बुधवार, अक्तूबर 13, 2010

गीली पोली जमीन...

पैर से लिखने की ख्वाहिश है, उन इबारतों को, जिन्हें हाथ लिखने को तैयार नहीं. ख्वाहिशों को कब परवाह रही है किसी भी बात की. न ही उन्हें स्थापित नियमों से कुछ लेना देना है. डोर से टूटी पतंग, उड़ चली जिस ओर हवा बही. कभी पूरब तो कभी पश्चिम. कभी उपर तो कभी नीचे. क्या रंग है, क्या रुप है- इससे बेखबर. बस, एक बेढब बहाव और अंत, वही किसी मिट्टी में मिल जाना, खत्म हो जाना. तसल्ली ये कि किया मन का.

लिख डालने की कोशिश में जमीन पर गीली मिट्टी में पैर के अंगूठे से चन्द उघाड़े अक्स, कुरेदी हुई कुछ लकीरें आड़ी तिरछी. शाम की बारिश अपने साथ सब बहा कर ले गई. बस बच रही सिर्फ, एक मिट्टी की सतह. क्या जाने?.. इन्तजार करती भी होगी या नहीं-चन्द नई इबारतों का. उलझी हुई, किसी को न समझ आ सकने वाली. हाथों की बेवफाई को कुछ पल को ही सही मगर धता बताती ये ख्वाहिश, मानो बिटिया हाथों में बर्फ का नारंगी गोला लिये इतरा रही हो. धूप मुई बच्चों को भी कहाँ बख्शती है? बिटिया का इतराना भी बरदाश्त न हुआ और पिघला कर रख दिया उसका नारंगी बर्फ का गोला. वो नादान गोले की लकड़ी लिए चुसती रही घंटो उसे.

याद करो तो आज भी पैर का अंगूठा अनायास ही कालीन में जाने क्या कुरेदने लगता है. हाथ आज भी तैयार नहीं उस इबारत को लिखने के लिए जिसमें वो नाम जुड़े. वफाई बेवफाई का दिल आदी हुआ पर हाथ. वो मान में नहीं. दिल नाजुक और हाथ सख्त. एक ही शरीर के हिस्से. व्यवहार इतना जुदा.

उसी आंगन में खेलते थे दो भाई. एक ही खून के/ माँ के जाये. कब आंगन की अमराई दीवार में बदली, जान ही नही पाये. एक ही दिशा में निकलते/ एक ही मंजिल पत जाने को लेते-- दो जुदा रास्ते. आंगन एक से दो हुआ. दो चूल्हे बस धुँओं की राह मिलते. मिल जाते आसमान में जाकर और फिर बरसते बादल बन आँसूओं की धार की तरह और पौंछ जाते वो सब इबारते जिन्हें आज हाथ लिखने को राजी नहीं मगर अँगूठा कुरेदता है हर पोली और गीली मिट्टी को पा कर बेवजह. कहीं दिल की कोई टीस होगी जो पैर के अँगूठे के माध्यम से चीखती होगी और वो अनसुनी चीख मिल जाती होगी मिट्टी में बहते हुए बरसाती पानी के साथ.

दाग होते हैं दिल में गहरे गहरे जो किसी एक्स रे से नहीं दिखते. बस होते हैं अहसासों के मानिंद. अजब से दाग जिनका रंग नहीं होता बल्कि स्वाद होता है- कुछ मीठे तो कुछ खट्टे. महसूस करती है जुबान उस भीतर से उठते स्वाद को.

पत्नी आलू, मटर, पनीर की सब्जी बनाने की तैयारी करती. त्यौहार मनाने की खुशी और मैं उन उबले आलूओं में से एक उबला आलू किनारे रखवा देता हूँ. जाने क्यूँ आज पांच सितारा सब्जी के बदले उबले आलू फोड़ उसमें नमक और लाल मिर्च बुरक कर पराठें के साथ खाने का मन हो आया. छुटपन में जब नानी के घर जाते तो अम्मा रेल में पराठे और उबले आलू लेकर चलती. पैर का अँगूठा पोली मिट्टी तलाशता है डाईनिंग टेबल के नीचे सबकी नजर बचाता. वुडन फर्श है शायद कोई फांस गड़ गई है नाखून में. एक चीख सी उठने को है, दबा ली तो आँखें चुगली करने को तैयार. लाल मिर्च बुरकते आलू में सने हाथ से आँख पौंछ लेता हूँ.

