सुनिये:
मेरे कमरे की खिड़की से दिखता
वो ऊँचा पहाड़
बचपन गुजरा सोचते कि
पहाड़ के उस पार होगा
कैसा एक नया संसार...
होंगे जाने कैसे लोग...
क्या तुमसे होंगे?
क्या मुझसे होंगे?
आज इतने बरसों बाद
पहाड़ के इस पार बैठा
सोचता हूँ उस पार को
जिस पार गुज़रा था मेरा बचपन...
कुछ धुँधली धुँधली सी स्मृति लिए
याद करने की कोशिश में कि
कैसे था वहाँ का संसार..
कैसे थे वो लोग...
क्या तुमसे थे?
क्या मुझसे थे?
इसी द्वन्द में उलझा
उग आता है
एक नया ख्याल
जहन में मेरे
दूर
क्षितिज को छूते आसमान को देख...
कि आसमान के उस पार
जहाँ जाना है हमें एक रोज
कैसा होगा वो नया संसार...
होंगे जाने कैसे वहाँ के लोग...
क्या तुमसे होंगे?
क्या मुझसे होंगे?
पहुँचुंगा जब वहाँ...
कौन जाने कह पाऊँगा
तब वहाँ की बातें..
कुछ ऐसे ही या कि
बनी रहेगी वो तिलस्मि
यूँ ही अनन्त तक
अनन्त को चाह लिए!!
बच रहेंगे अधूरे सपने इस जिन्दगी के
जाने कब तक...जाने कहाँ तक...
तब कहता हूँ..
“कैसे जीना है किसी को ये सिखाना कैसा
वक्त के साथ में हर सोच बदल जाती है”
-समीर लाल ’समीर’
29 टिप्पणियां:
वक़्त या जिंदगी अपनी चाल से सब सिखा ही देती है .
आवाज़ की पृष्ठभूमि में बांसुरी की धुन मोहक है !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज मंगलवार (02-07-2013) को "कैसे साथ चलोगे मेरे?" मंगलवारीय चर्चा---1294 में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
पृष्ठभूमि का संगीत काव्य-कल्पना को अतीन्द्रिय-सा करता जिससे उठता आपका स्वर एक मरीचिका बो रहा है-और मरीचिका का कोई समाधान नहीं होता !
“कैसे जीना है किसी को ये सिखाना कैसा
वक्त के साथ में हर सोच बदल जाती है”
वाह भाई वाह ..
यह ग़ज़ल पूरी दीजिये , आनंद आ गया !
दूर कहीं पर सुख की कुटिया छाते रहते,
आने वाले कल की महिमा गाते रहते
वक्त के साथ में हर सोच बदल जाती है”--
वक्त के साथ सब कुछ बदल जाता है
latest post झुमझुम कर तू बरस जा बादल।।(बाल कविता )
कुछ अनसुलझे सवाल जेहन में होते ही है सभी के पर इतनी सुन्दरता के साथ बखान आप ही कर सकते हैं ..बहुत सुन्दर
उस पार सदा ही रहस्यमयी लगता है। कुछ रहस्य कभी नहीं खुलते ।
सुन्दर कविता।
“कैसे जीना है किसी को ये सिखाना कैसा
वक्त के साथ में हर सोच बदल जाती है”
नहुत ही सुंदर, शुभकामनाएं.
रामराम.
sachy hai bhulai nahee jateen yaden
तिलस्म क्षितिज के पार ही रहता है!
समय के साथ बहुत कुछ बदल जाता है ... वो सब कुछ दिखा देता है सिखा देता है ...आपका ये अंदाज़ भी कमाल है समीर भई ...
बांसुरी की धुन ने रचना को सौन्दर्य के साथ गरिमा प्रदान की है सुन्दर गंभीर रचना और वाचन के लिए प्रणाम
वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
कभी यहाँ भी पधारें
पढ़ कर मुंह से वाह वाह ही निकलता हैं
सच में बेहद सार्थक रचना है।
बहुत अच्छी लगी
Aanad aa gya Gudev
AAPKEE LEKHNI SE EK AUR SASHAKT AUR
SAARTHAK KAVITA . JAESE BHAAV VAESEE BHASHA . KYAA BAAT HAI , SAMEER BHAI !
“कैसे जीना है किसी को ये सिखाना कैसा
वक्त के साथ में हर सोच बदल जाती है”
very nice
समीर जी .
नमस्कार
बहुत दिन हुए , कहीं गया नहीं . कुछ हालात ही ठीक नही है .
पर आज , अभी आपकी कविता पढ़कर बहुत अच्छा लगा . कई बार पढ़ ली . उस पार का तिलिस्म ने कुछ नया भाव संचार किया मन में.
इस कविता पर बहुत कुछ कहने का मन है ..शब्द नहीं मिल रहे है .
हाँ, ये जरुर कहूँगा कि ये आपकी एक कालजयी कविता है ...
दिल से बधाई दादा.
आपका
विजय
शुभ प्रभात
सच में समार भाई
अच्छा लिखते हैं आप
सादर
"Zindagi khud hi ek aazaar hai, jiso jaan ka/ jeene walon ko isee rog me marnaa hoga..." waah janab!
"वक्त के साथ में हर सोच बदल जाती है".
बेहतरीन गज़ल, मनमोहक आवाज़, सुंदर संगीत. अद्भुत प्रस्तुति.
sundar hai ,hamesha ki tarah
वक्त के साथ हर सोच बदल जाती है । और ुस पार की कहने कौन आया है आज तक । सुंदर प्रस्तुति ।
वक्त के साथ हर सोच बदल जाती है । और ुस पार की कहने कौन आया है आज तक । सुंदर प्रस्तुति ।
“कैसे जीना है किसी को ये सिखाना कैसा
वक्त के साथ में हर सोच बदल जाती है”
सौ फीसदी सही...बेहतरीन रचना।।।
aapki bahut sundar v sashakt rachna ko pad kar abhibhut ho gayaa haaon.badhai.
कविता को कवि की आवाज़ में सुनना और साथ में इतनी सुरीली धुन... बहुत सुन्दर. जीवन पार जाने कैसा? किसके जैसा? अजीब तिलिस्म... बधाई.
गहन अभिव्यक्ति ....आपकी आवाज़ मे सुनने से और गंभीर और सारगर्भित लगी ...!!
शुभकामनाये।
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