं, सोते हैं-थोड़ा तो स्पेस दे दो फिर नौकरी भी करनी है. वैसे, फिर भी चाहो, तो दरवाजा तो हमेशा खुला है, खटखटा देना भले ही व्यस्त का बोर्ड लगा हो, लाल बत्ती जल रही हो: हम तो हाजिर हैं ही, लालची जो हैं. लाल बत्ती, बोर्ड आदि तुम्हारे लिये नहीं हैं वो आम जन के लिये हैं और तुम आम तो हो नहीं, तुम तो हो-स्वयंभू चिट्ठा साहित्यकार. नमन करता हूँ तुम्हें!!! स्विकारो.

धीरे धीरे बस समझा रहे, धीरज धर लो भाई
खुद अपने को आजतक, बात समझ न आई
ललचाये से टिपिया रहे, हम तो हैं दिन रात
टिप्पणी की बस चाह में,आह निकल न पाई.

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