दोष लाल मिर्च को मिला.

बच्चों की हँसी, पत्नी का आँख में फूँकना और...

फिर गीली पोली जमीन की अनवरत तलाश!

scraching

आज रात भर
बारिश होती रही.

उनकी
अलिखित इबारतें
पौंछने की फिराक..


और

पैर से लिखने की
ख्वाहिश लिये..


बिस्तर पर लेटा
नींद से
आँख मिचौली खेलता..
मैं.

-समीर लाल ’समीर’

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89 टिप्‍पणियां:

M VERMA ने कहा…

पैर से लिखने की ख्वाहिश है, उन इबारतों को, जिन्हें हाथ लिखने को तैयार नहीं.
'चलो अलिखित ही रहने दें फिर बारिश भला कैसे मिटा पायेगी इबारतों को और फिर लिखने की सम्भावना भी बरकरार रहेगी'
बेहतरीन भाव

अजय कुमार ने कहा…

दिल पर छपी इबारत ,कहां मिटती है भला ।

Bharat Bhushan ने कहा…

'....और वो अनसुनी चीख मिल जाती होगी मिट्टी में बहते हुए बरसाती पानी के साथ'.

यहाँ तक यह एक लंबी सुंदर कविता है. बहुत अच्छी लगी.

अभय तिवारी ने कहा…

क्या बात है समीर भाई! बहुत सुन्दर लिखा है!!

संजय भास्‍कर ने कहा…

आज रात भर
बारिश होती रही. उनकी
अलिखित इबारतें
पौंछने की फिराक..
और पैर से लिखने की
ख्वाहिश लिये..
बिस्तर पर लेटा
नींद से
आँख मिचौली खेलता..

सोचने वाली बात है
आलेख में यह कविता बिलकुल सोने पे सुहागा की तरह चमक रही है....!
भावुक कर दिया है आपने ...

संजय भास्‍कर ने कहा…

गुरुदेव,
गुरुदेव,
गुरुदेव,
गुरुदेव,
नमस्कार !
कमाल की लेखनी है आपकी लेखनी को नमन बधाई

राजभाषा हिंदी ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
नवरात्र के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!

साहित्यकार-6
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

बर्फ़ का नारंगी गोला पिघलता जा रहा है। लकड़ी को चूस रहे हैं।
समय सब कुछ पीछे छोड़ता जाता है और आगे बढ जाता है। हमें उसके साथ ही चलना चाहिए। लकड़ी को छोड़ कर।

मनोज कुमार ने कहा…

उत्सव के माहौल में यादों की इबारत ... अलिखित ही रहने दें ! ... बेहतरीन भाव!!

बहुत अच्छी प्रस्तुति।
या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
नवरात्र के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!

आंच-39 (समीक्षा) पर
श्रीमती ज्ञानवती सक्सेना ‘किरण’ की कविता
क्या जग का उद्धार न होगा!, मनोज कुमार, “मनोज” पर!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सुगढ़ और सजीव मानसिक गतिशीलता। पढ़कर चिन्तन में प्रवाह आ जाता है।

विष्णु बैरागी ने कहा…

मन का कोई कोना हमेशा सूना-सूना ही रहता है। शायद इसलिए कि हमारी यादें बंजारा न बनी रहें, बस जाऍं आकर इस कोने में।

बोलने से मना करती और अनुभव करने को मजबूर करती, 'हाण्‍ट' करती है आपकी यह पोस्‍ट।

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

हाँ होता है ऐसा भी कभी-कभी
कि हम मिटा देना चाहते हैं अपना अतीत भी
पर कहाँ
कहाँ मिटा पाते हैं अतीत कि परछाईयाँ भी
और वो परछाइयाँ भी
कभी -कभी किसी नश्तर से कम नहीं होती
बींध डालती हैं हमारा मर्म तक...

रूप ने कहा…

'दोष लाल मिर्च को मिला.

बच्चों की हँसी, पत्नी का आँख में फूँकना और...

फिर गीली पोली जमीन की अनवरत तलाश! '

अतुलनीय भाव हैं आपके, समीर जी. शायद ही महसूस कर सके ये जहाँ

कभी यहाँ भी पधारें roop62 .blogspot .com

Manish aka Manu Majaal ने कहा…

ये तो लगता है आपने पद्य तो गद्य कर दिया है ...! खासी अच्छी कविता बन गयी, गद्य शैली में !
फाजली साहब का कलाम याद आ गया :
छोटा कर के देखिये, जीवन का विस्तार,
आँखों भर आकाश है, भाहों भर संसार ...
लिखते रहिये ....

डॉ टी एस दराल ने कहा…

गीली पोली मिट्टी एक बार छूटी , तो फिर कहाँ मिल पाती है । बस रह जाते हैं कंक्रीट, मार्बल या लकड़ी के फर्श , जिनमे या तो रगड़ होती है या फांस ।
लगता है फिर पुरानी यादों ने आ घेरा है ।

Manoj K ने कहा…

बहुत ही बढ़िया पोस्ट. आखिर में कविता ठीक बैठती है और आपकी पोस्ट को नियत स्थान पहुंचा देती देती है.

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

सुंदर!!!

Ashok Pandey ने कहा…

सही बात है। ख्‍वाहिशों को भला कब किस बात की परवाह रही है। ..और जीवन तो वही जीते हैं जो ख्‍वाहिशों का सम्‍मान करते हैं, उन्‍हें जीवन की दिशा तय करने की आजादी देते हैं।

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) ने कहा…

'दोष लाल मिर्च को मिला.

बच्चों की हँसी, पत्नी का आँख में फूँकना और...

फिर गीली पोली जमीन की अनवरत तलाश! '

समीर जी ये भाव हर मर्म को छूता है जो इसके अनुभूति को समझते हैं.........होता है ऐसा जब हम अपने अतीत से ख़ुद को नहीं निकाल पाते और वो रह रह कर हमारे मर्म को चुभती रहती है..........

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

मन की माटी पर छपे भाव अमिट होते है....

स्वाति ने कहा…

bahut kuchh kahti hai apki post...
bahut badhiya....

रानीविशाल ने कहा…

पैर से लिखने की ख्वाहिश है, उन इबारतों को, जिन्हें हाथ लिखने को तैयार नहीं. ख्वाहिशों को कब परवाह रही है किसी भी बात की. न ही उन्हें स्थापित नियमों से कुछ लेना देना है. डोर से टूटी पतंग, उड़ चली जिस ओर हवा बही. कभी पूरब तो कभी पश्चिम. कभी उपर तो कभी नीचे. क्या रंग है, क्या रुप है- इससे बेखबर. बस, एक बेढब बहाव और अंत, वही किसी मिट्टी में मिल जाना
आज भी वही बात कहना चाहूंगी कि, आपका गद्य लेखन भी पद्य की ही तरह मृदु, मधुर और मनोरम लगता है .पुरानी स्मृतियों के पटल पर से मिट्टी हटाते हुए आपके मन ने आज फिर एक बेहतरीन रचना को जन्म दिया है ......आभार

गजेन्द्र सिंह ने कहा…

बढ़िया पोस्ट

कृपया इसे भी पढ़े :
http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/2010/10/91.html

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी पोस्ट और रचना सोचने को विवश करती है कि कसूर मिट्टी के गीलेपन का है या पाँव की हरकत का!
--
आलेख के साथ रचना बहुत ही सटीक है!

vandana gupta ने कहा…

आज तो ज़िन्दगी का दर्द उँडेल दिया है लेखनी मे……………मन के कोने मे दबा दर्द कैसे बाहर आता है ।

उस्ताद जी ने कहा…

6.5/10

बहुत भावपूर्ण लेखन

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

पैर से लिखने की...ख्वाहिश लिये..
बिस्तर पर लेटा...नींद से
आँख मिचौली खेलता..मैं.
आपकी लेखन प्रतिभा को सलाम.

kshama ने कहा…

Aapke lekhan pe comment karne se hamesha katrati hun...lagta hai,itne uchh stareey lekhan pe comment kin alfaaz me karun?

Khare A ने कहा…

sundar bhav diye hain aapne

badhai


लोग कहते हैं कि ये मेरा घर हे..

लोग कहते हैं कि ये मेरा घर हे
ये तो ईंट-गारे से चिना मकां भर हे

ढुंढता हूँ वो रिश्ते जो खो गए हें कही
कुछ इधर तो कुछ दीवारों के उधर हैं
...लोग कहते हैं कि ये मेरा घर हे..

naresh singh ने कहा…

कई बार सोचा कि मै क्यों आता हूँ आपके ब्लॉग पर टिप्पणी देने के लिये | क्या केवल पढ़ कर दिल से वाह वाह से काम नहीं चलेगा | फिर सोचता हूँ आजकल बनावट का ज़माना है जब तक दिखावा ना करे काम नहीं चलता वरना कंहा हम और कंहा आप का ये लेख |

naresh singh ने कहा…

आपको पता रहता है ,किस के दिल में क्या चल रहा है शायद दूसरों कि भावनाओं और विचारों को शब्दों कि शक्ल देना ही लेखन है |

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

आपकी संवदेनाएँ मन को सोचने के नए आयाम दे जाती हैं।
................
वर्धा सम्मेलन: कुछ खट्टा, कुछ मीठा।
….अब आप अल्पना जी से विज्ञान समाचार सुनिए।

shikha varshney ने कहा…

कुछ कहने की चाहत न कह पाने की कशमकश ..बहुत ही खूबसूरती से भावो को शब्द दिए हैं.और कविता तो माशाल्लाह.....

rashmi ravija ने कहा…

दिल नाजुक और हाथ सख्त. एक ही शरीर के हिस्से. व्यवहार इतना जुदा.

आज तो एकदम निशब्द कर दिया इस पोस्ट ने....गीली मिटटी सी ही गीली यादें समेटे हुए हैं..जो किसी भी सूखी आँख को गीली कर दे..

समय चक्र ने कहा…

बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति .... गुप्तेश्वर मंदिर जबलपुर में एक साधु थे जो पैर की अंगुली से कलम पकड़ कर लिखा करते थे इसकी जानकारी आपको होगी .... आपकी पोस्ट पढ़कर उन साधू महाराज की याद तरोताजा हो गई ... आभार

उपेन्द्र नाथ ने कहा…

बहुत ही सुंदर प्रस्तुति .....

Anand Rathore ने कहा…

जब पैरों तले जमीन थी..मुझे आस्मां की चाह थी...
अब आसमान में उड़ता हूँ , मुझे ज़मी की तलाश है...
अब ज़िन्दगी की शाम में ... सुबह के ख्वाब याद कर
बेचैन रात है मेरी जैसे दम तोडती लाश है.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

कई बार बस पढ़ते रहने का मान करता है समीर भाई ... बहुत दिल से .... कहीं कुछ पकड़ के लिखते हो ... छूटता नही है कोई आँगन ... कोई याद .... बस जाती है दिल के किसी कोने में ....

!!अक्षय-मन!! ने कहा…

hirdya sparsh karti khubsurat anubhuti ek sath ek acchi rahna

Arvind Mishra ने कहा…

गृह विरही की यादें -इन दिनों हुआ क्या है ?

कडुवासच ने कहा…

... बहुत सुन्दर ... बेहतरीन !

mridula pradhan ने कहा…

wah.behad sunder.

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

ये भी खूब रही ... कुछ अनछुए से पलों की सौंधी महक ... क्या बात है !

Abhishek Ojha ने कहा…

ओह !

रश्मि प्रभा... ने कहा…

kaafi badhiyaa

अमिताभ मीत ने कहा…

बहुत खूब गुरु देव !! हेवी ड्यूटी .... बहुत बढ़िया !!!

ZEAL ने कहा…

बिस्तर पर लेटा
नींद से
आँख मिचौली खेलता..
मैं. ..

Happens !

We all go through such phases. All we need is to cherish the beautiful moments of past and get along with present.

kewl post !

Regards,

.

कुमार राधारमण ने कहा…

स्मृतियां साये की तरह हैं। उनका सुखद एहसास जीवन को नई ऊर्जा देती है और कड़वी यादें असमय वृद्धत्व का कारण भी बन जाती हैं।

शिक्षामित्र ने कहा…

मुकम्मल जहां की तलाश में,आदमी बीते दिनों की सुखद यादों को सहेजना चाहता है। पर कड़वी यादें भुलाए नहीं भूलतीं।

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

कुछ कवियों की कविताएं पढ़ते समय ऐसा लगता है जैसे गद्य पढ़ रहे हैं, लेकिन आपने जो गद्य लिखा है उसे पढ़ते समय कविता का आनंद आया...कमाल है...बहुत ही भावपरक, गद्य भी और अंत की कविता भी।

वाणी गीत ने कहा…

बीते पल को तलाशती , आंसुओं में अनकही दास्ताँ ...

Smart Indian ने कहा…

खो जाय तो सोना है ...

Smart Indian ने कहा…

खो जाय तो सोना है ...

दीपक 'मशाल' ने कहा…

जाने क्या-क्या याद दिलाया.. क्या-क्या समझाया फिर से..
कविता है या जीवन दर्शन... है सोच में डुबवाया फिर से...

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

चलो ,अच्छा है दोष लाल मिर्च पर गया.वैसे वह स्वाद मिलना भी मुश्किल है अब !
कविता भी अलिखित को व्यक्त कर गई.

अनिल कान्त ने कहा…

आह ! और वाह !
दोनों....

Unknown ने कहा…

बहुत भावपूर्ण...
याद आ गया बीता हर पल.. बार-बार पढ़ने की इच्‍छा हो रही है..
इस भावपूर्ण लेखन के लिए आभार स्‍वीकार कीजिए..

Anu Singh Choudhary ने कहा…

पैर के अंगूठों का ही दोष होगा जो जहां-तहां गीली पोली मिट्टी खोजती फिरती हैं। ऐसी मिट्टी है कि ना खुशबू जाती है मन से ना गीलापन साथ छोड़ता है। और मिट्टी से यही नज़दीकी तो आपके लेखन को ख़ास बना देती है।

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा…

sundar lekh aur kavita umda..

pairo se mitti me likhne ki khwahis me bistar me aankh michoni.. khyaal bada ghumata hai... bahut sundar.. vaah

abhi ने कहा…

बस क्या कहूँ...कविता बेहद शानदार है :)

Unknown ने कहा…

जनाब आज पहले बार आपकी कविता से से शुरू कर रहा हूँ क्योंके मझे आज प्रोस और पोएट्री में कोई रेखा खिची नहीं दिख रही... बिस्तर पर लेटा
नींद से
आँख मिचौली खेलता..
मैं.
आप ने जनाब अपने नहीं आज के हालत का आईना पेश किया है और मेरे हिसाब से हमेशा की तरह एक मुस्सस्ल कविता के रूप में अपनी बात फरमाई जो आँखों को धुदलाती है ...
दोस्त अहबाब सभी तो थे /कहाँ गये ये अभी तो थे

KK Yadav ने कहा…

जाने क्यूँ आज पांच सितारा सब्जी के बदले उबले आलू फोड़ उसमें नमक और लाल मिर्च बुरक कर पराठें के साथ खाने का मन हो आया....कुछ यादें और बातें कभी पुरानी नहीं होतीं...रोचक पोस्ट..आभार.



________________
'शब्द-सृजन की ओर' पर आज निराला जी की पुण्यतिथि पर स्मरण.

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

`याद करो तो आज भी पैर का अंगूठा अनायास ही कालीन में जाने क्या कुरेदने लगता है. '

सावधान! द्रोणाचार्य देख रहे हैं :)

नीरज गोस्वामी ने कहा…

लाजवाब...प्रशंशा के लिए उपयुक्त कद्दावर शब्द कहीं से मिल गए तो दुबारा आता हूँ...अभी मेरी डिक्शनरी के सारे शब्द तो बौने लग रहे हैं...
वाह...

नीरज

दीपक बाबा ने कहा…

बिस्तर पर लेटा
नींद से
आँख मिचौली खेलता..
मैं.






बस .......
और सपने राह तकते रहे....
मिलन के लिए...

वीरेंद्र सिंह ने कहा…

Really very nice post.
Congrats.

Akshitaa (Pakhi) ने कहा…

अंकल जी, आप भी क्या खूब लिखते हैं...मानो बच्चे बन जाते हैं.
नवरात्र और दशहरा...धूमधाम वाले दिन आए...बधाई !!

Anita kumar ने कहा…

बहुत खूब लिखा है।

DR. SHIV SHANKAR MISHRA ने कहा…

Bahut din baad aaj blog par aayaa aur "gili poli zamin" padhakar ek achchhi kavitaa padhane ka sukh mila. koi bhi achchhi rachanaa padhane ke turant baad doosari padhane ka man nahin karataa.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

यादें ..... उफ्फ.....

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

यादें... उफ्फ..

राम त्यागी ने कहा…

दिल पर छपी इबारत तो अपने आप बयां हो जायेगी ..पैरों को भी क्यूँ परेशान करते हो !!

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

आजकल ये इस तरह की यादें क्यों आरही हैं? कुछ गडबड तो नही है ना?:)

दुर्गा अष्टमी एवम दशहरा पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं.

रामराम

मुन्नी बदनाम ने कहा…

आज रात भर
बारिश होती रही. उनकी
अलिखित इबारतें
पौंछने की फिराक..

fantastic Sameer darling

ASHOK BAJAJ ने कहा…

बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति .आभार
दशहरा पर्व पर क्या लिख रहें है ?

विजय तिवारी " किसलय " ने कहा…

समीर जी
भावनाओं की पराकाष्ठा और सरल लेखनी से अभिव्यक्त आलेख चिंतन शील बन पडा है.
बधाई.
- विजय तिवारी 'किसलय'
जबलपुर

sandhyagupta ने कहा…

दशहरा की ढेर सारी शुभकामनाएँ!!

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

चुपके से बहुत कुछ कह गयी ये अंगूठे से लिखी गयी इबारत. कुछ निशाँ छोड़ गयी और कुछ उस दर्द को भी महसूस करा गयी जो अंगूठे के नाखून में फास चुभने से मिल गया था...

संवेदनशील.

Madhu chaurasia, journalist ने कहा…

कम शब्दों में काफी कुछ कह दिया आपने अपने पोस्ट के जरिए..
विजयादशमी की शुभकामनाएं
और उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद सर

दिलीप कवठेकर ने कहा…

दाग होते हैं दिल में गहरे गहरे जो किसी एक्स रे से नहीं दिखते. बस होते हैं अहसासों के मानिंद. अजब से दाग जिनका रंग नहीं होता बल्कि स्वाद होता है- कुछ मीठे तो कुछ खट्टे. महसूस करती है जुबान उस भीतर से उठते स्वाद को.

बहुत ही खूब लिखा है.

विजय दशमी की शुभकामनायें....

Mansoor ali Hashmi ने कहा…

चचा ग़ालिब भी कभी इसी शशो-पंज में मुब्तला रहे थे:
"काविश का दिल करे है तकाज़ा कि है हनूज़ ,
नाख़ून पे क़र्ज़ उस गिरहे नीम बाज़ का.!!!!

Chinmayee ने कहा…

विजया दशमी की हार्दिक शुभकामनायें ....

_______________________
मेरा जन्मदिवस - २ (My Birthday II)

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

सुन्दर पोस्ट, शानदार कविता, हमेशा की तरह.
विजयादशमी की अनन्त शुभकामनायें.

Anand Rathore ने कहा…

विजय-दशमी पर्व की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं

sadar pranam

Asha Joglekar ने कहा…

अंगूठे से वैसे भी वो सब कहां लिखा जायेगा जो आप लिखना चाहते हैं । आप तो लालमिर्च के बहाने उसे याद कर लीजिये । दिल से निकला लेख और लेख से पिघलती कविता ।

बेनामी ने कहा…

bahut khoob sir...
maja aa gaya

Pradeep ने कहा…

'हाथ आज भी तैयार नहीं उस इबारत को लिखने के लिए जिसमें वो नाम जुड़े. वफाई बेवफाई का दिल आदी हुआ पर हाथ. वो मान में नहीं.....'

भावनाओं को बखूबी कागज़ पर उड़ेल दिया आपने.... ना हाथ से न पैर से सीधे मन से ....

Khushdeep Sehgal ने कहा…

गीली पोली मिट्टी को पैर के अंगूठे से कुरेदने पर उड़ने वाली सौंधी मिट्टी की खुशबू का अहसास शिद्दत के साथ आपको पढ़ने वाले हर शख्स को हो रहा है...इस अहसास को आपसे कोई नहीं छीन सकता...खुदा भी नहीं...

जय हिंद...

Asha Lata Saxena ने कहा…

अच्छी पोस्ट लिए बधाई |मेरे ब्लॉग पर आने और प्रोत्साहित करने के लिए आभार
आशा